गतांश से आगे...दसवां भाग
तीसरे
पुकार की जरुरत न पड़ी। बाबा आंखें खोल, आराम से बैठ गये,तकिये का सहारा
लेकर- “ लगता है, तुमलोग
तैयार बैठे हो। ”
‘ हां,भैया,इन्हीं
का इन्तजार था,मैं तो पैकिंग का काम निपटाते हुए भी बातें सुनती रहूंगी।’-लॉबी में
एक ओर पड़े मोढ़े को समीप खींचती हुयी गायत्री ने कहा,जिसकी बातों का मैंने खंडन
किया— सो सब नहीं होगा। पैकिंग की चिन्ता छोड़ो। तुम भी आराम से बैठो। विषय बहुत
ही गम्भीर चल रहा है। मेरे मन में अभी कई नये सवाल उधम मचा रहे हैं। उनका जवाब पाये
वगैर,चैन नहीं।
“ हां,गायत्री,बैठो तुम भी । जब तक रहेगी जिन्दगी,फुरसत न होगी काम से,कुछ
समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो राम से...है न ?”- कहते हुए बाबा
ने गायत्री का हाथ पकड़ कर मोढ़े पर बैठा दिया । मैं,बाबा के साथ ही चौकी पर पलथी
लगाकर बैठते हुए बोला- ‘ महाराज ! अभी पिछले बैठक में
हमलोगों की बात श्रीकृष्ण और राधा के अभेद पर चलते हुए सत्,चित्,आनन्द पर आ रुकी
थी। इस अभेद में ही कुछ ‘भेद’ लगता है मुझे । कृष्ण अर्जुन को जिस रासदर्शन के लिए आद्याललिता
रुपी राधा की आराधना करने को कहे, उसमें तो अगनित गोपबालायें भी शामिल थी। क्या वे
सभी ललिता की साधिका रह चुकी थी,जो रास-दर्शन ही नहीं,रास-सेवन का सौभाग्य प्राप्त
की?
और मेरी दूसरी शंका भी इसी रास से सम्बन्धित है। महारास और चीरहरण
जैसी दो घटनायें क्या कृष्ण के दिव्यत्व को प्रश्न-चिह्नित नहीं करती ? गोकुल के
शेष कृत्यों को तो बाल लीला मानने में किसी को आपत्ति नहीं,किन्तु ये दो घटनायें
सामान्य बुद्धि में समा नहीं पाती। भले ही संत लोग इसे दिव्य धाम की लीला कह कर
समझा देते हैं।’
मेरी
बातों पर बाबा मुस्कुराते हुए गायत्री की ओर देखे- “ क्यों
तुम्हें भी कुछ खटकता है,या सिर्फ अखबारी बाबू को ही ऐसा लग रहा है?”
गायत्री
कुछ बोली नहीं । मेरी ओर देखकर,आंखें मटकायी। उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर
बाबा कहने लगे- “ पहले मैं तुम्हारे दूसरे सवाल का ही जवाब दे
लूं। ये जो शत-सहस्र गोपियां थी न,जानते हो कौन थी ? पुरुष को ‘पुरुष’ से मिलने की
लालसा जगेगी,तो उसे ‘स्त्री’ होना पड़ेगा । हर पुरुष में नारी,और हर नारी में
पुरुष विद्यमान है- इसे तो अब तुम्हारा विज्ञान भी स्वीकारने लगा है। सिगमण्डफ्रायड
ने भी इसकी स्वीकृति दे दी है। अतः आधुनिकों को ज्यादा भ्रमित नहीं होना चाहिए। पुरुष
से स्त्री का ही मिलन हो सकता है,या कहो आनन्दानुभूति के लिए स्त्री होना पड़ेगा।
मर्यादापुरुषोत्तम राम के समय तपस्यारत ऋषियों में ‘रमण’ की लालसा जगी थी।
अन्यान्य घटनाक्रम में और भी बहुत से प्रत्याशी थे, जिन सबकी कामना पूर्ति के लिए
लीलाबिहारी को अवतरित होना पड़ा। मर्यादा की डोर में बंधे हुए पुरुषोत्तम उनकी
लालसा पूरी कैसे कर पाते ? अतः उन्हें वचन दिया था कि आगे कृष्णावतार में लालसा
पूरी करुंगा। चुकि हम मनुष्यों की विचार,चिन्तन,दृष्टि आदि की क्षमता बड़ी सीमित है,बहुत ही संकीर्ण है। पुरुष
और नारी से जरा भी बाहर हट कर सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि इससे बाहर की बातें
समझने-बूझने में भारी कठिनाई होती है। और इतना ही नहीं,पुरुष-नारी के बीच बनने
वाले सम्बन्धों के बारे में भी हमारा सोच बड़ा संकीर्ण है । पुरुष-नारी यानी प्रेमी-प्रेमिका,वो
भी कायिक तल पर,काम-तल पर। मनोविज्ञानी फ्रॉयड ने भी दावा किया है कि मां अपने
बेटे को स्तनपान कराती है,वहां भी कामसुख का वही विम्ब है...ये बड़ा ही गहन चिन्तन
है। तुम्हारी आशंका गोपियों और कृष्ण के आपसी सम्बन्ध को लेकर है न। चलो,ठीक
है,तुम्हारी ही आँखों से हम भी देख लेते हैं,थोड़ी देर- जिस समय की ये घटना है-
चीरहरणवाली,या कि रासलीला वाली,उस समय कृष्ण की उम्र क्या थी पता है- मात्र आठ
वर्ष के करीब,और गोपियाँ- कोई मामी थी,कोई चाची,कोई दादी भी,कोई बहन भी- यानी
बाला,किशोरी,तरुणी और प्रौढ़ा भी,और वे सब के सब समान रुप से कृष्ण को चाहती थी—अब
इस चाहत को तुम क्या कहोगे? बाला से प्रौढा तक, एक बालक को,जो
ठीक से किशोर भी नहीं हुआ है,से कामतृप्ति की चाह रखी जा रही है ? ये कहीं उचित लग
रहा है ? ”
अचानक
गायत्री ने टोका- ‘ उम्र तो ठीक बताया तुमने भैया उन गोपियों का-
बाला, किशोरी, तरुणी,प्रौढ़ा; किन्तु अगहन के महीने में कड़ाके की सर्दी में यमुना
में स्नान,और कात्यायनी पूजन का ये महामन्त्र कात्यायनि महामाये
महायोगिन्यधीश्वरि । नन्दगोपसुतं देवि ! पतिं में कुरुते नमः ।।
(श्रीमद्भागवत१०-२२-४) स्पष्टतौर पर कृष्ण को पति रुप में पाने की लालसा ही
नहीं,कामना भी कर रही हैं गोपियां। मैंने भी पिताजी के कहने पर विवाह के पूर्व
साधना की थी इस महामन्त्र का,तब जाकर ये महाशय मिले थे मुझे। ’
गायत्री
की बातों पर मैं चौंका- अच्छा तो तुमने मुझे पाने के लिए उस तान्त्रिक महामन्त्र
को साधा था- ये तो बातबात में आज पता चला। मुझे तो तुम कभी देखी नहीं थी,फिर इतनी
आसक्ति क्यों हो गयी हममें?
मेरे
प्रश्न पर गायत्री लजा गयी,क्यों कि उसके भाई के सामने ही मैंने ये सवाल कर दिया। थोड़ी
झेंपती हुयी बोली- ‘ देखने न देखने की बात नहीं है,और न मैंने तुम्हारे नाम-रुप का
सम्मोहन ही किया था। सीधी सी बात है- इस मन्त्र की साधना करने से मनोनुकूल पति की
प्राप्ति होती है,वो भी अति शीघ्र। और वो भी क्या मैं अपने मन से की थी,पिताजी ने
मां से कहा,मां हमें आदेश दी। तो क्या हो गया इसमें?’
