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विवाहसंस्कार(मुख्यकृत्य) प्रयोग
मुख्य वैवाहिक कृत्य के अन्तर्गत कई अवान्तर कृत्य हैं। इन्हें क्रमिक रूप से सम्पन्न करने हेतु आचार्यों ने कुछ सूत्र सुझाए हैं,जिन्हें यहाँ उद्धृत किया जा रहा है—
साधुविष्टरपाद्यञ्च पुनर्विष्टरमेव च।
अर्घ्यश्चाचमनीयश्च मधुपर्कस्ततः परम्।। अङ्गन्यासकरं चैव गौर्य्याग्निस्थापनं
तथा। सम्बन्धीपूजनं पूर्वं फलहस्तस्तत्तः परम्। कन्याआयनवस्त्रं च
परस्परनिरीक्षणम्। शङ्खपूजाविधिश्चैव गोत्रोच्चारणमङ्गलम्। कन्यादानंचार्पणं च
पाणिग्रहणदक्षिणा । ग्रन्थिबन्धनचोत्तरीये वरगोदानप्रार्थना। वरप्रतिज्ञा कोदाच्च
पाणिग्रहणकं घटः । परस्पर निरीक्षा च होमस्य उपकर्म च । प्रायश्चित्तः राष्ट्रभृत्यः
जयाऽऽभ्याताननामकः । आज्यहोमः लाजाहोम अङ्गुष्ठग्रहणं शिला। गाथा चाग्निभ्रमणं च
सप्तपदी कन्याशेकः। सूर्यध्रुवनिरीक्षा च हृदयस्पर्शसुमङ्गली । सिन्दूरशिरसिदानं च
होमसंस्रवत्र्यायुषम्। दक्षिणास्नेहपटमौलीवरकन्ययोर्ग्रन्थि-बन्धनम्।।
वामाङ्गेवधूप्रवेश अभिषेकस्तुभूयसी । आशीर्वाद प्रदानान्त्ये अक्षतास्तु
विनिःक्षिपेत् ।।
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0 ————
नोट—समय बचाने के लिए और अयोग्यता की
स्थिति में प्रायः आचार्य ही यजमान का प्रतिनिधित्व करते हुए सभी मन्त्रोच्चारण कर
देते हैं। किन्तु प्रयास ये हो कि किसी भी संस्कार क्रम में जिसका संस्कार हो रहा
है, उसे आचार्य के साथ धीरे-धीरे मन्त्रोच्चारण अवश्य करना चाहिए। इसी भाँति यहाँ
विवाहसंस्कारक्रम में कन्या का पिता भी अपने हिस्से का मन्त्र आचार्य के निर्देशन
में स्वयं उच्चारित करे। लापरवाही न करे। हालाँकि आचार्य को अधिकार है अयोग्य
यजमान का प्रतिनिधित्व करने का, किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि बीमार के बदले
चिकित्सक स्वयं ही दवा खाता रहे । अन्यान्य पूजा-पाठ में भले चल जाए, किन्तु किसी
भी संस्कारक्रम में ये लापरवाही नहीं होनी चाहिए।)
उक्त
विवाहसूत्रानुसार कन्या के पिता द्वारा वर को विवाह मंडप में
बुलाकर, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्कादि क्रम से पूजन करे यथास्थान निर्दिष्ट मन्त्रों से।
वर
अपने हाथ में चतुर्मुख प्रज्ज्वलित दीपक लेकर विवाह-मण्डप के समीप आए ( अभी भीतर
प्रवेश न करे)। कन्या का पिता वर के हाथ से दीपक लेकर मण्डप में यथास्थान रख दे और
वर को दधि-अक्षत का तिलक लगावे।
तदनन्तर
वर के जूते पर कन्या का पिता अक्षत छिड़के। आचार्य तदर्थ मन्त्रोच्चारण करें— ऊँ अथ वरमाह उपानहौ
उपमुञ्चतु अग्नौ हविर्देयो घृतकुम्भप्रवेशः । तत्र स्थितो वरहोम्यः
दूरेधताद्विसम्भ्रमः तस्माद् वरमाह उपानहौ उपमुञ्चते।। ऊँ अथ वाराह्याऽउपानहौ
उपमुञ्चते अग्नौ हविर्देया घृतकुम्भप्रवेशयाञ्च-क्रुस्ततो वराहः सम्बभूव
तस्माद्वाराहो गावः सञ्जानते ह्ययमेद्यैत-दंशमभिसञ्जाते स्वमे वैस्तत्पशूनामेहोतत्प्रतिष्ठन्ति
तस्माद् वराह्य उपानहौ उमुञ्चते।।
तदनन्तर
वर जूता उतार दे। कन्यापिता वर से निवेदन करे— ऊँ षडर्ध्या भवन्त्याचार्य
ऋत्विग् वैवाह्यो राजा प्रियः स्नातक इति प्रतिसंवत्सरानर्हयेयुर्यक्ष्यमाणास्त्वृत्विज
आसनमाहार्याह ।
तदनन्तर
कन्या-पिता जल लेकर विनियोग करे— ऊँ साधुभवानिति मन्त्रस्य प्रजापतिऋषिरनुपछन्दः
ब्रह्मादेवता वरार्चने विनियोगः।
विनियोग
जल गिरा कर,बोलो— ऊँ साधु भवानास्तामर्चयिष्यमो भवन्तम्।
वर कहे—अर्चय।
तदनन्तर
कन्या का पिता वर का हाथ पकड़कर आदरपूर्वक आसन पर बैठावे एवं स्वयं भी बैठकर, आचमन,
प्राणायाम करके, पुष्पाक्षतजलादि लेकर संकल्प करे— ऊँ अद्य...गोत्रः....शर्माऽहं...
गोत्रायाः....नाम्न्याः कन्यायाः भर्त्रा सह धर्मप्रजोत्पादनगृह्यपरि-ग्रहधर्माचरणेष्वधिकारसिद्धिद्वारा
श्रीपरमेश्वर-प्रीत्यर्थं ब्रह्मविवाह विधिना विवाहाख्यं संस्कारं करिष्ये, तत्र
कन्यादानप्रतिग्रहार्थं गृहागतं स्नातकवरं मधुपर्केणार्चयिष्ये।
(यहाँ
यथासम्भव सम्पूर्ण संकल्प बोलें। इसके लिए पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड का सहयोग लें।)
तदनन्तर
कन्या का पिता पचीस कुशा से बना हुआ आसन या
आम्रादि
पवित्र काष्ठ निर्मित पीठिका दाहिने हाथ में ले ले। आचार्य
मन्त्र
बोलें—ऊँ विष्टरो विष्टरो विष्टरः।
(गृह्यपरिशिष्ट
में विष्टर का लक्षण बतलाया गया है—पञ्चाशता भवेद् ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टरः।
ऊर्ध्वकेशो भवेत् ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः। दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु
विष्टरः। एवं पञ्चविंशतिदर्भाणां वेण्यग्रे
ग्रन्थिभूषिताः। विष्टरो सर्वयज्ञेषु
लक्षणं परिकीर्तितम्।। )
कन्या पिता बोलें— ऊँ विष्टरः
प्रतिगृह्यताम्।
तदनन्तर कन्या-पिता के हाथ से विष्टर उत्तराग्र
रूप से लेते हुए वर बोले— ऊँ विष्टरः प्रतिगृह्णामि। एवं ग्रहण करने
के बाद वर पुनः बोले—ऊँ वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः ।
इमन्तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति।। विष्टर को अपने आसन के ऊपर रख कर, उसी
पर बैठ जाए।
(यहाँ भाव ये है कि पूर्व प्रदत्त आसन के
ऊपर विष्टर रखा जाए न कि नीचे।)
अब कन्या का पिता एक पात्र में जल लेकर उसमें
धान का लावा, कुम्कुम,अक्षत, पुष्प, सर्वौषधि (अभाव में सिर्फ शतावरी) इत्यादि
डालकर हाथ में ले ले।
आचार्य बोले—ऊँ पाद्यं पाद्यं पाद्यम्
।
कन्या पिता बोलें— ऊँ पाद्यं
प्रतिगृह्यताम्।
वर बोले—
ऊँ पाद्यं प्रतिगृह्णामि और कन्या-पिता के हाथ से जलपात्र लेकर, किंचित् जल
अपनी अँजुली में लेकर, मन्त्र बोलते हुए अपने पैर पर छिड़क ले— ऊँ विराजो दोहोऽसि
विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः।
(विप्र का
पादप्रक्षालन पहले दायाँ होना चाहिए, अन्य वर्णों का पहले वायाँ)
पुनः
उक्त मन्त्रोच्चारण करते हुए कन्या का पिता भी वर का पादप्रक्षालन करे। पैर धोने
के बाद हाथ अवश्य धो ले।
अब कन्या-पिता वर को तिलक लगावे— ऊँ
युञ्जन्ति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुष । रोचन्ते रोचना दिवि। युञ्जन्त्यस्य
काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा घृष्णू नृवाहसा ।।
वर के सिर पर अक्षत छिड़के— ऊँ
अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा
न्विन्द्र ते हरी।।
वर को माल्यार्पण करे— ऊँ याऽऽआरहज्जमदग्निः
श्रद्धायै मेधायै कामायेन्द्रियाय । ताऽअहं प्रतिगृह्णामि यशसा च भगेन च ।। ऊँ
यद्यशोऽप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु। तेन सङ्ग्रथिताः सुमनस आबध्नामि यशो
मयि।।
तदनन्तर
पुनः पूर्ववत मन्त्रोच्चारण करते हुए विष्टरदान करे—
ऊँ विष्टरो विष्टरो विष्टरः।
कन्या पिता बोलें— ऊँ विष्टरः
प्रतिगृह्यताम्।
तदनन्तर कन्या-पिता के हाथ से विष्टर
उत्तराग्र रूप से लेते हुए वर बोले— ऊँ विष्टरः प्रतिगृह्णामि एवं ग्रहण
करने के बाद वर पुनः बोले— ऊँ वर्ष्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः । इमन्तमभि-तिष्ठामि
यो मा कश्चाभिदासति।। विष्टर को अपने आसन के ऊपर रख कर, उसी पर बैठ जाए।
(यहाँ भाव ये है कि पूर्व प्रदत्त आसन के
ऊपर विष्टर रखा जाए, न कि नीचे।) इस प्रकार दोनों पैरों के नीचे क्रमशः दो बार
प्राप्त विष्टर रख लिया गया।
अब
कन्या का पिता दूर्वा, अक्षत, पुष्प, चन्दनादि मिश्रित जल को अर्ध्यपात्र में ले
ले।
आचार्य बोलें— ऊँ अर्घोऽर्घोऽर्घः ।
पिता बोलें— ऊँ अर्घः प्रतिगृह्यताम्।
वर कहे— ऊँ अर्घं प्रतिगृह्णामि एवं
दाता के हाथ से अर्घपात्र ग्रहण करे इस मन्त्रोच्चारण सहित— ऊँ आपः स्थ युष्माभिः
सर्वान् कामानवाप्नवानि एवं सिर से लगाकर, उस जल को ईशानकोण में छोड़
दे इस मन्त्रोच्चारण के साथ— ऊँ समुद्रं वः प्रहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत्। अरिष्टास्माकं
वीरा मा परासेचि मत्पयः ।।
आचमनीय जल प्रदान (किसी अन्य व्यक्ति
द्वारा)
आचार्य बोलें— ऊँ आचमनीयम् ऊँ आचमनीयम्
ऊँ आचमनीयम्।
कन्या का पिता बोले— ऊँ आचमनीयं
प्रतिगृह्यताम्।
वर कहे— ऊँ आचमनीयं प्रतिगृह्णामि।
(दाता के हाथ से आचमनीय जल लेकर, इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए वर आचमन करे) (मन्त्र
एक बार बोलना है, किन्तु आचमन तीन बार करना है)— ऊँ आमागन्यशसा सꣳसृज
वर्चसा। तं मा कुरु प्रियं
प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टं तनूनाम्।
मधुपर्क— आचमन
के बाद कन्या का पिता पात्र में दही, शहद, घृत लेकर, दूसरे पात्र से ढककर, दोनों
हाथों से पकड़े। आचार्य मन्त्र बोलें— ऊँ मधुपर्को मधुपर्को मधुपर्कः।
पिता बोले—ऊँ मधुपर्कः प्रतिगृह्यताम्।
वर बोले—ऊँ मधुपर्कं प्रतिगृह्णामि।
(पुनः वर मधुपर्कपात्र का ढक्कन हटा कर देखते हुए बोले— ऊँ मित्रस्य त्वा
चक्षुषा प्रतीक्षे। तदनन्तर पात्र को ग्रहण करते हुए बोले— ऊँ देवस्य त्वा
सवितुः प्रसवेऽश्विवनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां मधुपर्कं प्रतिगृह्णामि।
पुनः अपने बायें हाथ में मधुपर्कपात्र को
लेकर, दाहिने हाथ की अनामिका की जड़ में अँगूठा लगाते हुए, अनामिका के अग्रभाग से मधुपर्क
को दक्षिणावर्त तीन बार आलोड़ित करे (हिलावे और चलावे) इस मन्त्र का उच्चारण करते
हुए—ऊँ नमः श्यावास्यायान्नशने यत्तऽआविद्धं तत्ते निष्कृन्तामि। तदनन्तर
उसी भाँति अनामिका अँगूठा लगे अनामिका से ही किंचित् ग्रहण कर तीन बार भूमि पर
छिड़क दे। तदनन्तर इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए तीन बार मधुपर्क का प्राशन करे (पीये)
— ऊँ यन्मधुनो मधव्यं परमꣳ रूपमन्नाद्यम् तेनाहं मधुनो मधव्येन परमेण रूपेणान्नद्येन परमो मधव्योऽन्नादोऽसानि।।
शेष मधुपर्क को पूर्व दिशा में निर्जन स्थान कहीं बाहर रखवा दे और आचमन करके
हाथ धो ले।
(मधुपर्क के विषय में कहा गया है—
सर्पिश्च पलमेकं तु द्विपलं मधु कीर्तितम्। पलमेकं दधि प्रोक्तं मधुपर्कविधौ
बुधैः।। एवं आज्यमेकपलं ग्राह्यं दधि त्रिपलमेव च । मधु त्वेकपलं ग्राह्यं
मधुपर्कः च उच्यते।। — इन दो सिद्धान्तों में दूसरा सिद्धान्त किंचित् असंगत है, क्योंकि
इसमें घी और मधु की मात्रा समान कही गयी है। आयुर्वेद के सिद्धान्त से मात्रा
हमेशा असमान ही होनी चाहिए। अतः मधुपर्क बनाने में घी और दही की मात्रा समान रखें
तथा मधु की मात्रा घी से दुगना। )
विविध न्यास—अब वर
अपने अंगो का स्पर्श करते हुए न्यास करे इन मन्त्रों से—
ऊँ वाङ्मऽआस्येऽस्तु— तर्जनी,
मध्यमा और अनामिका अंगुलियों के अग्रभाग से अपने मुख का स्पर्श करे।
ऊँ नसोर्मे प्राणोऽस्तु— तर्जनी
और अँगूठे से नाक का स्पर्श करे।
ऊँ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु—अनामिका
और अँगूठे से नेत्रों का स्पर्श करे।
ऊँ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु—
मध्यमा और अँगूठे से कानों का स्पर्श करे।
ऊँ बाह्वोर्मे बलमस्तु—
दाहिने हाथ की सभी अँगुलियों के अग्रभाग से दोनों बाहुओं का स्पर्श करे।
ऊँ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु—
दोनों हाथों से दोनों जंघाओं का स्पर्श करे।
ऊँ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह
सन्तु— दोनों हाथों से सिर से लेकर पैर पर्यन्त सभी अंगों का
स्पर्श करके आचमन करले।
गौस्तुति— इसे
लोकाचार में कनलगी कहते हैं। कन्या का पिता एक कुशा या दूर्वा अपने हाथ में लेकर ऊँ
गौर्गौर्गौः का उच्चारण करे। वर इस मन्त्र का उच्चारण करे— ऊँ माता
रुद्राणां दुहिता वसूनाꣳ स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय
मा गामनागामदितिं वधिष्ट ।। मम च....शर्मणो यजमानस्योभयोः पाप्मा हतः।। ( रिक्त
स्थान में कन्या के पिता का नाम वर बोले)
पुनः
किंचित् जोर से बोलते हुए ऊँ उत्सृजत तृणान्यत्तु कन्या के पिता के हाथ से
कुशा लेकर, तोड़कर ईशानकोण में फेंक दे।
गोदान—तदनन्तर
कन्या का पिता गोदान हेतु हाथ में जल, पुष्प, अक्षत, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे— ऊँ
अद्य....मधुपर्कोपयोगिनो गोरुस्सर्गकर्मणः साद्गुण्यार्थे गोनिष्क्रयीभूतमिदं द्रव्यं....गोत्राय
... शर्मणे वराय दातुमुत्सृज्ये। जलादि वर के हाथ में देदे।
वर उसे ग्रहण करते हुए ऊँ स्वस्ति
कहें।
अग्निस्थापन— तदनन्तर
विवाह मण्डप से बाहर अथवा मण्डप के भीतर ही ईशान कोण में सवा हाथ की चतुरस्र
(चौकोर) वालुका वेदी का निर्माण नापित या अन्य सहयोगी द्वारा किया जाए। वर हाथ में
जल, पुष्प, अक्षत, सुपारी, द्रव्यादि लेकर अग्निस्थापन हेतु संकल्प करे। आचार्य
संकल्प बोलें—ऊँ अद्य ...गोत्रोत्पन्न...शर्माऽहं धर्मार्थ काम सिद्धिद्वारा
श्रीपरमेश्वरप्रीतये ब्रह्मविवाहविधिना अस्मिन् विवाहकर्मणि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं
