गतांश से आगे...
सातवें अध्याय का दूसरा भाग....
सातवें अध्याय का दूसरा भाग....
पूजामण्डप-व्यवस्था—
यहां आगे कुछ चित्रों के माध्यम से कालसर्पपूजामंडल की व्यवस्था पर प्रकाश डाला जा रहा है । दिये गए चित्रांक एक के अनुसार पूजा-मंडप सजाना चाहिए । सभी वेदियों और देवों की स्थापना करने के लिए पन्द्रह फीट x पन्द्रह फीट का स्वच्छ स्थान होना आवश्यक है । स्थान कम हो तो आचार्य अपने विवेक से सभी वेदियों को व्यवस्थित करें । वेदियों के आकार पर विशेष कुछ नहीं कहा जा रहा है । बात बस इतनी ही है कि स्थान जितना पर्याप्त होगा, कार्य सम्पादन में उतनी ही सुविधा होगी ।
चित्रांक एक-
ऊपर दिए गए चित्र में एक वर्गाकार यज्ञमंडल देख रहे हैं ।
दिशा-स्पष्टी हेतु वायें-दायें ई. और अ. से संकेत किया गया है, यानी मंडल
पूर्वाभिमुख बनाना है । ईशान कोण पर रुद्रवेदी बनाना है, जिसका आकार कम से कम सवा
हाथ हो तो अच्छा है । रुद्रवेदी एकलिंगतोभद्र विधि से बनाना सर्वश्रेष्ठ है
। किन्तु इसे बनाने में आचार्च का अभ्यास और समय महत्त्वपूर्ण है । संक्षेप में
कार्य करना हो तो सामान्य अष्टदल कमल बनाकर या फिर स्वस्तिक बनाकर भी काम चल सकता
है ।
असल
महत्त्व है विधिवत पूजा सम्पन्न करने की । सही ढंग से मन्त्रोच्चारण होने की ।
जबकि आजकल ठीक इसके विपरीत स्थिति देखी जाती है । दिखावा और आडम्बर तो खूब हो जाता
है । यजमान का पैसा भी भरपूर खर्च हो जाता है । खूब जोर-जोर से चिल्लाकर
मन्त्रोच्चारण भी होता है, किन्तु वैदिक वा पौराणिक मन्त्रों का गलाघोट उच्चारण
होता है । अनुस्वारं देतं संस्कृतं होतं वाली कहावत की तरह समान्य शब्द को
भी खींच-तीर कर बोलना आजकल का चलन हो गया है । वैदिक उच्चारण के नाम पर
मन्त्रोच्चारण के साथ घोर अनर्थ हो रहा है । वैदिक मन्त्रों के लिए ध्वनि योजना भी
वैदिक होनी चाहिए, किन्तु यदि इसका ज्ञान और अभ्यास नहीं है तो कोई बात नहीं,
पौराणिक ध्वनि योजना से भी काम चलाया जा सकता है । ऐसे में उचित ये है कि सही ढंग
से पौराणिक विधि से ही सही शब्दों (ध्वनियों) की योजना की जाये । जहां तक हो
आडम्बर से बचने का प्रयास करना चाहिए । योग्य आचार्य का यही कर्तव्य है । आजकल
किसी भी कर्मकाण्ड की असफलता जो पायी जा रही है, उसके पीछे यही रहस्य छिपा है ।
संस्कारगत अन्यान्य कारण तो हैं ही । कर्ता की ज्ञान-हीनता और संस्कार-हीनता का
दुष्परिणाम शास्त्र को भुगतना पड़ रहा है । समाज में गलत संदेश जा रहा है । हमें इससे बचने का
पुरजोर प्रयास करना चाहिए।
चित्रांक २—
ऊपर चित्रांक २ में एकलिंगतोभद्र
वेदी को दर्शाया गया है । इसमें एक वर्ग में बारह x बारह कोष्ठक बने हुए हैं । कोष्ठकों में रंगयोजना ऐसी बनायी गयी है कि
मध्य में एक शिवलिंग की आकृति बन रही है । किसी भी वेदी के चित्रण में रंगयोजना का
काफी महत्व है । इसमें किसी तरह का फेर-बदल नहीं होना चाहिए । विपरीत रंग-समायोजन विपरीत परिणामदायक हो जा सकता है । अतः सावधानी
पूर्वक वेदियों में रंग भरना चाहिए । रंग भरने के लिए सुविधा जनक होता है— उन-उन रंगों में चावल को रंग कर भर देना या फिर सीधे विविध रंगों के प्रयोग से भी काम
