पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-17

गतांश से आगे...अध्याय ग्यारह- वास्तुभूमिचयन

(२) वर्ग विचार:-
    अकारादिषु वर्गेषु दिक्षु पूर्वादितः क्रमात्।       

   गृध्रमार्जारसिंहश्वसर्पाखुमृगशाशकाः।।
  
  दिग्वर्गाणामियं योनिः स्ववर्गात्पञ्चमो रिपुः।
   
  रिपुवर्गं परित्यज्य शेषवर्गाः शुभप्रदाः।। (पीयूषधारायाम्)
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 निम्नांकित चक्रानुसार ग्रामाक्षर और नामाक्षर का विचार करना चाहिए।।चक्र में ये दोनों पंचम हों तो त्याग,अन्य हों तो ग्रहण करना चाहिए।यथा- ‘अ ’ वर्ग पूर्व दिशा में बली है।जिसका स्वामी गरुड़ है।उससे पंचम -त- वर्ग की दिशा पश्चिम है,और स्वामी सर्प है,जो कि परस्पर वैरी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि –अ- नामधारी ग्राम/नगर के पश्चिम दिशा में, तथा -त- नामधारी ग्राम/नगर  की पूर्व दिशा में मकान बनाकर, बसने का प्रयास न करें।इस सम्बन्ध में वशिष्ट, नारद, कश्यपादि के मतानुसार इनका पालन अनिवार्य है।
  उक्त नियम का विचार और पालन भवन निर्माण हेतु भूमि क्रय के समय करना चाहिए।दूसरी बात यह कि स्थान और दिशा का विचार अपने मूल स्थान/ जन्म स्थान से करना चाहिए। तीसरी बात इस सम्बन्ध में ध्यातव्य यह है कि अपने नाम के अनुकूल शहर में  भी सारणी के अनुसार अनुकूल दिशा का ही चुनाव करना चाहिए। यथा- अनिल, आनन्द या उमाकान्त को तिलैया,धनबाद,थानेश्वर,दरभंगा, नैनीताल जैसे नगर में आवास नहीं बनाना चाहिए,एवं अल्मोड़ा,अमीनाबाद,अजमेर,उटारी, इलाहाबाद, इटावा, जैसे अनुकूल नगरों में भी पश्चिम दिशा में बसने से परहेज करना चाहिए।चौथी, और गौरतलब बात यह है कि किसी एक वर्ग के लिए सिर्फ एक यानी उससे पंचम ही बैरी है।शेष चार वर्ग ग्रहण योग्य हैं।यथा- -अ- वर्ग का बैरी सिर्फ -त- वर्ग ही है।शेष ग्राह्य हैं।दिशाओं और कोणों के निर्धारण के लिए नगर के नक्शे को अनुमानित रूप से नौ भागों में विभाजित कर ले।इस प्रकार चार दिशायें और चार कोण तथा केन्द्रीय भाग स्पष्ट हो जायेगा।ज्ञातव्य है कि केन्द्रीय भाग पर कोई वर्ग बली / शत्रु फल वाला नहीं होता।यानी इस पर सभी वर्गों का समानाधिकार है।
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क्रमशः...      

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