योजकनामाग्नि स्थापनं करिष्ये।
(ज्ञातव्य है कि अलग-अलग कार्यों में आहूत अग्नि का
नाम भिन्न-भिन्न होता है। विवाहयज्ञ में योजक नामक अग्नि को आहूत किया जाता है।)
वेदी का पञ्चभूसंस्कार—
वेदी का विधिवत संस्कार किया जाना चाहिए। (संस्कार की विस्तृत विधि पुस्तक के परिशिष्ट
खण्ड में देखें।) प्रशस्त वालुकावेदी को कुशा से परिसमूहन यानी परिमार्जन करे (झाड़े)।
झाड़ने के बाद उन कुशाओं को ईशानकोण में फेंक दे। गोबर को जल में घोलकर वेदी पर
छिड़काव करे। होमार्थ स्रुवा के मूलभाग से दक्षिण से उत्तर के क्रम से
प्रादेश-प्रमाण (वायें हाथ के अँगूठे से तर्जनी के नोक पर्यन्त भाग) तीन रेखाएँ
पश्चिम से पूरब की ओर खींचे। अर्थात् पहली रेखा वेदी के दक्षिणी भाग में, दूसरी
रेखा मध्य भाग से तीसरी रेखा उत्तरी भाग में खींचे। अब तीनों रेखाओं पर से
थोड़ी-थोड़ी विच्छिन्न वालुकाराशि को दक्षिण अनामिका और अंगुष्ठ के सहारे
उठा-उठाकर ईशान की ओर फेंक दे। तदनन्तर वेदी पर शुद्ध जल का छिड़काव करे। इस
प्रकार पंचभूसंस्कार करने के बाद, कांस्यपात्र में किसी सुहागिन द्वारा (बहन,फूआ
आदि) अग्नि मंगवाकर, उसमें से थोड़ा अंगार लेकर वेदी के नैर्ऋत्यकोण पर रख दे। पुनः
कुशा के सहारे उसे तिरछे वेदी पर गुजारते हुए, ईशान में ले जाकर गिरा दे। अब थाली को अपनी ओर रखते हुए, अग्नि को वेदी पर
स्थापित करे अग्रांकित मन्त्र के साथ। आचार्य मन्त्र बोलें—
ऊँ अग्नि दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुपब्रुवे
देवाँ२ आ सादयादिह।
तदनन्तर अग्नि वाली थाली में
अक्षत, पुष्प और कुछ द्रव्य डाल कर, जल गिरा दे तथा अग्नि को प्रज्ज्वलित होने का
प्रबन्ध कर दे हवनीय काष्ठ और गोबर के उपले डाल कर।
(ध्यातव्य
है कि वेदी का पंचभूसंस्कार सिर्फ हुआ है, कुशकण्डिका कार्य अभी शेष है, जिसे आगे
यथास्थान सम्पन्न करना है।
(उक्त सभी
कार्य वर स्वयं करे)
तदनन्तर वर जल, पुष्प, अक्षत, सुपारी, द्रव्यादि
लेकर पुनः संकल्प करे।
आचार्य मन्त्र बोलें— ऊँ
अद्येत्यादि...गोत्रोत्पन्न...शर्माऽहं अस्मिन् पुण्याहे धर्मार्थकामप्रजासन्तत्यर्थं
दारपरिग्रहणं करिष्ये।
अब वस्त्र-आभूषण अलंकृता कन्या को
विवाह-मण्डप में बुलाना है। (यहाँ लौकिक परम्परानुसार कार्य करना चाहिए। चुँकि
अभी माता-पिता को कन्यादान करना है । कन्यादान सर्वविध अलंकृता कन्या का किया जाता
है, अतः अभी पिता प्रदत्त वस्त्र एवं आभूषण में ही कन्या रहेगी। बाद में सिन्दूर
दान के समय पुनः वरपक्ष-प्रद्त्त वस्त्र को धारण करेगी। कहीं-कहीं इससे भिन्न
प्रथा भी है। तदनुसार कार्य करना चाहिए।
इसी समय
कन्यापक्ष द्वारा वर को नूतन वस्त्र प्रदान किया जाता है। मूल बात ये है कि
वर-कन्या दोनों को विपरीत गृह से प्राप्त यानी अपने-अपने ससुराल पक्ष से प्राप्त
वस्त्र में ही विवाहसंस्कार सम्पन्न करना है। किन्तु ध्यान रहे कन्यादान के बाद ही
कन्या का वस्त्र परिवर्तन हो, पहले नहीं।
मण्डप
में कन्या को आने के बाद कहीं पूर्वाभिमुख तो कहीं उत्तराभिमुख बैठाने की परम्परा
है। यहाँ भी अपनी लोकपरम्परा का पालन करना चाहिए
यहाँ
दोनों पक्षों के वस्त्रप्रदान विधि और संकल्प की चर्चा की जा रही है। यथासमय अपनी
परम्परानुसार कार्य करना चाहिए।)
कन्या पिता द्वारा वर को वस्त्र
प्रदान करने हेतु संकल्प— ऊँ अद्य ...गोत्र...शर्माऽहं मम सकलकामनासिद्धये
कन्यादान कर्मणः पूर्वाङ्गत्वेन एतद् वस्त्रचतुष्ट्यं ...गोत्राय... शर्मणे वराय
भवते सम्प्रददे। (वस्त्र ग्रहण करने के बाद वर बोले—स्वस्ति। )
पिता द्वारा कन्या पूजन—पिता
अपनी कन्या के सिर पर जल, अक्षत आदि
छिड़क कर सामान्य रीति से पूजन करे तथा वर
द्वारा वस्त्र स्पर्श करने वा प्रदान करने पर कन्या निम्न मन्त्र का उच्चारण करे—
(आचार्य बोलें)—ऊँ जरां गच्छ
परिधित्स्व वासो भवाऽकृष्टी-नामभिशस्तिपावा शतं च जीव शरदः सुवर्चां रयिं च
पुत्राननु संव्ययस्वाऽऽयुष्मतीदं परिधत्स्व वासः।। ऊँ या अकृन्तन्नवयं या अतन्वत।
याश्च देवीस्तन्तूनभितो ततन्थ । तास्त्वा देवीर्जरसे संव्ययस्वाऽऽयुष्मतीदं
परिधत्स्व वासः । (वस्तुतः ये कन्या द्वारा वस्त्र और उत्तरीय धारण का
मन्त्र है)
वर हेतु वस्त्र, उपवस्त्र धारण मन्त्र—(आचार्य
बोले)— ऊँ परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः
पुरूची रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये। ऊँ यशसा सा द्यावापृथिवी यशसेन्द्राबृहस्पती । यशो
भगश्च माऽविदद्यशो मा प्रतिपद्यताम्।।
तदनन्तर वर को यज्ञोपवीत धारण करायें—(विनियोग
एवं धारण मन्त्र)—ऊँ यज्ञोपवीतमितिमन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषिः त्रिष्टुप्छन्दो
लिङ्गोप्ता देवता यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः।
विनियोग जल गिरा कर, दोनों हाथों से
यज्ञोपवीत को फैला कर, धारण करे— ऊँ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं
पुरस्तात् आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
(अब यदि कन्या पहले से अपनी परम्परानुसार
उत्तराभिमुख बैठी हो तो, पूर्वाभिमुख हो जाए। यहाँ वर-कन्या परस्पर एक दूसरे का
निरीक्षण करें।)
सम्मुखीकरण एवं निरीक्षण—कन्या
को देखते हुए वर बोले—ऊँ समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा
सं धाता समुदेष्ट्री दधातु नौ।। (लोकपरम्परानुसार कहीं-कहीं परस्पर निरीक्षण
के वजाय वर कन्या के शिर पर तीन बार अक्षत रखकर आम्रपल्लव से गिराता है और आचार्य
उक्त मन्त्र का वाचन करते हैं।)
कन्या के माता-पिता का परस्पर
ग्रन्थिबन्धन— (कुलाचारानुसार अब यहाँ कन्या की
माता को भी उपस्थित होना चाहिए। आचार्य या कन्या की फूआ वगैरह कोई भी द्रव्य, अक्षत,
पुष्प, सुपारी आदि लेकर माता के आँचल में बाँध कर, पिता की चादर से ग्रन्थित कर दें।
ग्रन्थिबन्धन हेतु लोकपरम्परा है कि वरपक्ष द्वारा ही मौली आता है, उससे ही ग्रन्थिबन्धन
किया जाता है। चुँकि विवाहमण्डप में वरपक्ष के कुछ लोग भी प्रायः उपस्थित रहते हैं, अतः लोकलज्जावश
कन्या की माता मण्डप में नहीं आती। वो समीप ही कहीं छिपकर बैठी होती है। फलतः मौली
का एक छोर पिता की चादर से बाँधकर परम्परा का निर्वाह कर लिया जाता है। किन्तु
आजकल पर्दा-प्रथा बिलकुल समाप्त हो चुका है, अतः कन्या की माता की उपस्थिति
अपेक्षित है। )
आचार्य मन्त्रोच्चारण करें—ऊँ मङ्गलं भगवान विष्णुः मङ्गलं गरुडध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलायतनो हरिः।।
शंखपूजा एवं शाखोच्चार/गोत्रोच्चार— शंखपूजन का कार्य वर-कन्या दोनों
से कराना चाहिए। हथेली पर ऐपन (हल्दी मिला चावल के आटे का घोल) लगाकर, सिन्दूर
चित्रित करके, पुष्पाक्षत, सुपारी आदि देकर, शंख में जलभर कर शाखोच्चार की क्रिया
होती है। ये कार्य तीन बार किया जाता है। मूलतः तीनों बार के मन्त्र लगभग समान
हैं। शाखोच्चार से पूर्व शंख की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए— ऊँ शंखाय नमः, ऊँ
चक्राय नमः, ऊँ गरुडध्वजाय नमः, ऊँ त्वं
पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे। नमन्ति सर्वदेवाश्च पाञ्चजन्यं नमोऽस्तुते
। का वाचन करके, पंचोपचार पूजन करे।
पहले वर के हाथ में जलपूरित शंख
रखे। वर का पिता यदि उपस्थित हो तो वो भी अपना दाहिना हाथ शंख से संलग्न करे।
(किन्तु व्यवहारिक रूप से ऐसा नहीं होता। सिर्फ कन्या का पिता ही यह कार्य करता है)
यानी वर, कन्या एवं कन्या का पिता
तीनों का हाथ एक साथ शंख पर लगता है। वस्तुतः वर-कन्या की प्रशस्ति के साथ
मंगलकामना की विधि है ये, जिसमें दोनों के कुल-गोत्रादि का विस्तृत वर्णन किया
जाता है।
कुलाचारानुसार यदि वरपक्ष के
आचार्य भी उपस्थित हों तो वे भी अपने पक्ष का मन्त्रोच्चारण करें, न हों तो दोनों
पक्ष का प्रतिनिधित्व कन्या पक्ष के आचार्य ही करें। सर्वप्रथम किंचित् मंगलश्लोक
एवं वेदमन्त्रों का वाचन होता है, फिर मूल शाखोच्चार का क्रम है। ध्यातव्य है कि
यहाँ वर-कन्या के तीन पीढ़ियों (पिता, पितामह, प्रपितामह) का नामोच्चारण होना
आवश्यक है। ये क्रिया दोनों पक्षों से तीन-तीन बार करायी जाती है।
वस्तुतः गोत्रोच्चार (शाखोच्चार)
के तीनों बार के कथन-वाक्य में मौलिक भेद नहीं है। सारी बातें समान रूप से तीन बार
कही जाती हैं। अलग-अलग विवाह पद्धतियों में मांगलिकश्लोक भी निम्न कथन से भिन्न हो
सकते हैं। यहाँ मुख्य उद्देश्य है अपने
नाम, गोत्र, वेद, शाखा, सूत्र, प्रवर आदि का स्मरण पूर्वक कार्य करना।
वरपक्षीय प्रथम शाखोच्चार—
पठनीय वेदमन्त्र— ॐ गणानान्त्वा गणपतिᳫहवामहे प्रियाणान्त्वा
प्रियपतिहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिᳫहवामहे व्यसो मम।
आहमाजानि गर्ब्भधमात्वमजासि गर्ब्भधम् ।।
मंगलश्लोक
वाचन— गौरीनन्दनगौरवर्णवदनः श्रृङ्गारलम्बोदरः । सिन्दूरार्चितदिग्गजेन्द्रवदनः
पादौ रणन्नूपुरौ । कर्णौ लम्बविलम्बिगण्डविलसत्कण्ठे च मुक्तावली ,
श्रीविघ्नेश्वरविघ्नभ-ञ्जनकरो देयात्सदा मङ्गलम्।।
गोत्रोच्चार—
अस्यां रात्रौ अस्मिन् मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे
स्वस्तिश्री-मद्विविधविद्याविचारचातुरीविनिर्जितसकलवादिवृन्दोपरिविराज-मानपदपदार्थसाहित्यरचनामृतायमानकाव्यकौतुकचमत्कारपरि-णतनिसर्गसुन्दरसहजानुभावगुणनिकरगुम्फितयशः
सुरभीकृत मङ्गल मण्डपस्य स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयि-माध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य... शर्मणस्य...प्रपौत्र...स्वस्तिश्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसने-यिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुःकात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य..शर्मणस्य... पौत्रः...शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीय
शाखाध्येतुः कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य ... पुत्रः
प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोमङ्गलमास्ताम्
भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च सावित्री भूयात्।।
कन्यापक्षीय प्रथम शाखोच्चार—
पठनीय वेदमन्त्र— ऊँ पुनस्त्वाऽऽदित्या
रुद्रा वसवः समिन्धतां पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः
सन्तु यजमानस्य कामाः।।
मंगलश्लोक वाचन—ईशानो गिरिशो मृडः
पशुपति शूली शिवः शङ्करो भूतेशः प्रमथाधिपः स्मरहरो मृत्युञ्जयो धूर्जटिः।
श्रीकण्ठो वृषभध्वजो हरभवो गङ्गाधरस्त्र्यम्बकः श्रीरुद्रः सुरवृन्दवन्दितपदः
कुर्यात् सदा मङ्गलम्।।
गोत्रोच्चार— अस्यां रात्रौ अस्मिन्
मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्ति श्रीमद्विविधविद्यालङ्कारशरद्विमलरोहिणीरमणीयोदारसुन्दरदामो-दरमकरन्दवृन्दशेखरप्रचण्डखण्डमण्डलपूर्णपुरीन्दुनन्दनचरण-भक्तितदुपरि
महानुभावसकलविद्याविनीतनिजकुलकमलकलिका-प्रकाशनैकभास्करसदाचारसच्चरित्रसत्कुलसत्प्रतिष्ठाश्रेष्ठविशिष्टवरिष्ठस्य
स्वस्तिश्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयि माध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य...प्रपौत्री... स्वस्तिश्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुःकात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य....शर्मणस्य...पौत्री...शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीय
शाखाध्येतुः कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य... शर्मणस्य ... पुत्रीयम्
प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये, स्वस्ति संवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोर्मङ्गलमास्ताम्,
वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च सावित्री भूयात्।।
वरपक्षीय द्वितीय शाखोच्चार—
पठनीय वेदमन्त्र—यथेमां वाचं
कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्म-राजन्याभ्याᳪशूद्राय
चार्याय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणयै दातुरिह भूयासमयं मे कामः
समूध्यतामुप मादो मनतु।।
मंगलश्लोकवाचन— कौपीनं परिधाय
पन्नगपतेः गौरीपतिः श्रीपतेरभ्यर्णं समुपागते कमलया सार्धं स्थितमस्यासने। आयाते
गरुडेऽथ पन्नगपतौ त्रासाद्वहिर्निर्गते शम्भुं वीक्ष्य दिगम्बरं जलभुवः स्मेरं
शिवं पातु वः।
गोत्रोच्चार— अस्यां रात्रौ अस्मिन्
मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्ति श्रीमन्नन्दनचरणकमलभक्तिविद्याविनीतनिजकुलकमलकलिका
प्रकाशनैकभास्करसदाचारसच्चरितसत्कुलसत्प्रतिष्ठागरिष्ठस्य
स्वस्ति श्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीय शाखाध्येतुः कात्यायन सूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...
