गतांश से आगे....तीसरा भाग
क्रमशः...
बाबा ने गायत्री की ओर देखा,फिर मेरी ओर । गायत्री
तो हँस-हँस कर बेहाल होरही थी,पर मुझे हँसी बहुत ही कम आती है,शायद मैं ज्यादा
सभ्य हो गया हूँ । मैं सोचने लगा था- बच्चों को नालायक और हरामी कहते समय मां-बाप,
भाई-बन्धु को कम से कम इन शब्दों के अर्थ पर तो विचार कर ही लेना चाहिए । बाप अपने
बेटे को हरामी कहे,या क्रोध में मां ही कह डाले यही शब्द- आखिर क्या मतलब ! कर्ण
जैसा योद्धा आजीवन हरामीपने का दंश झेलता रहा । क्षत्रिय का गुण और सारे
लक्षण-प्रमाण होते हुए भी ‘सूत-पुत्र’ सम्बोधन से अभिशापित रहा। कर्ण के जन्म का
रहस्य कुन्ती को तो ज्ञात था,फिर क्यों हुआ महाभारत ! क्या एक मात्र
कुन्ती दोषी नहीं है- इस विनाश के लिए ? पाण्डु जैसा उदार
पति,जिसने आदेश दिया हो--जैसे भी हो पुत्र प्राप्ति हो। फिर क्यों नहीं कुन्ती ने
उसी दिन पूरा सच बता दिया ? आधा सच बताकर,पांच पुत्र प्राप्त कर लिए। ठीक
है,मान लेता हूँ कि उस दिन, विवशता वश कर्ण को त्याग दी थी,किन्तु रंगभूमि में-
क्या बेहोशी टूटी ही नहीं कभी !
या उसके बाद, कभी भी ऐसा क्षण नहीं आया सत्य से साक्षात्कार करने का?
जबकि,
स्वयं
उस भरतकुल में ही ताजा उदाहरण मौजूद था- माता सत्यवती के आदेश से महर्षि व्यास द्वारा
नियोग विधि से धृतराष्ट्र, पाण्डु, और विदुर के जन्म का । ओह !
कितना सहृदय था उस दिन का हमारा समाज ! बलात्कार-पीडिता, परित्यक्ता,कुंआरी
मांओं को कानूनी संरक्षण देकर सुप्रिमकोर्ट ने कोई नया काम नहीं किया है आज। ऐसे
संरक्षण और सम्मान का प्रमाण तो हमारे प्राचीन पुस्तकों में भरे पड़े हैं। सत्काम
जाबाल
का उपनिषद कालिक प्रसंग तो ऐसी उदारता का
अप्रतिम उदाहरण है। एक अज्ञात नाम-कुल-बालक गुरु के पास शिक्षा-ग्रहण के उद्देश्य
से जाता है । गुरु द्वारा नाम-गोत्रादि पूछे जाने पर असमर्थता व्यक्त करता है ।
वापस आकर माता से प्रश्न करता है । माता कहती है – “ मैं एक दासी हूँ।
विभिन्न घरों में काम करती हूँ । विभिन्न पुरुषों के सम्पर्क में आती हूँ ।
तुम्हारा जनक कौन है,मुझे स्वयं ही स्पष्ट रुप से ज्ञात नहीं है।”
बालक अगले दिन गुरु चरणों में पुनः उपस्थित होकर, मां के शब्दों को यथावत रख देता है।
गुरु अतिशय प्रसन्नता पूर्वक कहते हैं- “निश्चित ही तुम
ब्राह्मण कुमार हो। जाबाला के पुत्र हो, सत्य को स्वीकर किया है तुमने । अतः
सत्यकामजाबाल के नाम से ख्यात होओगे जग में । सत्य को यथावत स्वीकारने की क्षमता
सिर्फ ब्राह्मण में ही हो सकती है।”- सामाजिक उदारता का इससे सुन्दर उदाहरण और क्या
हो सकता है?
मैं सोच रहा था,तभी बाबा ने टोका- ‘ किस चिन्तन
में डूब गये जी?’
