घातक
कर्मकाण्ड
पाणिनीयशिक्षा
का एक सूत्र है—
मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ।।
इस सम्बन्ध में इन्द्र द्वारा
त्वष्टापुत्र वृत्रासुर के वध की पौराणिक रोचक कथा द्रष्टव्य है। त्वष्टाने इन्द्र
का वध करने की कामना से पुत्रेष्टियज्ञ किया, जिसमें ऋषियों (ऋत्विजों, होताओं)
द्वारा ‘इन्द्रशत्रुं
विवर्धस्व...’ मन्त्र के उच्चारणभेद (त्रुटि) के कारण
परिणाम विपरीत हो गया—यज्ञफलप्राप्ति स्वरूप त्वष्टा को पुत्र तो हुआ, किन्तु उसके द्वारा
इन्द्र का वध नहीं हुआ, प्रत्युत इन्द्र ने ही उसका वध किया।
इसी कथाप्रसंग का उदाहरण देते हुए
महर्षि पाणिनी का संकेत है कि मन्त्रोच्चारण में स्वराघात का ध्यान रखना
अत्यावश्यक है।
ध्यातव्य है कि इन्द्रशत्रु शब्द का
सामासिक विग्रह दो प्रकार से होगा—षष्ठीतत्पुरुष और बहुव्रीहि। इन्द्रस्य
शत्रुः (इन्द्र का शत्रु) और इन्द्रः शत्रुर्यस्य (जिसका शत्रु इन्द्र
है)।
ऋषि इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहते
हैं कि सामासिक भेद के अनुसार उच्चारणभेद (स्वराघात) होना अपरिहार्य है, अन्यथा
परिणाम विपर्यय होगा। इन्द्रशत्रुं के उच्चारण में आद्योदात्त यानी
प्रथमाक्षर ‘इ’ पर स्वराघात होगा तो उसका सामासिक भावार्थ बहुव्रीहि वाला होगा
एवं अन्त्योदात्त यानी अन्तिम वर्ण ‘त्रु’
पर स्वराधात करने पर सामासिक भावार्थ षष्ठीतत्पुरुष वाला होगा।
ठीक ऐसीही स्थिति राम-रावण युद्ध
पूर्व इन्द्रजीत द्वारा अनुष्ठानित यज्ञ में भी हुआ था। विजय कामना से अपनी
कुलदेवी निकुम्बिला की आराधनाकाल में छद्मरूप में विप्रवेषी हनुमानजी ने
ऋत्विजों से स्वराघात प्रयोग-त्रुटि का वचन ले लिया था। परिणामतः रावणवध हुआ, राम
विजयी हुए।
व्याकरण के विद्वानों के बीच उक्त रोचक-ज्ञानवर्धक
पाणिनीसूत्र की चर्चा तो खूब होती है, किन्तु कर्मकाण्डियों का ध्यान विषय की
गम्भीरता पर शायद ही जा पाता है। उक्त दोनों पौराणिक प्रसंगों में विधि का विधान
(होनी) मान कर सन्तोष कर लिया जाय, तो कोई बात नहीं। क्योंकि ‘होनी’ की प्रबलता की स्वीकृति तो सारे प्रश्नों को निरस्त कर देती
है—‘होइहैं सोई जो राम
रचि राखा...।’ । किन्तु
सामान्य स्थिति में यत्किंचित् संशय भी अनेक प्रश्न खड़े कर देता है।
तर्कबुद्धि यहाँ भी कई सवाल पूछ सकता है।
अस्तु। यहाँ तार्किक बुद्धि प्रसूत
प्रश्नों की बात करना अभीष्ट नहीं है, बल्कि उद्देश्य है—व्यथा-अभिव्यक्ति—आधुनिक
पेशेवर कर्मकाण्डियों के प्रति चिन्तातुर संवेदना व्यक्त करना।
आम व्यक्ति ज्ञानमार्ग और योगमार्ग
की योग्यता नहीं रखता। यही कारण है कि मानवमात्र के कल्याण की भावना से (विचार से,
उद्देश्य से) भवसागर तरणार्थ तरणी या कहें सेतु की तरह कर्मकाण्ड की उपादेयता
सिद्ध है। जीवनयात्रा में कर्मकाण्ड की महत्ता, अनिवार्यता और औचित्य को स्मृति
पुराणादि में बार-बार ईंगित किया गया है। किन्तु दुःख और चिन्ता की बात है कि हम
इसे कुछ और ही समझ बैठे हैं। सेतु को ही पड़ाव बना लिए हैं।