अच्छा
तो अब समझा। तुमको जल्दी घर से भगाने की हड़बड़ी हो गयी थी लोगों को- हँसते हुये
मैंने कहा।
गायत्री
जरा झुंझलायी- ‘ तुमने तो बात का बतंगड़ बना रहे हो। यहां कितनी गम्भीर बात चल रही
थी- चीरहरणलीला की,और तुम...।’
“अच्छा,अब तुमलोग आपस में झगड़ा न करो। वस इतना ही जान लो कि तन्त्र-मन्त्र
से तुम्हें बांध ली है मेरी बहना। अब चुपचाप इसके आदेश का पालन करते जाओ। ”- हँसते हुये बाबा ने कहा,और प्रसंग को आगे बढ़ाया- “ चीरहरण के प्रसंग को लेकर कई तरह की शंकायें की जाती हैं । सच पूछो तो
सच्चिदानन्द भगवान की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य कुछ
भाग्यवानों को ही होता है,शेष जन तो सांसारिक भंवर में ही उब-चूब होते रहते हैं-
जैसा कि मैंने पहले भी कहा- काम(सेक्स)से रत्ती भर भी बाहर निकल ही नहीं पाते। सोच
ही नहीं पाते। कृष्ण का शरीर कोई पञ्चभौतिक तो है नहीं। जिस प्रकार चिन्मय है उनका
शरीर,उसी प्रकार उनकी समस्त लीलायें भी चिन्मयी ही है। रसमय साम्राज्य के जिस
परमोन्नत स्तर पर ये लीलायें होती हैं,उसकी ऐसी विलक्षणता है कि सामान्य की
क्या,कई बार तो ज्ञान-विज्ञानस्वरुप विशुद्ध चेतन परब्रह्म में भी उसका प्राकट्य
नहीं होता। फलतः ब्रह्म-साक्षात्कार-प्राप्त महापुरुष भी इस दिव्य लीलारस का
सम्यक् आस्वादन करने से वंचित रह जाते हैं। ज्ञानमार्ग की साधना इसीलिए रुक्ष कही
जाती है,भक्तिमार्ग की तुलना में। श्रीकृष्ण तो भक्ति के आधान हैं। इनका माधुर्य
चखने के लिए भक्तियोग ही एकमात्र अवलम्ब है। इस दिव्यलीला का यथार्थ प्रकाश तो
प्रेममयी गोपियों के हृदय में ही हो सकता है। इस स्तर पर आने के लिए ‘गोपीभाव’
अत्यावश्क है,वो भी वृषभानुनन्दिनी की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। और ये
गोपियां कोई और नहीं रासेश्वरी के अंग-उपांग ही हैं। पता नहीं इनमें कौन क्या
थी,कितने दिनों से प्यास थी,प्रयास था- कोई ऋषि है, कोई ऋषि पत्नियां,कोई
महासाधक,कोई कुछ,कोई कुछ। इनके अनन्त जन्मों का पुण्य फलित हुआ तब कहीं जाकर गोपी-तन
मिला,और उस शरीर में आने के बाद भी बहुत कुछ वासना शेष रह गयी थी,जो कृष्ण के दर्शन-स्पर्शन
से तिरोहित हुआ। दरअसल अनन्त जन्मों के शुभाशुभ संस्कारों का पिटारा है हमारा
जीवन,ये शरीर।”- जरा ठहर कर बाबा ने हमदोनों की ओर गौर से
देखा,और फिर बोले- “ इस प्रसंग को बहुत ध्यान से सुनो,और गुनो भी। भक्तिरसामृत वृक्ष का परिपक्व
फल है यह । चीरहरण को कोई मामूली घटना समझने की मूर्खता न करो...।
“....श्रीमद्भागवत समूचा पढ़ने-समझने का सामर्थ्य न हो तो भी कम से कम दशम
स्कन्ध का अध्यवसाय करो। इसके इक्कीसवें अध्याय में कहा गया है कि भगवान की
रुप-माधुरी, वंशीध्वनि, प्रेम-लीलायें देख-सुनकर गोपियां मुग्ध हो गयीं। अगले ही
अध्याय में वर्णन है कि वे इस आनन्दघन श्यामसुन्दर को पाने की अतिशय लालसा से
कात्यायनी-साधना में लग गयी। जरा इस श्लोक को गुनो- न मय्यावेशितधियां कामः
कामाय कल्पते । भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते ।। (१०-२२-२६) भगवान
को जब लगा कि अब ये अपने मन-प्राण मुझे ही समर्पित कर चुकी हैं,इनकी कामनायें अब
सांसारिक भोगों की ओर लेजाने में समर्थ नहीं रह गयी हैं,तो इनकी मनोकामना पूर्ण
होनी चाहिए। भुने या उबाले हुए बीज में जैसे अंकुरण असम्भव है,वैसे ही पूर्णतया भगवदार्पण
मन-बुद्धि में सांसारिक विकार उत्पन्न नहीं हो सकते । गोपियां क्या चाहती हैं- यह
तो उनकी आपसी चर्चा से ही स्पष्ट है। इसे वहीं ‘वेणुगीत’ में तलाशो। वेणुगीत में
गोपियों की चाहत खुलकर सामने आयी है। ”
बाबा
ने गायत्री को ईंगित कर कहा- “ क्या तुम कभी चाहोगी कि तुम्हारा यह
पति-प्रेमी किसी और स्त्री की ओर आँख उठाकर देखे? नहीं न ? संसार की कोई स्त्री नहीं चाह सकती ऐसा। दो
स्त्रियां किसी एक पुरुष का चरित्रगान कर ही नहीं सकती खुलकर। खास कर तब तो और
नहीं जब उन्हें पता हो कि यह पुरुष इसे भी चाहता है। वहां तो सीधे शत्रुभाव(सौत-भाव)उदित
हो जायेगा। सख्यत्व का कहां सवाल है ! किन्तु यहां जरा
गोपियों की आपसी वार्तालाप पर गौर करो–साधना रत गोपियां मार्ग में कृष्ण का चरितगान करती जाती हैं
यमुना-स्नान के लिए। सबके सब यही मनाती है- मानसिक ही नहीं वाचिक रुप से भी कि
कृष्ण हमें पति रुप में प्राप्त हों- पतिं में कुरु ते नमः –यही कामना है न?
क्या सामान्य अवस्था में कोई नारी-समूह ऐसी कामना एकत्र कर सकती है? कदापि नहीं। अनेक
स्त्रियों का एक साथ एक ही पुरुष को पाने की लालसा से एक ही तरह का अनुष्ठान कदापि
सम्भव नहीं है। यहां भी सामान्य मानवी स्वभाव और बुद्धि से बिलकुल भिन्न
लक्षण-प्रमाण लक्षित हैं।”
“...अब इसे दूसरे रुप में समझने का प्रयास करो- वैधी भक्ति का पर्यवसान
होता है रागात्मिका भक्ति में,और रागात्मिका भक्ति ही पूर्ण समर्पण की स्थिति में ले जाती है। जल, अक्षत, फूल,धूप, दीपादि ये जो
क्रियात्मक रुप की बाह्य पूजा है, इसे ही वैधी भक्ति जानो। भक्ति का बुनियाद है
यह। निरंतर इसे करते-करते, अचानक रागात्मिका भक्ति स्फुरित हो उठती है । और तब कहीं
जाकर स्व-समर्पण की स्थिति बनती है। कात्यायनी साधना में गोपियों की वैधीभक्ति-क्रिया
हो रही है। रागात्मिका भक्ति तो उनके मनप्राणों में पहले से ही गुप्त है,सुप्त है।
ध्यान देने की बात है कि एक ओर रागानुरागी, रागमयी गोपियां कृष्ण के लिए व्याकुल
हैं । उन्हें ये पता है कि श्रीकृष्ण कोई और नहीं परात्पर ब्रह्म ही हैं,जिसकी व्याप्ति
सर्वत्र है। संसार में बांधने वाले उनके सारे संस्कार लगभग नष्ट हो चुके हैं,किन्तु
यत्किंचित अभी शेष हैं। जिसके कारण कृष्ण को ये चीरहरण-लीला करनी पड़ी। ”
मेरी
ओर देखते हुए बाबा ने कहा- “....इसे अविशेष दृष्टि से,सामान्य दृष्टि से
सोचो- पुरुष-स्त्री का पूर्ण मिलन तभी हो सकता है,जब उनके बीच किसी प्रकार का व्यवधान
न रह जाय। किसी प्रकार की बाधा न पुरुष को पसन्द है, और न स्त्री ही चाहती है अपने
एकान्त मिलन में। झीना से झीना आवरण भी पूर्ण मिलन में बाधक ही है। आत्मा और
परमात्मा के मिलन के बीच हमारे संस्कारों में यत्किंचित् भी शेष रह जायेगा,तो मिलन
अधूरा रहेगा। यहां अनजाने में गोपियों से दो भूलें हो रही हैं- एक तो यह कि एक तरफ
