पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-177

गतांश से आगे...
अध्याय ३०— भाग एक 
उदकार्गल(जल-परीक्षण और खोज)                                                  
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है-
उदकेन विना वृत्तिर्नास्ति  लोकद्वये सदा। तस्माज्जलाशयाः कार्याः पुरुषेण विपश्चिता।। अग्निष्टोमसमः कूपः सोऽश्वमेधसमो मरौ। कूपः प्रवृत्तपानीयः सर्वं हरति दुष्कृतम्।। कूपकृत्स्वर्गमासाद्य सर्वान्भोगानुपाश्नुते। तत्रापि भोगनैपुण्यं स्थानाभ्यासात्प्रकीर्तितम्।। यानी इहलोक और परलोक दोनों लोकों में जल के बिना निर्वाह नहीं हो सकता। इसलिए लोगों को जलाशय अवश्य बनवाना चाहिए। कूप यदि मरुभूमि में बनवाया जाय तो अश्वमेध यज्ञ का पुण्यलाभ होता है...इत्यादि।
      कूप,तड़ागादि विविध जलस्रोतों के विषय में इस पुस्तक के उन्नीसवें अध्याय में काफी कुछ कहा जा चुका है। सुस्वादु जल प्राप्ति हेतु विभिन्न प्रकार के ज्योतिषीय मार्गदर्शन-संकेत भी दिये गये हैं। फिर भी किंचित विशेष चर्चा हेतु इस उदकार्गल नामक अध्याय का समावेश किया जा रहा है। वस्तुतः,उदकार्गल आचार्य वराहमिहिर की वृहत्संहिता का चौवनवाँ अध्याय है,जिसमें जलप्राप्ति विषयक विशद दिशानिर्देश हैं। १२५ श्लोकों के मूलपाठ के साथ संक्षिप्त विमर्श, इसी प्रसंग में आगे प्रस्तुत किया जायेगा; किन्तु उससे पहले जलपरीक्षण सम्बन्धी कुछ तन्त्र-प्रयोगों की चर्चा की जा रही है,जो समयानुसार साधकों से प्राप्त हुआ है। समान्य वास्तुसाधक भी इन प्रयोगों का उपयोग करके अर्थ और यश की प्राप्ति कर सकते हैं।                     
(१)            सिद्धश्रृगालश्रृंगी-प्रयोग- जांगम द्रव्यों में श्रृगालश्रृंगी एक अद्भुत और अलभ्य पदार्थ है। सियार के सभी पर्यायवाची शब्दों- जम्बुक,गीदड़ आदि से जोड़कर इसके भी पर्याय प्रचलित हैं;किन्तु सियारसिंगी सर्वाधिक प्रचलित नाम है। आमलोग तो इसके होने पर ही संदेह व्यक्त करते हैं- कुत्ते-सियार के भी कहीं सींग होते हैं? किन्तु तन्त्र शास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी जानता है कि सियारसिंगी कितना महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक वस्तु है। शहरी सभ्यता और पश्चिमीकरण ने नयी पीढ़ी के लिए बहुत सी चीजें अलभ्य बना दी हैं।बहुत सी जानकारियां अब मात्र किताबों तक ही सिमट कर रह गयी हैं,अपना अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान अति संकीर्ण हो गया है।चांद और मंगल की बातें भले कर लें,जमीनी अनुभव के लिए भी "विकीपीडिया" तलाशना पड़ता है।

     सियारसिंगी सभी सियारों में नहीं होता। कुछ खास तरह के सियार के सिर पर (दोनों कानों के बीच) एक विशिष्ट जटा सी होती है,जिसे सियारसिंगी कहते हैं। गोल गांठ को ठीक से टटोलने पर उसमें एक छोटी कील जैसी नोक मिलेगी,जो असलियत की पहचान है। भेंड़-बकरे की नाभी भी कुछ-कुछ वैसी ही होती है,पर उसके अन्दर यह नोकदार भाग नहीं होता।जानकार शिकारी वैसे समय में घात लगाये बैठे रहते हैं- पास के झुरमुटों में कि कब वह मूर्छित हो(ज्ञातव्य है कि यह महन्थ सियार हुआ-हुआ करते हुए प्रायः मूर्छित होजाता है)जैसे ही मौका मिलता है,झटके से उसकी जटा उखाड़ लेते हैं।चारों ओर से रोयें से घिरा गहरे भूरे (कुछ छींटेदार) रंग का,करीब एक ईंच व्यास का गोल गांठ – देखने में बड़ा ही सुन्दर लगता है।एक सींग का वजन करीब पच्चीस से पचास ग्राम तक हो सकता है।तान्त्रिक सामग्री बेचने वाले मनमाने कीमत में इसे बेचते हैं।वैसे पांच सौ रुपये तक भी असली सियारसिंगी मिल जाय तो लेने में कोई हर्ज नहीं।ध्यातव्य है कि ठगी के बाजार में सौ-पचास रुपये में भी नकली सियारसिंगी काफी मात्रा में मिल जायेगा। रोयें,रेशे, वजन, सब कुछ बिलकुल असली जैसा होगा,असली वाला दुर्गन्ध भी होगा,सुगन्ध भी।वस्तुतः सियार की चमड़ी में लपेट कर सुलेसन से गांठदार बनाया हुआ, मिट्टी-पत्थर भरा होगा।कस्तूरी और सियारसिंगी के नाम से आसानी से बाजार में बिक जाता है।सच्चाई ये है कि कस्तूरी तो और भी दुर्लभ वस्तु है,जो मूलतः, मृग की नाभि से प्राप्त होता है।अतः धोखे से सावधान।   

