गतांश से आगे...पांचवां भाग
“ये कोई रहस्य जैसी बात नहीं है। अहं को विसर्जित करने का एक उत्तम
मार्ग भर है। मैं अपने लिए तो
भीख मांगता नहीं, इतनी रकम भीख में मिलती है, उसे रख कर भी क्या करना है, कौन कहें
कि महल उठाना है। दो रोटी का जुगाड़ उपर वाला किसी न किसी तरह कर ही देता है। भीख
में प्राप्त रकम में से उतने ही अपने लिए रखता हूं , जितने में रोटी मिल जाय,शेष
पैसे इनमें ही बांट दिया करता हूं। प्रतिदिन का यही काम है।”
किन्तु
,अहं का विसर्जन ? मैं कुछ समझा नहीं।
“ हाँ, अहं यानी अहंकार का विसर्जन- अहंकरोति इति अहंकारः। यही
मनुष्य का सर्वाधिक बलवान शत्रु है, ममता इसकी जननी है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद,मत्सर-
ये छः इसके छोटे भाई हैं। ये क्रमशः विचित्र प्रकार का ‘व्यूह’ - ‘उत्तरोत्तरशक्तिमान
व्यूह’ बना कर पंक्ति वद्ध रुप से खड़े हैं। सबसे पहले है- काम, उसके बाद क्रोध,उसके
पीछे लोभ,उसके पीछे मोह,उसके पीछे मद, उसके पीछे मत्सर, और सबसे अन्त में खड़ा है
यह विकराल अहंकार। कमाल की बात ये है कि ये सातो भाई उत्तरोत्तर सौगुना बलवान
हैं,यानी काम से सौ गुना बलवान क्रोध,है, क्रोध से सौगुना बलवान लोभ है,लोभ से सौ
गुना बलवान, मोह है,मोह से सौ गुना बलवान मद है,मद से सौगुना बलवान मत्सर है,और
मत्सर से भी सौगुना बलवान है यह अहंकार। और इससे भी आश्यर्य की बात ये है कि शक्ति
में जैसे-जैसे बलवान होते गये हैं- उत्तरोत्तर, ठीक इसके विपरीत,आकार में सूक्ष्म
होते गये हैं। इसे तुम यूं समझो कि वालू की भीत के पीछे कच्ची मिट्टी की भीत है,जो
बालू वाली भीत से अपेक्षाकृत छोटी है,फलतः यदि हम सामने खड़े होकर देखते हैं,तो
सिर्फ बालू वाली भीत ही दिखायी देगी। इसी भांति कच्ची मिट्टी वाली भीत के ठीक पीछे
पक्की ईंटों वाली भीत भी है,जो पहले वाली से छोटी है। किन्तु है तो मजबूत न। उसके
पीछे कंकरीट की भीत,थोड़ी छोटी,और उसके पीछे लोहे की भीत है, उससे भी छोटी। इस
प्रकार आकार तो छोटा होते जा रहा है,जिस कारण सामने खड़ा रह कर देख पाना कठिन हो
रहा है,किन्तु ताकत में तो उत्तरोत्तर बलवान है- हर अगली भीत ? यही कारण है कि इन्हें पहचानने
में अच्छे अच्छों को भी भ्रम हो जाता है। छठी मंजिल तक पहुंच कर भी सबसे बलवान
शत्रु- अहंकार पराजित नहीं होता। एक तो उसकी ताकत सबसे ज्यादा है,और दूसरी बात है
देखने, समझने, पहचानने में असुविधा।”
‘किन्तु मैंने तो सुना है कि काम मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु
है।’- मैंने संशय व्यक्त किया।
“दरअसल, हम आकार से किसी को पहचानने के आदी
हैं,और आकार में तो काम सबसे बड़ा है ही- इसमें कोई दो राय नहीं। तुमने यह भी सुना
होगा कि मरणं विन्दु पातेन् जीवनं विन्दु धारयेत्- वीर्य का एक बूंद-पातन भी मरण समान है। इसका
गणित भी बड़ा अजीब है। इसे ठीक से समझो । हमारा यह शरीर सात धातुओं से बना हुआ है।