मैंने
ना में सिर हिलाया,बोला कुछ नहीं। बाबा फिर कहने लगे,अपनी लीलाकथा— ‘ पिताजी का
आदेश,दादाजी के आदेश से भी कठोर था,जिसका पालन भी उतना ही कठिन। महज आठ साल के
बालक को पढ़ने के लिए सुदूर देश, किसी गुरुकुल में विस्थापित करने की योजना बनने
लगी। आजकल तो आधुनिक माता-पिता होश सम्हालते ही बच्चों को बोर्डिंगहाउस में डाल
देते हैं। प्रत्यक्ष कारण तो होता है-उसकी सही शिक्षा,किन्तु परोक्ष में कारण कुछ
और ही होता है- पैसे के बूते, अपनी
जिम्मेवारी से पलायन…। मूलतः व्यावसायिक, हॉस्टल में रह कर शिक्षा
पाने वाले बच्चे ही तो आगे चल कर मां-बाप के लिए भी वृद्धाश्रम तलाशने लगते हैं।
अपनी जवानी में मां-बाप स्वतन्त्रता खरीदते हैं ।आगे चलकर ,बेटा-बहु
भी फिर वही हासिल करना क्यों न चाहेगा ? सच पूछो तो ये भी
पश्चिम का ही
देन है। संयुक्त
परिवार क्या होता है- ठीक से कहां पता है पश्चिम वालों को।
‘...खैर,मेरे
रोअन-धोअन से हुआ सिर्फ इतना ही कि गुरुकुल पहुँचाने का कार्यभार पिताजी के वजाय दादाजी
ने लिया,और स्थान भी नियत किया उन्होंने ही- गयाजी के खरखुरा संस्कृत विद्यालय
में,क्यों कि उसके संस्थापक अवस्थीजी दादाजी के परम मित्र थे। ‘विच्छुकांड’ के
तीसरे दिन ही पूर्व दिशा की यात्रा बन रही थी। लग्न और चन्द्रमा सब अनुकूल
जान,दादाजी ने यात्रा की मुझे साथ लेकर। ‘चन्द्रमा मनसोजाता..’
चन्द्रमा को मन का अधिपति माना गया है। मेरे मन को नियन्त्रित करना ही तो अभीष्ट
था मेरे अभिभावकों का। अतः चन्द्रमा को अनुकूल रहना ,या रखना निहायत जरुरी था।
वैसे भी ज्योतिष में लग्न और चन्द्र को सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण कहा गया है।
ज्योतिषीय भविष्यवाणी का मूलाधार ये ही दोनों हैं।
‘...अवस्थीजी
बहुत प्रसन्न हुए,मुझे अपने शिष्य रुप में पाकर- “अहोभाग्य मेरा कि
अपने मित्र गदाधर भट्ट के पौत्र को शिक्षा देने का मुझे अवसर मिल रहा है।”
दादाजी ने उन्हें लगभग सारी रामकथा सुना डाली,जिसके जवाब में उन्होंने कहा -“
तुम चिन्ता न करो गदाधर ! तुम्हारा पौत्र मेरा पौत्र। मैं तुम्हारे बेटे
की तरह क्रोधी-तपाकी नहीं हूँ। भला अबोल बालक को कहीं ऐसी मार लगायी जाती है ! बच्चों
को कैसे रखा जाता है,मैं जानता हूँ। इसके पालन,रक्षण,शिक्षण
में मेरे पितृधर्म और गुरुधर्म दोनों का सम्यक् उपयोग होगा। तुम देखना,थोड़े ही
दिनों में इसमें अप्रत्याशित परिवर्तन ला दूंगा मैं। ”-कहते
हुए अवस्थीजी की ललाट दर्पित हो आयी थी।
‘...मुंह
अन्धेरे में ही ब्रह्ममुहूर्त की वापसी यात्रा की दादाजी ने। प्रणाम-पाती-विदा
देकर, अवस्थी जी अपने कमरे में चले गये। रात की मित्र-वार्ता में ही मुझे पता चल
चुका था कि दादा जी यहां से पैदल ही कन्दौल,जो कि गया से समीप ही है, की यात्रा
करेंगे, अपने मित्र वैद्य सिद्धनाथ मिश्र से मिलने के लिए। दिन भर वहीं बिता कर अगले
दिन गांव वापस जायेंगे। कुछ विशेष कारण से ही,घुड़सवारी को छोड़,पदयात्रा का ही
चयन किया था इन्होंने इस बार। कुछ मायने में ये इनकी एकान्तिक यात्रा कही जा सकती
है।
‘...अनुभवी
परियोजना पदाधिकारी की तरह मुझे भी अपनी योजना बनाने में देर न लगी। दादाजी के प्रस्थान
के थोड़ी देर बाद ही,अवस्थीजी से आदेश,और उनका ही पीतल का लोटा लेकर, प्रातः शौच के
लिए,मैं भी निकल गया, विद्यालय-प्रांगण से बाहर। फाटक से बाहर कदम रखा तो लगा कि स्वच्छ
आकाश में उन्मुक्त पक्षी सा पंख फड़फड़ा रहा हूँ। कहां आ फंसा था इस पिंजरे में !
