अधूरीपतिया
की अपनी कहानी
किसी
अधूरेपन की कहानी ही क्या हो सकती है? कहानी
तो पूरेपन की होती है। फिर भी, है कुछ, जिसे आपसे कह देना जरुरी-सा लग रहा है।
एक
बहुत बड़ा वर्ग है,जो आत्मा को नहीं मानता। दरअसल वह तो परमात्मा को ही नहीं
जानता,फिर आत्मा को क्या मानेगा ! खैर,आत्मा-परमात्मा
का विवेचन मेरा अभीष्ट नहीं है यहाँ। मैं तो सिर्फ आपको एक घटना बताने जा रहा
हूँ,जो मुझे बहुत परेशान किया- एक नहीं, अनेक बार। तब तक,जब तक कि मकरसंक्रान्ति,सन्
१९८६ न आ गया,और मैं इस घटना को लिपिवद्ध करने को कटिवद्ध न हो गया।
मेरी
सामान्य स्वीकारोक्ति को संकल्प में बदलने के लिए ‘उसने’ बारम्बार प्रयास किया,और
अन्ततः सफल भी हुयी। उसके, ‘इस’ सफलता की कहानी को जनाने के लिए आपको जरा पीछे ले
चलना पड़ेगा। तो चले आइये मेरे साथ,आप भी।
बंगाल
का महानगरीय प्रवास या कहें वनवास, की अवधि पूरी हो चुकी थी। मैं अपने घरौंदे में
वापस आगया था। वचपन कबका पीछा छुड़ा चुका था। लोग मुझे किशोर ही नहीं वयस्क समझने लगे
थे। वयस्कता का प्रमाणपत्र भी समाज-परिवार ने दे दिया था। फिर भी कई कारणों से
पुनः प्रवासित होना पड़ा था, जन्मभूमि को छोड़कर,एक अनजान सी वनस्थली में। था तो
अपने ही प्रान्त का दक्षिणी हिस्सा,परन्तु अप्रान्त-सा,क्लान्त-सा।
मैं
वहीं आश्रित था,स्वावलम्बन के प्रयास में। एक अतिआत्मीय-शुभेच्छु की कृपा से भोजन
और आवास की व्यवस्था हो गयी थी,साथ ही वस्त्रों के लिए भी कुछ सहारा हो गया था—
बारह-चौदह घंटों के कार्य के एवज में १२०रु.मिल जाते थे,कभी-कभी नियोजक की कृपा से
कुछ अतिरिक्त भी;और इस प्रकार रोटी-कपड़ा और मकान तथाकथित रुप से ही मिल जायें
यदि,तो फिर लक्षभेदी को काफी राहत हो जाती है। मैं अपने कार्य में तत्लीनता से लग
गया, और बेहतर भविष्य के सपने बुनने लगा।
लेखन
की लत तो लगभग बचपन से ही लग गयी थी। विचारों की विजली हमेशा
कौंधती ही
रहती,गरज-तड़क के साथ; जिनमें कुछ ही संचित हो पाते,शेष- प्रायः असंचित ही, बिखर
जाते थे। विखरते-विखरते पुनः संचित हो जाने वाले विचारों की श्रृंखला में अधूरीपतिया
को पहले स्थान पर रख सकता हूँ।
गर्मी
का मौसम था- नीलगगन तले पसर जाने वाला दिन। तारे बेचारे शर्मसार हो रहे थे,क्योंकि
चाँदनी की चादर पसरी हुयी थी। कमरे में सोना भला कैसे अच्छा लगता!
घर के बाहर मैदान का एक छोटा-सा टुकड़ा था। वहीं एक छोटा सा ‘खटोला’
डाल कर निंदिया को बुलाने की कोशिश में था,क्यों कि रात के एक बज रहे थे,और वह आने
का नाम न ले रही थी। तभी एक मधुर आवाज आयी- “ जामुन खाओगे
बाबू ! बड़े ही मीठे हैं ?”