सात धातु यानी सोना-चांदी नहीं। सात धातु हैं-रस,रक्त, मांस, मेद्य, अस्थि,मज्जा और
शुक्र। हम जो भी भोजनादि ग्रहण करते हैं, उससे रस निचोड़ कर हमारा शरीर ग्रहण कर
लेता है, और अवशिष्ट (सिट्ठी)को मल के रुप
में विसर्जित कर देता है। उस रस का भी शोधन होता है,उससे भी मल निकलता है,उसका भी
विसर्जन,उत्सर्जन हो जाता है। रस के शोधन के पश्चात् रक्त का निर्माण होता है,पुनः
उसका शोधन, और उसके मलभाग का विसर्जन होता है,तब मांस का निर्माण होता है। मांस के
शोधन,और उसके मलभाग के विसर्जन के बाद मेद्य का निर्माण होता है। मेद्य के शोधन,और
उसके मलभाग के उत्सर्जन के बाद अस्थि का सृजन होता है। अस्थि का शोधन और उसके
मलभाग का विसर्जन होकर मज्जा धातु का निर्माण होता है। और अन्त में मज्जा का
शोधन,और उसके मलभाग का विसर्जन होकर शुक्र का निर्माण होता है। इस प्रकार आहार के रुप में ग्रहण
किये गये
भक्ष्य,
भोज्य, लेह्य, लेप्य,चौष्य,चर्व्य आदि विविध पदार्थो का क्रमशः रसादि सात धातुओं
में परिवर्तन,और आवश्यकतानुसार संग्रह होते रहता है हमारे शरीर में। कोई भी धातु
जरुरत से ज्यादा संग्रहित न होकर,अगली धातु में परिवर्तित हो जाता है। इसका परिणाम
होता है कि पूर्व का कोई भी धातु विकृत होने से बच जाता है। और अन्तिम धातु शुक्र
भी शोधित होकर ओज में परिवर्तित होकर ‘तेजपुञ्ज’ बन जाता है। तुमने देखा होगा- संत
महात्माओं का लिलार चमकते रहता है,चेहरे पर अद्भुत आभा होती है। स्वस्थ सबल शरीर
दमकते रहता है,बिना किसी प्रसाधनिक क्रीम-पाउडर के। इस ओज की कोई सीमा नहीं है। यह
निःसीम है। ध्यान देने की बात है कि ओज बनने के लिए बीर्य का सघन होना आवश्यक है। वैसे
ही जैसे दूध को सघन कर के खोवा बनाते हैं,किन्तु ठीक खोवे से उपमा देना भी उचित
नहीं,क्यों कि यह सघनता शोधन-प्रक्रिया की है। अतः यदि इसे हम रोज-रोज के सम्भोग में बरबाद
करते रहेंगे, व्यर्थ बहाते रहेंगे, तो संग्रहित कहां से होगा? और संग्रहित ही नहीं होगा,तो ‘संघनित’ होकर ओज कैसे निर्मित करेगा ? वीर्य की महत्ता के इसी सूत्र को पकड़ कर हमारे संतों ने ब्रह्मचर्य को
सर्वाधिक महत्व दिया है। किसी भी प्रकार की साधना का पहला सोपान है- ब्रह्मचर्य।”
किन्तु महाराज,मैंने तो सुना है कि मैथुन के दौरान जो
क्षरित होता है वह शुक्रकीट (Sperm) के साथ-साथ पौरुषग्रन्थि (Prostetgland)
का स्राव होता है। विशेष मात्रा उसी की होती है।
“हाँ, यह भी गलत समझ नहीं है आधुनिक विज्ञान
का। आधुनिक विज्ञान अभी अपने खोज में वहीं तक पहुँचा है। और हम बात कर रहे हैं-
उससे आगे की खोज वाली, जो हमारे महर्षियों ने खोज रखा है।”
‘यानी कि काम के बेग को नियंत्रित करके,वीर्य की बरबादी
रोकी जा सकती है?’-मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।
“हाँ, करना तो यही है,किन्तु करते हैं हम गलत तरीके से। काम के वेग को
रोकने के लिए हम उस पर पहरा बिठा देते हैं। उसके साथ जोर-जबरद्स्ती करने लगते हैं।