अब देखता हूँ- अवस्थी के शिक्षण-रक्षण का दर्प !
रास्ता
बहुत अन्जान नहीं था। पहले भी एक-दो बार दादाजी के साथ कन्दौल जा चुका था, और
गयाजी की यात्रा तो बीसियों बार हो चुकी थी- कभी घोड़े,कभी पालकी से। कहीं भी
जाते, दादा जी मुझे जरुर साथ ले लिया करते थे। उनका स्नेह मेरे ऊपर सर्वाधिक
था,किन्तु क्या करता, कभी-कभी सर्वस्नेह की भी आहुति देनी होती है। ये स्नेह ही मनुष्य
का सबसे बड़ा अवरोधक है,विघ्न है....।’
उपद्रवी
बाबा की इस बात पर मेरा मन खटका। स्नेह की आहुति क्यों- मुझे जरा भी पल्ले न पड़ा।
अतः पूछ दिया- ‘माफ करेंगे महानुभाव ! ये क्या कह रहे हैं ? किसी
के प्रति आदर,सम्मान, स्नेह, प्रेम ही नहीं रहेगा तो फिर...? ’
मेरी
बात पर बाबा मुस्कुराये। उनकी मुस्कुराहट वैसी ही थी जैसी किसी बुजुर्ग की होती
है, किसी बच्चे के बचकानी सवाल पर। वे कहने लगे- ‘तुमने जो इन एक जैसे दिखने वाले
अनेक शब्दों का इस्तेमाल किया ,वो बिलकुल भिन्न हैं। प्रायः हम शब्दों के ‘तथाकथित
पर्याय’ को भी ‘शब्द’ ही मान लेने की भूल ही नहीं,मूर्खता कर बैठते हैं। आदर-सम्मान,और
स्नेह-प्रेम को एक ही परियानी पर क्यों तौल रहे हो ? आदर-सम्मान बिलकुल
अलग चीज है। इसकी आहुति देने की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। ये किसी भी तरह से हमारे
लिए विघ्नकारी नहीं हो सकते। माता-पिता, गुरुजनों को आदर-सम्मान देना ही
चाहिये,इसका कोई विकल्प भी नहीं है। माता-पिता कैसे भी हों,आदरणीय और सम्मानीय होते
ही हैं। वो ना होते तो मेरा वजूद ही कहां होता ! देखो,फिर यहाँ संशय
में मत पड़ जाना। माता के साथ मैंने पिता को रखा है, ‘वाप’ को नहीं। वह वन्दनीय
नहीं ‘भी’ हो सकता है। किन्तु पिता सदा वन्दनीय होता है। पिता
अनेक हो सकते हैं,पर वाप सदा एक ही होगा। इसकी अनेकता का सवाल
कहाँ !