शर्मणस्य... प्रपौत्रः...स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुःकात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य..शर्मणस्य....पौत्रः...शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य... शर्मणस्य...पुत्रः प्रयतपाणि शरणं
प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोमङ्गलमास्ताम् भूयास्ताम्,
वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च सावित्री भूयात्।।
कन्यापक्षीय द्वितीय शाखोच्चार—
पठनीय वेदमन्त्र—आयुष्यं वर्चस्यᳪ
रायस्पोषमौद्भिदम्। इदᳪ
हिरण्यं वर्चस्वञ्जैत्रायाविशतादु माम्।।
मंगलश्लोक वाचन— कौसल्याविशदालवालजनितः
सीतालता-लिङ्गितः सिक्तः पंक्तिरथेन सोदरमहाशाखादिभिर्वर्धितः।
रक्षस्तीव्रनिदाघपाटनपटुश्छायाश्रितानन्दकृद् युष्माकं स विभूतयेऽस्तु भगवान्
श्रीरामकल्पद्रुमः।।
गोत्रोच्चार— अस्यां रात्रौ अस्मिन्
मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्ति श्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य...प्रपौत्री...स्वस्तिश्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य..शर्मणस्य...पौत्री...शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य-...गोत्रस्य... प्रवरस्य... शर्मणस्य...पुत्री प्रयतपाणिः शरणं
प्रपद्ये, स्वस्ति संवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोर्मङ्गलमास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी
भवतात् कन्या च सावित्री भूयात्।।
वरपक्षीय तृतीय शाखोच्चार—
पठनीय वेदमन्त्र—यज्जाग्रतो दूरमुदैति
दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।
मंगलश्लोक वाचन— देवक्यां यस्य
सूतिस्त्रिजगति विदिता रुक्मिणी धर्मपत्नी पुत्राः प्रद्युम्नमुख्याः सुरनरजयिनो
वाहनः पक्षिराजः। वृन्दारण्यं विहारो व्रजपुरवनिता वल्लभा राधिकाद्या-श्चक्रं
विख्यातमस्त्रं स जयति जगतां स्वस्तये नन्दसूनुः।।
गोत्रोच्चार— अस्यां रात्रौ अस्मिन्
मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्ति श्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य...प्रपौत्रः...स्वस्ति श्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य..शर्मणस्य.....पौत्रः...शुक्ल-
यजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः कात्यायन-सूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य...पुत्रः
प्रयतपाणि शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोमङ्गलमास्ताम् भूयास्ताम्,
वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च सावित्री भूयात्।।
कन्यापक्षीय तृतीय शाखोच्चार—
पठनीय वेदमन्त्र—ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं
पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्य उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च
वि वः।।
मंगलश्लोक वाचन— अँगुल्या कः कपाटं
प्रहरति कुटिले माधवः किं वसन्तो नो चक्री किं कुलालो नहि धरणिधरः किं द्विजिह्वः
फणीन्द्रः। नाहं घोराहिमर्दीकिमुत खगपतिर्नो हरिः किं कपन्द्रः चैत्थं राधावचोभिः
प्रहसितवदनः पातु वश्चक्रपाणिः।।
गोत्रोच्चार— अस्यां रात्रौ अस्मिन्
मङ्गलमण्डपाभ्यन्तरे स्वस्ति श्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः
कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य...प्रपौत्री...स्वस्ति श्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः कात्यायनसूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य..शर्मणस्य.....पौत्री...शुक्ल
यजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्येतुः कात्यायन सूत्रस्य...गोत्रस्य...प्रवरस्य...शर्मणस्य...पुत्री
प्रयतपाणि शरणं प्रपद्ये, स्वस्तिसंवादेषूभयोर्वृद्धिः वरकन्ययोमङ्गलमास्ताम्
भूयास्ताम्, वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च सावित्री भूयात्।।
कन्यादान
की क्रिया— गोत्रोच्चार
(शाखोच्चार) के पश्चात् कन्या का पिता सपत्निक ग्रन्थिबन्धनयुक्त स्थिति में पुष्पाक्षतादि
लेकर पहले वर की प्रार्थना करे, तत्पश्चात् पुनः जल, पुष्पाक्षत लेकर प्रतिज्ञा संकल्प
करे। तदनन्तर कन्या का स्पर्श करते हुए कन्या की प्रार्थना करे, तत्पश्चात्
कन्यादान हेतु विशेष संकल्प करे। सामान्य रूप से किसी कार्य हेतु जो संकल्प किए
जाते हैं, उसकी अपेक्षा कन्यादान हेतु किया जाने वाला संकल्प विस्तृत होता है। मूल
बात ये है कि जो कार्य जितना महान होगा, उसके लिए देश-काल-बोध भी उतना ही
गहन होना चाहिए। चुँकि कन्यादान सनातन परम्परा में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया
है, यानी इससे श्रेष्ठ कोई अन्य यज्ञकार्य हो ही नहीं सकता, इस कारण इसमें किए
जाने वाले संकल्प को महासंकल्प की संज्ञा देते हैं।
आधुनिक अविवेकी लोग कन्यादान को एक
अमानवीय परम्परा कहकर आलोचना करते हैं, वैसे अविवेकियों और मूढ़ों के लिए कहना ही
क्या, जिसे किसी शब्द विशेष का एक ही अर्थ विशेष ज्ञात हो।
वर
की प्रार्थना—दाताऽहं वरुणो राजा द्रव्यमादित्यदैवतम्।
वरोऽसौ विष्णुरूपेण
प्रतिगृह्णातवयं विधिः।।
प्रतिज्ञासंकल्प—
ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य
ब्रह्मणोऽह्निद्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराह कल्पे वैवश्वतमन्वन्तरे
अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे
आर्यावर्तैकदेशे...नगरे/ग्रामे/ क्षेत्रे/ (यदि काशी
हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकण्टकविराजिते भगवत्या
उत्तरवाहिन्या भागिरथ्या वामभागे)...वैक्रमाब्दे...सम्वत्सरे श्रीसूर्य...अयने.. ऋतौ...मासे...
पक्षे...तिथौ...वासरे...नक्षत्रे...राशिस्थिते सूर्ये...राशिस्थिते चन्द्रे... राशिस्थिते
देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथं राशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगणगुणविशेषणविशिष्टायां
शुभपुण्यतिथौ...गोत्रः...शर्मा सपत्नीकोऽहं मम समस्तपितृणां
निरतिशयानन्दब्रह्मलोकापत्यादिकन्यादानकल्पोक्त-फलप्राप्तये अनेन वरेण अस्यां
कन्यायाम् उत्पादयिष्यमाणसन्तत्य दशपूर्वान् दशापरान् पुरुषानात्मानं च
पवित्रीकर्तुं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतये ब्राह्मविवाहविधिना कन्यादानं करिष्ये।
हाथ
का संकल्प जलादि छोड़ दे और कन्या का स्पर्श करते हुए प्रार्थना करे—कन्यां कनकसम्पन्नां
कनकाभरणैर्युताम् । दास्यामि विष्णवे तुभ्यं ब्रह्मलोकजिगीषयाः।। विश्वम्भरः
सर्वभूताः साक्षिण्यः सर्वदेवताः। इमां कन्यां प्रदास्यामि पितृणां तारणाय च।।
तदनन्तर
वर के दाहिने हाथ पर कन्या का दाहिना हाथ रखकर, कन्यादाता सपत्नीक एक शंख में जल, दूर्वा,
अक्षत, सुपारी, पुष्प, चन्दन, तुलसी और यथाशक्ति सुवर्ण लेकर, कन्या के दाहिने
अँगूठे के पास अपना हाथ ले जाय । इस बीच कन्या का भाई जलपात्र से जल की धारा नीचे
रखे हुए कांश्यपात्र में छोड़ता जाए। ध्यातव्य है कि शंख के होकर जलप्रवाह निरन्तर
जारी रहे। आचार्य महासंकल्प वाक्य बोलते रहें, दाता उसे साथ-साथ बोले या
ध्यान से सुने—
ऊँ
विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य
ब्रह्मणोऽह्निद्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराह कल्पे वैवश्वतमन्वन्तरे
अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे
आर्यावर्तैकदेशे...नगरे/ग्रामे/ क्षेत्रे/ (यदि काशी
हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे आनन्दवने गौरीमुखे त्रिकण्टकविराजिते भगवत्या उत्तरवाहिन्या
भागिरथ्या वामभागे)...वैक्रमाब्दे...सम्वत्सरे श्रीसूर्य...अयने..ऋतौ...मासे...पक्षे...तिथौ...वासरे...नक्षत्रे...राशिस्थिते
सूर्ये ... राशिस्थिते चन्द्रे... राशिस्थिते देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथं
राशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगणगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ...गोत्रः...शर्मा
सपत्नीकोऽहं मम समस्तपितृणां
निरतिशयानन्दब्रह्मलोकापत्या-दिकन्यादानकल्पोक्तफलप्राप्तये अनेन वरेण अस्यां
कन्यायाम् उत्पादयिष्यमाणसन्तत्य दशपूर्वान् दशापरान् पुरुषानात्मानं च
पवित्रीकर्तुं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतये...गोत्रस्य...प्रवरस्य... शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत-वाजसनेयिमाध्यन्दिनीयशाखाध्यायिनः...शर्मणस्य
प्रपौत्राय...शर्मणस्य पौत्राय,....शर्मस्य पुत्राय आयुष्मते कन्यर्थिने
...गोत्राय...प्रवराय...शर्मणे वराय (अब कन्या पक्षका गोत्रादि)
...गोत्रस्य...प्रवराय...शर्मणस्य प्रपौत्रीम्... गोत्रस्य... प्रवराय... शर्मणस्य
पौत्रीम्... गोत्रस्य... प्रवराय... शर्मणस्य पुत्रीम्... गोत्रोत्पन्नां...नाम्नीमिमां
कन्यां श्रीरुक्मिणीं वरार्थिनीं यथाशक्य-लंकृतां गन्धाद्यर्चितां
वस्त्रयुगच्छन्नां सोपस्करां प्रजापतिदैवतां शतगुणीकृतज्योतिष्टोमातिरात्रसमफलप्राप्तिकामः
प्रजोत्पादनार्थं सहधर्माचरणाय...गोत्राय...प्रवराय...शर्मणे विष्णुरूपिणे वराय
पत्नीत्वेन तुभ्यमहं सम्प्रददे।।
(महासंकल्प के अन्य विस्तृत प्रकार
भी उपलब्ध होते हैं प्राचीन विवाहपद्धतियों में, किन्तु समयानुसार इस मध्यम श्रेणी
के संकल्प का भी सही वाचन नहीं हो पाता, ऐसे में विस्तृत की क्या बात। फिर भी
जिज्ञासुओं के लिए उक्त महासंकल्प से किंचित् विस्तृत महासंकल्प भी आगे दिया जा
रहा है।)
महासंकल्प की विस्तृत विधि—
ऊँ
विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य तत्सत् ब्रह्मअथानन्तवीर्यस्य श्रीमदादि-नारायणस्याऽचिन्त्यपरिमितानन्तशक्तिसमन्वितस्य
स्वकीय मूल प्रकृतिपरमशक्त्या प्रक्रीडमानस्य सच्चिदानन्दसन्दोहस्वरूपे स्वात्मनि
सर्वाधिष्ठाने स्वज्ञानकल्पितानां महाजलौघमध्ये परिभ्रम्यमाणानामनेक-कोटिब्रह्माण्डानाम्
एकतमेऽस्मिन् ब्रह्माण्डेऽव्यक्तमहदहंकार-पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादिभिर्दशगुणोत्तरै
रावरणैरावृत्ते आधारशक्ति श्रीकूर्मवराहधर्मानन्ताष्टदिग्गजादिप्रतिष्ठिते
ऐरावतपुण्डरीक वामनकुमुदा-ञ्जनपुष्पदन्तसार्वभौमसुप्रतिकाव्याष्टदिग्दन्तिशुण्डादण्डोत्तण्डितैस्तद्
ब्रह्माण्डखण्ड-योरन्तर्गतभूर्लोकभुवर्लोकस्वर्लोकमहर्लोकजनलोकतपो लोकसत्यलोकाख्यानांसर्वज्ञसर्वशक्तिसमन्वितसर्वोत्तमसर्वाधिप
श्रीचतुर्मुख प्रभृतिस्वस्वलोकाधिष्ठातृपुरुषाधिष्ठितानामधोभागेफणिराजस्य शेषसहस्रफणामण्डैकफणोपरिसर्षपैककणायमान
महीमण्डलान्तर्गता तलवितलसुतलतलातलरसातलमहातलपातालानांस्वस्वाधिष्ठानाधिष्ठितामुपरितनेसुमेरुमन्दरमन्दराचलनिषधहिमगिरिशृङ्गमद्धेमकूटदुर्द्धरपारियात्रशैलमहाशैलमहेन्द्रसहयाद्रिमलयाचलविंध्यर्ष्यमूकचित्रकूटमैनाकमानसोत्तरत्रिकूटोदयास्ताचलपर्यन्तानेकाभिधानाद्रिगणप्रतिष्ठितायां
जम्बूप्लक्ष शाल्मलीकुशक्रौंञ्चशाकपुष्कराख्यसप्तद्वीपवत्यां लवणेक्षुसुरासर्पिदधि
क्षीरशुद्धोदकाख्यसप्तसागरसमन्वितायां समस्तभूरेखायां कमल
कदम्बगोलकाकारायांवर्तमानेकुवलयकोशान्तर्गतदलवद्विराजमानउत्तरकुरुहिरण्मयरम्यकभद्राश्वकेतुमालेलावृत्तहरिवर्षकिम्पुरुषभारताख्यनवखण्डवतिजम्बूद्वीपेसर्वेभ्योप्यतिरिक्तसारवतिदेवादभिरप्यभीष्टसुकृतक्षेत्रभूतहेतुनाभिलषिततमेअङ्गबङ्गकलिङ्गकाम्बोजसौवीरसौराष्ट्रवंगालोत्पलमगधमालवनेपालकेरलचोरलगौड़
मलय पांचाल सिंहल मत्स्य द्रविड़ द्राविड़ कर्णाटक शूरसेन कोंकण पांचाल
पुलिंध्याष्य द्रौर्ण दर्शाणे विदेह विदर्भ मैथिल कैकय कोशल कुन्तल मैन्ध्रुवजावलं
सार्वसिन्धु शालभद्र मद्रदेश पार्वत काश्मीरपुष्टाहार सिन्धु पारसिक गांधार
वाह्लिक प्रभृति बहुविधदेशविशेषसम्पन्नेदण्डकारण्यमहारण्यद्वैतारण्यकामुकारण्यसैन्धवारण्यप्रभृत्यनेकारण्यवतीश्रीगङ्गायमुनासरस्वतोगोदावरी
नन्दालकनन्दा मन्दाकिनीकौशिकीनर्मदासरयूकर्मनाशा चर्मण्वती क्षिप्रा वेत्रवती कावेरी
फल्गु मार्कण्डेय रामगंगा शतदुविपाशैरावती चन्द्रभागा वितस्ता सिन्धु दृषवती प्रभृत्यनेकनदनदीवतिकुरुक्षेत्रहरिद्वारक्षेत्रमालक्षेत्रादिबहुक्षेत्रान्विते
भरतखण्डे भारतवर्षे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवश्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे
कलिप्रथमचरणे आर्यावर्तान्तर्गत-ब्रह्मावर्तैकदेशे ...प्रान्ते ... मण्डलान्तर्गत...नगरे/ग्रामे...विक्रमाब्दे...
