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मृत्यु-बोध हो जाए यदि !

  मृत्यु-बोध हो जाए यदि ! हम पल-पल मरते रहते हैं जीवनभर, क्योंकि मृत्यु-भय सदा सताते रहता है। वस्तुतः वह मृत्यु नहीं, प्रत्युत मृत्यु का भय मात्र होता है। जबकि मृत्यबोध तो विरले ही किसी को, बड़े सौभाग्य से लब्ध हो पाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं— मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यतताममि सिद्धानां, कश्चिन्मां   वेत्ति   तत्त्वतः।। (श्रीमद्भगवत्गीता ७ - ३ ) ( हजारों मनुष्यों में कोई एक ही कल्याण सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्न करने वाले हजारों में से कोई एक ही मुझे तत्त्व से यथार्थतः जान पाता है।) मृत्युबोध के साथ भी कुछ ऐसी ही बात है। मृत्युबोध भी हजारों-लाखों में किसी एक को होता है। जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी एक न एक दिन मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है— जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः.. ., किन्तु वह मृत्यु स-बोध नहीं होती। मृत्यु स-बोध हो जाए यदि, फिर क्या कहना ! सच तो ये है कि जीवन ही बोधयुक्त नहीं होता, फिर मृत्यु बोध-युक्त भला कैसे हो सकती है ! हम जन्म ‘ लेते ’ नहीं, प्रत्युत ‘ ले लेते ’ हैं। लेना और ले लेना में बहुत अन्तर है। और चुँकि जन्म ले लेते हैं, इस

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