खैर,तुम्हारा सवाल यहां स्नेह से सम्बन्धित है। मैं यहां बात भी स्नेह की ही कर
रहा हूँ। स्नेह की,प्रेम की भी नहीं। यह जो ‘स्नेह’ है न, ‘श्लेष’ है। श्लेषित कर
देता है- चिपका देता है, हमारे मन-प्राण को। और फिर इसी के गर्भ से मोह उत्पन्न
होता है। इस मोह ने अच्छे-अच्छों को मोहित किया है। महात्मा जड़भरत का नाम सुना
होगा तुमने,जिन्होंने संसार को ही विसरा दिया था, किन्तु एक मृगछौने के मोह ने-
स्नेह ने,बांध लिया,और फिर से एक ‘शरीर’ लेना पड़ा। अस्तु, इस स्नेह की तो आहुति
देनी ही होगी,आज दो,कल दो जब दो...और स्नेह का उल्टा परित्याग नहीं होता है। प्रायः
शब्दों के गूढ़ार्थ को ही हम समझने में चूक जाते हैं,फिर विपरीतार्थ तो बहुत दूर
की बात है। साधक को शब्दों के महाजाल से बाहर आना होता है; इसीलिए गीता जैसा महान पथ-प्रदर्शक
ग्रन्थ ‘निर्ग्रन्थ’ होने की सलाह देता है।’
बाबा
की अद्भुत बातें बरबस ही मुझे बांधे जा रही थी। जरा ठहर कर,
गहरी सांस लेकर, बाबा ने पुनः कहना शुरु किया- ‘हाँ,तो मैं अपने दादाजी का पीछा
करने लगा, उनकी स्वाभाविक चाल भी बहुत तेज थी। जवानों को भी उनके साथ चलने में
सांस फूलने लगता था। मुझे तो लगभग दौड़ना पड़ रहा था। कुछ दूर तक तो पता भी न चला
कि किधर निकल गये। सिर्फ अन्दाज से रास्ते पर बढ़ता रहा। अवस्थीजी के विद्यालय से
कोसों दूर पश्चिम जाने पर नदी किनारे उनकी गठरी नजर आयी। शायद शौच के लिए गये हों।
सूर्योदय होने ही वाला था। मौका पाकर, गठरी को पानी की धार पर रख दिया,जो तैरते
हुए आगे सरक गया।
‘...गठरी
बहाने के बाद, दो तरह के विचार मेरे मन में उठे- एक तो कि मैं चुपचाप पलायन कर
जाऊँ यहाँ से,और दूसरा यह कि यहीं कहीं छिप कर देखूं कि आगे क्या होता है। दादाजी
के प्रति स्नेह मुझे बांधे हुए था। संसार में दो ही प्रिय लगते हैं मुछे- बड़ी माँ
और दादाजी। पिता तो फूटी आँखों भी नहीं सुहाते। अपनी माँ से सामान्य लगाव है,जैसा
कि अन्य चार मांओं से।
‘...थोड़ा
सोच विचार के बाद दूसरा विकल्प ही सही लगा । अतः मैं वहीं एक ओर दुबक कर बैठ,
तमाशा देखने लगा। थोड़ी देर में दादाजी निवृत होकर लौटे तो गठरी नदारथ पा,चौंक
गये। कुछ देर हक्केबक्के खड़े रहे। आसपास कोई नजर न आया। गठरी आंखिर गयी कहाँ ! फिर
कुछ सोच,नदी की धार में उतर कर,हाथ-मुंह धोये,और ऊपर आकर आवाज लगाने लगे- “
उपेन्द्र कहाँ हो तुम, जल्दी सामने आओ। आंखिर मैं तुम्हारा दादा हूँ । मैं जानता
हूं कि यह काम तुम्हारा ही है, छिपने से कोई लाभ नहीं।“
‘…हँसते
हुए मैं झाड़ी से बाहर आगया। बड़ी ढीठायी से बोला- आपकी
गठरी तो मैं नदी में
बहा दिया। आप मुझे छोड़ कर क्यों आ गये? मैं वैसी जगह पर
बिलकुल नहीं रहूँगा जहाँ न आप हैं और न
बड़ी माँ।
‘...मेरी
बातों का जवाब दिये वगैर वे नदी की ओर लपके । पानी की धार
तेज न थी ।थोड़ी ही
दूर पर गठरी किनारे लगी हुयी थी। झपट कर गठरी उठा लाये। और तब,मेरा हाथ पकड़ कर
वहीं बालू पर बैठ गये। पीठ पर हाथ फेरते हुए समझाने लगे- “