उन्हें ज्ञात है कि कृष्ण सर्वव्यापी परब्रह्म हैं,तो फिर ये क्यों नहीं समझ है कि
जिस जल को वे आवरण समझे हुए हैं,वहां भी कृष्ण की उपस्थिति है ! कृष्ण ही जलतत्त्व भी हैं,वे ही आकाशतत्त्व हैं,वे ही वायुतत्त्व हैं,वे
ही सर्वस्व हैं...। और दूसरी बात यह कि जिस कृष्ण की उन्हें चाह है, वही तो पुकार
रहा है उन्हें; परन्तु वे कहती हैं कि पहले वस्त्र दे दो,नंगी कैसे वहां आऊँ? यानी
कि सबकुछ भुला देने,यानी संस्कारों के सभी
बीज नष्ट हो जाने के बाद भी अभी कुछ शेष प्रतीत हो रहा है। संसार छोड़ भी रहे
हैं,और पकड़े हुए भी हैं । जिन वस्त्रों का हरण कर लिया है कृष्ण ने गोपियों पर कृपा
करके,उन्हीं संस्कार रुपी वस्त्रों को पुनः मांग रही हैं गोपियां । वस्त्रों के
आवरण की चाह अभी बनी ही हुयी है। स्वाभाविक है कि मिलन में बाधा होगी। कृष्ण इसी
बाधा को दूर करने की बात करते हैं । साधकों के लिए निर्वस्त्र,निरावरण, निःशंक,
निर्विकार होने की बात कही जा रही है । देह-गेह की परिमिति से बाहर आने की बात कही
जा रही है।
“…कृष्ण के आह्वान पर गोपियां बाहर आयीं, जल से निकलकर,यानी संसारार्णव से
मुक्ति मिल गयी; किन्तु आंखें मुदीं हैं,लज्जा से,संकोच से। गुप्तांगों को ढके हुए
हैं गोपियां अपने हाथों से। जलरुपी संसार तो छूट गया, किन्तु त्याग,और त्यागी का
भान अभी शेष ही है । ‘स्व’ का भान अभी बचा हुआ है । यह भेद भी बचा हुआ ही है कि कृष्ण
पुरुष हैं और हम गोपियां नारी। एक मजेदार घटना घटी थी एक बार- कृष्णप्यारी मीरा
नाचती हुयी जब मन्दिर में घुसने जा रही थी,तो पुजारी ने रोक दिया,यह कहते हुए कि
इस मंदिर में नारी का प्रवेश वर्जित है। सिर्फ पुरुष ही जा सकता है। पुजारी के
वक्तव्य पर मीरा चौंकी- ‘और तुम क्या हो ? क्या तुम स्वयं को पुरुष समझते हो ? मैं
तो यही जानती हूँ कि ‘पुरुष’ सिर्फ एक है- श्रीकृष्ण,बाकी सब प्रकृति है,नारी है। गोपियां
जल में कृष्ण को नहीं देख पा रही थी,मीरा ने विष के प्याले को भी कृष्ण का होठ समझ
लिया। और पान कर गयी। यही है विलक्षण प्रेमाभक्ति।’
“…सांसारिक रुप से देखते हो- नारी किसी नारी के सामने चट से नंगी हो जा सकती
है,पर...। इस भेद,और त्याग के बचे हुये संस्कार को भी नष्ट करने का अगला प्रयास है
कृष्ण का। त्यागने की भावना का भी जब त्याग हो जाये तभी सही त्याग है। हमने किया-
में ‘हम’ बचा हुआ है। इस हम का भी नष्ट हो जाना जरुरी है। चीवर,चिमटा, जटा-जूटधारी
महंथों से कभी मिलो तो कहेंगे- हमने घर छोड़ दिया,पत्नी छोड़ दिया,धन छोड़
दिया,लाखों-करोड़ो मन्त्र जपे,दान दिये,पुण्य किये...ये किये-त्यागे का लम्बा सा
फ़ेहरिस्त होता है उनके पास। किन्तु जान लो कि जब तक ये ‘मैंने किया’ बचा हुआ
है,तब तक सच पूछो तो तुमने कुछ नहीं किया,
सिर्फ लिस्ट बनाते रहे हो अब
तक।
“…लौकिक दृष्टि से गोपियों से यहां एक और भूल हो रही है- जल में नग्न स्नान
शास्त्र वर्जित है। इसका भी प्रायश्चित कराना था गोपियों से,भले ही लोकहितार्थ
कर्म था ये। ऊपर की ओर हाथ उठा कर सूर्यदेव से क्षमायाचना की क्रिया में एकसाथ
दोनों काम हो जा रहा है- लौकिक मर्यादा के उलंघन-दोष से भी मुक्ति होगयी और ‘स्व’ का
शेष भान भी विनष्ट हो गया।
“…ये सब तो हुआ गोपी-पक्ष । अब जरा चीरहरण को कृष्ण-पक्ष से भी देख लो। कुछ
नासमझ लोग कहते हैं- कृष्ण कामी है । क्या किसी कामी पुरुष में इतना धैर्य हो सकता
है कि नंगी खड़ी अगनित गोपियों को सामने पाकर भी एक वर्ष आगे का समय दे दे? देखो,वहीं
अगले श्लोक में कृष्ण कहते हैं- याताबला व्रजं सिद्धा मयेमारंस्यथ क्षपा ।
यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ।। अगली शरतपूर्णिमा की रात्रि में मिलने का वचन
दिया कृष्ण ने। इस पर गोपियां निराश नहीं हुयी,उदाश नहीं हुयी। बल्कि प्रसन्न हुयी।
क्यों कि उनकी कामना पूरी हुयी है। काम का लेश भी रहता यदि किसी पक्ष में,तो खिन्नता
होती,जब कृष्ण कहते कि ये लो अपने वस्त्र,इसे पहनो और अपने-अपने घर वापस लौट
जाओ,क्यों कि तुमलोग सती-साध्वी हो। ”
मेरे
विचारों के बहुत से काले घनेरे बादल छंट गये,बाबा की बातों से,फिर भी कृष्ण के विषय में अभी और सुनने को मन ललक ही रहा था। बाबा
भी पूरे भावमय थे।
जरा
ठहर कर बाबा ने कहा- “ गोपियों के अन्तिम संस्कार को अनावृत करने
में कृष्ण को बहुत प्रयास करना पड़ा,तब जाकर सफलता मिली; किन्तु ठीक इसके
विपरीत,बिलकुल विलक्षण भाव हैं विदुरानी(विदुर-पत्नी) के,जहां कृष्ण को कुछ करना
नहीं पड़ा। हालाकि किये,किन्तु चीरहरण के
ठीक विपरीत क्रिया हुयी- अपना उत्तरीय-प्रदान किए विदुरानी को। एक बार की बात है,
श्रीकृष्ण अचानक उनके महल में पहुँचे। विदुरानी स्नान कर रही थी। ज्यों ही कृष्ण
की पुकार कानों में पड़ी बेसुध होकर बाहर निकल आयी- निर्वस्त्र ही। उनकी इस अवस्था
को देखकर कृष्ण ही संकुचित हो गये । चट,अपना दुकूल उनके ऊपर फेंक दिया। क्या कहोगे
इस दृश्य को ? सामान्य मानवी बुद्धि पहुंच सकती है इस अवस्था तक ? आत्मविस्मृति
साधक का अन्तिम आवरण परित्याग है,वो भी अनायास । सायास नहीं। विदुरानी इतना कृष्ण
मय हैं सदा कि उन्हें ‘स्व’ का भान ही नहीं रहा। उन्हें तो बस यही सुनायी दिया कि कृष्ण
पुकार रहे हैं। जल्दी से द्वार खोल देना चाहिए । ताकि उन्हें प्रतीक्षा न करनी
पड़े । कृष्ण के टुपट्टे का स्पर्श विदुरानी को और भी मोहित कर दिया। छोटी पीठिका
उठा लायी उन्हें बैठने के लिए। और मजे की बात ये है कि विदुरानी ने उसे उल्टा रख
कर बैठने का आग्रह किया । लीलाविहारी कृष्ण भी कम नहीं । बस बैठ गये,उसी उल्टी पड़ी
पीठिका पर। विदुरानी को टोका भी नहीं,उनकी भूल के लिए। भावलीला यहीं समाप्त नहीं
हुयी,इससे भी मजे की घटना आगे हुयी - विदुरानी केले ले आयी कृष्ण के प्रसाद के
लिए। शबरी ने तो प्रेम परवश प्रभु श्रीराम को चख-चख कर बेर ही खिलाया था,किन्तु यहां
विदुरानी केले फेंकती गयी छील-छीलकर,और छिलके देती गयी प्रभु को...यही है प्रेम माधुर्य
लीला...कृष्ण भी मुस्कुराते हुए खाये जा रहे हैं केले का छिलका । ये भी नहीं टोकते
कि ये क्या कर रही हो विदुरानी । सच पूछो तो केले और छिलके का भेद तो हमारे
तुम्हारे लिए है ! कृष्ण के लिए क्या केला,क्या छिलका !