नाम्नि संवत्सरे... अयनगतसूर्ये...अयनगतचन्द्रे च... राशिस्थिते देवगुरौ शेषेषु
ग्रहेषु यथायथं राशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगणगुणविशेषणविशिष्टायां ...ऋतौ...मासे...पक्षे..तिथौ...वासरे
यथायोगकरणमुहूर्ते वर्तमाने चन्द्रतारानुकूले पुण्येऽहनि...गोत्रः.. शर्मा
सपत्नीकोऽहं मम आत्मनः सपत्नीकस्य इहजन्मनि वाक्पाणिपादपायूषस्थघ्राणरसनाचक्षुःस्पर्शन-श्रोत्रमनोबुद्धिभिश्चरितानां
सकलशास्त्रोक्तानां ज्ञाताज्ञातकामाकाम महापातकोपपातकादिसञ्चितानां पापानां
एतत्कालपर्यन्तं सञ्चितानामार्द्र-शुष्कगुरुलघुस्थूलसूक्ष्माणां पापानां च
निःशेषपरिहारार्थं सहस्र-गोदानकुरुक्षेत्रादिसर्वतीर्थस्नानजन्यफलप्राप्त्यर्थं मम
समस्त-पितृणामात्मनः सपत्नीकस्य च विष्ण्वादिलोकप्राप्तये च
स्वा-भिलषितभोग्यविषयोपभोगार्थं मया सह दशपूर्वेषां दशावरेषां
मद्वंश्यानामग्निष्टोमातिरात्रवाजपेयपुण्डरीकाश्वमेधक्रतुफलजन्यब्रह्मादिलोकनिवासार्थं
श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासोक्तफलप्राप्तिपूर्वकसकलसौख्यपरिपूर्णा युर्वैभवारोग्यैश्वर्यलौकिकाध्यात्मिकाधिभौतिकार्थधर्मकाममोक्षस्त्रीपुत्रपौत्रकटुम्बभृत्यादिजनितानन्द
प्राप्त्यर्थं च ...गोत्रस्य...प्रवरस्य... वेदिनः...शाखिनः...सूत्रिणः... शर्मणः
प्रपौत्राय पूर्वोक्त विशेषण विशिष्टस्य ...गोत्रस्य...शर्मणः पौत्राय पूर्वोक्त
विशेषण विशिष्टस्य ...गोत्रस्य...शर्मणः पुत्राय पूर्वोक्त विशेषण विशिष्टस्य
...गोत्रस्य...शर्मणे ब्राह्मणाय वराय... गोत्रस्य...प्रवरस्य...वेदिनः...शाखिनः...सूत्रिनः...शर्मणः
प्रपौत्रीम् पूर्वोक्त विशेषण विशिष्टस्य ...गोत्रस्य...शर्मणः पौत्रीम् पूर्वोक्त विशेषण विशिष्टस्य
...गोत्रस्य...शर्मणः पुत्रीम् पूर्वोक्त
विशेषण विशिष्टस्य ...गोत्राम् ...नाम्नीम् इमां कन्यां यथाशक्त्यलंकृतां
विवाहदीक्षितांप्रजापतिदैवतिकां गङ्गाबालुकाभिः सप्तर्षिमण्डलपर्यन्तराशिकृतरेणुपुञ्जस्य-मध्याद्वर्षसहस्रावसनेएकैकबालुकापकर्षणेनसर्वबालुकापकर्षणसम्मितकालपर्यन्तंसूर्यलोकनिवास
सिद्ध्यर्थं यवैश्चन्द्रमण्डलपर्यन्तकृतयवराशितो वर्षसहस्रावसानेनएकैकयवापकर्षणेनसर्वयवापकर्षणेसम्मितकालपर्यन्तंचन्द्रलोक
निवाससिद्ध्यर्थं माषैःध्रुवमण्डलपर्यन्तराशिकृतमाषेभ्योवर्षसह-स्रावसानेएकैकमाषापकर्षणसम्मितकालपर्यन्तंविष्णुलोकरुद्रलोध्रुवलोकनिवाससिद्ध्यर्थं
सत्कर्मविद्यावर्धाङ्गिनीसमलंकरणगार्हस्थ्याश्रमविहितकाल-सन्तानप्रजननगृहाधिष्ठात्रीस्वामिनीसंयोजनादिप्रयोजनकत्वेन
पत्नीत्वेन च तुभ्यम् अहं सम्प्रददे।।
संकल्प
वाक्य पूरा हो जाने पर कन्या के हाथ को वर के हाथ में देदे। वर उसे ग्रहण करके
बोले— ऊँ स्वस्ति ऊँ द्यौस्तवा ददातु पृथ्वी त्वा प्रतिगृह्णातु ।
तदनन्तर
कन्यादाता वर से कहे— ऊँ यस्त्वया धर्मश्चरितव्यः सोऽनया सह। धर्मे चार्थे च
कामे च त्वयेयं नाति चरितव्या।।
वर
कहे— नातिचरासि। कोऽदात् कस्माऽअदात् कामोऽदात् कामायादात् । कामो दाता कामः
प्रतिग्रहीता कामैतत्ते।।
कन्यादाता
(पिता) और ग्रहीता (वर) उक्त अपने-अपने वाक्यों को तीन बार
बोलें।
तदनन्तर
कन्यादाता वर से प्रार्थना करे, हाथ में पुष्पाक्षत लेकर—
गौरीं
कन्यामिमां विप्र यथाशक्ति विभूषितम्। गोत्राय शर्मणे तुभ्यं दत्ता विप्र
समाश्रय।। कन्ये ममाग्रतो भूयाः कन्ये मे देवि पार्श्वयोः। कन्ये मे पृष्ठतो भूयाः
त्वद्दानान्मोक्षमाप्नुयात्।। मम वंशकुले जाता यावद् वर्षाणि पालिता । तुभ्यं वर
मया दत्ता पुत्रपौत्रप्रवर्धिनी ।।
तदनन्तर
कन्यादाता दानसांगतार्थ पुनः जलाक्षतपुष्पादि लेकर संकल्प करे। (ये कन्यादान की
दक्षिणा है। किसी भी दान के बाद दक्षिणा संकल्प करना अति आवश्यक है। इस संकल्प में
सुवर्ण सहित गौ या गौमूल्य देना चाहिए) — ऊँ अद्य कृतैतत् कन्यादानकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं
इदं सुवर्णदक्षिणाद्रव्यं गोमिथुनं च ...गोत्राय...शर्मणे वराय तुभ्यमहं
सम्प्रददे।
तदनन्तर
कन्यादाता भूयसी दक्षिणा संकल्प करे— ऊँ अद्य कृतस्य कन्यादानकर्मणः
साङ्गतासिद्ध्यर्थं तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोष परिहारार्थं यथोत्साहां भूयसीदक्षिणां
विभज्य नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दातुमहमुत्सृजे।
यहाँ वर को भी कन्यादान ग्रहणदोषपरिहार्थ
गोदान संकल्प करना चाहिए। ध्यातव्य है कि दानग्रहणदोष परिहार का ये भाव है कि किसी
भी तरह के दानग्रहण से अपनी शक्ति का क्षरण होता है,अतः उसके लिए प्रायश्चितदान भी
करने का विधान है। यथा—
ऊँ अद्येत्यादि....अमुक
गोत्रः...अमुक शर्माऽहं
मम कन्यादानग्रहणजनितदोषशान्त्यर्थं अमुकगोत्राय अमुक शर्मणे विप्राय पुरोहिताय
इमां गां (तन्मूल्योपकल्पितं द्रव्यं वा) सम्प्रददे।)
अब
वर कन्या का हाथ पकड़कर, उसका नाम लेते हुए, निम्न मन्त्रोच्चारण सहित उसे पूर्व
स्थापित अग्निवेदी के समीप ले जाय— ऊँ यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनु पवमानो वा।
हिरण्यपर्णो वैकर्णः स त्वा मन्मनसां करोतु श्रीमती ....देवीति।
(ध्यातव्य
है कि अभी सिर्फ वर ने कन्या का दान ग्रहण किया है, विवाह का मुख्य कृत्य अभी शेष है।
अतः ग्रन्थिबन्धन का कोई औचित्य नहीं है यहाँ। अज्ञानवश कहीं-कहीं लोग
ग्रन्थिबन्धन कर देते हैं।)
दृढ़पुरुषस्थापन—वेदी के दक्षिणदिशा में कंधे पर
जलपूर्ण कलश लेकर कुलाचारानुसार कन्या का मामा या कोई सेवक तबतक मौन खड़ा रहता है,
जबतक विवाहसम्पन्न होकर, अभिषेक न हो जाए। इस विधान का पालन किंचित् भिन्न रीति से
कहीं-कहीं सम्पन्न होता है—जनवासे में दो पुरुष जलपूर्ण कलश लेकर, वर के पीछे जाकर
खड़े होते हैं, जनवासपूजन के समय। किन्तु ध्यान रहे कि ये बिलकुल भिन्न कृत्य है।
दोनों अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं। अपने लोकाचार के अनुसार इसे सम्पन्न करना
चाहिए।
परस्पर
निरीक्षण— वेदी के
पास कन्या के बैठ जाने के बाद कन्या का पिता कहे—परस्परं समीक्षेथाम्।
अब
वर इस मन्त्र का वाचन करते हुए कन्या को देखे—
ऊँ
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः। वीरसूर्देवकामा स्योना शन्नो
भव द्विपदे शं चतुष्पदे।। सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः । तृतीयोऽग्निष्टे
पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः।। सोमोऽददद् गन्धर्वाय गन्धर्वोऽददग्नये। रयिं च पुत्राँश्चादादग्निर्मह्यमथो
इमाम्।। सा नः पूषा शिवतमामैरय सा न ऊरू उशती विहर। यस्यामुशन्तः प्रहराम शेषं
यस्यामु कामा बहवो निविष्ट्यै।।
(आचार्य
उक्त मन्त्र का वाचन करते रहें, वर-कन्या परस्पर एक दूसरे को देखते रहें। मन्त्र
पूरा हो जाने के बाद दोनों उठकर स्थापित अग्नि की तीन परिक्रमा करें। तदुपरान्त
अग्नि के पश्चिम दिशा में अपने आसन पर वर बैठ जाए और अपने दाहिने भाग में –किंचित् दूरी पर कन्या को वैठा
ले। किन्हीं आचार्यों का मत है कि वर द्वारा कन्यादानग्रहणदोषशान्त्यर्थ दान अब
करना चाहिए।)
नोट— १. यहाँ अग्नि की तीन परिक्रमा करने
का तात्पर्य ये है कि अभी तीन परिक्रमा मौन (अमन्त्रक) कर ले। शेष चार परिक्रमा
लाजाहोम के समय करनी है। कुल सात परिक्रमा होती है विवाह में।)
२. स्त्री वामांगी कब होती है इस विषय
में शास्त्रवचन हैं—
सीमन्ते च विवाहे च तथा चातुर्थ्यकर्मणि ।
मखे दाने व्रते श्राद्धे पत्नी दक्षिणतो भवेत्।। सम्प्रदाने भवेत् कन्या घृतहोमे
सुमङ्गली। वामभागे भवेद्भार्या पत्नी चातुर्थ्यकर्मणि।। व्रतबन्धे विवाहे च
चतुर्थी सह भोजने। व्रतदाने मखे श्राद्धे पत्नी तिष्ठति दक्षिणे।। सर्वेषु
धर्मकार्येषु पत्नी दक्षिणतः शुभा। अभिषेके विप्रपादक्षालने चैव वामतः।।
विवाहहोम—
ध्यातव्य
है कि हनववेदी का निर्माण पहले ही किया जा चुका है। वेदी का पंचभूसंस्कार भी हो
चुका है। किन्तु कुशकण्डिका कार्य शेष है, तथा कार्यारम्भ से ही आचार्य अपना काम
कर रहे हैं, किन्तु उनका वरण अभीतक नहीं हुआ है। अतः होमकार्य प्रारम्भ करने से
पूर्व आचार्य और ब्रह्मा का वरण होना आवश्यक है। अन्यान्य होम कार्यों में जिस
भाँति अग्निवेदी के दाहिने चावल से भरा एक पात्र रखकर उसमें ग्रन्थियुक्त कुशा
स्थापित कर, किसी विप्र को यज्ञ-निरीक्षणार्थ ब्रह्मा नियुक्त करते हैं। उसी भाँति
यहाँ भी करना है। (विस्तृत
विधान हेतु पुस्तक का परिशिष्ट खण्ड देखें) (आचार्य और ब्रह्मा हेतु सत्पात्र वर वा कन्या किसी पक्ष का हो
सकता है।)
वर हाथ में जल, पुष्प, अक्षत, सुपारी,
द्रव्यादि लेकर पहले आचार्य का वरण करे, तदनन्तर ब्रह्मा का।
आचार्यवरण संकल्प— ऊँ अद्य....कर्तव्यविवाहहोमकर्मणि
आचार्यकर्म कर्तुं एभिर्वरणद्रव्यैः...गोत्रं...शर्मणं ब्राह्मम् आचार्यत्वेन
भवन्तमहं वृणे। वर
संकल्पवाक्य बोलकर, वरणसामग्री उपस्थित आचार्य के हाथ में दे दे। उसे लेते हुए
आचार्य बोलें—स्वस्ति,
वृतोऽस्मि।
वर
हाथ जोड़कर आचार्य की प्रार्थना करे— आचार्यस्तु यथा स्वर्गे शक्रादीनां
बृहस्पतिः। तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन्नाचार्यो भव सुव्रत।।
पुनः
वर हाथ में जल, पुष्प, अक्षत ,सुपारी, द्रव्यादि लेकर ब्रह्मा का वरण करे— ऊँ
अद्य कर्तव्यविवाहहोमकर्मणि कृताऽकृतावेक्षण रूपब्रह्मकर्म कर्तुं
एभिर्वरणद्रव्यैः...गोत्रं...शर्मणं ब्राह्मणं ब्रह्मत्वेन भवन्तमहं वृणे।
वर
संकल्पवाक्य बोलकर, वरणसामग्री उपस्थित अन्य विप्र के हाथ में देदे, जिन्हें ब्रह्मा
नियुक्त करना है, उसे लेते हुए ब्रह्मा बोलें—स्वस्ति, वृतोऽस्मि।
अब,
वर हाथ जोड़कर ब्रह्मा की प्रार्थना करे—यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः।
तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन ब्रह्मा भव द्विजोत्तम।। ऊँ व्रतेन दीक्षामाप्नोति
दीक्षयाप्नोति दक्षिणम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ।।
कुशकण्डिका
एवं पात्रासादन— (अब
कुशकण्डिका विधान सम्पन्न करे। इसके लिए पुस्तक के परिशिष्ट खण्ड का सहयोग लें) विवाहयज्ञ में आवश्यक विविध
सामग्रियों— शमी के पत्ते मिला हुआ धान का लावा, बांस की छोटी सुपली, आलेपन
द्रव्य, घृतादि को यथास्थान सुव्यवस्थित कर ले।
होमविधान— ध्यातव्य है अग्नि की स्थापना
पहले ही की जा चुकी है। होम प्रारम्भ करने से पूर्व वर हाथ में पुष्पाक्षत लेकर
अग्नि का पुनः ध्यान करे। तदनन्तर स्रुवा में घृत लेकर आचार्य के निर्देशानुसार
होम करता जाए। इस बीच नियुक्त ब्रह्मा कुश से होता (वर) का स्पर्श किए रहें। ध्यान
रहे कि आगे राष्ट्रभृत होम के समय इस स्पर्श को हटा लेना है।
होम
क्रम में सर्वप्रथम प्रजापतिदेवता के निमित्त आहुति दी जाती है। तदनन्तर इन्द्र, अग्नि,
सोमादि के निमित्त आहुति का विधान है। इन चार आहुतियों में प्रथम दो को आधारभाग
और अन्तिम दो को आज्यभाग कहा जाता
है। ये चारों आहुतियाँ सिर्फ घी से ही दी जानी चाहिए, न कि तिलादि शाकल्य से। इन
आहुतियों को प्रदान करते समय नियुक्त ब्रह्मा द्वारा होमकर्ता के दाहिने हाथ को
कुश से स्पर्श किए रहना चाहिए। इस क्रिया को ब्रह्मणान्वारब्ध कहते हैं।
होम के समय दाहिना घुटना पृथ्वी पर टिका रहे, स्रुवा में घी लेकर, प्रजापतिदेव का
ध्यान करते हुए निम्नांकित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आहुतियाँ प्रदान करें—
ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये
न मम।
ऊँ इन्द्राय स्वाहा, इदमिन्द्राय न
मम।