उपेन्दर तुम पढ़ोगे नहीं तो मेरे जैसा विद्वान कैसे बनोगे? पढ़ने
के लिए ही तो अवस्थी जी के पास रखा था,घर पर पढ़ाई अच्छी नहीं होती, और पिताजी
मारते भी हैं। यहाँ रहने में तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होती...।”
‘...इसी
तरह की बहुत सी बातें कह-कह कर दादाजी घंटों मुझे समझाते रहे,पर मैं टस से मस न
हुआ अपने विचार से। अन्त में लाचार होकर,बोले- “ ठीक है,जैसी
तुम्हारी मर्जी,मगर एक बात जान लो कि इस बार घर जाओगे तो तुम्हारा बाप छठी का दूध
याद दिला देगा,और
मैं भी कुछ नहीं बोलूँगा- जान लो,क्यों कि तुम मेरी भी बात नहीं मानते।” फिर
कुछ सोचने के बाद,बोले- “अच्छा , तुम यहीं बैठो,तब तक मैं स्नान-ध्यान कर
लूँ। तुम तो अपना झोला वहीं छोड़ आये , और ऊपर से, अवस्थीजी का ये लोटा भी लिये
चले आये हो। ”
‘...स्नान-पूजा
के बाद,गठरी से निकाल कर कुछ जलपान किये,और तब, वहां से हम दादा-पोता आगे बढ़े-
कन्दौल की ओर,जो कि अभी चार-पांच कोस से कम न था।
दोपहर वाद हमलोग वहाँ पहुंचे। दादाजी
ने एक पत्र,और अवस्थीजी का लोटा वैद्य जी के घुड़सवार को सौंप कर कहा कि जल्दी
वापस आ जाये,उपेन्द्र का झोला और अवस्थी जी का समाचार लेकर।
‘...अगले दिन वहां से वैद्यजी का घोड़ा
लेकर,सीधे दक्खिन-पश्चिम का रुख किये। ये रास्ता मेरे लिए बिलकुल अनजान था। पूछने
पर भी दादाजी ने कुछ बतलाया नहीं। दोपहर से पहले ही हमलोग एक गांव में पहुंचे।
दादाजी ने बताया कि यहां पहाड़ के ऊपर बड़ा ही सुन्दर ऐतिहासिक मन्दिर है- ‘उमगा’- उमा,महेश,और गणेश का सिद्ध स्थल। पहाड़ की
तलहटी में बसा है गांव— पूर्णाडीह, जहाँ अनेक साधक हुए हैं। शाक्त उपासक ब्राह्मणों
की सिद्धस्थली है यह।
‘...वहीं,पंडित ज्ञानेश्वर जी के यहाँ पहुँचे
हमलोग। आवभगत और लम्बी
वार्ता के पश्चात्
पंडित जी ने कहा- “ गदाधर,यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो,तो मैं इस महाउदण्ड
बालक को अपने पास रख लूँ।”
उनकी
बात सुन, दादाजी हर्षित होकर बोले- “ मुझे क्यों आपत्ति
होने लगी,मैं तो कुछ ऐसी ही कामना लेकर,चामुण्डा के दरबार में आया हूँ। आप इस
विषय के ज्ञानी हैं।
स्वयं जांच-परख लें कि ‘वटुक’ किस योग्य है।”
“योग्यायोग्य
का विचार न करो, और न संशय ही। मैं तो ललाट और आँखें देख कर ही जान लिया था कि यह
बालक किसी और उद्देश्य से जन्मा है। अमरकोश और पञ्चतन्त्र में कहाँ उलझाना चाहते
हो इसे।”
‘...ज्ञानेश्वरजी
मेरे दादाजी से काफी उमरदराज थे। उनकी आँखों का जादू मुझे भेदे जा रहा था। लगता था,
मानों किसी लोहे को शक्तिशाली चुम्बक खींचे जा रहा हो। उन्होंने मुझे पास बुला कर
एक लड्डू खाने को दिया,और पुचकार कर गोद में बैठा लिया।
“तुम्हें यहीं रहना
है मेरी सेवा में, रहोगे न ? रोज एक लड्डू मिलेगा,और पढ़ने-लिखने से भी
छुट्टी। मगर एक काम करना होगा- उधर पहाड़ी पर माँ का मन्दिर है, उसकी साफ-सफाई
करनी होगी,पूजा के लिए फूल तोड़ना होगा,हवन के लिये वेदी बनानी होगी,पास के जंगल
से लकड़ियां भी लानी होगी। बोलो मंजूर है न? ”