काम का दमन करने लगते हैं- एक शत्रु की तरह। यदि उसे हम मित्र बनाकर, बहला-फुसलाकर
रखें,तो कभी घात नहीं करेगा। और,मित्र बनाने के लिए ठीक से पहचानना जरुरी है उसे।
एक बहुत बड़ी गलती हुयी है- इसे पहचानने में। समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे शुरु में ही शत्रु कहकर,सम्बोधित कर दिया।
और एक बार जो शत्रु बन जाता है,उसे मित्र बनाना बड़ा दुष्कर हो जाता है। साधना की
अभिलाषा लिए हमारे बन्धुजन आजीवन उस गलत परिचय प्राप्त ‘मित्र’ से लड़ने में ही
गुजार देते हैं। काश ! उसका सही परिचय दिया गया होता। जीवन
के अन्तिम अवस्था में पहुँचे हुए किसी सन्यासी से भी जाकर पूछो,और यदि वह सच बोलने
का साहस रखता हो,तो यही कहेगा कि अभी तक वह काम से लड़ रहा है। सच में वह शत्रु
मान लिये गये काम से ही लड़ रहा होता है। उससे आगे एक पग भी साधना की डगर पर बढ़
ही नहीं पाया है। हमारी भलाई इसी में है कि हम काम को मित्रवत स्वीकार करें।”
लम्बी,गहरी चिन्तन परक बातें करते,पैदल चलते,हमलोग घर पहुँच
गये। बाबा को देख कर गायत्री प्रफुल्लित हो उठी- “ वाह भैया खूब
आये जल्दी ही…।”
भैया तुम्हारे आये नहीं है,लाये गये हैं। इसलिए आने का
श्रेय इन्हें न देकर,मुझे लाने की शाबासी दो। जल्दी से कुछ खिलाओ-पिलाओ। बडी भूख
लगी है।
“मैं आज खीर बनायी हूँ, बस, पूड़ी बनाना बाकी
है- गरम-गरम। मगर
सब्जी तो तुम लाये नहीं होगे।
जाते वक्त मैं भी कहना भूल गयी थी।”
“तो क्या हुआ,खीर के साथ ही पूड़ी खा लिया
जायेगा। वैसे भी मेरा ‘अलोन’ व्रत चल रहा है सप्ताह भर से।”-बाबा
ने सब्जी की समस्या हल कर दी,अपनी स्वीकृति देकर।
‘ये अलोन व्रत का क्या औचित्य और महत्त्व है बाबा?’- मैंने पूछा।
बाबा
ने कहा- “ये सही है कि शरीर को नमक और चीनी दोनों प्रचुर मात्रा में चाहिए। किन्तु
ऐसा नहीं है कि ये सीधे प्रत्यक्ष रुप से ही केवल प्राप्त होते हैं। अन्य विविध
खाद्य पदार्थों के माध्यम से हम जितनी मात्रा शरीर को दे देते हैं,उनसे भी शरीर की
आवश्यकता पूरी हो जाती है लवण की। यदि अभ्यास से बिलकुल ही लवण का त्याग कर दें,तो
भी शरीर की कोई क्षति नहीं होगी। चौबीस घंटों में अधिकतम पांच ग्राम लवण पर्याप्त
है शरीर के लिए,जब कि आम आदमी दो से चार गुणा अधिक दे देता है,विविध रुप से। साधना
की दृष्टि से नमक पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। पृथ्वी का धर्म है स्थूलता।
इसकी अधिक मात्रा के संग्रह से शरीर भारी हो जाता है। स्थूलता दोष की वृद्धि होने
लगती है।फलतः ‘उर्ध्वमनोदैहिक’ विकास रूक सा जाता है। अतः इसे संतुलित रखने के लिए
बीच-बीच में लवण रहित भोजन लेना चाहिए। इसके परित्याग से आन्तरिक सौरऊर्जा का
विकास होता है। सूर्य से विशेष शक्ति अर्जित करने में ये अद्भुत सहायक है। डॉक्टर
लोग अपने अंदाज में इसे व्याख्यायित करते हैं। वे कहते हैं- धमनियां संकीर्ण होती