“…कुछ ऐसी ही बेसुधी की स्थिति गोपियों की भी हुयी, जब
आगामी शारदीय पूर्णिमा को कृष्ण ने
वंशी टेरी...सम्मोहन महामन्त्र क्लीँकार गूँजा बनप्रान्तर से गोकुल की गलियों तक,तो
गोपियां स्वयं को रोक न पायी। वे जिस अवस्था में थी चल पड़ी। बड़ा ही प्रीतिकर
वर्णन है उस दृश्य का व्यास जी द्वारा— जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् वाली कामगायत्री
की वंशी टेर के बाद जरा देखो, क्या स्थिति हो रही है गोपियों की- निशम्य
गीतं तदनङ्गवर्धनं व्रजस्त्रियं कृष्ण गृहीतमानसाः । आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः
स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।। ....लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः
काश्च लोचने । व्यत्यस्तवस्त्रा भरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः ।....तमेव
परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गताः । जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।।
(१०-२९-३ से ११) वंशी की धुन कानों में पड़ते ही गोपियां बेसुध हो गयी- अपने आप
में रह ही नहीं गयी। लाज,डर, भय, संकोच,मर्यादा,शील- ये सारी की सारी
लोक-वृत्तियां छिन गयी,गिर गयी,निरस्त हो गयी मानों; और दौड़ पड़ी यमुना पुलिन की ओर,जिधर से वंशीध्वनि तरंगित हो
रही थी । वेग इतना था कि कानों के कुंडल झोंके खा रहे थे। किसी ने चूल्हे पर
चढ़ाया दूध खौलते छोड़ दिया,किसी ने लपसी के जलने की भी परवाह न की, थाली में
परोसा जा रहा भोजन अधूरा रह गया किसी का,तो किसी की सुश्रुषा बाकी रह गयी,किसी के
एक आंख में अंजन थे,तो किसी के एक कान में कुंडल,किसी ने अधोवस्त्र को ही उर्ध्व
समझ लिया,तो किसी ने उर्ध्व को अधो बना लिया...ऐसा इसलिए हो रहा था कि कृष्ण का
महातान्त्रिक सम्मोहन मन्त्र सबके चित्त का आहरण नहीं,कर्षण भी नहीं,बल्कि अपहरण
कर लिया था। विरह की वेदना की आँच इतनी तेज हो गयी कि सारे कर्म-संस्कार क्षण भर
में जल कर भस्म हो गये । इतना ही नहीं किसी-किसी ने इस प्राकृतिक पञ्चभूतात्मक
शरीर को ही छोड़ दिया, और विशुद्ध अप्राकृत शरीर से उपस्थित हो गयी कृष्ण के पास।
कृष्णभक्तिरसामृत का जो सेवन कर लेता है,उसकी ऐसी ही स्थिति होती है। ऐसी ही गति
होती है।”
जरा
ठहर कर बाबा पुनः कहने लगे- “ ऐसी दिव्य स्थिति में महारास प्रारम्भ हुआ- रासोत्सवः
सम्प्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः । योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वरोर्द्वयोः ।।(१०-३३-३)
प्रत्येक युगल गोपियों के मध्य एक कृष्ण....शतसहस्र गोपियां, शतसहस्र कृष्ण भी ।
एक गोपी-एक कृष्ण के क्रम से एक महावलय निर्मित हो गया यमुना के रमणरेती पर।
प्रत्येक गोपी यही समझ रही है कि कृष्ण तो मेरे आलिंगन में हैं । महानृत्य चलता
रहा,चलता रहा। चराचर थम सा गया, उस दृश्य से मुग्ध होकर। भक्तप्रवर जयदेव ने अपने
काव्य गीतगोविन्द में अद्भुत चित्रण किया है- पीनपयोधरभारभरेण हरिं परिरभ्य
सरागम् । गोपवधूरनुगायति काचिदुदञ्चितपञ्चमरागम् ।। कापि विलासविलोलविलोचनखेलनजनित
मनोजम् । ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदनवदनसरोजम् ।। कापि कपोलतले मिलिता लपितुं
किमपि श्रुतिमूले । चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले ।। केलिकलाकुतुकेन
च काचिदमुं यमुनाजलकूले । मञ्जुलवञ्जुलकुञ्जगतं विचकर्ष करेण दुकूले ।। करतलतालतरलवलयावलिकलितकलस्वनवंशे
। रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा युवतिः प्रशशंसे ।। श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि रमयति
कामपि रामाम् । पश्यति सस्मितचारु परामपरामनुगच्छति वामाम् ।। - कोई गोपी
अपने स्तनों के भार से प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण का आलिंगन करती हुयी उनके स्वर में
स्वर मिलाकर गान कर रही है। कोई गोपी अपने चंचल नेत्रों के कटाक्षों के कामोत्पादक
संचार से कृष्ण के मुखारबिन्द का ध्यान कर रही है । कोई सुन्दर जघनों वाली गोपी कान
में कुछ कहने के बहाने कृष्ण का मुखमंडल ही चूम ले रही है, तो कोई वेतस लता के
कुंज में श्रृंगार करने की कामना से उनका वस्त्र खींच रही है। कोई गोपी साथ-साथ
नृत्य करती हुयी वंशीध्वनि में अपने कंकणध्वनि को मिला रही है। कृष्ण किसी गोपी का
आलिंगन कर रहे हैं,किसी का चुम्बन कर रहे हैं, किसी का अनुसरण कर रहे हैं,किसी के
साथ मृदु मुसकान सहित बिहार कर रहे हैं...– ऐसा ही विलक्षण दृश्य है रमण-रेती
यमुना-पुलिन का। जयदेवस्वामी ने तो मानों कलम तोड़कर रख दी है-इस महारास वर्णन
में।
“...कृष्ण ने गीता में अर्जन को समझाते हुए इसे
महागोपनतन्त्र कहा है- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे
वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।। रास शब्द का मूल रस है,और रस हैं स्वयं
श्रीकृष्ण- रसो वै सः - जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों
के रुप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादन करे- आस्वाद,आस्वादक, लीला,धाम, आलम्बन,उद्दीपन
सभी रुपों में क्रीडा करे, उसी का नाम रास है। वंशीध्वनि, गोपि के अभिसार,बातचीत,रमण,
अन्तर्धान, प्राकट्य, वसनासनारुढ, कूट संवाद, नृत्य,क्रीडा, जलकेलि, वनविहार- ये सब
के सब मानवी दीखते हुए भी परम दिव्य हैं । हम समान्य जनों के लिए भ्रमित होना कोई
आश्चर्य नहीं । बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी भ्रमित हो गये हैं,तो फिर मानव की क्या
गिनती ! जड़ की सत्ता जड़ दृष्टि में ही होती है । देह और
देही का भान प्रकृति के राज्य में तो होगा ही न । अप्राकृतलोक में जहां चिन्मय है
सब कुछ, वहां ऐसा नहीं होता । जड़ राज्य की जड़ धारणायें,जड़ विचार,जड़ क्रियायें
दिव्य-चिन्तन कर ही नहीं पाती, इसी कारण सारा भ्रम होता है। ब्रह्मा,शंकर,उद्धव,अर्जुन
आदि सबने गोपियों की उपासना करके, गोपीश्वरी ललिता की कृपा प्राप्त करके कृष्ण तक
पहुंचने की सीढ़ी का निर्माण किया है...
“...ये जो प्राकृत शरीर है न,जो दृष्यमान है,मूलतः यह एक त्रिकुटी है-
स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीर मिल कर यह शरीर बना है। कारण शरीर यानी कि
जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से निर्मित शरीर। यह जब तक पूर्णतः नष्ट नहीं
होगा,जन्म-मरण का चक्कर लगा ही रहेगा । सात प्रकार की धातुओं के बारे में मैं
तुमलोगों से पहले भी चर्चा कर चुका हूँ,स्मरण होगा। ”- मेरी
ओर देखते हुए बाबा ने कहा,जिसके उत्तर में मैंने कहा- ‘ जी हां, बिलकुल याद है। अन्तिम
धातु शुक्र को ओज में बदलने की विधि भी आपने बतलायी थी मुझे।’
“ प्रकृति के राज्य में जितने शरीर हैं- चाहे वो कामजनित निकृष्ट समझे
(कहे) जानेवाले मैथुन से उत्पन्न हुये हों या कि ऊर्ध्वरेता महापुरुषों के संकल्प
से,या बिन्दु के अधोगामी होने पर कर्त्तव्यरुप श्रेष्ठ मैथुन से,अथवा बिना मैथुन
के ही नाभि,हृदय,कर्ण,कंठ, नेत्र,सिर,मस्तकादि से- ये सभी मैथुनी-अमैथुनी शरीर
प्राकृत शरीर ही हैं । यहां तक कि योगियों द्वारा निर्मित ‘ निर्माणकाय ’ अपेक्षाकृत
शुद्ध होते हुए भी प्राकृत ही हैं । दिव्य कहे-माने जाने वाले पितरों, और देवों के
शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण है । यह ठीक है कि देवादि
शरीर रक्त-मांसादि सप्त धातुओं से निर्मित नहीं होते, किन्तु फिर भी उन्हें
अप्राकृतिक शरीर नहीं कहा जा सकता। श्रीकृष्ण का शरीर प्राकृत शरीर तुल्य दीखते
हुए भी चिन्मय है। वहां देह-देही,रुप-रुपी,नाम-नामी,लीला-लीलापुरुषोत्तम का जरा भी
भेद नहीं है। कृष्ण का नख भी सम्पूर्ण कृष्ण है,आँख भी सम्पूर्ण कृष्ण है, रोम-रोम
सम्पूर्ण ही है। वे आँखों से सूंघ सकते हैं,नाक से बोल सकते हैं,कान से देख सकते
हैं। कोई फर्क नहीं है। गीता में कहा गया है- सर्वतः पाणिपादंतत्
सर्वतोक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। इन्हीं
भावों को तुलसी ने भी दुहराया है- बिनु पग चलै,सुनै बिनु काना,कर विनु करम
करै बिधि नाना...। अब भला ऐसे विलक्षण शरीर में मैथुनी भाव- काम-पिपासा
कहां से हो सकती है ? किन्तु हम मनुष्य इस दिव्यत्व को समझ
नहीं पाते, सारी शंकाओं का जड़ यही है। और इसी का परिणाम है कि चीरहरण और रासलीला
को मानवी दृष्टि से सोच-विचार कर कृष्ण को कलंकित करने में भी नहीं हिचकते।”
बड़ी
देर से चुप्पी साधे गायत्री ने सवाल किया- ‘ जब ऐसी बात है भैया,तब कृष्ण की सोलह हजार एक सौ
आठ रानियाँ,उनसे उत्पन्न पुत्र-पौत्र की करोड़ों की संख्या- ये सब क्या तमाशा
है ?’