‘...उनकी
गोद में बैठा मैं, किसी प्रेंषादोला के पेंगे सा आनन्दित हो रहा था। ऐसा सुकून न
तो बड़ी मां की गोद में मिला था और न दादाजी की गोद में ही कभी। लड्डू खाते-खाते
धीरे से सिर हिला दिया।
‘...मेरी
स्वीकृति से आश्वस्त हो,दादाजी मन्त्रमुग्ध, देखने लगे,पंडितजी की ओर- “
अरे ये तो अद्भुत बात है,कल ही सुबह कह रहा था कि जहाँ मैं और इसकी बड़ी मां नहीं होगी,वहां
कदापि नहीं रह सकता।”
“ठीक
ही तो कहा था इसने, गलत क्या है ! यहाँ पहाड़ पर उस माँ से भी बड़ी माँ विराजमान
है, और इधर पहाडी के नीचे, इसे गोद में बैठाने के लिए, इसके दादा से भी बड़ा दादा
मैं जो हूँ। क्यों ठीक कह रहा हूँ न उपेन्द्र?”- पंडितजी की बात पर
मैंने फिर ‘हां’ में सिर हिला दिया। दादाजी की ओर देखते हुए वे बोले- “
अग्नि प्रस्फुटित है,गदाधर ! पृथ्वी जल में घुल चुकी है,किंचित शुद्ध वायु की
आवश्यकता है। अग्नि को वायु का संसर्ग देकर,आकाश में उड़ा देना है,वस इतना ही तो
काम है। आगे महामाया जाने।” दादाजी पंडितजी का मुंह देखे जा रहे थे।
उन्होंने आगे कहा- “ यह जो पृथ्वी है न सबसे ‘गुरु’ है, इसका गुरुत्व
बहुत बाधक होता है। दीर्घ प्रयास और संघर्ष से जल के सहयोग से,किंचित बिलीनता आती
है, तभी इसकी गांठे टूटती हैं। किन्तु एक बहुत बड़े खतरे की भी आशंका रहती है- जल
का सम्पर्क सिर्फ द्रवित ही नहीं करता,प्रत्युत अधोगामी भी बना दे सकता है। परन्तु
कोई बात नहीं, अग्नि सम्भाल लेगा। सुखा देगा। आकार दे देगा। और फिर आकार को
निराकार होने में बहुत पापड़ नहीं बेलने हैं। तुम इस प्रचण्ड ज्वाला को अमरकोश और हितोपदेश
से शान्त करने का दुष्प्रयास कर रहे थे। सफलता कहाँ से मिलती?
एक वामन अदिति के गर्भ से अवतरित हुए,एक वामन तुम्हारे यहाँ उत्पन्न हुआ है।
‘उपेन्द’ वामन का ही तो नाम है। आठ वर्ष का यह वामन अब तुम्हारे कुल का उद्धार
करेगा। तुम बड़े सौभाग्यवान हो गदाधर ! बड़े सौभाग्यवान। ”
–इसी तरह की कुछ और भी बातें बड़ी देर तक उन दोनों में चलती रही।
‘...पंडितजी
की बातें मेरे कुछ पल्ले न पड़ी। पल्ले पड़ी सिर्फ यही कि अब मुझे यहीं रहना है।
जगदम्बा की सेवा का सामान जुटाना है,लड्डू खाना है,और मस्ती करना है।
‘...दादाजी
उसी दिन शाम होने से कुछ पहले ही चल दिये वापस अपने गांव । चलते समय मुझे गोद में
उठा कर बड़े स्नेह से चूमते हुए बोले- “ आराम से रहना। मन
लगा कर माँ की सेवा करना, और पंडितजी की भी। ये भी तुम्हारे दादाजी ही हैं,हमसे भी
बड़े दादाजी। तुम कहाँ हो,ये बातें घर में किसी को बतायी न जायेगी। लोग यही
जानेंगे कि अवस्थीजी के विद्यालय में पढ़ रहे हो। बीच-बीच में फुरसत निकालकर मैं
आया करुंगा। कम से कम दशहरा-दीपावली तक यहीं रहो। छठ के समय घर ले चलूंगा,माँ के
पास। ”
बाबा
की इन लम्बी बातों का सिलसिला अभी और भी चलता रहता। असली बातें तो अभी शुरु ही
हुयी थी,किन्तु घड़ी की ओर देखते हुए गायत्री ने टोका- ‘उपेन्दऽरऽ
भैया
! समय
बहुत हो गया है। भूख नहीं लग रही है क्या अभी ?’