हैं,जिसके कारण रक्त परिभ्रमण वाधित होता है।”
हमलोग
हांथ-मुंह धोकर भोजन के लिए बैठ गये। गायत्री खीर-पूड़ी परोस लायी। भोजन के बाद
बाबा ने कहा- “आज फिर भोजन कराकर,तुमने मुझ पर एहसान लाद दिया।”
“किस बात का एहसान भैया ! एक दिन के भोजन के बदले
तुमने जो मुझे दिया है,उसका मूल्य जीवन भर भोजन करा कर भी चुकता नहीं किया जा
सकता। सच में अद्भुत गुण है,उन दोनों सामग्रियों में। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैं इन
थोड़े ही दिनों में करने लगी हूँ। पहला प्रभाव तो मेरे स्वास्थ्य पर पड़ा है। इनकी
कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा डॉक्टर के यहां चला जाता था।ऐसा शायद ही कोई दिन
गुजरा हो,कि मैं कोई दवा न खायी होऊँ; किन्तु इधर चार दिनों से मैंने कोई दवा
नहीं ली। मानसिक शान्ति और
सुकून भी बहुत महसूस कर रही हूँ। ”- गायत्री के
कहने पर बाबा मुस्कुराये।
“दरअसल तुम्हारा ये जो आवास है न,अतिशय पीड़ित है वास्तुदोषों से। तुम्हारे
घर का प्रवेश द्वार दक्खिन दिशा में है। तुम्हारा भोजन नैर्ऋत्य कोण में बनता है। उसी
ओर मुंह करके तुमलोग भोजन करने बैठते भी हो। शयन कक्ष भी वैसा ही बेढंगा है। अपने
अधिकार-क्षेत्र में पड़ने वाले जमीन का मध्य भाग बोझल है,उसे बोझ-मुक्त करने का भी
कोई उपाय नहीं दीखता। अब भला दो-ढ़ाई सौ बर्गफुट के आवास में आदमी चाह कर भी कितना
निवारण करे वास्तु-दोषों का। नतीजा ये होता है कि अज्ञान में या लाचारी में आदमी
झेलता रहता है इसके परिणामों को। वो जो सियारसिंगी और मोतीशंख मैंने दिये हैं
तुम्हें,उससे इन दोषों का मार्जन होना शुरु हो गया है। स्वास्थ्य ठीक हुआ,तो दवा
के पैसे बचेंगे,साथ ही मानसिक शान्ति भी मिलनी ही है। बहुत जल्दी ही और भी
परिवर्तन महसूस करोगी अपने जीवन में। विकास के अनेक मार्ग खुलते नजर आयेंगे।”
“सो तो ठीक है,तुम्हारी
कृपा रही तो सबकुछ हो जायेगा; किन्तु
मैं अपने
स्वार्थ वश नहीं,बल्कि
स्नेहवश कह रही हूँ,तुम यहां-वहां क्यों भटकते फिरते हो ? निःसंकोच यहीं आ जाओ।” - गायत्री के प्रस्ताव का
समर्थन करते हुए मैंने,आज वाली घटना का जिक्र किया कि किस स्थिति में बाबा से
मुलाकात हुयी। जानकर गायत्री बहुत दुःखी हुयी,उसे तो इसका रहस्य पता था नहीं।
बाबा
ने गायत्री को समझाया - “इसमें तुम्हें दुःखी होने की आवश्यकता नहीं। यह
तो मेरी साधना का अंग है। वैसे भी मेरे जैसे अभ्यासी साधक को सीधे गृहस्थी के अधिक
सम्पर्क में नहीं रहना चहिए। सिद्ध और साधक में बहुत अन्तर होता है।”
मैं
पुनः विषय पर आना चाहता था,जो डेरा पहुँचने पर रुक गया था,और भी कई सवाल घुमड़ रहे
थे मस्तिष्क में,जिनमें एक था- बाबा का अद्भुत ज्ञान,जब कि कहते हैं कि ठीक से
स्टेल-पेन्सिल भी नहीं पकड़े हैं। अतः मैंने
फिर छेड़ा- ‘आप तो कहते हैं - अंगूठा छाप हूँ, बामुश्किल हस्ताक्षर भर कर पाता हूँ
,फिर ये जो हर विषय पर अधिकार पूर्वक बोला करते हैं,उसका क्या रहस्य है?’
