आद्यशंकराचार्यकृत चर्पटपंजरिकास्तोत्र
पद्यानुवाद
(अनुवादक पिताश्री पं. श्री श्रीवल्लभ पाठकजी की
सन् १९४२ई. की दुर्लभ
रचना—श्रीगोपाल पुस्तकालय, मैनपुरा, अरवल, बिहार) के संग्रहालय से—संग्राहक कमलेश
पुण्यार्क)
दिन-रात और
सायं-प्रातः, शिशिर वसन्त पुनः है आता ।
काल खेलता
जाता जीवन, किन्तु न टूटता आशा वायु ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
मृत्यु
निकट आने पर तेरा रक्षक नहीं होगा यह कर्म ।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
अग्नि
सूर्य से तप दिन जाते, धुटने मोड़े रात बिताते ।
लिए भीखधन
वसे वृक्षतल,तदपि न टूटता आशा बन्धन ।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
जबतक कमा कमा
धन धरता, प्रेम कुटुम्ब तभी तक करता ।
फिर होता
तन-वदन जर्जर, कोई बात न पूछेगा घर ।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
जटा बढ़ाया
मुण्ड मुड़ाया,नोचे बाल वस्त्र रंगवाया ।
सबकुछ देख
न देख सका तन, करता शोक पेट के कारण ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
पढ़ी तनिक
सी भगवद्गीता, एक बून्द गंगाजल पीता ।
प्रेम सहित
हरि चर्चा करता, यम उसकी चर्चा से डरता ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
सारे अंग
शिथिल सिरमुण्डा, टूटे दाँत हुआ मुखतुण्डा ।
वृद्ध हुआ
तब दण्ड उठाया, तदपि न छूटा आशा पिण्डा ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
बालकपन हँस-खेल
गँवाया, यौवन तरूणी संग बिताया ।
वृद्ध हुए
तब चिन्ता घेरा, परब्रह्म में ध्यान न तेरा ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
फिर फिर
जनम-मरण है होता, मातृ उदर में फिर-फिर सोता ।।
दुस्तर
भारी संसृति सागर, तरो मुरारे पाहि कृपाकर ।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
रात्रि-दिवस
हैं फिर फिर आते, पक्ष-महीने आते-जाते ।
अयन-वर्ष
होते नित नूतन, तदपि न छुटता आशा अमरष ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
कामवेग
क्या आयु ढले पर, नीर सूखने पर क्या सरवर ।
क्या
परिवार द्रव्य खोने पर, क्या संसार ज्ञान होने पर ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
नारी
नाभि-कुच में रम जाना, मिथ्या माया-मोह लगाना ।
मैला-मांस
भरा हुआ घर, मन में बारंबार विचार अरे नर !
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
को मैं को
तूँ कौन कहाँ से आया, कौन पिता किसने उपजाया ।
बारंबार
विचार करो नर, तज दे जगत प्रपंच समझकर ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
गीताज्ञान
विचार निरन्तर, सहस्रनाम जप हरि में मन धर ।
सत संगति
में सतत ध्यान दे, दीनजनों को द्रव्य दान दे ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
जबतक रहता
प्राण देह में, कुशल पूछते तबतक गेह में ।
तन से
प्राण निकल जब जाते, पत्नी-पुत्र सभी भय खाते ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
भोगा भोग
सभी मैं सुखसे, फिर होता तन रोगी दुःख से।।
मरना
निश्चित यद्यपि जग में, तदपि न त्यजता पाप चलन को ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
चिथड़ों की
गुदड़ी बनवाली, पुण्य पाप से राह निराली ।
ना मैं ना
तूँ ना संसारा, फिर क्यों करता शोक पसारा ।।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
क्या
गंगासागर का जाना, दान-व्रत-जप नियम निभाना ।
ज्ञान बिना
नर पावे न मुक्ति, सौ-सौ जनम धरे कर युक्ति ।
गोविन्द
भजो गोविन्द भजो गोविन्द भजो रे मूरख मन !!
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इत्यलम् —
पिताश्री की एक और रचना--श्रीदामोदरस्तोत्र आप इस ब्लॉग पर बहुत पहले देख चुके हैं। फिलहाल उसे संगीतरूप में मेरे यूट्यूबचैनल @punyarkkriti पर सुन सकते हैं। इस चैनल पर अन्य रूचिकर विषय भी मिलेंगे आपको--ज्योतिष,वास्तु,तन्त्र,धर्म,अध्यात्म इत्यादि...
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