पलट
कर देखा तो,आवाक रह गया। सिर पर एक छोटी सी टोकरी,बायें हाथ में एक ‘पगहा’ जिसकी मुद्धी में बंधा एक मोटा सा भेड़,और दायें
हाथ में मुड़े-चिमुड़े पुराने अखवार में थोड़े से जामुन लिए
खड़ी थी एक किशोरी,जिसने मेरी स्वीकृति के वगैर ही दुस्साहस,किन्तु विनीत भाव से
आगे बढ़, विस्तर पर रखकर,वापस जाने को मुड़ी ही थी कि मैंने पूछा - “ और पैसे ? ”
जलतरंग
सी आवाज आयी- “ फिर कभी ले लूंगी।”
मुझे
आगे कुछ कहने-पूछने का अवसर ही न मिला,क्यों कि वह हवा के झोंके सी आयी,और विजली
की चपलता सी चली भी गयी,कुछ सोचने को विवश करके।
और
मैं सोचने लगा।
इस
छोटे से वय में किशोरियाँ तो बहुतेरे ही देखे थे मैंने,किन्तु आज जो दीख पड़ा, इसे
न ‘भूतो न भविष्यति’ कहना पड़ेगा। काव्य पटे पड़े हैं-
मृणालग्रीवा,चन्द्रमुखी,मृगनयनी, सरोजवदना,पद्मिनी और हंसिनी नायिकाओं से;किन्तु आज
जो कुछ भी मैंने देखा, उसे इन सबसे ऊपर ही कहना चाहिए— साक्षात् श्यामादेवी –
अखवार में लिपटे पके जामुनों सा ही रंग और चमक, निश्चित ही स्निग्ध भी वैसा ही
होगा, जैसा कि अनछुए ही आभास हुआ था।
सौन्दर्य-पारखी
यदि अपने नागरी-दम्भ से थोड़ा ऊबर कर इन वनस्थलियों में विचरें, तो शायद ऐसा ही कुछ देखने को मिले उन्हें भी,क्यों
कि मैं कुछ अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ।
लुप्त
हो चुकी विजली सी कौंध को आँखें मलमल कर देखने का प्रयास किया,जो एक जागृत स्वप्न
का आभास भर था। फिर प्रश्न उठने लगे — इतनी रात गये यह किशोरी कहां से आ रही होगी...सनिच्चरबाजार
तो कब का बन्द हो चुका होगा...ओऽह ! जामुन
बिकने से रह गये होंगे...सिनेमाहॉल की ओर चली गयी होगी...अन्तिम शो तक भी थोड़ा
बचा रह गया तो मुझे देती गयी...कोई रिस्तेदार के यहाँ चली गयी होगी...मगर आजतक कभी
इस रास्ते से गुजरते हुए देखा तो नहीं मैंने...यदि पास ही कहीं रहती है...?
और
सबसे बड़ा प्रश्न- जामुन पकने लगे अभी ही...?...?...?
किसी
प्रश्न का सही उत्तर न मिला,फलतः जामुन का रसास्वादन ही समसामयिक लगा। जामुन वाकई
बहुत ही मीठे थे। इतना स्वादिष्ट जामुन मैंने सच में आजतक कभी खाया नहीं था।
पुराणों में पढ़ने को मिलता है कि जम्बूद्वीप में जामुन का एक विशाल वृक्ष
है,जिसमें बहुत बड़े-बड़े अति मधुर फल लगते हैं। बड़े तो नहीं,परन्तु कुछ वैसे ही मीठे
फलों का अद्भुत आनन्द-लाभ उस दिन मुझे हुआ था।
जामुन
खाने के बाद,उसके आवरण(अखवार)को उलट-पुटल कर देखने लगा। यह भी मेरी पुरानी आदतों
में एक है- जिस कागज में लिपट पर बाहर से कोई सामान आता, उसे बिना देखे-पढ़े-परखे,मैं
मुक्त करने वाला नहीं हूँ। अब भला ‘रेपर’ को भी कोई पढ़ता-देखता है! उस पर लिखी गयी सूचनायें, कम्पनियां क्या पढ़ने के लिए लिखती हैं...वह तो
वस सरकारी खानापुरी भर है; किन्तु मैं उन समझदारों में नहीं हूँ। मेरी तो आदत है-
अक्षर-अक्षर निचोड़ लेना। अतः बगल के बरामदे से लालटेन उठा लाया,जो पूरी रात धीमें-धीमें
जलती रहती थी।
अखवार
काफी पुराना था- नाम पता नहीं, तारीख सन् १९४३ का। एक नया प्रश्न फिर कुलबुलाया— इतना
पुराना अखवार ! क्या किसी पुस्तकालय ने पुराने
संग्रह को बाजार में बेंच दिया ? किन्तु यह प्रश्न भी पूर्व
के अनुत्तरित प्रश्नों की पंक्ति में जा बैठा, और मैं उस अखवार में छपे एक समाचार
को गौर से पढ़ने लगा। फिर मुंह से एक गहरी उच्छ्वास अनचाहे ही छूट गयी— ओफ !
दुनियाँ में कैसे-कैसे लोग होते हैं ! हे ईश्वर
तू तो बहुत ही नेक है,फिर ऐसे अ-नेक का सृजन क्यों कर देता है...!
पुनः सोने की भूमिका बनाने लगा,किन्तु असफल रहा। जर्जर कागज के टुकड़े ने
मन को मथ डाला,और मथित मन में नींद कहाँ ?