मुस्कुराते
हुए बाबा ने कहा - ‘ मेरे भूख की परवाह ना किया करो। हां,
तुमलोगों को भूख लग
गयी हो, तो खाने-पीने का बन्दोबस्त किया जा सकता है।
बातें तो होती ही
रहेगी। “कलौ
अन्नगताः प्राणाः ” कलयुगी लोगों का प्राण तो अन्न में ही बसता है
न। चलो,
चलकर पीढ़ा-पानी लगाओ। मैं अभी भोजन-सामग्री का प्रबन्ध करता हूँ।’
मैं
गायत्री का मुंह देखने लगा,वह भी मेरी ओर ही देखे जा रही थी। कहीं
कुछ दीख नहीं रहा
है,भोज्य-व्यवस्था,और पीढ़ा-पानी की बात कर रहे हैं....। फिर भी बाबा की बात को
आदेश की तरह पालन करते हुए,सशंकित गायत्री उठकर भीतर बरामदे में चली गयी,और
लोटा,गिलास,पीढ़ा-पाटी सजाने लगी।
बाबा
भी उठे अपना झोला लिए। मुंह-हाथ धोकर भोजन के लिए पलथी मार कर बैठ गये। मुझे भी
बैठने को कहा,और गायत्री से बोले कि काठ का एक और पीढ़ा हो तो ले आओ।
गायत्री
पीढ़ा ले आयी। उसे अपने सामने रख कर,झोली में हाथ डाल, एक अद्भुत गांठदार बड़े से ‘सीपी’ जैसा, और चांदी की एक डिबिया निकालकर,पीढ़े
पर रख दिये। अंजली में जलभर कर कुछ मन्त्र बुदबुदाये,और उसपर छिड़क कर आँखें बन्द
कर लिए। हमलोगों को भी आँखें बन्द करने को कहा,और हिदायत किया कि जब तक आदेश न हो
आँखें, बन्द ही रखी जायें।
मैं
रोमांचित हो रहा था। उत्सुकता,और जिज्ञासा तो थी ही। करीब पांच मिनट के बाद आँख
खोलने का आदेश हुआ। आँखें खुली तो विस्फारित रह गयी, सामने का दृश्य देख कर- बाबा के
सामने रखा पीढ़ा दाहिनी ओर खिसका हुआ था। उस पर रखा गांठदार वस्तु और चाँदी वाली
डिबिया भी गायब थी,या पुनः झोली में चली गयी थी,कह नहीं सकता। हम तीनों के सामने
बिलकुल ताजी पत्रावली में यथेष्ट मात्रा में सुस्वादु भोज्य पदार्थ रखे पड़े
थे,जिनका सुगन्ध नथुनों में पहुंचकर,बच्चों सा लालायित-पुलकित कर रहा था-शीघ्र कौर
उठाने को। बाबा कुछ बोले नहीं,सिर्फ इशारा किये भोजन करने के लिए।
‘...भोजन
शुरु किया बाबा ने,साथ ही हमदोनों ने भी। हमारी तो आदत है, रात के भोजन के समय ही
टीवी पर समाचार देखने की । दिन भर के भाग दौड़ में वक्त ही कहां मिल पाता है ! टमटम
के घोड़े की तरह सुबह से शाम,या देर रात तक जुते रहना – दाल-रोटी की जोड़ी की सलामती के जुगत में,तिस पर
भी कभी नमक गायब तो कभी दाल तो कभी सब्जी...घी-दूध, मेवा-मिष्ठान्न तो पौष्टिक-आहार
की किताब में ही देखने को नसीब हो पाता है। बस यही तो जिन्दगी है। ‘भोजन’ कभी किया
कहाँ !