इसे आगे के चित्र में दिखाया जा रहा है-



असली सियारसिगीं जब कभी भी प्राप्त हो जाय,उसे सुरक्षित रख दें,और शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा करें। वैसे अन्य नवरात्रों में भी साधा जा सकता है। गंगाजल से सामान्य शोधन करने के पश्चात् नवीन पीले वस्त्र का आसन देकर यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करें। तत्पश्चात् श्रीशिवपंचाक्षर एवं देवी नवार्ण मन्त्रों का कम से कम एक-एक हजार जप कर लें। इतने से ही आपका सियारसिंगी प्रयोग-योग्य हो गया। प्रयोग के नाम पर तो "बहुत और व्यापक" शब्द लगा हुआ है,किन्तु गिनने पर कुछ खास मिलता नहीं।बस एक ही मूल प्रयोग की पुनरावृत्ति होती है।सियारसिंगी बहुत ही शक्ति और प्रभाव वाली वस्तु है।पूजन-साधन के बाद इसे एक डिबिया में(चांदी की हो तो अति उत्तम) सुरक्षित रख देना चाहिये।रखने का तरीका है कि डिबिया में पीला कपड़ा बिछा दे।उसमें सिन्दूर भर दें,और साधित सियारसिंगी को स्थापित करके,पुनः ऊपर से सिन्दूर भर दें। नित्य पंचोपचार पूजन किया करें।पूजन में सिन्दूर अवश्य रहे।इस प्रकार सियारसिगीं सदा जागृत रहेगा।
   जहां भी रहेगा,वास्तुदोष, ग्रहदोष आदि को स्वयमेव नष्ट करता रहेगा। किसी प्रकार की विघ्न-वाधाओं से सदा रक्षा करता रहेगा। सियारसिंगी की उस डिबिया से निकाल कर थोड़ा सा सिन्दुर अपेक्षित व्यक्ति को अपेक्षित उद्देश्य(तन्त्र के षटकर्म) से दे दिया जाय तो अचूक निशाने की तरह कार्य सिद्ध करेगा- यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। प्रयोग करते समय चुटकी में उस खास सिन्दूर को लेकर बस पांच बार पूर्व साधित दोनों मंत्रों का मानसिक उच्चारण भर कर लेना है- प्रयोग के उद्देश्य और प्रयुक्त के नामोच्चारण के साथ-साथ। किन्तु ध्यान रहे- इस दुर्निवार वस्तु का दुरुपयोग बिना सोचे समझे(नादानी और स्वार्थवश) न कर दे,अन्यथा एक ओर तो कार्य-सिद्धि नहीं होगी,और दूसरी ओर वह साधित सियारसिंगी सदा के निर्बीज (शक्तिहीन)हो जायेगी।शक्तिहीनता का पहचान है कि उसमें से अजीब सा दुर्गन्ध निकलने लगेगा-सड़े मांस की तरह,जब कि पहले उस साधित सियारसिंगी में एक आकर्षक मदकारी-मोदकारी सुगन्ध निकला करता था- देवी-मन्दिरों के गर्भगृह जैसा सुगन्ध।अतः सावधान- स्वार्थ के वशीभूत न हों।
     प्रसंगवश यहां एक बात और स्पष्ट कर दूं कि सियारसिंगी की साधना में जो सिन्दूर प्रयोग किया जाय वह असली सिन्दूर ही हो,क्यों कि आजकल कृत्रिम पदार्थों से तरह-तरह के सस्ते और महंगे सिन्दूर बनने लगे हैं,जो शोभा की दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण हों,किन्तु पूजा-साधना में उनका कोई महत्व नहीं है।नकली सिन्दूर के प्रयोग से साधना निष्फल होगी- इसमें जरा भी संदेह नहीं।
    यहाँ जलपरीक्षण हेतु इसके प्रयोग की बात हो रही है। साधित सियारसिंगी को चित्रानुसार,अपनी हथेली पर रख कर,मुट्ठी बन्द करलें, और मानसिक रुप से पूर्व साधित वरुण मन्त्र और वास्तोष्पति मन्त्र का ग्यारह बार उच्चारण करें। इसके बाद सुविधानुसार,पूरब,ईशान वा उत्तर दिशा से भूखण्ड में प्रवेश करें,जहाँ जल परीक्षण करना हो।ध्यातव्य है कि भूखण्ड में प्रवेश से पहले ही जूते-चप्पल उतार कर,खाली पैर,और खुली हथेली ही प्रवेश करें।सियारसिंगी हथेली पर इस प्रकार रखे कि उसका शीर्षभाग ऊपर की ओर रहे।
    अब,उक्त मन्त्रों का मानसिक जप करते हुए धीरे-धीरे भूखण्ड पर भ्रमण करें,और ध्यान टिकाये रहें हथेली पर। भूमि के जिस भाग में पर्याप्त जल होगा वहाँ पर पहुँचते ही, हथेली में जलधारा सा कम्पन होगा,मानों हथेली पर पानी की धार छोड़ी गयी हो, तथा सिंगी की शिरा थोड़ा झुक जायेगा।ऐसा अनुभव होते ही,वहीं ठहर जायें और मुट्ठी बन्द कर,वरुणदेव को मानसिक प्रणाम करलें। बस,प्रयोग पूरा हो गया। आगे कूपादि खनन हेतु शुभ मुहूर्त (द्रष्टव्य-अध्याय१९) विचार करके,वरुणादि देवों का विधिवत पूजन करने के बाद ही कार्यारम्भ करें।

क्रमशः....

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