ऊँ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम।
ऊँ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम। (ध्यान रहे कि वेदी के मध्यभाग में
आहुति प्रदान करना चाहिए और स्रुवा में शेष घी की बून्दों को प्रोक्षणीपात्र में
छिड़क देना चाहिए। यही क्रिया आगे की तीन आहुतियों में भी करें )
महाव्याहृतिहोम—
१. ऊँ भूः स्वाहा, इदमग्नये न मम।
२. ऊँ भुवः स्वाहा, इदं वायवे न मम।
३. ऊँ स्वः स्वाहा, इदं सूर्याय न मम।
सर्वप्रायश्चित्तहोम—
१. ऊँ त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्
देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा ᳭᳴᳴ सि
प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा, इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
२. ऊँ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती
नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अव यक्ष्व नो वरुण ᳭᳴᳴रराणो वीहि मृडीक ᳭᳴सुहवो न
एधि स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।
३. ऊँ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च
सत्यमित्त्वमया असि। अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भषज ᳭᳴᳴ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।
४. ऊँ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं
यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु
मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम।
५. ऊँ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि
मध्यम ᳭᳴᳴श्रधाय । अथा वयमादित्य व्रते
तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा। इदं वरुणायादित्यायादितये न मम।
राष्ट्रभृत् होम—इस होम में ब्रह्मा का कुश-स्पर्श हट
जाना चाहिए, जो प्रारम्भ में था। इसे आरब्धस्थिति कहते हैं।
१. ऊँ ऋताषाडृतधामाऽग्निर्गन्धर्वः स न
इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाद्।। इदमृतासाहे ऋतधाम्नेऽग्नये गन्धर्वाय
न मम।।
२. ऊँ ऋताषाडृतधामाऽग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरसो
मुदो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमोषधीभ्योऽप्सरोभ्यो मुद्भ्यो न मम।।
३. ऊँ सꣳहितो विश्वसामा सूर्यो गन्धर्वः
स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं स ꣳ हिताय विश्वसाम्ने सूर्याय
गन्धर्वाय न मम।।
४. ऊँ स ꣳ हितो विश्वसामा सूर्यो
गन्धर्वस्तस्य मरीचयोऽ–प्सरस आयुवो नाम ताभ्यः स्वाहाः। इदं मरीचिभ्योऽप्स-रोभ्य
आयुभ्यो न मम।।
५. ऊँ सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा
गन्धर्वः स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं सुषुम्णाय सूर्यरश्मये
चन्द्रमसे गन्धर्वाय न मम।।
६. ऊँ सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा
गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सर-सो भेकुरयो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदं नक्षत्रेभ्योऽप्सरो-भ्यो
भेकुरिभ्यो न मम।।
७. ऊँ इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वः स
न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदमिषिराय विश्वव्यचसे वाताय गन्धर्वाय
न मम।।
८. ऊँ इषिरो विश्वव्यचा वातो गन्धर्वस्तस्यापोऽप्सरस
ऊर्जो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमद्भ्योऽप्सरोभ्य ऊरर्भ्यो न मम।
९. ऊँ भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वः स
न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं भुज्यवे सुपर्णाय यज्ञाय
गन्धर्वाय न मम।।
१०. ऊँ भुज्युः सुपर्णो यज्ञो
गन्धर्वस्तस्य दक्षिणा अप्सरस-स्तावा नाम ताभ्यः स्वाहा। इदं दक्षिणाभ्योऽप्सरोभ्य-स्तावाभ्यो
न मम।।
११. ऊँ प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो
गन्धर्वः स न इदं ब्रह्मक्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं प्रजापतये
विश्वकर्मणे मनसे गन्धर्वाय न मम।।
१२. ऊँ प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो
गन्धर्वस्तस्य ऋक्सामान्यप्स-रस एष्टयो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमृक्सामभ्योऽप्सरोभ्य
एष्टिभ्यो न मम।।
जयासंज्ञक होम—
१. ऊँ चित्तं च स्वाहा, इदं चित्ताय न
मम।
२. ऊँ चित्तिश्च स्वाहा, इदं चित्त्यै न
मम।
३. ऊँ आकूतं च स्वाहा, इदमाकूताय न मम।
४. ऊँ आकूतिश्च स्वाहा, इदमाकूत्यै न
मम।
५. ऊँ विज्ञातश्च स्वाहा, इदं विज्ञाताय
न मम।
६. ऊँ विज्ञातिश्च स्वाहा, इदं
विज्ञातये न मम।
७. ऊँ मनश्च स्वाहा, इदं मनसे न मम।
८. ऊँ शक्वरीश्च स्वाहा, इदं शक्वरीभ्यो
न मम।
९. ऊँ दर्शश्च स्वाहा, इदं दर्शाय न मम।
१०. ऊँ पौर्णमासं च स्वाहा, इदं
पौर्णमासाय न मम।
११. ऊँ बृहच्च स्वाहा, इदं बृहते न मम।
१२. ऊँ रथन्तरं स्वाहा, इदं रथन्तराय न
मम।
१३. ऊँ प्रजापतिर्जयानिन्द्राय वृष्णे प्रायच्छदुग्रः
पूतना जयेषु। तस्मै विशः समनमन्तः सर्वाः स उग्रः स इहव्यो बभूव स्वाहा। इदं
प्रजापतये न मम।
तदनन्तर प्रणीता के जल से अपने ऊपर
छिड़काव करे, इस मन्त्र से—यथा बाणप्रहाराणां कवचं भवति वारणाम्। तथा
देवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिणाम्।।
अभ्यातान
होम—
१. ऊँ अग्निर्भूतानामधिपतिः स
मावत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्
कर्मण्यस्यां देवहूत्या ᳪस्वाहा। इदमग्नये भूतानामधिपतये न
मम।
२. ऊँ इन्द्रो ज्येष्ठानामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदमिन्द्राय ज्येष्ठानामधिपतये
न मम।
३. ऊँ यमः पृथिव्या अधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ
स्वाहा। इदं यमाय पृथिव्या अधिपतये न मम।
यहाँ ध्यान रखना है कि इस आहुति
के बाद स्रुवाशेष घृत का त्याग प्रोक्षणी में न करके, किसी अन्य पात्र में करना
चाहिए। यथा— यमाय दक्षिणे त्याग ऐशान्यां रौद्र एव च । दक्षिणाग्नेययोर्मध्ये
पितृत्यागो विधीयते।। एष त्यागो-ऽन्यपात्रे स्यात् प्रोक्षणीष्वन्य एव हि।।
यहाँ पुनः पूर्व निर्दिष्ट मन्त्र का
वाचन करते हुए प्रोक्षणीपात्र के जल से छिड़काव करे। तदुपरान्त आगे की आहुति डाले।
४. ऊँ वायुरन्तरिक्षस्याधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्य-स्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा।
इदं वायवेऽन्तरिक्षस्याधिपतये न मम।
५. ऊँ सूर्यो दिवोऽधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं सूर्याय दिवोऽधिपतये
न मम।
६. ऊँ चन्द्रमा नक्षत्राणामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्य स्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं चन्द्रमसे
नक्षत्राणाम-धिपतये न मम।
७. ऊँ बृहस्पतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं बृहस्पतये ब्रह्मणोऽ-
धिपतये न मम।
८. ऊँ मित्रः सत्यानामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं मित्राय सत्यानामधिपतये न मम।
९. ऊँ वरुणोऽपामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं वरुणायापामधिपतये न
मम।
१०. ऊँ समुद्रः स्रोत्यानामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं समुद्राय
स्रोत्यानाम-धिपतये न मम।
११. ऊँ अन्नꣳसाम्राज्यानामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदमन्नाय साम्राज्याधिपतये
न मम।
१२. ऊँ सोम ओषधीनामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्य- स्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं सोमायौषधीनामधिपतये न
मम।
१३. ऊँ सविता प्रसवानामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं सवित्रे प्रसवानामधि-पतये
न मम।
१४. ऊँ रुद्रः पशूनामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं रुद्राय पशुनामधिपतये
न मम।
यहाँ तक की आहुति प्रदान करने के बाद
वर प्रणीता-जल से दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों को प्रक्षालित करे, तदनन्तर आगे
की आहुतियाँ प्रदान करे।
१५. ऊँ त्वष्टा रूपाणामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं त्वष्टे रूपाणामधिपतये
न मम।
१६. ऊँ विष्णुः पर्वतानामधिपतिः स मावत्वस्मिन्
ब्रह्मण्य-स्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं विष्णवे पर्वतानामधिपतये
न मम।
१७. ऊँ मरुतो गणानामधिपतिः स मावन्त्वस्मिन्
ब्रह्मण्य-स्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा। इदं मरुद्भ्यो गणानामधिपतये
न मम।
१८. ऊँ पितरः पितामहाः परेऽवरे ततास्ततामहाः।
इह मावन्त्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रेऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याᳪ स्वाहा।
इदं पितृभ्यः पितामहेभ्यः परेभ्योऽवरेभ्यस्ततेभ्यस्ततामहेभ्यो न मम।
(यहाँ तक की आहुति प्रदान करने के बाद वर प्रणीता-जल से
दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों को पुनः प्रक्षालित करे, तदनन्तर आगे की
आहुतियाँ प्रदान करे।)
आज्यहोम—
१. ऊँ अग्निरैतु प्रथमो देवताना ꣳ सोऽस्यै
प्रजां मुञ्जतु मृत्युपाशात्। तदयꣳराजा
वरुणोऽनुमन्यतां यथेयꣳस्त्री पौत्रमघन्नरोदात्स्वाहा। इदमग्नये न मम।
२. ऊँ इमामग्निस्त्रायतां गार्हपत्यः
प्रजामस्यै नयतु दीर्घमायुः अशून्योपस्था जीवतामस्तु माता पौत्रमानन्दमभिविबुध्यतामियꣳ
स्वाहा। इदमग्नये न मम।
३. ऊँ स्वस्ति नो अग्ने दिव आ पृथिव्या
विश्वानि धेह्ययथा यजत्र। यदस्यां महि दिवि जातं प्रशस्तं तदस्मासु द्रविणं धेहि
चित्रꣳस्वाहा। इदमग्नये न मम।
४. ऊँ सुगं नु पन्थां प्रदिशन्न एहि
ज्योतिष्मध्ये ह्यजरन्न आयुः। अपैतु मृत्युरमृतन्न आगाद्वैवस्वतो नो अभयं कृष्णोतु
स्वाहा। इदं वैवस्वताय न मम।
यहाँ तक की आहुति प्रदान करने के बाद
वर प्रणीता-जल से दाहिने हाथ की पांचों अंगुलियों को पुनः प्रक्षालित करे, तदनन्तर आगे की
आहुतियाँ प्रदान करे।
आगे की आहुति में विशेष बात ये है कि
अग्नि और वर-वधू के बीच कपड़े
से पर्दा कर देना चाहिए। क्योंकि ये
आहुति मृत्यदेवता के निमित्त है, जिसे
वर-कन्या को नहीं देखना चाहिए। यथा—मृत्युर्होमन्तु
यः कुर्यादन्तराधानं विना वरः। अशुभं जायते तस्य दम्पत्योरल्प-जीवनम्।।
अन्तःपट होम—ऊँ परं मृत्योऽअनुपरे हि पन्थां
यस्तेऽअन्य इतरो देवयानात्। चक्षुष्पतेशृण्वते ब्रवीमि मा नः प्रजाꣳ रीरिषो मोत
वीरान् स्वाहा। इदं मृत्यवे न मम।।
तदनन्तर अन्तःपट हटाकर आचार्य प्रणीता
के जल से वर-कन्या के ऊपर छिड़काव करे, इस मन्त्र से—यथा बाणप्रहाराणां कवचं
भवति वारणाम्। तथा देवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिणाम्।।
लाजाहोम— पूर्वोक्त होम विधान सम्पन्न हो जाने
पर, अब लाजाहोम का विधान है। ध्यातव्य है ये वही धान का लावा है, जिसे वारात प्रस्थान
के समय वर के फूआ या बहन द्वारा भूँजा गया था। आजकल लोग प्रायः भूल जाते हैं कि इस
लाजाहोम में शमी और पलाश का सूखा पत्ता एवं घृत भी मिश्रित करना चाहिए। इस मिश्रित
लाजा (लावा) को चार भाग कर लिया जाना चाहिए। लाजा-विभाजन का ये कार्य कन्या
का भाई स्वयं कर ले, क्योंकि आगे लाजाहोम में उसकी महती भूमिका है। विभाजित किए
गये चार भागों में से एक भाग का अभी उपयोग होना है। शेष दूसरे-तीसरे-चौथे भाग का प्रयोग
आगे की कुछ क्रियाओं के पश्चात् होना है।
अब कन्या को आगे करके, वर
पूर्वाभिमुख खड़ा होवे। वर की अँजलि पर कन्या की अंजलि रहे। कन्या का भाई घृतादि