गायत्री
की बात पर बाबा मुस्कुराये- “ इतना सुन चुकने के बाद भी तुम अभी यहीं अटकी
हुयी हो? श्रीकृष्ण का ये सन्तान-व्यूह मैथुनी नहीं है,और न दैवी। इसका निर्माण
शुक्र-शोणित-संयोग से नहीं हुआ है। ये ‘ योगमाया की भागवती सृष्टि ’ है- सृष्टि के
विविध प्रकारों में एक; और
योगमाया तो उनकी सहचरी ठहरी। स्वयं ये योगेश्वर कहे जाते हैं। अखण्ड ब्रह्मचारी हैं
। श्रीमद्भागवत में उनके लिए एक शब्द प्रयुक्त हुआ है- अवरुद्धसौरत
”
मैंने
सिर हिलाते हुए कहा- इनके ब्रह्मचर्च की परीक्षा का एक प्रसंग मुझे भी याद आ रहा
है- एक बार यमुना में भयंकर बाढ़ आयी थी। मालूम हुआ कि उस पार महर्षि दुर्वासा
पधारे हुए हैं। गोपियां उनकी सेवा में भोज्य-थाल सजाये बैठी थी, किन्तु जायें तो
कैसे – विकट सवाल था। चिन्तातुर गोपियों को देखकर कृष्ण ने कहा- ‘ जाओ,और यमुना से
कहना कि अखण्ड ब्रह्मचारी कृष्ण ने हमें भेजा है । हे यमुने ! मार्ग दे दो।’ गोपियां ठिठकीं। कृष्ण के साथ नित रमण करने वाली गोपियां
भला कैसे स्वीकारें कि कृष्ण अखण्ड ब्रह्मचारी हैं ।अखण्ड ब्रह्मचारी के लिए तो
अष्टविध मैथुन- नारी देह का चिन्तन,स्पर्शन,दर्शन,लीलावर्णन...आदि सबकुछ वर्जित है,फिर
ये ब्रह्मचारी कैसे ! गोपियों के भाव को समझ कर कृष्ण ने
पुनः कहा- ‘ जाओ तो सही,देखो यमुना क्या करती है । हो सकता है मार्ग मिल ही जाये।’
कृष्ण का मान रखने के लिए गोपियां अनमनी सी यमुना-तट पर गयी,और उनके शब्द दुहरा
दिये । आश्यर्य कि यमुना तत्क्षण ही सूख गयी लगभग,और गोपियां सहजता से उस पार चली
गयी।
हजारों
थालियां सज कर गयी थी । महर्षि ने सबका मान रखा । सब चट कर गये । भोजन कराने के
बाद गोपियाँ अपना-अपना थाल लिए संकुचित खड़ी थी, क्यों कि यमुना पूर्ववत हुंकार भर
रही थी। उन्हें संकुचित देखकर दुर्वासा ने पूछा- ‘ क्या बात है,तुमलोग अब जाती
क्यों नहीं?’ यमुना की स्थिति व्यक्त करने पर ऋषि ने पुनः प्रश्न किया- ‘ तो फिर
आयी कैसे थी? ’ गोपियों ने कृष्ण का वक्तव्य दुहरा दिया। ऋषि मुस्कुराये,और बोले- ‘
ठीक है, जाओ,यमुना से कह देना कि सदा निराहारी दुर्वासा ने हमें भेजा है, हे यमुने ! मार्ग दे दो।’ अभी-अभी हजारों थालियां छक कर जाने वाले ऋषि की बातों पर
गोपियों का अविश्वास स्वाभाविक था- ये आदमी निराहारी कह रहा है स्वयं को। बुतबनी
गोपियों को देख ऋषि ने फिर टोका,जाती क्यों नहीं? ’ शिवांश दुर्वासा की क्रोधाग्नि
की चर्चा सुन रखी थी गोपियां । अतः बिना कुछ आशंका व्यक्त किये,भयभीत,वहां से चल
देना पड़ा। किन्तु आश्चर्य, उनका मार्गदर्शन काम आया। निराहारी दुर्वासा ने भेजा
है- कहते ही यमुना पुनः सूख गयी,और गोपियां पूर्ववत वापस आगयी ।
बाबा
के होठों पर गम्भीर मुस्कान तैर गया एक बार। लम्बी सांस छोड़ते हुए बोले- “ सामान्य मानवी बुद्धि में नहीं समा सकती ये बातें । गोपियां जब शंकित हो
सकती हैं,तो फिर आम आदमी का क्या ! अकर्तापन का अनन्यतम
उदाहरण है ये दोनों घटनायें । सबकुछ करते हुए भी न करने वाला...।
“…ये महारास की लीला जो है न दिव्यातिदिव्य है। श्रीकृष्ण ही जगत के आत्मा
हैं, और आत्माकार वृत्ति ही श्रीराधा हैं,और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ ही गोपियाँ
हैं । इनका अनवरत,धाराप्रवाह आत्मरमण ही महारास है। ये किसी लौकिक स्त्री-पुरुष का
देह-मिलन कदापि नहीं है। यहां न ‘जारभाव’ है,और न ‘औपपत्य’ का ही प्रश्न है। मायिक
पदार्थों के द्वारा मायातीत प्रभु का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है । भगवान के दिव्य
उपदेशों का पालन(अनुसरण) तो अवश्य करे, किन्तु उनके सभी लीलाओं और कृत्यों का
अनुकरण कदापि न करे। ”
इतना
कह कर बाबा चुप हो गये। यह प्रसंग समाप्त हो गया—शायद इसलिये । किन्तु मेरे मन में
अभी भारी कुलबुलाहट चल ही रहा था। बाबा ने कृष्ण को महातान्त्रिक कहा था- इस
प्रसंग के प्रारम्भ में। अब तक की बातों से काफी हद तक तो सिद्ध भी हो गया,फिर भी
कुछ रहस्य अभी गर्भगत ही रह गया। मेरे मन का उद्वेलन इसी कारण था। कुछ देर तक तो
देखता रहा, उनके चेहरे को,शायद और कुछ बोलें; किन्तु काफी देर हो जाने पर छेड़ना
ही पड़ा– ‘ तो क्या
महारास में गोपियों के साथ नृत्यगान भी तान्त्रिकता है,या कुछ और? जैसा कि आपने
कहा- गोपियों और कृष्णों का चक्राकार व्यूह रचित हो गया,और आगे की सारी
क्रिया-लीला उस व्यूह-संरचना में ही होते रही,जैसा कि स्वामी जयदेव ने भी चित्रित
किया है ; किन्तु क्या इसे भैरवीचक्र की क्रिया से भी कुछ
वास्ता है?’