मेरी
बात पर बाबा मुस्कुराये,और इत्मिनान से चौकी पर बैठते हुए कहने
लगे – “ तुम क्या समझते हो
ये ज्ञान किताबों और विद्यालयों का दास है? बिलकुल नहीं।
किताबें, और विद्यालय जानकारियों के बाहक भर हैं। ये केवल संग्रहित जानकारियों को
साझा करते हैं। ज्ञान यहाँ से हासिल नहीं होता। तुमने सुना होगा- शिकागो
धर्मसम्मेलन में भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द एक जर्मन प्रोफेसर से मिलने
गये, क्यों कि उनकी अनुशंसा आवश्यक थी। उनके घर पहुँचकर,द्वार पर दस्तक दिये। दो-तीन
बार के दस्तक की भी कोई प्रतिक्रिया न हुयी,क्यों कि प्रोफेसर महोदय किसी पुस्तक
में तल्लीन थे। चौथी बार विवेकानन्द ने शिष्टता पूर्वक आवाज लगायी। इस बार
प्रोफेसर की नजरें ऊपर उठी। अन्दर आने का आदेश दिया। बैठते हुए,अपना परिचय और
उद्देश्य स्पष्ट करने के बाद स्वामी जी ने एक सवाल किया- ‘क्या मैं जान सकता हूँ
कि आप किस विषय में इतने तल्लीन थे कि मेरे द्वारा बारबार दस्तक दिये जाने पर भी
ध्यान भंग न हुआ?’ प्रत्युत्तर में प्रोफेसर ने कहा कि आज कई
दिनों से एक समस्या सुलझाने के प्रयास में हूँ ,किन्तु समाधान मिल नहीं रहा है...।
“....स्वामी जी ने पुनः आदेश मांगा- ‘यदि मुझे देखने-जानने योग्य है,तो
कृपया इस पुस्तक को मुझे देखने दें। हो सकता है,इसमें मैं आपकी मदद कर सकूँ।’ जिस पर प्रोफेसर ने कहा कि देखने- जानने में तो
कोई आपत्ति नहीं,किन्तु यह
पुस्तक जर्मन भाषा में लिखी
हुयी है। क्या आप जर्मन जानते हैं ?
“…स्वामी जी ने कहा कि जानता तो नहीं हूं,किन्तु प्रयास करने में क्या हर्ज
है।
“…उन्होंने पुस्तक स्वामीजी की ओर बढ़ा दी। विवेकानन्द ने आदर पूर्वक पुस्तक
को लेकर, अपने ललाट से लगाया, और फिर उलट-पुलट कर थोड़ी देर देखने के बाद, वापस कर
दिया। फिर इत्मिनान से बैठते हुए,उनकी समस्या पर चर्चा करने लगे। गहन चर्चा हुयी।
प्रोफेसर अवाक था। जिस समस्या से वह तीन-चार दिनों से जूझ रहा था,उसे स्वामीजी ने
चुटकी बजाकर हल कर दिया,जब कि इस भाषा और लिपि का भी ज्ञान नहीं है।
“…ज्ञान किसी भाषा,लिपि,और पुस्तक का मोहताज़ नहीं है। योग मार्ग में ऐसे
अनेक सूत्र हैं,जिन्हें साध कर किसी पुस्तक का ज्ञान सहज ही किया जा सकता है।
स्वामीजी ने भी वही किया । ये जो ललाट है न,मानव शरीर का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग
है। भीतर जाने का सर्वोत्तम सहज द्वार भी यहीं है। विधियां और स्थान तो कई
हैं,किन्तु इसे सबसे निरापद,सरल,और सुसाध्य कहना चाहिए। हो सका तो किसी योग्य काल
में इसके बारे में और भी बातें करुंगा,और तुम्हें इस मार्ग से प्रवेश की विधि भी
बतलाऊँगा। अभी तो मुझे लगता है कि तुम आज वाले विषय में ही उलझे हुए हो। पूरी बात
स्पष्ट रुप से गले में उतर नहीं पायी है।”
बाबा
ने सच में मेरे मन की बात छेड़ दी। आज की बात अहंकार के विसर्जन से शुरु हुयी
थी,और उसके सबसे छोटे भाई काम पर आकर ठहर गयी थी। बाबा ने बड़े-बड़े संन्यासियों की
समस्या का जिक्र किया था। आंखिर क्यों ऐसा होता है,क्यों अपने अन्तिम क्षणों तक
साधक जूझते रह जाता है- इस प्रथम द्वार पर
ही?