कटु सत्य है कि साहित्य, व्याकरण,
निरुक्त, मीमांसादि के योग्य विद्वान व्यावहारिक कर्मकाण्ड से प्रायः दूर हैं। दूर
रहना उनकी विवशता भी है। क्योंकि व्यावहारिक (पेशेवर) कर्मकाण्ड में कर्मकाण्ड के
औचित्य और महत्व को बिलकुल विसार दिया गया है— मूल कर्म लुप्त हो गया है, काण्ड
सिर्फ शेष है। यजमान को जानकारी नहीं, आचार्य को ज्ञान नहीं। ज्ञानार्जन में
अभिरूचि भी नहीं है उन्हें, क्योंकि अर्थार्जन पर दृष्टि है सिर्फ। भगवान से अधिक
यजमान की प्रसन्नता पर केन्द्रित हैं वे। और यजमान भी साज-सज्जा-धूम-धड़ाका से ही खुश
है। इस प्रकार कर्मकाण्ड के विधि-विधान को नासमझी और मूर्खता पूर्वक ढोए जा रहे
हैं दोनों पक्ष—कोरम की तरह। कर्मकाण्ड में आडम्बर का वर्चश्व दिनोंदिन बढ़ता जा
रहा है। आडम्बरी आचार्य की ही समाज में अधिक पूछ हो रही है। हनुमानचालीसा का शुद्ध
उच्चारण नहीं कर सकने वाले भी वेषभूषा के आडम्बरी जाल में यजमान को लपेट कर, विद्वानों
की परीक्षा वाले श्रीमद्भागवतसप्ताहयज्ञ का भी अनुष्ठान करा देते हैं—नचनिया-बजनियाँ
के सहयोग से। दुर्गासप्तशती और रुद्राभिषेक तो चनाचूर की पोटली हो गया है। सृष्टि
का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार— विवाहयज्ञ नाच-कूद वाला समारोह बन कर रह गया है। गयाश्राद्ध
जैसा परमतारक-पुनीत कर्मकाण्ड भी मूर्खता और आडम्बर की भेंट चढ़ चुका है। गायत्री
और महामृत्युञ्जय जैसे अमोघ मन्त्रों की व्यावसायिक दुर्दशा भी सोचनीय है।
निष्काम भक्तिमार्ग भावनाप्रधान है। वहाँ ‘मरा’ भी ‘राम’ हो जा सकता है, किन्तु सकाम कर्ममार्ग तो कामनाप्रधान है न ! यहाँ ‘भार्या
रक्षतु भैरवी’ और ‘भार्या भक्षतु भैरवी’ का भेद तो तबाही लायेगा ही न ! श्रीदुर्गासप्तशती, रुद्राष्टाध्यायी,
गायत्री, महामृत्युञ्जय आदि में ज्ञातव्य-ध्यातव्य विशुद्ध स्वराघात
के अनेक स्थल हैं, जो व्यावसायिक आचार्यों की पकड़ से हरबार छिटक ही जाते हैं। ये
अतिशय चिन्ता का विषय है।
आए दिन तरह-तरह के यज्ञानुष्ठान पहले
की अपेक्षा अधिक हो रहे हैं। लगता है कि कलियुग को लोग खदेड़कर ही रहेंगे। किन्तु
स्थिति ये है कि कर्मकाण्ड की दुर्दशा पर त्रिदेव भी शरमा जाएँ। हर छन्द में ‘साममवेदीय पुट’ और वैशाखनन्दनी आलाप सुनकर
देवीसरस्वती का भी सिर चक्करा जाए।
अस्तु, कर्मकाण्ड की दुर्दशा पर चिन्ता
और चिन्तन दोनों आवश्यक है। किन्तु इसका निवारण बहुत आसान भी नहीं है। मानवता के शत्रु—धार्मिक उन्माद और आतंकवाद से
निपटना जितना कठिन है, उससे कम कठिन नहीं है धर्मधुरन्धरों से निपटना। विद्याव्यसनी,
शान्तिप्रिय विद्वानों की उदासीनता और मौन का राज़ भी यही है—‘ कर्मकाण्डीय आतंकवाद ’ की जड़ बहुत गहरा गई है।
हालाँकि मौन का दुष्परिणाम स्पष्ट है—
व्यथा और विकलता इसी बात की है—भीष्म-द्रोण भी तो लहुलुहान होंगे ही।
कदाचित, स्वार्थ में ही परमार्थ
सिद्ध हो जाय—कृपासिन्धु श्रीकृष्ण सदबुद्धि दें, मार्गदर्शन करायें—यही कामना है।
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