मेरे
मुंह से ये ‘भैरवीचक्र’ शब्द सुन कर बाबा अचकचाये । उनके चेहरे का
रंग कुछ बदला । मुझे लगा कि
वे क्रोधित हो रहे हैं । आँखें जरा लाल हो आयी,और विस्फारित भी। कभी मेरी,और कभी
गायत्री की ओर घूरे जा रहे थे। तभी, गायत्री ने कहा- ‘ हाँ भैया ! मैं तो हमेशा इन शब्दों के अर्थ और व्यवहार पर ही भ्रमित होते रहती हूँ; किन्तु
इसके बारे में पूछूँ-जानूँ तो किससे,कोई उचित व्यक्ति मिले तब न । जिस दिन, ये सब
बताने वाले दादाजी थे,उस दिन अभिरुचि नहीं थी,और अब जिज्ञासा होती है, तो वे न
रहे। सोचती हूँ- तरह-तरह के टोटके,तन्त्र-मन्त्र के नाम पर जीवों का बलि-विधान,मदिरा-मांस
का धड़ल्ले से प्रयोग- क्या ये सब उचित और सनातन है ? ’
गायत्री
के प्रश्न पर, बाबा थोड़े सामान्य हुए,और कहने लगे- “ अच्छा,तुम दोनों के सवालों का जवाब देता हूँ । पहले जरा इस तन्त्र को ही
समझ लो,क्यों कि विडम्बना है कि आजकल बड़े ही संकीर्ण और गर्हित अर्थों में प्रायः
जाना-समझा जा रहा है। विस्तृत अर्थ कहीं खो सा गया है। हमने पहले भी तुमलोगों से
कहा है, फिर दुहरा रहा हूँ कि हमारी संस्कृति वैदिक और तान्त्रिक परम्पराओं का
अद्भुत महासंगम है। यहां तन्त्र शब्द- आगम,यामल,डामर और तन्त्र –इन चारो अर्थों
में प्रयुक्त है। आगम,यामल,डामर पर कभी बाद में विस्तार से चर्चा करूंगा । चुंकि
अभी हमलोगों की बात महातान्त्रिक श्रीकृष्ण पर चल रही थी,इसलिए विशेषकर ‘आगम’ पर
एक आँख खोलने वाली बात कह दूं- आगतं शिववक्त्राब्जाद् गतं तु गिरिजामुखे ।
मतं च वासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते ।। वासुदेव (कृष्ण) का मत, शिव के मुख
से आकर(निकलकर), पार्वती के कानों में गया, यानी आगत (आया) का ‘आ’, गतं(गया) का ‘ग’
और मतं(मत-विचार) का ‘म’- आ+ग+म से शब्द बना आगम। इस प्रकार ‘आगम मात्र’(सभी आगम)
वासुदेव कृष्ण के मत (विचार) कहे जा सकते हैं। वैसे इनकी मान्यता पंचविध है- शैव,शाक्त,वैष्णव,सौर
और गाणपत्य । आगे इन पांचों के भी अनेक भेद हैं। वाराही तन्त्र में आगम का लक्षण
इस प्रकार निरुपित है- सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां यथार्चनम् । साधनश्चैव
सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ।। षट्कर्मसाधनश्चैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः ।
सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं तद्विदुर्जनाः ।। यानी सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन,
पुरश्चरण, षट्कर्म,ध्यान और योग- इन सात चीजों का समन्वय है आगम-शास्त्र। किन्तु
अभी तो तुमलोग इस तन्त्र शब्द के अर्थ में ही उलझे हुए हो,अतः इसे ही पहले समझने
की चेष्टा करो,फिर अवसर मिलने पर इन्हें बूझने का प्रयास करना। तन्त्र शब्द के भी
अनेक अर्थ हैं। ‘तनु विस्तारे’ में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय लगाने से तन्त्र शब्द बनता
है। इसमें कर्म और ज्ञान दोनों का समावेश है । तथा ‘तन्त्रिधारणे’ से ‘धञ्’
प्रत्यय करके भी तंत्र शब्द बनता है । अमरकोष, शब्दकल्पद्रुम आदि कोषग्रन्थों में
इसके अनेक अर्थ हैं- तन्त्रं प्रधाने सिद्धान्ते सूत्रवाये परिच्छेदे..।
तथा सर्वानुपायानाथ संप्रधाय समुद्धरेत् स्वस्थ कुलस्य तन्त्रम् —
प्रधान,सिद्धान्त,करघा,ताना,साज-सामान, औषधि,परिच्छेद,श्रुतिशाखा,विधि,नियम, व्यवस्था,साधना,विस्तार,राष्ट्र,करण,कुल,शास्त्र, सैन्य,प्रबन्ध,शपथ,धन,गृह,वयन,साधन, कल्याण आदि विविध अर्थो में तन्त्र शब्द का प्रयोग होता है,भले ही
आमजनों में तन्त्र सिर्फ जादू-टोना-टोटका,मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण
आदि अभिचार कर्म के रुप में ही जाना जाता है। तन्त्र को इस प्रकार भी परिभाषित
किया गया है- यत् सकृत्कृतं बहूनामुपकरोति तत् तन्त्रमित्युच्यते । शैवसिद्धान्त कामिक आगम में कहा गया है- तनोति
विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान् । त्राणञ्च कुरुते यस्मात्तन्त्रमित्यभिधीयते
।। तथा कालीविलासतन्त्र में कहा
गया है- तं त्राति पतितं घोरे तन्त्र इत्यभिधीयते —इस घोर संसार में पतित जीवों
की जो रक्षा करे,वही तन्त्र है। उत्कृष्ट साधना और सृष्टि नियम-सिद्धान्त को भी
उद्धाटित करता है यह- इसे बहुत कम लोग ही जान-समझ पाते हैं । यही कारण है कि
तन्त्र के प्रति बहुतों का घृणाभाव है,या कहो कि इसे लोग निकृष्ट कोटि की कोई
क्रिया मात्र समझने की भूल कर बैठते हैं। हालांकि,इस जन-भावना के पीछे भी बहुत
बड़ा कारण है ।आज जो तन्त्र का विकृत रुप देखने-सुनने को मिल रहा है,वह अचानक नहीं
हो गया है । न जाने कब, कैसे, धीरे-धीरे बौद्धतन्त्र से लेकर हिन्दु तन्त्र तक, विशेष
कर वाममार्गी साधना में शिश्नोदर-पीड़ित भोगवादी अनाधिकारी लोगों का प्रवेश होता
चला गया । स्वाभाविक है कि अनाधिकारी कहीं भी घुसेगा को मूल चीजों को नष्ट-भ्रष्ट
ही तो करेगा। तन्त्र की मर्यादा-कीर्ति को भी इन अनाधिकारियों ने ही कलंकित किया ।
आज हम कृष्ण को महातान्त्रिक कहें, भगवान दतात्रेय को महाकापालिक कहें,तो आमजनों
को ऐसा ही कुछ भ्रम या अविश्वास होगा। महानिर्माणतन्त्र स्पष्ट कहता है- उत्तमो
ब्रह्म सद्भावः, ध्यान भावस्तु मध्यमः । स्तुतिर्जपोधमो भावो बहिर्पूजाधमाधमा ।।-
बाह्यपूजा-जप,तप,स्तुति आदि बाहरी पूजा प्रक्रिया को वरीयता क्रम में अधम कहा
है,और ध्यान भाव को मध्यम,तथा ब्रह्मभाव को साधना की उत्तम कोटि में रखा गया है ।
कृष्ण ने भी बारम्बार कर्मकाण्डीय आडम्बरों का वहिष्कार किया है। तन्त्र की गुह्यतम
साधना के विषय में कहा गया है— क्रूरान्खलान्पशून्पापान्नास्तिकान्कुलदूषकान्
। निन्दकान्कुलशास्त्राणां चक्राद्दूरतरं त्यजेत् ।। – क्रूर, खल, पशु(अष्टपाशवद्ध),
नास्तिक, कुलदूषण, शास्त्र-निंदक आदि को ‘चक्रसाधना’ से दूर ही रखा जाना चाहिए । क्यों
कि हंसविलास तन्त्रानुसार यह असिधारावत- तलवार की धार के समान है - असिधाराव्रतसमो
मनोनिग्रहहेतुकः । स्थिरचित्तस्य सुलभः सफलस्तूर्णं सिद्धिदः ।। इन्हीं बातों को कुलार्णवतन्त्र में भी किंचित
शब्दभेद से कहा गया है- कृपाणधारागमनात् व्याघ्रकण्ठावलम्बनात् ।
भुजंगधारणान्नूनमशक्यं कुलवर्तनम् ।। यानी इन साधनाओं को अपनाना तलवार की
धार पर चलने,वाघ को गले लगाने,सर्प को गले में धारण करने तुल्य है। इससे स्पष्ट
होता है कि तपे-तपाये, बिलकुल जितेन्द्रिय साधकों के लिए है ये सब साधना।”
जरा
दम लेकर बाबा ने आगे कहा- “ ऊपर गिनाये गये अन्य शब्द तो स्पष्ट अर्थ
वाले हैं, किन्तु पशु- विशेष अर्थ वाला है- घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा
चेति पंचमी । कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः - घृणा,शंका, भय,
लज्जा, जुगुप्सा,कुल,शील और जाति- ये आठ पाशों (रस्सियों) से बंधे होने के कारण सभी
जीव पशु कहे गये है,न कि सिर्फ चौपाया- गाय, बैल आदि। अब जरा सोचो इस विस्तृत सीमा
के बाहर(मुक्त) होकर ही तो चक्रसाधना का अधिकारी हुआ जा सकता है। कितना कठोर तप है
यहां तक पहुंचने में । पहले तो, केवल पशुता से बन्धन-मुक्त होना ही अति कठिन
है,यानी साधना-क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकार पाना ही जब कठिन है,फिर सोचा जा
सकता है कि साधना कितनी कठिन होगी ! यहाँ पग-पग पर गिरने(नष्टहोने) का खतरा बना हुआ है । विरले
ही कोई साधक सिद्ध हो पाता है । कृष्ण ने भी कहा है- मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चितद्यतति
सिद्धये....हजारों व्यक्तियों में कोई एक साधना पथ पर अग्रसर होता है,और
उनमें भी (.०००१%करीब) विरले ही कोई पहुँच पाता है सही ठिकाने पर। साधकों के भाव-स्तर भी तीन कहे
गये हैं- पशु,वीर,और दिव्य। पुनः वीर का भी दो स्तर है- विभाव और सभाव। आम साधक तो
पशुभाव में ही हुआ करता है,क्यों कि पूर्व में कहे गये अष्टपाशों से मुक्ति कोई
साधारण बात नहीं है। प्रथम प्रकार के वीरभावी साधक- यानी विभाववीरभाव वाले मद्यादि
पंचतत्त्व का सेवन सीधे करने के अधिकारी नहीं है,बल्कि उसका प्रतिनिधि- अनुकल्प
सेवन करते हैं । वही आगे चल कर सभाव की अवस्था में सद्यः मद्यादि का प्रयोग होता
है । यहां भी आमश्रुति में काफी भ्रामक स्थिति है । तुमने भैरवीचक्र के बारे में
प्रश्न किया,तो निश्चित है कि उसके प्रति जिज्ञासा बनाया होगा,या कहो खींचा होगा
उसका बहुचर्चित सिद्धान्त ही तुमको। क्यों कि आम लोगों में यह भ्रामक श्लोक खूब चर्चित
है।”
‘ जी
महाराज
! ’- मैंने करवद्ध निवेदन किया- मैंने बहुतों से सुन रखा है, तन्त्र
के विषय में- मद्यं,मांस,च मीनं च मुद्रामैथुनमेव च । मकार पञ्चकंप्राहुर्योगिनां
मुक्तिदायकम् ।। - यानी इन पंचमकारों की साधना होती है। मेरी जिज्ञासा यही
है, कि क्या यह सही बात है? पतन के ये गर्त, साधना के सोपान कैसे हो सकते हैं?