“ मैंने कहा था कि काम को मित्रवत स्वीकारने की जरुरत है,शत्रुवत नहीं।
तुमने रबर के गेंद की हरकत को देखा है कभी गौर से- धरती की ओर उसे प्रेषित करते
हैं,और वह दूने वेग से पुनः ऊपर की ओर उठता है। यही हाल काम का है। शत्रु समझ कर
हम उसे दमित करने में अपनी पूरी ऊर्जा खपा देते हैं। परिणाम ये होता है कि हर
प्रेषण के साथ वह अधिकाधिक बलवान होकर ऊपर उठता है।”
‘आंखिर
इसे मित्रवत कैसे स्वीकारा जाय महाराज?’- मैंने उत्सुक होकर पूछा।
बाबा
ने कहा- “ शास्त्रों ने चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास की बात
की है। ये बहुत ही वैज्ञानिक व्यवस्था है। मनुष्य की मानक पूर्णायु सौ वर्ष को चार
बराबर भागों में बांट कर पचीस-पचीस वर्षों की आश्रम व्यवस्था कही गयी है। आजकल औसत
आयु साठ से अस्सी वर्ष रह गयी है,तद्नुसार चौथाई-चौथाई भाग व्रह्मचर्य आदि चारों
आश्रमों के होने चाहिए। जब कि पश्चिम की देखा-देखी हो रहा है ठीक इससे उल्टा-
तीस-पैंतिस में पढ़ाई-लिखाई,नौकरी व्यवस्था से निश्चिन्त होकर,तब शादी की बात
सोचते हैं,और इस मुकाम तक लड़के-लड़कियां कितना ब्रह्मचर्य पालन कर पाते हैं-
भगवान जाने। प्रथम आश्रम में यज्ञोपवीतादि
दीक्षा लेकर,अध्ययन करने की बात कही गयी है, तत्पश्चात् विवाह बन्धन में बन्धकर
सिर्फ विवाहिता पत्नी से ही सम्भोगरत होने का आदेश है, वो भी मर्यादित ढंग से। ये
मर्यादा भी देश-काल सापेक्ष कही गयी है। सम्भोग-काल को चन्द्रमा से
जोड़कर,दिन,तिथियों का निर्धारण किया गया है,तो सूर्य से जोड़कर कालादि मान नियत
किया गया है। तुलसीदास ने इसे बड़े ही ललित शब्दों में वर्णित किया है- ‘दीप
शिखा सम युवती तन,मन जन होसि पतंग। भजहिं राम तजि काम मद करहिं सदा सत्संग।।
काम,क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि,तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारुपी नारि।।’
पत्नी के साथ भोग-विलास करना है,किन्तु पद्मपत्रमिवामभषा- कमल के पत्ते
सदृश,जल में रह कर भी जल से अलग जैसी स्थिति बनाने की जरुरत है। भोगो,भरपूर भोगो, किन्तु
सदा ध्यान रहे- अनुरक्ति पतंगे वाली न हो कि दीपशिखा पर प्राण ही गंवा दे। नारी तो
दीपक की लौ है ही। उसमें अनुरक्त होकर स्वयं को खपा मत दो। मैं पहले भी स्नेह और
मोह पर तुमसे चर्चा कर चुका हूँ। मैं निर्मोही होने नहीं कह रहा हूँ। निःसंग होने
की बात कर रहा हूँ। ‘नारि नरक की खान ’- भी मेरा अभिमत नहीं है। सोचने वाली बात है
कि जो सृष्टि की आधारशिला है,वो नरक की खान कैसे हो सकती है ? किसी न किसी नारी के गर्भ से ही
पुरुष की उत्पत्ति होती है,तो क्या पुरुष नरक से उपजा है ?