किया जा सकता है ।
रुद्रवेदी के
पश्चात दायीं ओर एक और सवा हाथ वर्गाकार वेदी का निर्माण करें, जिस पर द्वादशादित्य
मंडल सहित नवग्रह मण्डल चित्रित करें । इसे
चित्रांक तीन और चार में स्पष्ट किया गया है ।
चित्रांक ३
चित्रांक ४
वायीं ओर के चित्र
में नवग्रह मंडल में सूर्यादि ग्रहों की विहित आकृतियां दर्शायी गयी हैं और दायीं
ओर के चित्र में सभी ग्रहों के अधिदेवता-प्रत्यधिदेवताओं को यथास्थान दिखलाया गया
है । इनका आवाहन-पूजन उन्हीं स्थानों में करना चाहिए । ध्यातव्य है कि ये दो चित्र
सुविधा के लिए दर्शाये गए हैं । एक ही नवग्रहवेदी पर पहले ग्रहाकृति बना ले, फिर
दायें-बायें अधिदेवता-प्रत्यधिदेवताओं को स्थापित करे ।
उसके बाद यानी
दायीं ओर, पहले दोनों वेदियों से किंचित बड़ा स्थान लेना चाहिए, ताकि मनसादेवी
सहित नवनाग मण्डल को स्थापित किया जा सके । इसके लिए आगे दो चित्र दिखाये गये हैं
। ऋषि-मतान्तर से दोनों वेदियां मान्य हैं । सुविधानुसार किसी का चुनाव कर सकते
हैं । हालाकि त्रिकोणमण्डल वाला स्थापन अधिक तन्त्र-सम्मत है । इसमें एक बड़े से
ऊर्ध्व त्रिकोण की रचना करनी है, जिसके शीर्ष कोण पर काल को स्थापित करे, यानी
वहां काल के निमित्त कलश रखे । त्रिकोण की आधार रेखा पर वायीं ओर राहु-कलश एवं
दायीं ओर सर्प-कलश की स्थापना करनी चाहिए । किसी-किसी पुस्तक में सर्प के स्थान पर
केतु शब्द भी मिल सकता है, किन्तु इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए ।
त्रिकोण के मध्य
में पुनः अष्टदल कमल बनाकर आठों दलों में क्रमशः शेषादि अष्टनागों के निमित्त
चित्रानुसार कलश-स्थापन करे और उन्हीं कलशों पर नाग-प्रतिमा स्थापित करे । मध्य की
कर्णिका पर अनन्तनाग को स्थापित करे, तथा उनके दोनों ओर अनन्त-शक्ति-स्वरुपा दो
अतिरिक्त नाग प्रतिमाओं को स्थापित-पूजित करे । त्रिकोण की उत्तरी भुजा पर मध्य
में यानी शेषकलश से ईशान की ओर एक छोटी सी वेदी बनाकर उस पर मनसादेवी (नागों की
बहन) को स्थापित-पूजित करे।
चित्रांक- ५
मतान्तर से एक और मंडल-व्यवस्था
की चर्चा मिलती है । इसे आगे चित्रांक ६ में दर्शाया गया है । यहां भी
नवनाग मण्डल को तो पूर्ववत ही मध्य वेदी पर स्थापित करने का संकेत है, किन्तु काल,
राहु और सर्प को दायीं ओर यानी सर्वतोभद्रवेदी के नीचे (पश्चिम) तीन छोटी-छोटी
वेदियों पर स्थापित करने का निर्देश है ।
ध्यातव्य है कि (चित्रांक
एक) वायें से चौथे या कि दायें से दूसरे स्थान पर सर्वतोभद्रवेदी या मात्र अष्टदलकमल
पर प्रधान कलश की स्थापना करके, गौरी-गणेश, तथा गणपत्यादि पंचलोकपालों को पूजित
करना चाहिए । इन्द्रादि दशदिकपालों को पूजामंडल की सीमावर्ती क्षेत्रों में ही
क्रमशः स्थान देना चाहिए । यथा— पूर्व में इन्द्र, अग्निकोण में अग्नि, दक्षिण में
यम, नैऋत्यकोण में नैऋति, पश्चिम में वरुण, वायुकोण में वायु, उत्तर में कुबेर और
ईशान में ईशानपति (शिव) । अस्तु।
पुनः यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि पहले
वाली संरचना ही अधिक तर्क-सम्मत और तन्त्र-सम्मत प्रतीत है, यानी कि पांच वेदियों