मिश्रित लाजा के मात्र एक भाग को बांस के शूर्प (सूपली) में रखकर, बहन के हाथ
में देदे। कन्या उस लावा से समान मात्रा में तीन बार आहुतियाँ डाले। शेष
तीन भागों की आहुति बाद में पड़ेगी।
ध्यातव्य
है कि यहाँ भी व्यावहारिक चूक हो जाती है। विवाहयज्ञ का यह अति आवश्यक कृत्य है, जिसे
जैसे-तैसे लोग पूरा कर देते हैं। सही ढंग से एक भी आहुति नहीं पड़ती। अभिभावकों और
आचार्यों को भी इस पर ध्यान देना चाहिए। व्यर्थ के कामों में सड़क पर नाचने-कूदने
में लोग समय गंवा देते हैं, जबकि वैदिक कर्मकाण्डों में जल्दीबाजी होने लगती है।
ये सब हमारी सनातन संस्कृति का घोर अपमान है, जिसका दुष्परिणाम वर-कन्या सहित पूरे
समाज को भुगतना पड़ रहा है, फिर भी चेत नहीं रहे हैं। और चेत इसलिए नहीं रहे
हैं,क्योंकि इन कर्मकाण्डों की महत्ता का ज्ञान नहीं है। पछुवावयार में आँखें
चौंधिया गयी हैं।
प्रथम लाजाहोम हेतु आचार्य मन्त्रोच्चारण करें—
१. ऊँ अर्यमणं देवं कन्याऽऽग्निमयक्षत।
स नो अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः स्वाहा, इदमर्यम्णे न मम।।
२. ऊँ इयं नार्युपब्रूते
लाजानावपन्तिका। आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा। इदमग्नये न मम।
३. ऊँ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ
समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियꣳस्वाहा। इदमग्नये न मम।
इस प्रकार प्रथमभाग की तीन आहुतियाँ
पूर्ण हुई। न कि होम विधान पूरा हो गया। अब, वर कन्या का हाथ पकड़े। यहाँ भी ध्यान
रखने की बात है कि हाथ की सभी अँगुलियाँ वर के पकड़ में हो, ऐसा नहीं कि सिर्फ अंगूठे
का स्पर्श करे। यहाँ स्पष्ट निर्देश है—साङ्गुष्ठहस्तग्रहण ।
आचार्य क्रमशः चारो मन्त्रों का
उच्चारण करें—
१. ऊँ गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया
पत्या जरदष्टिर्यथासः। भगोऽअर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यन्त्वाऽ दुर्गार्हपत्याय
देवाः।।
२. ऊँ अमोऽहमस्मि सा त्वꣳ सा त्वमस्यमोऽहम्। सा
माहमस्मि ऋक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्।।
३. ऊँ तावेवि विवहावहै सह रेतो दधावहै ।
प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै बहून्।।
४. ऊँ ते सन्तु जरदष्टयः सं प्रियौ
रोचिष्णू सुमनस्यमानौ। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्।।
अश्मारोहण एवं गाथागान —
तदनन्तर वर
अपने बायें हाथ से वधू का दाहिना पैर कलश
के समीप पहले से स्थापित शिला पर रखवाये एवं आचार्य मन्त्रवाचन करें— ऊँ आरोहेममश्मानमश्मेव त्वꣳ स्थिरा भव। अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व
पृतनायतः।।
वधू
द्वारा शिलारोहण के क्रम में ही वर निम्नांकित गाथागान करे (वर स्वयं शुद्ध
उच्चारण नहीं कर पाये, तो आचार्य इसमें वर का सहयोग करे)— ऊँ सरस्वति
प्रेदमव सुभगे वाजिनीवती। यां त्वा विश्वस्य भूतस्य प्रजायामस्याग्रतः ।। यस्यां
भूतꣳ समभवद्यस्यां विश्वमिदं जगत्। तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं
यशः।।
(ध्यातव्य
है कन्या दोनों पैर शिलापर कदापि न रखे, इसका दुष्परिणाम वैधव्य है। यथा— वरस्तु
वामहस्तेन वधूपादं च दक्षिणम्।
शिलामारोहवेत्प्राज्ञो मन्त्रोच्चारण पूर्वकम्।। शक्तिरूपा शिलाप्रोक्ता शिवरूप शिलापति।
तत्राङ्गु-ष्ठद्वयस्पर्शात्कन्या तु विधवा भवेत्।। )
तदनन्तर
आगे कन्या और पीछे वर, एक साथ प्रणीता, ब्रह्मा और अग्नि की एक परिक्रमा करें।
तदर्थ आचार्य मन्त्र बोलें— ऊँ तुभ्यमग्रे पर्यवहन् सूर्यां वहतु ना सह। पुनः
पतिभ्यो जायां दाऽग्ने प्रजया सह।।
तदनन्तर पूर्व की भाँति ही लाजाहोम के तीनों
मन्त्रों का उच्चारण करते हुए तीन आहुतियाँ पुनः डाले—धान के लावा के दूसरे भाग
से। पुनः अंगुष्ठग्रहण, अश्मारोहण, गाथागान और अग्नि परिक्रमा की क्रिया भी पूर्ववत
मन्त्रोच्चारण से सम्पन्न की जाए।
तनन्तर लाजा के तीसरे भाग से पुनः तीन
आहुतियाँ डाले, अंगुष्ठग्रहण,अश्मारोहण ,गाथागान एवं अग्निपरिक्रमा की क्रियाएं और
मन्त्र भी पुनः-पुनः सम्पन्न किए जाएँ।
ध्यातव्य
है कि इस प्रकार लाजा(लावा) के चार भागों में तीन भाग का प्रयोग किया जा चुका अब
तक, यानी कुल नौ लाजा आहुतियाँ पड़ी। तीन बार अंगुष्ठग्रहण हुआ, तीन बार अश्मारोहण
हुआ, तीन बार गाथागान हुआ एवं तीन बार अग्नि की परिक्रमा भी हुयी।
अब अन्त
में लाजा के चौथे भाग का उपयोग करना है। किन्तु यहाँ एक बार में ही सुपली
के सहारे सारा लावा (धान का कील) अग्नि में डाल देना है। तदर्थ आचार्य मन्त्र
बोलें—ऊँ भगाय स्वाहा। इदं भगाय न मम।।
ध्यातव्य
है कि इस आहुति के बाद पहले की तरह अंगुष्ठग्रहण, अश्मारोहण, गाथागान नहीं करनी
है, किन्तु अग्नि की परिक्रमा होगी किंचित् भेद से—
अब तक
कन्या आगे चल रही थी अग्नि परिक्रमा के समय, जबकि अब यानी चौथी परिक्रमा में वर
आगे होगा, कन्या पीछे चलेगी।
इस सम्बन्ध में तथ्य ये है कि पुरुषार्थचतुष्टय—
धर्म, अर्थ और काम इन तीन के लिए कन्या (वधू) का साहचर्य अनिवार्य है। इसलिए उसे
आगे रखते हैं, जबकि चौथे पुरुषार्थ यानी मोक्ष मार्ग में स्वयं (पुरुष) आगे बढ़ने
की आवश्यकता है। इसका ही प्रतीक है अग्नि की चौथी परिक्रमा वर को आगे और कन्या को
पीछे करके। यानी यहाँ पत्नी अनुगामिनी होगी। ध्यातव्य है कि साहचर्य और अनुगमन
में अन्तर है।
इन सब बातों का महत्व नहीं समझ पाने के कारण
लोग हर जगह गलतियाँ करते रहते हैं। यजमान के खुशामदी आचार्य भी कह देते हैं, दोनों
का चादर-दुपट्टा लेकर घुमा दो, परिक्रमा हो जायेगी। ये कुछ वैसी ही मूर्खता है, जैसे
आपको भूख लगी है और कोई आपके कपड़ों को भोजन करावे।
विवाहसंस्कार
वैदिक सनातन संस्कृति का सर्वाधिक मूल्यवान कृत्य है। जीवन में पता नहीं पति-पत्नी
न जाने कितनी बार मन्दिर जाएं , न जाए, परिक्रमा करें या न करें, किन्तु जीवन के
इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण अग्निदेव के लिए आहुति और परिक्रमा तो सही ढंग से
कर लें। जीवन में सुख-शान्ति-सौभाग्य की आकांक्षा रखने वालों को तो इसपर अवश्य
ध्यान देना चाहिए।
प्रजापत्यहोम—
अग्नि की चौथी परिक्रमा पूर्ण करके, वर-कन्या
पुनः अपने स्थान पर बैठ जाएँ और सिर्फ घी से एक आहुति प्रदान करें। आहुति डालने के
बाद, स्रुवाशेष घृत की कुछ बून्दों को प्रोक्षणीपात्र में अवश्य छिड़क दें। आचार्य
मन्त्र बोलें— ऊँ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम।।
सप्तपदी— अब अग्निवेदी से उत्तर की ओर थोड़ी-थोड़ी
दूरी पर, सुविधानुसार ऐपन (हल्दी-चौरेठा का घोल) से सात छोटे-छोटे वृत्त बनावे। अथवा
अक्षतपुंज स्थापित कर दें। वर वधू को इन सप्तपदों का क्रमण कराये। इस क्रम में
वर-वधू के बीच कुछ संवाद होते हैं, कुछ वचन लिए जाते हैं, कुछ प्रतिज्ञाएं की जाती
हैं—वर वधू का दाहिना पैर अपने दाहिने हाथ से प्रथम मण्डल पर रखवाये और कहे—
१. वर वचन— ऊँ एकमिषे विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या वचन—धनं धान्यं च
मिष्टान्नं व्यञ्जनाद्यं च यद् गृहे।
मदधीनं हि कर्तव्यं वधूराद्ये
पदेऽब्रवीत्।।
२. वर वचन— ऊँ द्वे ऊर्जे
विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या
वचन— कुटुम्बं रक्षयिष्यामि ते सदा मञ्जुभाषिणी।
दुःखे धीरा सुखे हृष्टा द्वितीये
साऽब्रवीद्वरम्।।
३. वर वचन— ऊँ त्रीणि रायस्पोषाय
विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या
वचन—पतिभक्ति रता नित्यं क्रीडिष्यामि त्वया सह। त्वदन्तं न नरं मन्स्ये तृतीये
साऽब्रवीदिदम्।।
४. वर वचन—ऊँ चत्वारि मायो भवाय
विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या
वचन—लालयामि च केशान्तं गन्धमाल्यानुलेपनैः।
काञ्चनैर्भूषणैस्तुभ्यं तुरीये
साऽब्रवीद्वरम्।।
५. वर वचन— ऊँ पञ्च पशुभ्यो
विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या
वचन— सखीपरिवृता नित्यं गौर्याराधनतत्परा।
त्वयि भक्ता भविष्यामि पञ्चमे साऽब्रवीद्वरम्।।
६. वर वचन— ऊँ षड् ऋतुभ्यो
विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या
वचन— यज्ञे होमे च दानादौ भवेयं तव वामतः।
यत्र त्वं तत्र तिष्ठामि पदे
षष्ठेऽब्रवीद्वरम्।।
७. वर वचन— ऊँ सखे सप्तपदा भव सा
मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु।
कन्या
वचन— सर्वेऽत्र साक्षिणो देवा मनोभावप्रबोधिनः।
वञ्चनं न करिष्यामि सप्तमे सा पदेऽब्रवीत्।।
उक्त
सप्तपदी के वचनों का भावार्थ —
१. वर—हे सखे! पहले मंडल में तुम
अपना दाहिना पैर रखो, इससे तुम्हारे मनोभिलषित फलों को भगवान् विष्णु तुम्हें
प्रदान करें।
कन्या— धन, धान्य, अन्नादि मधुर
व्यंजनादि, जो आपके घर में है, वे सब आप मेरे अधीन करें, ताकि उन पदार्थों से मैं
अपने सास-ससुर, अतिथि, परिजनादि की यथार्थ सेवा कर सकूँ।
२. वर— हे सखे! दूसरे मंडल में तुम
दाहिना पग रखो, इससे तुम्हारे शरीर में भगवान् विष्णु बल उत्पन्न करेंगे।
कन्या— मैं आपके कुटुम्ब को पुष्ट
करती हुई उनका पालन करुंगी। सदा मीठे वचन बोलूंगी। कभी कटु वचन नहीं बोलूंगी। यदि
कोई दुःख आ पड़े, तो धैर्य धारण करुँगी अर्थात् आपके सुख में सुखी और दुःख में
दुखी रहूँगी।
३. वर— हे सखे! तीसरे मंडल में तुम
अपना पैर रखो, इससे भगवान् विष्णु विशेष रूप से तुम्हारे धन की वृद्धि करेंगे।
कन्या—पतिपरायणा होकर मैं सदा
तुम्हारे साथ बिहार करुँगी। अन्य किसी पुरुष का मनसे भी चिन्तन नहीं करुँगी।
४. वर— हे सखे! चौथे मंडल में तुम
अपना पैर रखो, इससे भगवान् विष्णु तुम्हारे लिए सभी सुखों को उत्पन्न करेंगे।
कन्या— मैं आपके चरणों से लेकर सिरके
केशोंपर्यन्त सर्वांग की सेवा गन्ध, माल्य, अनुलेपन, सुवर्णादि से करती हुई सदा ही
आपसे स्नेह करती रहूँगी।
५. वर— हे सखे! पाँचवें मंडल में
तुम अपना पैर रखो, इससे भगवान् विष्णु तुम्हारे गौ आदि पशुओं की वृद्धि करेंगे।
कन्या— मैं आपकी मंगलकामना के लिए
अपनी सखियों सहित गौरीकी आराधना में तत्पर रहती हुई आपमें ही भक्तिभाव करती रहूँगी।
६. वर— हे सखे! छठे मंडल में तुम
अपना पैर रखो, इससे भगवान् विष्णु तुम्हें ऋतुओं का समुचित समय प्राप्त करायेंगे।
कन्या— यज्ञ, होम, दानादि में आप
जहाँ भी तत्पर रहेंगे, वहीं मैं आपकी सेवा में स्थित रहूँगी।
७. वर— हे सखे! सातवें मंडल में तुम
अपना पैर रखो, इससे पृथ्वी आदि सातों लोकों का सुख भोगनेवाली और सदा हमारी
आज्ञाकारिणी रहो। तुम्हें भगवान् विष्णु सातों लोकों के सुखभोग प्रदान करें और हममें
ही प्रीति रखनेवाली पतिव्रता बना दें।
कन्या— मेरी इन प्रतिज्ञाओं में
अन्तर्यामी देवगण साक्षी रहें, मैं कभी आपकी वंचना नहीं करुँगी।
उक्त
वचनों से किंचित् भिन्न श्लोक भी विविध विवाहपद्धतियों में प्राप्त होते हैं। यथा—
१. तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञदानं मया सह
त्वं यदि कान्त कुर्याः। वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं जगाद् वाक्यं प्रथमं कुमारी।। (कन्या कहती है कि हे कान्त ! तीर्थ, व्रत, यज्ञ,
दान, उद्यापन आदि सभी धर्मकार्य आप मेरे साथ करें, तो मैं आपकी वामाँगी बनूँगी।)
२. हव्यप्रदानैरमरान् पितृंश्च
कव्यप्रदानैर्यदि पूजयेथाः। वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं जगाद् कन्या वचनं
द्वितीयम्।। (यदि
आप हविष्यान्न देकर देवताओं की , कव्य देकर पितरों की पूजा करें, तो मैं आपके वामाँग
में आऊँगी।)
३.
