संसर्गजा दोष-गुणाः भवन्ति

                       संसर्गजा दोष-गुणाः भवन्ति

            त्रिगुणात्मिका सृष्टि में कर्मों के भी तीन विभाग हैं- संचित,प्रारब्ध और क्रियमाण । तत्काल यानी वर्तमान जन्म में हम जो कुछ भी कर रहे होते हैं, वो क्रियमाण कर्म कहलाता है । इसकी तीव्रता बड़ी अचूक है । यहां तक कि थोड़े समय के लिए अन्य दो विभागों को भी धक्के देकर पीछे धकेल देता है ।
 हालाकि इससे कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता कर्म सिद्धान्त पर, क्यों कि कृष्ण ने स्पष्ट कहा है- अवश्यमेव भोक्तव्यं कृते कर्म शुभाशुभे । अतः बुद्धिमान लोग इस पचरे में पड़ते ही नहीं और निष्काम भाव से कर्म करने का सदा प्रयास करते रहते हैं । क्यों कि सकामभाव से किया गया शुभ वा अशुभ कर्म जो भी हो, कर्ता को भोगना ही पड़ता है , परन्तु हां, ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणि...भस्मसात कुरुतेर्जुन आदि स्थिति बन जाये तो अति उत्तम । इसी में प्राणी का परम कल्याण है ।
            जन्म-जन्मान्तरों में मनुष्य सकामभाव से जो भी कर्म करता है वो उसके कर्म के लेखा-जोखा में संग्रहित होता रहता है । उसे ही संचितकर्म की संज्ञा दी गयी है । पुनः शरीर धारण करने पर, उसी संचित भाग में से कुछ अंश भोगने के लिए उस नये शरीर को प्राप्त हो जाता है, जिसे प्रारब्धकर्म की संज्ञा दी गयी है । ध्यातव्य है कि क्रियमाण की तीब्रता (प्रबलता) इस प्रारब्ध को ही थोड़े समय के लिए इधर-उधर(आगे-पीछे) कर सकता है, न कि संचित को । संचित तो संचित ही है। और समय पर वो प्रारब्ध बन कर पीछा करेगा ही, जिसे हँसकर या रोकर हमें भोगना ही है । अस्तु ।
           
यहां हम विचार कर रहे हैं कि क्या आसानी से, शीघ्र क्षय न होने वाले संचयकर्म का ये भारी भरकम पिटारा सिर्फ हमारे द्वारा किए गए कर्मों से ही भरा है या जाने-अनजाने किसी और भी प्रकार का मिश्रण हुआ है इसमें ?
शास्त्रों(विशेष कर विविध पुराणों) में इसकी विशद चर्चा है । और उसी चर्चा के परिणाम स्वरुप ये सिद्धान्त-वाक्य प्रचलित हुआ— 
संसर्गजा दोष-गुणाः भवन्ति

मनोविज्ञान या समाजशास्त्र जिसे परिवेश-प्रभाव,परिस्थिति जनित प्रभाव,आनुवंशिक प्रभाव आदि बातें कह कर समझाने का प्रयास करता है, धर्मशास्त्र सीधे कहता है कि हमारे क्रियाकलापों के बीच जो कुछ भी अच्छा या बुरा(करणीय वा अकरणीय), अकेले वा किसी के साथ में सम्पन्न होता है, उसका आंशिक प्रभाव हमपर भी अवश्य पड़ता है । परिवेश, परिस्थिति और आनुवंशिक- इन्हीं प्रभावों को संसर्गज दोष-गुण की संज्ञा दी गयी है । यानी संसर्ग से(साथ से)हम कमोवेश प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकते । विविध कर्मों का संसर्ग से संक्रमण अवश्य होता है ।
आधुनिक विज्ञान की भाषा में संसर्गज व्याधि(संक्रमित व्याधि)की बातें करते हैं, जो विशेषकर हमारे रोग-प्रतिरोधी-क्षमता के घटने पर हमें विशेष रुप से प्रभावित करता है,उसी तरह आसपास होरहे अन्य व्यक्तियों के क्रियाकलापों से भी हम प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते – यह बिलकुल सत्य है – समाजिक दृष्टि से भी और वैज्ञानिक दृष्टि से भी । हमारे ऋषि-महर्षियों को इसका सम्यक् ज्ञान था । यही कारण है कि असनं वसनं चैव दारापत्नीकमण्डलु... इत्यादि निर्देशों से हमें संयमित-सीमित रहने का उपदेश दिया है ।
आधुनिकता की अन्धदौड़ में हम ऐसी बातों को विसार चुके हैं । इसे अज्ञानतापूर्ण,असामाजिक और अमानुषी करार दिये बैठे हैं । होटली सभ्यता, टेन्टहाउसीय और बफेडीनरी व्यवस्था के जमाने में सार्वजनिक वरतनों में भोजन पकाना, खाना और सार्वजनिक विस्तरों पर सोना फैशन हो गया है । सार्वजनिक सवारियांरेल-वसों में यात्रायें करना तो बड़ी विवशता है । हालाकि पारिस्थितिक लाचारी भी है । फिर भी धर्म-विज्ञान न सही, सायन्स ही सही- उसी दृष्टि से विचार तो करना ही चाहिए कि हम कहां गिरे जा रहे हैं औंधेमुंह ! जिन चीजों से बचा जा सकता है,उससे तो बचना ही चाहिए ।

