जेठुआ बैगन का चोखा

              जेठुआ बैगन का चोखा

जिन भाग्यहीनों को बैगन बिलकुल अच्छा नहीं लगता और बैगन में दुर्गुण ही दुर्गुण खोजने में व्यस्त और मस्त रहते हैं, उनकी बात यहाँ नहीं की जा रही है, बल्कि बात उनकी की जा रही है, जो बैगन के अनोखे स्वाद के दीवाने हैं। उनकी भोजन की थाली में और कुछ व्यंजन हो  न हो, बैगन जरुर होना चाहिए।

बैगन विरोधियों की जानकारी को अपडेट करते हुए उन्हें ये बतलाना चाहता हूँ कि अतिपुष्ट बीज वाले यानी जोआया हुआ बैगन जरा हानिकारक होता है, जबकि ताजा-मुलायम बैगन अति गुणकारी है—बृंजनं वात नाशाय...। आयुर्वेदज्ञों ने इसकी भूरीभूरी प्रशंसा की है। सच कहें तो कफ-पित्त-वात तीनों दोषों को शमित करता है बैगन । इतना ही नहीं, रक्तशर्करा को नियन्त्रित कर हृदय को पुष्ट करने में भी  बैगन सहायक है। खासकर बैगन का चोखा तेल-डालडा-रिफाइन के जहरीले दोषों का विनाशक भी है। गरिष्ट से गरिष्ट भोजन लेने के बाद भी यदि बैगन का चोखा भरपूर मात्र में खा लें, तो सब भस्म हो जाता है—जैसे हरिनाम से पाप भस्म हो जाते हैं।

हाइब्रीड सभ्यता में जन्मे शहरियों को, जिन्हें सालो भर सबकुछ मौसमी-बेमौसमी साग-सब्जियाँ मिलती रहती है, ये बतलाना भी बहुत जरुरी है कि अगहनुआ बैगन की तुलना में जेठुआ बैगन ज्यादा स्वादिष्ट और गुणकारी होता है।  सूरज की चिलचिलाती धूप के बीच, गीली धरती की सोंधी-सोंधी सुगन्ध से तृप्त कंटीले झाड़ीदार जेठुआ बैगन का पौधा बड़े शान से अपनी हर डाली पर सेर-सेर भर का बोझ थामे लहराता-इठलाता हुआ खेतों में नजर आता है, तो अच्छे-अच्छे रसना-संयमियों  की भी जीभ से लार टपकने लगती है—काश ! आज की थाली में जेठुआ बैगन का चोखा होता...।

नथेलबाबू भी ऐसे ही रसना-संयमियों में एक हैं। बड़े बाप के बिगड़ैल बेटे—करनी-धरनी राम भरोसे। सुरसा के मुँह की तरह फोंफड़ नाक के नीचे ठसकदार ऐंठी मूँछें और मुँह के भीतर-बाहर सदा बैखौफ कुलबुलाती-मचलती बदजात-बत्तमीज़ जुबान,जिसके दायरे से बाहर जाने की औकात माँ-बाप को भी नहीं है, ऐसे में भला गाँव वालों में किसे हिम्मत कि उनसे मुँह लगाये। और गाँव वालों की यही भलमनसी ही मनबढ़ू नथेलबाबू के लिए टॉनिक का काम कर जाता । मटर की छेमियाँ, चने की फलियाँ अभी तैयार हुई नहीं कि नथेलबाबू भोग लगाना शुरु कर देते। सेवान में दो-चार बीघे यूँ ही असमय उजड़ जाते। चने-मटर का होरहा और गेहूँ की ऊम्मी नथेलबाबू और उनके विगड़ैल मण्डली की भेंट चढ़ जाती। बहुत लोगों ने तो बरबादी के भय से चना-मटर उगाना भी छोड़ दिया। इन चंडालचौकड़ी के कारण सैकड़ों बीघे में उपजने वाला गन्ना तो वर्षों पहले ही उजड़ चुका है गाँव से। अब तो देवोत्थान एकादशी को तुलसीविवाह का मड़वा गाड़ने के लिए भी पड़ोसी गाँव से ऊख मांगना पड़ता है लोगों को।

इधर कुछ दिनों से नथेलबाबू एण्ड कम्पनी की बकदृष्टि सोढ़नदासजी की जेठुआ खेती पर है। बैगन और खीरा दोनों कमजोरियाँ हैं नथेलबाबू की। जेठ की तपती दोपहरी में गाँव की गलियाँ जब सुनसान हो जाती, तब नथेलबाबू अपनी कारगुजारी दिखाने पहुँच जाते सोढ़नदासजी की बारी में। भरपेट खीरा तो वहीं खेत में ही बकैंये चल-चलकर भकोस जाते और जब जी भर जाता तो बैगन पर हाथ साफ करते। फाँड़ा भर कर बैगन घर ले जाते चोखा बनाने के लिए।

उनकी हरकतों से तंग आकर सोढ़नदासजी ने एक उपाय निकाला। मिट्टी की गोलियाँ बनाकर, आग में पका लिया ताकि और पोख्ता हो जाए। सायकिल का फटा-पुराना ट्यूब काटकर बढ़ियाँ सा गुलेल बनाया और दोपहरी में चढ़ बैठे अपनी दूसरी बारी के सघन आम के पेड़ पर। इससे पहले ही सुबह-सुबह एक काम सोढ़नदासजी ने और किया—पके-पके खजुअत का रोंआँ ढेर सार इकट्ठा किया और बैगन के पौधों पर छिड़काव कर दिया। रोज के सधे अन्दाज में समय पर नथेलबाबू अपने दो-तीन लंगौटियों के साथ अलग-अलग कोनों से बैगन की बारी में घुसे और अपना काम साधने लगे। इधर आम की टहनियों पर पकी गोलियों वाले घातक गुलेल लिए सवार सोढ़नदासजी भी अपना निशाना साधने लगे। नथेलबाबू एण्ड कम्पनी को माज़रा समझ नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है—उनकी कपालक्रिया किसके द्वारा, किधर से, कैसे की जा रही है। सिर सम्भालने के चक्कर में पौधों पर विखरा खजुअत का खुजलीदार रोआँ पूरे शरीर पर फैल कर अपनी करामात भी दिखाने लगा था। सबके सिर लहुलुहान हो चुके थे। बदन भमोरते-भमोरते चक्कत्तेदार हो गए थे। अब एक ही उपाय था—तपती रेत पर लम्बी दौड़ लगाकर, सोनभद्र में डुबकी लगाना तो ज्यादा दुःखदायी है, अतः दौड़कर पास के गन्दे आहर के कीच-कादो में ही डुबकी लगायी जाय।

खजुअत की खुजली वाले चक्कत्ते और गुलेल की गोलियों की बौछार से बड़ी राहत मिली सोढ़नदासजी को। जेठुआ बैगन का स्वादिष्ट चोखा अब इनकी थाली की भी शोभा बढ़ाने । 

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