कुटुम्बरक्षाभरणं यदि त्वं कुर्याः पशूनां परिपालनं च।
वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं जगाद् कन्या वचनं तृतीयम्।। (यदि आप परिवार की रक्षा और पशुओं का
पालन करें तो मैं आपके वामाँग में आऊँगी।)
४.
आयं व्ययं धान्यधनादिकानां दृष्ट्वा निवेशं प्रगृहं विदध्याः।
वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं जगाद् कन्या वचनं चतुर्थम्। (यदि आप आय-व्यय और धन-धान्य को भरकर
गृहस्थी सम्हालें, तो मैं आपके वामाँग में आऊँगी।)
५.
देवालयारामतडागकूपवापी विदध्या यदि पूजयेथाः। वामाङ्गमायामि
तदा त्वदीयं जगाद् कन्या वचनं च पञ्चमम्।। (यदि आप देवालय, वाग, कूप, तडाग, वावली
आदि बनवाकर पूजा करें, तो मैं आपके वामाँग में आऊँगी।)
६.
देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्याः क्रयविक्रये
त्वम्। वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं जगाद्
कन्या वचनं च षष्ठम्।। (यदि आप नगर में अथवा किसी अन्य नगर में जाकर
वाणिज्य-व्यवसाय करें, तो मैं आपके वामाँग में आऊँगी।)
७.
न सेवनीया परिकीयजाया त्वया भवे भाविनि-कामिनीश्च।
वामाङ्गमायामि तदा त्वदीयं जगाद् कन्या वचनं च सप्तमम्।। (यदि आप किसी परायी स्त्री का स्पर्श
न करें, क्योंकि मैं आपके मन को लुभानेवाली कामिनीके रूप में हूँ, तब मैं आपके
वामाँग में आऊँगी।)
पुनः
वर के वचन— उक्त वचन
(प्रथम समूह या द्वितीय समूह का) सुनने के बाद वर के भी कुछ वचन हैं—
१.
क्रीडाशरीरसंस्कारसमाजोत्सवदर्शनम्।
हास्यं परगृहे यानं त्यजेत् प्रोषितभर्तृका।। (जब तक मैं घर पर रहूँ, तब तक तुम
क्रीडा आमोद-प्रमोद करो, शरीर में उबटनादि लगा कर, शृंगार करो, सामाजिक उत्सवों
में भाग लो, हँसी-मजाक करो, दूसरे के घर सखी-सहेली से मिलने जाओ, परन्तु जब मैं
घरपर न रहूँ, परदेस में रहूँ, तब इन सभी व्यवहारों को छोड़ देना चाहिए।)
२. विष्णुर्वैश्वानरः साक्षी ब्राह्मणज्ञातिबान्धवाः।
पञ्चमं ध्रुव-मालोक्य ससाक्षित्वं ममागताः।। (विष्णु, अग्नि, ब्राह्मण, स्वजातीय
भाई-बन्धु और ध्रुवतारा (पाँचवें) – ये सभी मेरे साक्षी हैं।)
३. तव चित्त मम चित्ते वाचा वाच्यं न
लोपयेत्। व्रते मे सर्वदा देयं हृदयस्थं वरानने।। (हे सुमुखि ! अपनी वाणी से मेरे
चित्त के अनुकूल तुम्हें अपना चित्त रखना चाहिए। अपनी वाणी से मेरे वचनों का उल्लंघन
नहीं करना चाहिए। जो कुछ भी मैं कहूँ, उसको सदा अपने हृदय में रखना चाहिए। इस
प्रकार तुम्हें मेरे पातिव्रत्यका पालन करना
चाहिए।
४. मम तुष्टिश्च कर्तव्या बन्धूनां
भक्तिरादरात्। ममाज्ञा परिपाल्यैषा पातिव्रतपरायणे।। (मुझे जिस प्रकार सन्तोष हो, वही
कार्य तुम्हें करना चाहिए। हमारे भाई-बन्धुओं के प्रति आदर के साथ भक्ति-भाव रखना
चाहिए। हे पातिव्रत का पालन करने वाली मेरी इस आज्ञा का पालन करना होगा।)
५. विना पत्नीं कथं धर्मं आश्रमाणां
प्रवर्तते। तस्मात्त्वं मम विश्वस्ता भव वामाङ्गगामिनि।। (बिना पत्नी के गृहस्थ धर्म का पालन
नहीं हो सकता, अतः तुम मेरा विश्वासपात्र बनो। अब तुम मेरी वामाँगी बनो।)
६. मदीयचित्तानुगतञ्च चित्तं सदा
मदाज्ञापरिपालनं च। पतिव्रताधर्मपरायणा त्वं कुर्याः सदा सर्वमिदं प्रयत्नम्।। (मेरे चित्त के अनुसार तुम्हारा
चित्त होना चाहिए। तुम्हें मेरी आज्ञा का सदा पालन करना चाहिए। पातिव्रतका पालन
करती हुई धर्मपरायण बनो, यह तुम्हें प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए।)
नोट— वर-कन्या द्वारा परस्पर संवाद क्रम
में सप्तपदी के ये वचन बड़े मूल्यवान हैं। ध्यातव्य है कि न्यायालय में खड़े होकर,
धर्मग्रन्थों की तोतारट शपथपूर्वक झूठ-सच बोलने वाली बातें नहीं है ये। बल्कि ऊर्जा
के अजस्र स्रोत अग्नि, वेद मन्त्रों और ब्राह्मणों के समक्ष की गई प्रतिज्ञा है
ये। इसका पालन दोनों को करना चाहिए। ध्यान रहे कि पुरुष-सत्तात्मक समाज में स्त्री
की अवहेलना और प्रताड़ना न हो और पश्चिमी
सभ्यता के दबाव (प्रभाव) में स्त्री भी उन्मुक्त-उदण्ड न हो जाए। स्त्री के लिए
पातिव्रत का जितना महत्त्व है, उससे जरा भी कम महत्त्व पुरुष के एक पत्नी व्रती
होने का नहीं है। पुरुष यदि उन्मुक्ताप्रिय होता है, तो स्त्री को पातिव्रत्य में
बाँधे रहने का कोई औचित्य नहीं है। इसका ये अर्थ नहीं कि दोनों उन्मुक्त हो जाएँ,
बल्कि दोनों आजीवन सनातनी परम्परा का निर्वहण करें। एक और बात का ध्यान रखें—
वैदिक विवाह परम्परा में पत्नी-परित्याग (तलाक) का कोई सूत्र नहीं है, कोई विधि नहीं
है और न न्यायालय को ही ये अधिकार है। न्यायालय जो निर्णय दे दे रहा है, ये उसकी
धृष्टता, महामूर्खता और सनातन संस्कृति का घोर अपमान है।
जलाभिषेक—
सप्तपदी के वचन पूरे हो जाने पर, वर
मण्डप में पीछे खड़े दृढ़कलश लिए व्यक्ति से थोड़ा जल लेकर, कुशा से कन्या के सिर
पर छिड़के। आचार्य मन्त्रोच्चारण करें— ऊँ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः
शान्ततमास्तास्ते कृष्वन्तु भेषजम्।।
कन्या
के ऊपर जल छिड़कने के बाद, वर अपने ऊपर भी जल छिड़के, आचार्य मन्त्रोच्चारण करें—ऊँ
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः।। ऊँ तस्माऽअरङ्गमाम वो यस्य
क्षयाय जिन्वथ। आपोजनयथा च नः।।
सूर्य/ध्रुवतारा दर्शन— तदनन्तर, यदि दिन में विवाह हो तो
सूर्य दर्शन हेतु और रात्रि में हो तो ध्रुवतारा दर्शन करे। (मंडप में अपने
स्थान पर ही, मानसिक ध्यान करे) वर-कन्या दोनों हाथ में पुष्पाक्षत लेकर, खड़े
होकर आकाश की ओर देखें। आचार्य मन्त्रोच्चारण करें—
सूर्य
हेतु— ऊँ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम
शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः
शतात्।।
ध्रुव
हेतु— ध्रुवं पश्यामि। ऊँ ध्रवुमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि। ध्रुवैधि पोष्ये मयि।
मह्यं त्वाऽदात् बृहस्पतिर्मया पत्या प्रजावती सञ्जीव शरदः शतम्।।
हृदयालम्भन—
तदनन्तर वर कन्या के दाहिने कंधे पर
से हाथ ले जाकर, वधू के हृदयस्थल का स्पर्श करे। आचार्य मन्त्रोच्चारण करें— ऊँ
मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं तेऽ अस्तु। मम वाचमेकमना जुषस्व।
प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।।
सुमंगली(सिन्दूर
दान)—सिन्दूर
दान हेतु विशेष मात्रा में (किलो-आधाकिलो) पीला सिन्दूर लकड़ी के सुन्दर
सिन्दूरदान में रखकर, वरपक्ष की ओर से आता है। साथ में सफेद सन (एक प्रकार की
वनस्पति का रेशा) और चाँदी का छोटा सा तस्तरीनुमा पत्र भी रहता है, जिसमें लेकर, वर
द्वारा सिन्दूर लगाया जाता है कन्या के सीमन्त प्रदेश में। सिन्दूर लगाने से पहले
आचार्य थोड़ा सा सिन्दूर निकाल कर, दो पुड़िया बनाकर कुलदेवेभ्यो नमः कहते
हुए दोनों पक्ष के उपस्थित मुख्यजन को दे देते हैं। तदनन्तर उस स्थान पर पीले या
लाल वस्त्र से सुरक्षा घेरा कर दिया जाता है, जिसके भीतर वर-कन्या के अतिरिक्त
कन्या की बड़ी बहन या भाभी मात्र उपस्थित रहती है। किसी अन्य पुरुष या प्रवेश
सर्वथा वर्जित है।
(ध्यातव्य
है कि आजकल आधुनिकता के दौर में कैमरामैन सबके सिर पर सवार रहता है, वो भी महाउदण्ड
की तरह यज्ञमण्डप में जूता
पहने
हुए। लोगों का ध्यान भी फोटोग्राफी पर ज्यादा रहता है ,वैदिक कर्मकाण्ड पर कम।
सनातनियों को इस पर विचार करना चाहिए और नवीन सामाजिक कुरीति का वहिष्कार करना
चाहिए। फोटो लेना ही है तो जूते उतार कर, मुख्य सिन्दूरदान प्रक्रिया सम्पन्न हो जाने
पर, लिया जाये।)
वस्त्राच्छादित
अन्तःपुर में कन्या यथावत पूर्वाभिमुख बैठी रहे। उसके सम्मुख वर अपने बायें हाथ
में सिन्धोरा लेकर, पश्चिमाभिमुक खड़ा हो। सर्वप्रथम अपने दाहिने हाथ की अनामिका
अंगुली के अग्रभाग से कन्या के सीमन्त प्रदेश (माँग) का स्पर्श करे। वस्तुतः ये
सीमन्त अभिमन्त्रण की क्रिया है। आचार्य मन्त्रवाचन करें—
ऊँ सुमङ्गलीरियं वधूरिमाꣳसमेत पश्यत।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथाऽस्तं विपरेत न ।।
तत्पश्चात् वर सन (रेशे) के सहारे थोड़ासा
सिन्दूर उठाकर, पहले कलशस्थापित गौरीगणेशादि पर चढ़ावे, तदनन्तर पुनः उसी सन के
रेशे से सिन्दूर उठाकर, कन्या के सीमन्त में स्नेहपूर्वक लगावे। तदर्थ आचार्य
मन्त्रोच्चारण करें—
ऊँ वाममद्य सवितर्वाममश्वो दिवे दिवे
वाममस्मभ्यᳰ सावीः। वामस्य हि क्षयस्य देवभूरेरयाधिया वामभाजः स्याम।। वर द्वारा सिन्दूर लगाने की ये
क्रिया पाँच बार होनी चाहिए।
अब
वस्त्राच्छादन (पर्दा) हटा दें। अपने हाथ में लिए सिन्दूरपात्र (सिन्धोरा) को वर
वधू के दाहिने हाथ में देदे। वधू उसे आदरपूर्वक दोनों हाथों से पकड़ ले। वर भी
समीप आसन पर बैठ जाए।
सुहागिनियों द्वारा सिन्दूर की
पुनरावृत्ति—
अब, वधू को वर के बांयी ओर बैठा दे और उपस्थित माताएँ-बहनें, सुहागिनें भी कन्या
के माँग में सिन्दूर लगावें। ध्यातव्य है कि माताओं द्वारा लगाया जाने वाला ये
सिन्दूर सिर्फ सीमन्त (माँग) में न होकर, नीचे नाक के छोर से प्रारम्भ कर, ऊपर
पूरे सीमन्त भाग तक जाए—नीचे से ऊपर की ओर लगावें, ऊपर से नीचे कदापि नहीं।
इस क्रिया का गूढ़ तान्त्रिक-यौगिक
महत्त्व है - इसे न भूलें।
ध्यातव्य
है कि मुख्य सिन्दूर दान की क्रिया परस्पर सम्मुख स्थिति में सम्पन्न हो चुकी है, किन्तु
अब माताओं द्वारा सिन्दूर दान की प्रक्रिया हो रही है,अतः यहाँ वामाँगी बनना
अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में ऋषि व्याघ्र के कथन हैं— वामे सिन्दूरदाने च वामे
चैव द्विरागमे। वामभागे च शय्यायां नामकर्म तथैव च।। शान्तिकेषु च सर्वेषु
प्रतिष्ठोद्यापनादिषु। वामे द्युपविशेत् पत्नी व्याघ्राय वचनं यथा।।
ग्रन्थिबन्धन—
तदनन्तर आचार्य वधू के उत्तरीय में द्रव्य,
अक्षत, सुपारी, पुष्पादि डाल कर ग्रन्थिबन्धन करें— ऊँ मङ्गलं भगवान विष्णुः मङ्गलं
गरुडध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलायतनो हरिः।। (ध्यातव्य है कि वैवाहिकजीवन का ये