में मध्य वेदी पर ही त्रिकोणयन्त्र के अन्तर्गत कालादित्रय सहित नवनागों को स्थान देना चाहिए ।
चित्रांक ६—
इस चित्र में आप
देख रहे हैं कि सीमावर्ती क्षेत्र में क्रमशः तीन वर्ग दीख रहे हैं । इन वर्गों
में ईशानादि क्रम से विभिन्न दैवी विभूतियों और ऋषियों को अक्षत-पुष्प से आवाहित
करके, समय पर पूजा करेंगे । इनका आवाहन इस क्रम से होगा—
पूर्व की ओर प्रथम आवर्त में (ईशानादि क्रम से) - कौमारी, ऐन्द्री,
कौमारी ।
पूर्व की ओर द्वितीय आवर्त में (ईशानादि क्रम से) – भारद्वाज, विश्वामित्र,
कश्यप ।
पूर्व की ओर तृतीय आवर्त में (ईशानादि क्रम से) –त्रिशूल, वज्र, शक्ति ।
उत्तर की ओर प्रथम आवर्त में - माहेश्वरी, द्वितीय आवर्त में-
गौतम, तृतीय में गाधी ।
दक्षिण की ओर प्रथम आवर्त में ब्राह्मी, द्वितीय आवर्त में
जमदग्नि, तृतीय आवर्त में दण्ड ।
पश्चिम की ओर प्रथम आवर्त में (ईशानादि क्रम से) - वैष्णवी, चामुण्डा
और वाराही ।
पश्चिम की ओर द्वितीय आवर्त में (ईशानादि क्रम से) – अरुन्धती, अत्रि
और वशिष्ठ ।
पश्चिम की ओर तृतीय आवर्त में (ईशानादि क्रम से) – अंकुश, पाश
और खड्ग ।
इसके अतिरिक्त कुछ और भी विभूतियां हैं, जिनका
आवाहन-पूजन अत्यावश्यक है। यथा— कर्कोटकनाग कलश से दायें – पितरों के देवता- विश्वेदेवा
को स्थापित करे । शेषनाग के बगल में वायीं ओर दक्षप्रजापति को स्थान दें । कम्बलनाग
के वाम पार्श्व में सोम को एवं दक्षिण पार्श्व में शूल, महाकाल, नन्दी और स्कंद को
स्थापित करे । मध्य में अनन्तनाग से पूरब में मेरुपर्वत को, साथ ही उससे थोड़ा
नीचे ब्रह्मा को एवं पश्चिमी भाग में गंगा, पृथिवी और सप्त सागरों को आहूत करे ।
तक्षकनाग की वायीं ओर मृत्यु और रोग का आवाहन करे । पद्मनाग से वायीं ओर अष्टवसुओं
को एवं नीचे यानी पश्चिम की ओर गन्धर्व एवं अप्सराओं को आहूत करे । तथा शंखपाल नाग
से वायीं ओर सप्तयज्ञ को और नीचे की ओर भूतनाथ को आहूत करे ।
इस प्रकार मध्य का नवनाग मण्डल सभी विभूतियों
से परिपूर्ण हुआ । इस प्रकार के पूजा
मण्डल की स्थापना करके सम्यक् विधान से पूजा करने का अद्भुत फल मिलता है ।
आलस्य
या अज्ञान वश लोग इसमें लापरवाही कर देते हैं, जो बिलकुल ही शास्त्र विरुद्ध है।
ध्यातव्य
है कि नवनागमण्डल को चित्रांक पांच के अनुसार रखें या कि छः के अनुसार, ऊपर कहे गए
अन्यान्य विभूतियों को तो यथावत नागमंडल में सम्मिलित करना ही है । त्रिकोण में हों,अष्टदल
में हों या वर्ग में हों । चित्रांक पांच में भी स्पष्ट है कि त्रिकोण को एक वर्ग
से घेरा गया है । चित्रांक छः में एक के वजाय तीनों वर्गों को दिखला दिया गया है ।
इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए ।
अब आगे अग्निकोण स्थित पांचवी वेदी की चर्चा
करते हैं । निर्धारित पूजा मण्डल के सबसे वायीं ओर(अग्निकोण में) सवा हाथ की वेदी
पर वर्गाकार सोलह कोष्टक बनायें और उनमें चित्रांक सात में दिये गए क्रमांकानुसार
नामोच्चारण करते हुए गौर्यादि षोडश मात्रिकाओं को स्थापित पूजित करें ।
प्रसंगवश
एक बात और स्पष्ट कर दूं कि यहां षोडशमातृकावेदी पर क्रमांक एक में
