पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-183

गतांश से आगे...
                    अध्याय ३१— उपसंहार

      सुदीर्घ काल के श्रम की सार्थकता आज सिद्ध होने की स्थिति में आयी है। अनेकानेक विघ्न-बाधाओं को लांघकर, मेरी यह वास्तुमंजूषा इस योग्य हो पायी कि आप, सुधी पाठकों के कर कमलों में अर्पित कर सकूँ। सतत प्रयास के पश्चात् भी निश्चित ही काफी त्रुटियां रह गयी होंगी, जिसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। पूर्व में भी घोषणा कर चुका हूँ- मैं कोई विद्वान नहीं हूँ। सिलसिलेवार किसी विषय की शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पाया हूँ। बस जो कुछ है,ईश्वर की महती कृपा और गुरुजनों तथा पूर्वजों का आशीर्वाद। मंजूषा आपके लिए किंचित भी उपयोगी सिद्ध हुयी तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूं।
    किसी प्रकार के सुझावादेश का स्वागत है ,निम्न पतों पर-
Mb.08986286163                                                                           निवेदक
                                                    कमलेश पुण्यार्क
उमाचतुर्थी,ज्येष्ठशुक्ल,सम्बत् २०७२,
तदनुसार- २२ मई,२०१५ई.सन्
  
                      000--इत्यलम्--000
                               


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