सिर
हिलाते हुए बाबा ने कहा- “ सही जिज्ञासा है तुम्हारी । साधना का सोपान
ये कैसे हो सकता है ? तन्त्र को गर्हित,निकृष्ट की पंक्ति में ढकेल देने के लिए यह
श्लोक काफी है– किसी
अनाड़ी के हाथ पड़कर । विभिन्न प्रयोगों में कुलार्णवतन्त्र (१०-५),महानिर्वाणतन्त्र(५-२२)
आदि ग्रन्थों में किंचित शब्द भेद सहित यह श्लोक आया है,जैसे- मद्यं मांसं
तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च । शक्ति पूजा विधावाद्ये पंचतत्त्वं प्रकीर्तितम्
।। तथा च- मद्यं मांसं च मत्स्यश्च मुद्रा मैथुनमेव च । मकारपंचकं देवि
देवता प्रीतिकारकम् ।। ये बातें
अनाड़ियों के कानों में घुसकर उसे मथित कर दिया है । महज भोगवादी प्रवृति से
आकृष्ट होकर तन्त्र-मार्ग पर कदम बढ़ा दिया। परिणामतः स्वयं भी डूबा,और तन्त्र
शास्त्र को भी कलंकित कर डुबो दिया। जैसा कि अभी-अभी मैंने कहा- पश्वादि त्रिविध
साधक-भाव-स्थिति,और सबसे महत्त्वपूर्ण बात गुरु-सानिध्य,गुरुगम्यता,गुरु-आदेश-निर्देश-दीक्षा
पर निर्भर है। इसके अभाव में पतन तो होना तय है। आमतौर पर भोगवादी शब्द तो आकर्षित
कर लेते हैं, पर उस तक पहुँचने की स्थिति न रहने पर पतन ही पतन है । ये पंचमकार
वस्तुतः पंचमहाभूतों की साधना है । स्थिति क्रम में,या कि संहार क्रम में इनके
सजावट का क्रम भी बदल जाता है । जैसे स्थितिक्रम में होगा-
मैथुन, मांस, मद्य, मत्स्य,और मुद्रा। इसे ही उलट दो तो हो जायेगा संहार का क्रम । ये
पांचो महा अमृत हैं,किन्तु महाविष भी इसे ही समझो। पंच मकारों की साधना अत्यावश्यक
है, वाममार्गीय तन्त्र-साधना में,चाहे वह शैव कापालिक हो या कि शाक्त कौल । अष्टपाशों
के मोचन में इन पंचमकारों का सेवन बहुत ही सहायक है। अहंकार,अविद्यादि हृद् ग्रन्थियों
के उच्छेदन के फलस्वरुप ही पूर्णतया निर्ग्रन्थ (ग्रन्थिमुक्त) होकर ही वीरभाव की
आगे की साधना की जा सकती है,और इसमें पंचमकारों का महत् योगदान है। पाशमुक्ति के
पश्चात् सदाशिव भाव का उद्रेक होता है,और तब सम्यक् वीरभाव उद्भुत होता है। इसके
वगैर साधना पूरी नहीं हो सकती। जैसा कि तन्त्रदीपिका में कहा भी गया है- पंचतत्त्वं
विना पूजा अभिचाराय कल्पते । नष्टा सिद्धिः साधकस्य प्रत्यूहाश्च पदे-पदे ।।
किन्तु कठोर अनुशासन एवं मर्यादा से आवद्ध है। इन तत्त्वों का सेवन सिर्फ देवता
प्रीत्यर्थ ही होना चाहिए,न कि ऐंद्रिक तृष्णा हेतु- मादिपंचकानीशानि
देवताप्रीतये सुधीः । यथाविधि निषेवेत् तृष्णया चेत् स पातकी ।। अब प्रथम मकार मदिरा(मद्य)को ही ले लो। वस्तुतः यह
त्रिशापित है- शुक्र,कृष्ण,और ब्रह्मा के शाप का विमोचन किये वगैर मदिरा सेवन करना
उचित नहीं । और जैसे ही इन तीनों शापों का विधिवत विमोचन हो जाता है, मदिरा मदिरा
रह ही नहीं जाता,अमृत हो जाता है। अब भला,इस रहस्य को जाने-बूझे वगैर जिह्वालोलुप
व्यक्ति भ्रष्ट होकर नाली में ही तो गिरेगा ! किन्तु इसका ये अर्थ भी मत लगा लेना कि कोई पियक्कड़ इन
शापों का विमोचन करके दारु ढालने लगे । मदिरादि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ देवता
प्रीत्यर्थ ही विहित है, न कि जिह्वालोलुप जन के लिए- जैसा कि अभी-अभी मैंने कहा
भी है । इसी भांति मांस सेवन के पूर्व भी वीरभाव-साधक को एक विशिष्ट मन्त्र से
अभिमन्त्रित करना होता है मांस को,तभी सेवनीय होता है। तुमने सुना होगा- विषस्य
विषमौषधम् - विष से ही विष की चिकित्सा की जाती है। संखिया (Arcenic) महाविनाशकारी विष है,जो पहाड़ी विच्छुओं के दंश से
प्राप्त होता है,जब वह विष की उष्मा से पीड़ित होकर पहाड़ों में दंश मारता है। इसी
संखिया को योग्य आयुर्वेदज्ञ शोधित करके औषधि के रुप में प्रयोग करता है,और मनुष्य
का जीवन-रक्षण होता है। किन्तु अज्ञानी बिना जाने-समझे सिर्फ वैद्य को ऐसा करता हुआ
देख कर, खुद भी करने बैठ जाये तो उसकी क्या गति होगी- समझ सकते हो। कामवासना से
पीड़ित मनुष्य का साधना-जगत में, भला प्रवेश कैसे हो सकता है? जैसा कि कुलार्णव
तन्त्र में कहा गया है– यावत्
कामादि दीप्येत यावत् संसारवासना । यावदिन्द्रियचापल्यं तावत्तत्त्वकथा कुतः ।। (१-११३)
प्रारम्भिक साधना तो पशुभाव से मुक्ति हेतु ही करने की है,क्यों कि यहीं से वीरभाव
का द्वार खुलता है,और फिर आगे चल कर दिव्यभाव प्रस्फुटित होता है- पाशबद्धः
पशुर्ज्ञेयः पाशमुक्तो महेश्वरः । अतः पशुभाव की प्रारम्भिक अवस्था में
पंचमकारों के सीधे व्यवहार का सवाल ही कहां उठता है ! यहां तो अनुकल्पों(विकल्पों)का सहारा लेना है, जैसा कि मद्य के स्थान पर
नारियल (डाभ)का जल,ताम्रपात्र में रखा दूध, गुड़, शर्करा,मधु आदि; मांस के स्थान पर लहशुन;मत्स्य(मछली)के स्थान पर लम्बा(कलौंजी वाला) बैंगन; मुद्रा के अनुकल्प में तण्डुल, धान्यादि; तथा मैथुन के अनुकल्प में अपने इष्टमन्त्र-जप पूर्वक जगदम्बा
के श्री चरणों का ध्यान- अतस्तेषां प्रतिनिधौ शेषतत्त्वस्य पार्वति । ध्यानं
देव्याः पदांभोजे स्वेष्ट मन्त्र जप- स्तथा ।। (महानिर्वाणतन्त्र ८-१७३)। जैसा
कि मैंने पहले भी कहा है कि वीरभाव की भी दो स्थितियां हैं- विभाव और सभाव ।
विभावी वीरभाव के साधक को झिझक मिटाने के लिए अनुकल्पिक पंचमकार के प्रयोग के साथ
साथ कुमारीपूजन करने का निर्देश है। ध्यातव्य है कि कुमारीपूजन में किसी भी
जाति की कन्या को ग्रहण किया जाना चाहिए- ऊँच,नीच जाति भेद सख्त वर्जित है। संसार