पहला ग्रन्थिबन्धन है। पति-पत्नी के उत्तरीय से इसे मन्त्रपूरित करके आचार्य
द्वारा बाँधा जाता है। प्रायः ऐसा भी होता है कि कार्य समाप्ति के बाद इस ग्रन्थि
को खोला नहीं जाता, बल्कि यथावत सुरक्षित रख दिया जाता है। आगे जीवन में जब कभी
सपत्निक कर्म करने की आवश्यकता होती है, तो इस मन्त्रपूरित उत्तरीय का ही उपयोग
किया जाता है।
इसी
भाँति सिन्दूरदान हेतु प्राप्त सिन्दूर को आजीवन सम्भाल कर रखना चाहिए। नित्य
स्नान के बाद उसी सिन्दूर का उपयोग करना चाहिए। इस सिन्दूर के उपयोग का कोई और
अधिकारी नहीं हो सकता। सिन्दूर की मात्रा जब कम होने लगे, तो नया सिन्दूर
लेकर, उसी में मिला देना चाहिए, यानी सुहाग के इस अक्षय भण्डार का क्षय नहीं होना
चाहिए। सौभाग्य से स्त्री अपने पति के
जीवन काल में ही स्वर्गसिधार जाए, तो उसके शव को स्नान कराकर, इसी सिन्दूर से
श्रृंगार करके विदा करना चाहिए और सिन्धोरे को भी चिता को सम्पर्पित कर देना
चाहिए।
सनातनी
सुहागिने विवाह के जोड़े को बहुत सम्भाल कर रखती हैं। उस वस्त्र में ही सुहागिन की
अन्तिम विदाई भी होनी चाहिए, भले ही ऊपर से अन्य नवीन वस्त्र दे दिए जाएँ।
गुप्तागार-कौतुकागार-(कोहबर)
गमन— वर-वधू के ग्रन्थिबन्धन और
सुहागिनियों द्वारा सिन्दूरबहोरन (सिन्दूर की पुनरावृति) के बाद वर-वधू को मण्डप
से कन्या के कुलदेवतास्थान पर ले जाया जाता है, जहाँ षोडशमातृकादि भी
स्थापित-पूजित रहती हैं। वहीं दायें-बायें कहीं सुविधानुसार दीवार पर वर्गाकार कोहबर
पहले से ही चित्रित होता है, जिसमें मांगलिक चिह्नों के साथ वर-वधू का नाम भी
अंकित रहता है। द्वार पर कन्या की छोटी बहनें द्वार रोक कर खड़ी रहती हैं, जिन्हें
वधूप्रवेशन-मांगलिक श्लोक, दोहे आदि वर को सुनाने पड़ते हैं, इसे द्वार-पढ़ना कहते
हैं। लौकिक रीति में कन्या की छोटी बहनें परस्पर हास-परिहास करती हैं। अपना नेग
(उपहार) वर से मांगती हैं, तब भीतर प्रवेश देती हैं। भीतर जाकर, सर्वप्रथम कुलदेवता
को नवदम्पति प्रणाम करते हैं। ध्यातव्य है कि कन्याकुल के जामाता बन जाने के
पश्चात् ही कुलदेवता के दर्शन और प्रसादग्रहण का अधिकार मिला है वर को। कोहबर में
बैठकर वर ये मन्त्रवाचन करे— ऊँ इह गावो निषीदन्त्विहाश्वाऽइह पूरुषाः। इहो
सहस्त्रदक्षिणो यज्ञऽइह पूषा निषीदतु।।
अब, यहाँ पर अपनी लोकरीति के अनुसार भाँडभरण
आदि की क्रियाएँ भी सम्पन्न करायी जाती है कन्या की माता द्वारा। तदनन्तर कुलदेवी
का प्रसाद, दही और साग खिलाया जाता है वर-कन्या को।
स्विष्टकृतहोम— पुनः वर-वधू को मण्डप में लाकर, स्विष्टकृत
होमादि की क्रियाएँ सम्पन्न करायी जाती है। सुविधानुसार प्रायः आचार्य ये कर्म
पहले ही करा देते हैं, यानी मण्डप की पूरी क्रिया सम्पन्न करने के बाद ही कोहबर
गमन होता है। यहाँ शास्त्र बाधक नहीं है। अतः अपनी लोकरीति के अनुसार करना चाहिए।
किन्तु करना आवश्यक है ये ध्यान रहे। यह आहुति ब्रह्मा से सम्बन्ध रखकर (कुशा से
वर और ब्रह्मा का स्पर्श किए हुए) की जाती है। आचार्य मन्त्र बोलें, वर घृताहुति
डाले— ऊँ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा, इदमग्नये स्विष्टकृते न मम।
संस्रवप्राशन
एवं मार्जन— अब,
तक डाली गई आहुतियों के क्रम में प्रोक्षणीपात्र में जो स्रुवाशेष घृत का छिड़काव
किया गया था, उसे वर-वधू अपनी अनामिका से उठाकर होठों से लगावें। तदनन्तर हाथ धोकर
कुशा या आम्रपल्लव से वेदी के पास रखे दूसरे पात्र—प्रणीता के जल से अपने ऊपर
छिड़काव करें। ऊँ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु—कहते हुए। तथा निम्नमन्त्र
वाचन सहित एक बार जल नीचे छिड़कें— ऊँ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि
यंच वयं द्विष्मः। (छिड़काव वाले कुशा को अग्नि में छोड़ दे।)
पूर्णपात्रदान—
हाथ में जलाक्षतपुष्पादि लेकर वर
संकल्प करे—
ऊँ
अद्य कृतैतद्विवाहहोमकर्मणिकृताऽकृतावेक्षणरूपकर्म- प्रतिष्ठार्थम् इदं
पूर्णपात्रं सदक्षिणाकं प्रजापतिदैवतं....गोत्राय.... शर्मणे ब्राह्मणाय भवते
सम्प्रददे। उसे
ग्रहण करके नियुक्त ब्रह्मा बोलें—स्वस्ति।
प्रणीताविमोक— तदनन्तर अग्नि वेदी के पास रखे
प्रणीतापात्र को उलटकर रख दे एवं उपयमन कुशा द्वारा उस जल को माथे पर छिड़क ले— ऊँ
आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। तदनन्तर उपयमन
कुशों को अग्नि में छोड़ दे।
बर्हिहोम—
तदनन्तर जिस क्रम से वेदी संस्कार के
समय कुशों को बिछाया गया था, उसी क्रम से एक-एक कर उठाले और घी में भिंगो कर अग्नि
में छोड़े मन्त्रवाचन पूर्वक— ऊँ देवा गातु विदो गातुं वित्त्वा गातुमित ।
मनसस्पत इमं देव यज्ञᳪस्वाहा वाते धाः। स्वाहा।।
त्रायुष्करण—
अग्निवेदी से स्रुवा या आम्रपल्लव के
सहारे किंचित् भस्म लेकर वर दाहिने हाथ की अनामिका से विहित अंगों में लगावे।
आचार्य मन्त्र बोलें— ऊँ त्रायुषं जमदग्नेः ललाट में। ऊँ कश्यपस्य
त्र्यायुषम् ग्रीवा में। यद्देवेष त्र्यायुषम् दाहिने कंधे पर। तन्नो
अस्तु त्र्यायुषम् हृदय में। वर द्वारा ग्रहण किए गए त्रायुष को वधू सिर्फ अपनी
ग्रीवा में लगाले।
अभिषेक— तदनन्तर आचार्य एवं श्रेष्ठजन (स्त्रियाँ
भी) दृढ़पुरुषघट वाले जल से तथा अक्षत, धान का लावा, दूर्वा आदि उपलब्ध मांगलिक
पदार्थों से वर-वधू का अभिषेक करें। आचार्य मन्त्रोच्चारण करें। यहाँ सामूहिक मन्त्रोच्चारण
होना चाहिए—
ऊँ
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वस्त्यै
वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभि-षिञ्चाम्यसौ।। ऊँ
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो
यन्तुर्यन्त्रेणाग्नेः साम्राज्येनाभिषि-ञ्चामि।। ऊँ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां
पूष्णो हस्ताभ्याम्। अश्विनोर्भेषञ्जेन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभिषिञ्चामि सरस्वत्यै
भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभिषिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि।।
(उक्त तीन वैदिक मन्त्रों के पश्चात्
ग्यारह पौराणिक मन्त्रों से भी अभिषेक करे)—
१.
गणाधिपो
भानुशशी धरासुतो बुधो गुरुर्भार्गवसूर्यनन्दनौ। राहुश्च केतुप्रभृतिर्नवग्रहाः
कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा।।
२.
उपेन्द्र
इन्द्रो वरुणो हुताशनो धर्मो यमो वायुहरिश्चतुर्भुजः। गन्धर्वयक्षोरगसिद्धचारणाः
कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा।।
३.
नलो
दधीचिः सगरः पुरूरवाःशाकुन्तलेयो भरतो धनञ्जयः। रामत्रयं वैन्यबलिर्युधिष्ठिरः
कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा।।
४.
मनुर्मरीचिर्भृगुदक्षनारदाः
पराशरो व्यासवसिष्ठभार्गवाः। वाल्मीकिकुम्भोद्भवगर्गगौतमाः कुर्वन्तु वः
पूर्णमनोरथं सदा।।
५.
रम्भा
शची सत्यवती च देवकी गौरी च लक्ष्मीरदितिश्च रुक्मिणी। कूर्मो गजेन्द्रः सचराचरा
धरा कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा।।
६.
गङ्गा
च क्षिप्रा यमुना सरस्वती गोदावरी वेत्रवती च नर्मदा। सा चन्द्रभागा वरुणा असी नदी
कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा।।
७.
तुङ्गप्रभासो
गुरुचक्रपुष्करं गयाविमुक्तो बदरी वटेश्वरः। केदारपम्पाशरनैमिषारकं कुर्वन्तु वः
पूर्णमनोरथं सदा।।
८.
शङ्खश्च
दूर्वा सितपत्रचामरं मणिःप्रदीपो वररत्नकाञ्चनम्। सम्पूर्णकुम्भैः सहितो हुताशनः कुर्वन्तु
वः पूर्णमनोरथं सदा।।
९.
प्रयाणकाले
यदि वा सुमङ्गले प्रभातकाले च नृपाभिषेचने। धर्मार्थकामाय नरस्य भाषितं व्यासेन
सम्प्रोक्तमनोरथं सदा।।
१०.
ऋग्वेदो
यजुर्वेदो सामवेदो ह्यथर्वणः। रक्षन्तु चतुरो वेदाः यावच्चन्द्र दिवाकरौ।।
११.
मन्त्रार्थाः
सफला सन्तु पूर्णाः सन्तु मनोरथाः। शत्रूणां वुद्धिनाशस्तु मित्राणामुदयस्तव।।
सामूहिक
अभिषेक के पश्चात् वर-वधू संक्षिप्त रूप से मण्डप स्थापित गौरीगणेशादि का पूजन
करें, तदनन्तर आचार्य दक्षिणा, ब्राह्मण भोजन, भूयसी दक्षिणादि हेतु
जलाक्षतपुष्पादि लेकर संकल्प करके भगवत्समरण करें।
(क)
ऊँ
अद्य कृतैतद्विवाहकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं... गोत्राय...शर्मणे आचार्याय
मनसोद्दिष्टां दक्षिणां दातुमहमुत्सृज्ये।
(ख)
ऊँ
अद्य कृतैतद्विवाहकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथा संख्याकान् ब्राह्मणान्
भोजयिष्ये।
(ग)
ऊँ
अद्य कृतैतद्विवाहकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं तन्मध्ये
न्यूनातिरिक्तदोषपरिहारार्थं
नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसी दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये।
पुनः
अक्षताभिषेक— तदनन्तर
आचार्य सहित वरिष्ठजन सामूहिक रूप से अक्षताभिषेक करके वर-वधू को आशीर्वाद दें—
ऊँ
लक्ष्मीस्ते पंकजाक्षी निवसतु भवने भारती कण्ठदेशे। वर्द्धन्तां बन्धुवर्गाः
रिपुगणाः यान्तु पाताल मूले।। देशे-देशे च कीर्तिं प्रभवतु भवता पूर्णकुन्देदु
शुभ्रा। जीवन्तां पुत्र पौत्र सकल गुण युतैः स्वस्तिते नित्यमस्तात्।
भगवत्स्मरण— पुनः पुष्पाक्षत लेकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण करे— प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् । स्मरणादेव
तद् विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ।। यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या
तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
यत्पादपङ्कजस्मरणाद् यस्य नामजपादपि । न्यूनं कर्म भवेत् पूर्णं वन्दे साम्बमीश्वरम् ।। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ
विष्णवे नमः। ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ साम्बसदाशिवाय नमः । साम्बसदाशिवाय नमः ।
साम्बसदाशिवाय नमः ।
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