जो आज किसी की पत्नी है,वो कल किसी की माता होने का सौभाग्य पायेगी। और माता होने
के लिए पत्नी होना भी जरुरी है। मगर अफसोस, नारी की अतिशय निन्दा भी की गई
है,उसमें हमारे संत कहे जाने वाले लोग ही अधिक हैं। अभी हाल में एक बहुत बड़े संत
हुए। लाखों की भीड़ जुटती- उनके प्रवचन सुनने के लिए। उनके संतत्व पर तो मैं कोई
टिप्पणी नहीं करना चाहता,किन्तु इतना जरुर कहना चाहता हूँ कि उन्हें नारी से घोर
घृणा थी। भूल से भी कोई नारी चली आये उनके समीप तो ,इतना अपमानित करते कि कोई
गुंड़ा भी शरमा जाये। गाली बकने में महराथ हासिल था उन्हें। क्या ये सन्त के लक्षण
हैं? नारी के हर स्वरुप में महामाया का दर्शन नहीं कर पाये,और
हर नारी उन्हें कामिनी ही दीखी??? ये
तो उनके आँखों की चूक है । मन का भ्रम है,और इसी भ्रमजाल को अपने अनुयायियों में
वितरित किया। जिसके पास जो होगा, वही तो बांटेगा भी ! दमित काम का प्रबल वेग क्रोध का रुप बड़ी आसानी से ले लेता है,क्यों कि
उसके बाद का भाई वही है न? इन स्थितियों को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
ने ‘कुपित ब्रह्मचर्य का असाध्य रोगी’ कहा है,अपने एक औपन्यासिक प्रसंग में। जीवन
भर शायद उन्होंने कुछ न किया,बस काम से लड़ने,और चेला मंडली के विस्तार में गवां
दिया...
“...नारी के ताड़नात्मक उपदेश ने ही तुलसी को तुलसीदास बना दिया....कामातुर
विल्वमंगल को सूरदास; किन्तु
जटाजूट बढ़ाये,धूनी रमाये,चीवर-चिमटाधारी भगोड़ुओं से भी संसार पटा पड़ा है। क्या
इन्हें सन्त कह सकते हो ? जो
गृहस्थी का बोझ नहीं सम्भाल पाया,वो साधना का बोझ क्या सम्भालेगा ? घर-गृहस्थी छोड़कर तो भाग गया,पर संसार क्या छूटा कभी उससे? वो और भी अनुरक्त हो गया,आसक्त हो गया— कंचन-कामिनी में। आश्रम बनाकर
चेले-चेलियों की भीड़ इकट्ठी करने में हीरा जनम गंवा दिया। साधक को आश्रम की
स्थापना,और संचालन की क्या जरुरत पड़ गयी ? दरअसल वो परम
स्वतन्त्र रहकर,ऐशोआराम की जिन्दगी गुज़ारने की ख्वाहिस रखता है, और वो भी बिना मेहनत के। इसलिए ही ये सब करता है। साधना न उसका ध्येय होता
है,और न लक्ष्य...।”
बाबा
पूरे प्रवाह में आगये थे। धर्म के नाम पर फैली सामाजिक कुरीतियों पर कठोर प्रहार
कर रहे थे। मैं चुप सुनता जा रहा था। बहुत दिनों से ऐसे ही सवाल दिमाग में
खाँव-खाँव करते रहे थे,आज उनका सही जवाब देने वाला सौभाग्य से मिल गया है।
बाबा
कह रहे थे- “...संतो का एक बहुत बड़ा समुदाय है,जो क्रोध के लिए सुख्यात है। लड़ाई-झगड़े
के लिए विख्यात है। उनके भय से शासन-प्रशासन भी थर्राता है। धर्म के नाम पर आजतक
जितने युद्ध,और कत्ल हुए हैं,उतना किसी और कारण से नहीं। क्या धर्म यही कहता है ?
मोक्ष का अधिकारी मानव मात्र है, प्राणीमात्र कहना,अधिक उचित होगा।
फिर ये तरह- तरह के धार्मिक राजनीति ? मन्दिर तोड़कर मस्जिद
बना दो,मस्जिद तोड़कर मन्दिर बना दो...ये कौन सा धर्म है ?