संसार
चाहे जो भी हो- मोहक या घिनौना,वांध तो लेता ही है अपने में। मैं भी बंध गया। विसर
गयी बातें कि किसी किशोरी ने जामुन खिलाये थे,और पैसे भी नहीं लिये थे। वर्षों
गुजर गये। किशोरी का चेहरा,और जामुन के स्वाद अब इतिहास भी न रहे। वर्तमान को अतीत
होने में देर ही कितना लगता है ?
और
फिर एक रात- वैसा ही मौसम,मैदान का वही टुकड़ा,वही खाट,वही विस्तर;किन्तु रात काली-
पूनम नहीं,अमावश की। मैं नींद में डूबा हुआ था। कोई सपना चल रहा था—दो छोटी-छोटी
पहाड़ियों के बीच गहरी खाई...चारों ओर हरेभरे जंगल...मौसम बरसात का...दोनों
पहाड़ियों के बीच नदी का प्रचंड तांडव...इधर वाली पहाड़ी पर खड़ा एक युवक...लपक कर
छलांग लगाने को उतावला...उधर वाली पहाड़ी पर हाथ हिलाकर मना करती एक किशोरी...
जिसकी परवाह किये बिना युवक ने छलांग लगा दी...किशोरी जोर से चिल्लायी...इतनी जोर
से कि मेरी नींद खुल गयी।
कुछ
दिनों बाद,फिर एक रात...और आगे ऐसी ही रातों और सपनों का सिलसिला जारी हो गया;किन्तु
गौर करने पर, सभी सपने,पुरानी स्वप्न-श्रृंखला की एक कड़ी के रुप में नजर आये। मैं
उन्हें सिलसिलेवार जोड़ने-सहेजने-समझने की कोशिश करने लगा। लम्बी-लम्बी कड़ियां
कोई पचीस से कम न होंगी- एक सधे-मंजे टी.वी.सिरयल की तरह। मुझे लगा कि इन्हें सच
में सहेज लूँ;किन्तु दुनियादारी की व्यस्तता में फिर उलझ कर रह गया।
सालों
गुजर गये। विविध विषयों का लेखन कार्य अपने अंदाज में चलता रहा,चलता रहा;और इसी
बीच आयी- फिर एक रात- काली,घनेरी,फुहारोंवाली।
पुरानी
जगह पर ही,खुले के वजाय,खपरैल की छांवनी वाले वरामदे में खाट पर करवटें बदल रहा था।
आदतन,नींद फिर उचाट थी। बगल में कुछ सरसराहट हुयी,फिर आहट भी। उठकर बैठ गया। तकिये
के नीचे से टॉर्च निकाला;किन्तु ताजी वैट्री और सतत प्रयास के बावजूद जला पाने में
असफल रहा। खाट के समीप ही एक स्पष्ट साया नजर आयी,और खनकदार आवाज भी। आवाज बिलकुल
जानी-पहचानी सी—“बाबू ! तुम तो बड़े निठुर (निष्ठुर) और बेईमान निकले...जामुन भी खा लिये,और दाम
भी न दिये...।”
मैं
सकपका गया। अरे, ये तो वही लड़की है।
मुस्कुरा
कर बोला- “तुम हो कौन,और इतने दिनों बाद आज
जामुन के दाम का तकादा करने आयी हो,वो भी उलाहने के साथ? उस
दिन ली नहीं,फिर आयी नहीं। गलती तेरी है या मेरी? लो आज लेती
जाओ।”
“गलती किसी की नहीं है, और मुझे तुमसे दाम लेने भी नहीं हैं। काम लेने हैं।” —किशोरी ने कहा।
“ काम...मुझसे...क्या ? ”— मैं चौंका।
“
हाँ बाबू ! काम,बहुत जरुरी काम। तुम
कहानियां लिखते हो न,मेरी भी कहानी लिख दो ना। ”—खनखनाती आवाज
में अजीब सा जादू था।
“
कैसी कहानी ? तुम अपना
परिचय तो दो।”- मैंने कहा।
“
कहानी तो तुम्हें सब मालूम है। अब लिखना न चाहो
तो और बात है। वैसे बिन लिखाये मैं मानूंगी नहीं। लो ‘पियार’ खालो,और जल्दी से लिख
डालो मेरी कहानी।”—इतना कहकर,किशोरी थोड़ा झुकी,मेरी खाट की ओर,और
कुछ रख कर,अचानक गायब हो गयी।
टॉर्च
चलाने का पुनः प्रयास किया,और सफल भी रहा इस बार। सामने का मैदान खाली था। खाट पर
साखू के ताजे पतों पर थोड़ा का पियार(चिरोंजी के ताजे फल)रखे हुए थे। मैं बिलकुल
आवाक था। क्या ये भी मेरे स्वप्न का हिस्सा था,या कि हकीकत?—विचारने को विवश हो गया।
खाट