स्कन्दपुराण(वैष्णवखण्ड)में कार्तिकमहात्म्य के क्रम में श्रीकृष्ण-सत्यभामा संवाद आया है,जिसमें अवन्तिपुरवासी धनेश्वरविप्र के अप्रत्याशित उद्धार और सदगति का प्रसंग है, जिसे पूर्वकाल में देवर्षि नारद को ब्रह्माजी ने सुनाया था । कहते हैं कि पठन-पाठन(शिक्षण),संभाषण,भोजन,यज्ञ-यागादिकर्म  में सांसर्गिक प्रभाव से परस्पर (एक दूसरे के) पाप-पुण्यादि के चौथाई भाग का संक्रमण हो जाता है अनजाने में ही । इसी भांति एक आसन पर बैठने, सार्वजनिक सवारियों का उपयोग करने, शारीरिक स्पर्शादि से परस्पर पाप-पुण्यादि के षष्ठांश का संक्रमण अवश्य होता है । इतना ही नहीं दूर बैठ कर किसी व्यक्ति के गुण-दोषों की चर्चा वा चिन्तन करने मात्र से भी दसवें अंश का संक्रमण हो ही जाता है । परोक्ष रुप से निन्दा, चुगली आदि के प्रभाव स्वरुप भी अज्ञानता में हम अपना पुण्य-क्षय कर लेते हैं । जो मनुष्य किसी पुण्यकर्म करने वाले की सेवा करता है (यदि वह उसका निकट सम्बन्धी न हो) तो उसके पुण्य का यथासेवानुसार लाभ प्राप्त करता है । एक साथ कई व्यक्तियों को यदि कोई भोजन परोस रहा हो और उस समूह में किसी के साथ दुर्व्यवहार हो जाये (न्यूनाधिक परिवेसन दोष) तो परोसने वाले के पुण्य का यथादोषानुसार स्थानान्तरण हो जाता है । स्नान, संध्योपासनादि कर्म के समय स्पर्श या संभाषण भी पुण्य के षष्ठांश का स्थानान्तरण करा देता है । पुण्यकार्य के लिए यदि कोई दूसरे से धन की याचना करता है, तो धनदाता भी कर्ता की भांति ही पुण्यफलभागी होता है । ठीक इसके विपरीत चुराकर, छीनकर, जबरन मांग कर पुण्यकार्य में भी धन लगाया जाये यदि तो कर्ता को पाप ही लगता है और उसके असली पुण्य का भागी धनस्वामी ही हो जाता है । यदि कोई व्यक्ति ऋणग्रस्त ही शरीर त्याग दे, तो उसके पुण्य का यथोचित भाग धनस्वामी को समय पर अनजाने में ही प्राप्त हो जाता है और साथ ही ऋणी के पुण्य का भी स्थानान्तरण हो जाता है । किसी को सलाह देना, अनुमोदन करना, बल लगाना, साधनसामग्री उपलब्ध कराना आदि कार्यों में भी पुण्य-पाप का षष्ठांश स्थानान्तरण होता है । इसी भांति गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, पिता-पुत्रादि के विविध कर्मों का भी आंशिक (षष्ठांश) स्थानान्तरण होता है । परिवार के सदस्यों द्वारा किये गये कर्म का आंशिक प्रभाव सभी सदस्यों पर पड़ता है । किसी व्यक्ति को वृत्ति (रोजगार) देने से वृत्ति देने वाले यानी नियोक्ता को नियुक्त के पुण्य का षष्ठांश अवश्य प्राप्त होता है । किन्तु ध्यान रहे- नियुक्त  से बिलकुल व्यक्तिगत सेवा न ली जाये । या कहें जिस कार्य के लिए नियुक्त किया गया है, उससे भिन्न अवांछित कार्य न कराया जाये, तभी पुण्यलाभ मिलेगा, अन्यथा पाप का भागी होना पड़ेगा ।
सत्संग,संगति,संकीर्तन आदि की बातें जो हमारे यहां बड़ी गम्भीरता से की जाती है,उसके पीछे यही रहस्य है । तीर्थाटन आदि का भी यही उद्देश्य है । हम जहां जाते हैं,जिस व्यक्ति के समीप बैठते हैं,संभाषण करते हैं,श्रवण करते हैं... वहां की ऊर्जा का स्थानान्तरण हमारे भीतर अनजाने में ही होने लगता है । मन्दिरों या संतो के सेवन का यही रहस्य है । अतः कर्म करते समय यथासम्भव सावधान रहने की आवश्यकता है ।

इसी बात की ओर कृष्ण ने ध्यानाकर्षित किया है— योगः कर्मषु कौशलम् । अस्तु ।

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