हाँ
खाना भले खा लेता हूँ- वैसे ही जैसे कि रेल के ईंजन में धड़ाधड़ बेलचे से कोयला
डाल दिया जाता है,और किसी जंक्शन पर पहुँच कर मोटे नलके से पानी भी भर दिया जाता
है। सुबह का भोजन तो ऐसे ही होता है रोजदिन,और रात का- ठीक उससे विपरीत- ‘अबतक’
‘आजतक’ ‘कब-कैसे-कहां’ जब तक चलता,भोजन भी चलते रहता उसी रफ़्तार से। ये नहीं कि
चार के बदले चौदह रोटियां खा जाता हूँ,रोटियां तो उतनी होती हैं,पर खाने की गति
गांधी वाली होती है। सुनते हैं कि गांधी पचास ग्राम चने को आध घंटे में
आहिस्ते-आहिस्ते चबा-चबाकर खाते थे। बचपन में खेलते-खलते खाता था तो मेरी दादी
कहती थी- अन्तिम कौर पेट में पहुँचने तक तो तुम्हारा पहला निवाला आंत में पहुंच
जाता होगा...।
‘...आज
सच में ‘भोजन’ किया,खाना नहीं खाया। बाबा के इशारे पर,मौन भोजन। भोजन क्या होता
है,कैसे किया जाता है,क्या अर्थ और औचित्य है भोजन का- आज स्वतः ही समझ आगया। बाबा
का वह अद्भुत कृपा-प्रसाद–
दिव्य भोजन, जिसके गुण,रस और स्वाद की व्याख्या के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं
हैं,अतः भोजन के बाद भी मौन ही रहना अच्छा है।
‘...बाबा
के आगमन के बाद से अब तक हुयी बातों में ही अनेक बातें उलझी हुयी थी,जिसे सुलझाने
को मन व्याकुल हो रहा था; किन्तु अभी का ये चमत्कारिक भोजन-प्रसंग- सर्वाधिक
जिज्ञासु बना दिया । इस रहस्य को जानने-समझने को ललक उठा। भोजन के बाद,हम सभी उसी
स्थान पर आ बैठे- बालकनी में। गायत्री ने जिज्ञासा प्रकट की- “
वो क्या चीज थी उपेन्दर भैया,और कैसे हो गया ये सब? क्या जब चाहे तब
इससे भोजन प्राप्त किया जा सकता है?”
बाबा
मुस्कुराये- “
अरे नहीं पगली ! ये कोई खेल-तमाशा नहीं है,और न इससे भोजन जुटा
कर राष्ट्र की भूखमरी ही दूर की जा सकती है।”
“ तो
फिर क्या है ?
”-
गायत्री का अगला सवाल था।
“तुम
नहीं मानेगी, सब कुछ उगलवा ही लेगी मुझसे।”- कंधे से लटकती
झोली में से बाबा ने पुनः उन दोनों वस्तुओं को निकालते हुए कहा- “
बहुत कर्ज है तेरा, मेरे सिर पर,पता नहीं अभी और कितना कर्जा खाना है तुम्हारा...ये
ले आंचल फैला।”
उत्सुकता पूर्वक गायत्री अपना आंचल फैला दी बाबा के
सामने। बाबा ने दोनों वस्तुयें उसके आँचल में डालते हुए कहा- “ ले जा,इसे अपने
पूजा-स्थल में श्रद्दा, विश्वास और आदरपूर्वक रख दे। नित्य धूप-दीप दिखाना,और
सच्चे मन से प्रार्थना करना कि प्रभु मेरा कल्याण करो।”क्रमशः...
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