गौरी-गणेश को स्थापित करना है । इन दोनों नामों को पुनः देख कर भ्रमित नहीं होना
चाहिए । ध्यातव्य है कि किसी भी देवकार्य में गौरी-गणेश-पूजन से ही पूजा प्रारम्भ
होती है । प्रधान कलश के समीप ही उन्हें स्थापित पूजित करते हैं । पुनः गणेश को
पंचलोकपालों में भी ग्रहण करते हुए पूजूते हैं । उसी प्रकार यहां इस षोडशमात्रिका
वेदी पर भी सर्वप्रथम इन्हीं गौरी-गणेश को पूजित कर रहे हैं । इन दोनों को यहां
एकत्र रुप से क्रमांक एक में ही रखेंगे, यानी कोष्ठक सोलह ही हैं, जबकि स्थापना
सत्रह की हो रही है । दूसरी बात ये कि मातृका शब्द से भी भ्रमित नहीं होना चाहिए कि मातृका समूह में गणेश कहां से आ गए ? वस्तुतः ये सब तन्त्र की गूढ़
बातें हैं, जिनपर प्रकाश डालना इस पुस्तक का उद्देश्य नहीं है । अतः कुछ आवश्यक
बातों का संकेत मात्र किये देता हूँ यदा-कदा ।
चित्रांक
७
पूजामण्डप-व्यवस्था क्रम में अब पुनः चित्रांक एक को देखें । ऊपरी पंक्ति की पांचों वेदियों का निर्माण कर लेने के बाद, अग्निकोण से यथासम्भव समीप (यानि कि अग्निक्षेत्र में ही) हवन वेदी बनायें । इसके लिए सुविधानुसार ईंट-बालू, सिर्फ बालू या स्थानाभाव वश मिट्टी की कड़ाही का प्रयोग किया जा सकता है । ध्यातव्य है कि आजकल घोर अज्ञानवश लोहे के बने-बनाये कुण्ड में हवन करने का फैशन चल पड़ा है । यह बहुत ही गलत है । औकाद हो तो पीतल या तांबे का कुण्ड प्रयोग किया जा सकता है । किन्तु लोहे का प्रयोग कदापि नहीं होना चाहिए । कुण्ड-निर्माण में लौहधातु का कहीं स्थान नहीं है । ईंट, मिट्टी, बालू इत्यादि सुलभ और शुद्ध पदार्थ हैं ।
चित्रांक ८
हवन
वेदी में तीन मेखलाओं का होना अनिवार्य है । इसे चौरेठ, हल्दी, रोली आदि से
चित्रित करें । मध्य में रोली से अधोत्रिकोण यन्त्र का निर्माण करके, उसके बीच में
अग्निबीज रँ को स्थापित करें । वेदी से थोड़ा हटकर उत्तर की ओर मिट्टी की दो
प्यालियां क्रमशः प्रोक्षणी-प्रणीता हेतु रखें । दायीं ओर यानी दक्षिण (अग्निकोण
में) अष्टदल वा स्वस्तिक चिह्न बनाकर उस पर ब्रह्मकलश की स्थापना करें । इस कलश का
आकार काफी बड़ा होना चाहिए, जिसमें पूजनकर्ता की मुट्ठी से दो सौ छप्पन मुट्टी (करीब
बारह किलो) चावल रखा जा सके । चावल भरकर ऊपर में ग्रन्थीयुक्त कुशा खोंस दें ।
ध्यातव्य है कि इस कलश पर ढक्कन नहीं चाहिए । वेदी न बनाकर, कड़ाही में ही
संक्षिप्त हवन कर रहे हों, तो भी कम से कम बीच में त्रिकोण यन्त्र और अग्निबीज की
रचना तो करनी ही चाहिए ।
पूजा मण्डप के नैऋत्यकोण में
तीर्थादिजलपूरित अमृतकलश की स्थापना करे, एवं उत्तर में अभिषेककलश को स्थापित करे ।
क्रिया समाप्ति के पश्चात् इसी कलश-जल से सविधि अभिषेक होना चाहिए, एवं तत्पश्चात्
अमृतकलश का जल प्राशन करना चाहिए ।
कर्मकाण्ड के सांगोपांग अनुपालन हेतु मुख्य आचार्य के अतिरिक्त जपकर्ता एवं
स्तोत्रपाठी ब्राह्मणों की भी आवश्यकता होती है । पूजा मंडल के चित्रांक एक में
इन्हें भी यथास्थान दिखलाया गया है । अस्तु ।
क्रमशः....
कालसर्पदोषशान्तिपूजापद्धति—
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