सच पूछो तो यही कारण है कि ईश्वर-अल्लाह इन स्थानों को त्याग कर अन्यत्र अपना
ठिकाना ढूढ़ने को विवश है। तुम इस भ्रम में कदापि न रहना कि भगवान मन्दिर में रहते
हैं, और अल्लाह मस्जिद में,वो तो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। हमारे भीतर
हृदय-गुहा में छिपा बैठा है। उसे वहीं ढूढ़ो,वहीं मिलेगा। कहीं जाने की आवश्यकता
नहीं है,वस शान्त होने का प्रयास करो। सरोवर में तरंगे उठ रही हैं, इसी कारण विम्ब
नहीं बन पा रहा है। उसे थिर होने दो। एक झलक मिल जायेगी प्रभु की। और एक बार मिल
गयी,तो फिर नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति, प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्प मप्यस्य धर्मस्य
त्रायते महतो भयात्।। (गीता २-४०) कृष्ण ने यही इशारा किया है- इस छोटे से एक
प्रयास का भी नाश नहीं होता,उत्तरोत्तर विकास ही होता जायेगा...।
“…अतः ‘काम’ को साधन-पथ का विघ्न न मानो,और न बनाओ। उसे साधना-शिखर पर आरुढ़
होने की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करो। वामतन्त्र साधकों के एक बहुत बड़े वर्ग ने
यहीं से रास्ता चुना है,और अपेक्षाकृत कम समय में साधना के अन्तिम सोपान पर
विजय-ध्वज की स्थापना की है। किन्तु दुर्भाग्य,यहाँ भी बहुतों ने धोखा खाया है। अज्ञान
और भ्रम वश,स्वर्णपथ से च्युत होकर,कुमार्गी हुए। तन्त्र के नाम पर आज जो समाज में
उपेक्षा,घृणा और भय का सा भाव है,सम्यक् ज्ञान(जानकारी)के अभाव का ही नतीजा है। ‘तन्त्र’
शब्द कहते के साथ जो छवि आमजन-मानस में बनती है,वह है- जाल,फरेब,धोखा, सम्मोहन, उच्चाटन,
विद्वेषण, स्तम्भन और यहाँ तक कि मारण भी। तन्त्र काला जादू नामक कुत्सित कृत्य के
रुप में ही ज्यादातर देखा,सुना,जाना और प्रचारित भी किया जा रहा है। चारों ओर
तथाकथित तन्त्र का जाल विछाये बैठे हैं,समाज के ठग-उच्चके,जो करने के नाम पर तो एक
तिनका भी नहीं हिला सकते,परन्तु सृष्टि को ही विनष्ट करने का ढिंढोरा पीटते हैं। भोली
जनता अपनी विविध कामनाओं से संत्रस्त होकर, उनके जाल में सहज ही फंस जाती है।
तन्त्र का मौलिक अर्थ और व्यवहार कहीं खो गया है। सच पूछो तो, हमारे ज्ञानकोष का
एक बड़ा सा हिस्सा आततायियों के हाथ पड़कर,नष्ट-भ्रष्ट हो चुका है। जो थोड़ा कुछ
बचा,उसे अतिगोपनीयता का दीमक चाट गया। कुछ ऐसा भी हिस्सा है, जो ऐसे हाथों में
पड़ा है,जिसके पास उसकी चाभी ही नहीं है। अतः इस पर गहन मनन-चिन्तन-साधन करके,
धीरे-धीरे उसे पुनरुज्जीवित करने की आवश्यकता है। आचार्य प्रवर डॉ. गोपीनाथ कविराज
जी ने अपनी अनन्यतम कृति- ‘भारतीय संस्कृति और साधना’ में गहन प्रकाश डाला है।
कहीं उपलब्ध हो तो समय निकाल कर उसका अध्यवसाय अवश्य करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो,
खुद को पत्रकार कहते हो,तब तो अजन्ता,एलोरा,खजुराहो आदि के भित्तिचित्र,और
उत्कीर्ण विविध मूर्तियों के बारे में भी अवश्य जानते होओगे,जो हमारे ऐतिहासिक
धरोहर हैं।’’
बाबा
के इस बात पर गायत्री ने मेरी ओर कनखियों से देखा,और कुछ कहने का इशारा की। मैंने
उसका संकेत समझकर कहा- हाँ महाराज ! वहां
के बारे में सिर्फ किताबों में पढ़ा भर नहीं है,संयोग से एक बार घूमने का मौका भी
मिला है। किन्तु वहां के बारे में जो देखा,सुना,जाना वह तो बड़ा ही शर्मनाक है।
क्या कोई सभ्य-समझदार आदमी अपने पूरे परिवार सहित उसे घूम-देख सकता है? सुनते हैं किसी शासक ने उसके अधिकांश भागों को बन्द करवा दिया। अधिकांश
नष्ट भी कर दिये गये। पर्यटकों में कुछ के मुंह से मैंने स्वयं सुना है कि ये सब
किसी जमाने के विकृत मस्तिष्क के खुराफ़ात हैं...।
क्रमशः....
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