पर बैठे-बैठे पियार का आनन्द लेने लगा,जो जामुन से भी ज्यादा स्वादिष्ट लगे। पियार
खाता रहा,विचारों का बवण्डर उमड़ता-घुमड़ता रहा; और फिर धीरे-धीरे सब कुछ शान्त और
थिर हो गया। बहुत सी अनकही बातें ‘कही’ जैसी हो गयीं।
उन
कही-अनकही बातों का ही संग्रह है यह अधूरीपतिया। इस पूरे आंचलिक उपन्यास में सच
पूछें तो ‘मैं’ न के बराबर हूँ। मैंने कुछ खास किया नहीं है इसमें। मैंने तो सिर्फ
कागज-कलम उठाये। मत भी मतिया का और हाथ भी मतिया का ही। मतिया ने जबरन ही जामुन और
पियार खिलाकर मुझसे लिखवा लिया,जो वह लिखवाना चाहती थी।
घटना
कैसी है,रचना कैसी है,आपके मन को मतिया कितना छू रही है - इसे तो आप जाने। हाँ,कुछ
बताने-जताने लायक लगे,तो मुझे अवगत अवश्य करायेंगे। धन्यवाद।
मकरसंक्रान्ति,सन् १९८६. कमलेश पुण्यार्क
पुनश्च,
इस
आंचलिक उपन्यास को भारतीय ग्रन्थ निकेतन,२७१३,कूचाचेलान,दरियागंज, नईदिल्ली
ने बड़ी ही विनम्रता पूर्वक अपने प्रकाशन में स्थान दिया था- सन् १९८८ में ही।
प्रथम संस्करण की सभी प्रतियां हाथो-हाथ बिक गयी थी;किन्तु उसके बाद इसका
पुनर्प्रकाशन आजतक न हो सका। बाद में बहुतेरे प्रेमियों के पत्र आते रहे,पर मैं
उन्हें उपन्यास की प्रति उपलब्ध कराने में अक्षम रहा। अब,इलेक्ट्रोनिक-सोशलमीडिया
के जमाने में इसे अधिकाधिक प्रेमियों तक पहुँचाने के विचार से कम्पोज कर,अपने
ब्लॉग www.punyarkkriti.blogspot.com
पर पोस्ट कर रहा हूँ,जिसका
लिंक guruji.vastu@facebook.com guruji.vastu@tweeter.com
पर भी उपलब्ध रहेगा।
पुनश्च,
तैयार
हो गये इस उपन्यास की भी अजीब विडम्बना रही। प्रकाशन के थोड़े ही दिन बाद की बात
है, मैं उन दिनों बिहार के डेहरी-ऑन-सोन में रह रहा था। सोन नदी के प्राकृतिक
परिवेश में एक फिल्म की सूटिंग चल रही थी। सूटिंग देखने का लोभ-संवरण न कर सका। सूटिंग
से प्रभावित होकर,लगा कि क्यों न ‘अधूरीपतिया’ पर भी फिल्म बने। अगले ही दिन टीम
के लोगों से मिला। अधूरीपतिया की दो प्रतियां फिल्म-डाइरेक्टर,और हीरो कुणाल को
भेंट करते हुए,निवेदन किया,उस पर विचार करने के लिए। उपन्यास के विषय में वे मेरे
ही मुंह से कुछ सुनना चाहे। आंचलिक कहानी का सार सुनकर वे आकर्षित हो गये। अपने
अति व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद,उपन्यास पर विचार किये;और शीघ्र ही मुझे बम्बई आने
को कहा,आगे की बातों के लिए। किन्तु दुर्भाग्य ! घर आकर घरेलू समस्याओं मैं ऐसा फंसा कि वर्षों गुजर गये,ऊबर न पाया; और जब
ऊबरा,तो बहुत देर हो चुकी थी,बहुत देर।
(कम्पोजिंग-२९.५.२०१५,भीमसेनी
एकादशी,विक्रमाब्द २०७२)
अधूरीपतिया के कुछ चुनिंदे अंशः-
Ø ....किन्तु
न सतयुग है,न द्वापर; फिर ये आकाशवाणी
? आकाशवाणी तो ‘ऑलइण्डियारेडियो’
को कहने की परम्परा चल पड़ी है। आज तो धरावाणी को ही आकाशवाणी कहने वाले धोखा और
फरेब-वाणी का जमाना है—कुछ भी कहा जा सकता है इस वाणी में।
Ø चांदी
की कटार से पौधे की छंटाई भले की जा सकती है,फूल नहीं खिलाये जा सकते।
Ø ‘...मगर हाय रे गर्भ !
जिस गर्भ के लिए रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे थे, पिछले सात-आठ
बर्षों से,अब उस गर्भ को ही बहाने के लिए नदी की गहराई नापी जाने लगी थी।
Comments
Post a Comment