की सभी कुमारियों में पराम्बाभाव को देखने का प्रयास करना है- कुमारीपूजन का यही रहस्य
है । निरंतर कुमारीपूजन करते-करते परम्बतत्त्व का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार एक
बहुत बड़े पाश(बन्धन)से मुक्ति मिल जाती है । प्रसंगवश यहां एक और बात स्पष्ट कर
दूं कि इस वीरभाव के दो और भी प्रकार हैं- दक्षिणाचार एवं वामाचार। दक्षिणाचार में
शिव रुप में शक्ति का सेवन होता है,और वामाचार में शक्तिरुप में शक्ति का सेवन
होता है। सर्वोल्लासतन्त्र(१८-१०) में कहा गया है-स्वधर्मनिरतो भूत्वा पंच
तत्त्वैः प्रपूजयेत् । स एव दक्षिणाचारो शिवो भूत्वा यजेत् पराम् ।। तथा वहीं आगे (४८-१) यह भी कहा गया है- स्वपुरुषैः
पंचतत्त्वैश्च पूजयेत् कुलयोषिताम् । वामाचारः स विज्ञेयो वामा भूत्वा यजेत् पराम्
।। ये सब है,किन्तु एक बात दृढ़ता पूर्वक जान लो कि ‘पूर्णाभिषेक’ के बिना केवल मद्यपान करने लेने भर से कोई
कौलसाधक नहीं हो जाता। मगर अफसोस कि सांसारिक विविध वासनाओं में जकड़े मूर्खों,अनाड़ियों,जाहिलों
के हाथ तन्त्र का सिद्धान्त पड़ कर, कुछ ऐसा ही हुआ है, पिछले हजार-दो हजार वर्षों
में। अतः इसे बड़े संघर्ष पूर्वक पुनः परिष्कृत कर अपने मूल सिंहासन पर आरुढ़ करने
की आवश्यकता है । महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज जैसे कई महानुभावों ने इस
क्षेत्र में पुनीत कदम उठाये हैं । हमें उनके मार्गदर्शन से लाभ उठाना चाहिए। ”
इतना
कह कर बाबा जरा विलमे। एक बार हमदोनों के चेहरे को निहारे, मानों कुछ ढूढ रहे हों-
हमारी मनःस्थिति भांप रहे हों, फिर उचरने लगे- “ तन्त्र की
गहन साधना के विषय में मार्कण्डेय,पद्म,ब्रह्माण्ड,श्रीमद्भागवत,कूर्मादि विविध
पुराणों के अतिरिक्त छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, भावोपनिषद्, बृह्वृचोपनिषद्, देव्युपनिषद्,कठोपनिषद्,त्रिपुरातापिन्युपनिषद्,रुद्रोपनिषद्,
ध्यानबिदूपनिषद्,योगतत्वोपनिषद् आदि अनेक उपनिषद् ग्रन्थों में भी विषद वर्णन
मिलता है। मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुकभट्ट ने तो श्रुतिश्च द्विविधा वैदिकी-तान्त्रिकी
च कहकर हिन्दू धर्म-संस्कृति को
प्रतिष्ठित किया है। इतना गहन और महत् है हमारी संस्कृति। किन्तु कुछ लोलुप,स्वार्थी,अज्ञानी,मूर्ख,नासमझों
ने इसे कलंकित करने में जरा भी कसर नहीं छोड़ा,जिसका परिणाम है वर्तमान की भ्रामक
स्थिति । अतः हमें इन प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान-सागर में गोता स्वयं लगाकर(केवल
किताबी बातें नहीं और न सुनी-सुनायी बातें ही),तन्त्र-साधना के शुभ्र मुक्ता का
परख करना होगा। ”
गायत्री
ने बीच में ही टोका- ‘ यानी कि भैया,तन्त्र के भाव,अर्थ,और उद्देश्य को सही ढंग से
न समझ पाने के चलते ये सब हुआ है? ’
बाबा
ने कहा- “ बिलकुल यही बात है। गूढभाव में कहा कुछ गया है, समझा कुछ गया है,और किया
कुछ और गया है। साधना की गहराई में जैसे-जैसे उतरने की बात हुयी है,कूटशब्दों का
खेल भी खूब खेला गया है । बहुत जगह स्पष्ट द्वयर्थक शब्द आये हैं,तो कहीं ‘श्लिष्ट’ शब्द
भी हैं,तो कहीं कूट(कोड) भी है। सामान्य कर्मकाण्डी लोग सीधे इसे लौकिक प्रयोजन में
उतार लेते हैं,जैसा कि मार्कण्डेय पुराण के श्रीदुर्गासप्तशती का नवरात्र में पाठ करके कुछ द्रव्यार्जन कर लेना भर
उद्देश्य रह गया है ब्राह्मणों का। उसके रहस्यों में डूबने-जानने का फुरसत भी नहीं
है किसी को। वैसे ही कर्पूरस्तोत्र के लिए भी ख्याति है कि इसका नियमित पाठ करने
से सामान्य जीवनोपयोगी आवश्यकता की पूर्ति अवश्य हो जाती है । द्वयर्थक,कूट और
श्लिष्ट शब्दों के लिए दक्षिण काली की गहन उपासना में बहुचर्चित ‘कालीकर्पूरस्तोत्र’
की एक बानगी देखो- सलोमास्थि स्वैरम्पललमपि मार्जार मसिते । परंचोष्ट्रम्मेषन्नरमहिषयोश्छाग
मपिवा । – साधना में मार्जार(बिल्ली), उष्ट्र(ऊँट), मेष (भेड़), छाग (बकरा),नर
(आदमी), महिष (भैंस) आदि की बलि देने की बात कही जा रही है; किन्तु गौर करने की
बात है कि ये दक्षिणकाली की उपासना क्रम में है। यहां इन सभी शब्दों के अर्थ
बिलकुल भिन्न हैं । यहां मनुष्य के षडरिपुओं (छःशत्रुओं)की बात की जा रही है। इन
जीवों के मूल स्वभाव के अनुसार व्याख्यायित करने पर अर्थ स्पष्ट होगा । काम ही छाग
है, क्रोध महिष है,लोभ मार्जार है,मोह मेष है,मात्सर्य उष्ट्र है, और मद नर है ।
इन छः प्रबल शत्रुओं की बलि देनी है,न कि छः जीवों की। इन पर विजय पाना है। हमारे मनीषियों
ने प्रायः कूट शब्दों का ही प्रयोग किया है। घोर बौद्ध तान्त्रिक वज्रयानी एवं
सहजयानी सिद्धों की अभिव्यक्ति की भाषा भी
हमेशा ऐसी ही मर्यादित और रहस्यमयी रही है, जिसे संघाभाषा या संघावचन कहा जाता है।
महानिर्वाणतन्त्र की ऐसी ही एक बानगी और देखो- मातृभोमौ क्षिपेत् लिंगं
भगिन्याः स्तनमर्दनम् । गुरोर्मूर्ध्नि पदं दत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।। इस
श्लोक की यदि शाब्दिक व्याख्या करें तो कितना घृणित अर्थ निकलेगा- माँ की योनि में
लिंग स्थापन, बहन का स्तन मर्दन,और गुरु के सिर पर पांव रखने की बात की जा रही है।
सच्चाई ये है कि यहां कुण्डलिनी योग-साधना की बात कही जा रही है। प्रथम ‘चक्र’ स्थित
त्रिकोण ही भग है,जिसमें स्वयंभूलिंग प्रतिष्ठित हैं । यहीं वह अद्भुत शक्ति
विद्यमान है । इसे योग-साधन-प्रक्रिया से ऊपर उठा कर गुरुपद यानी सप्तम पायदान पर
ले जाना(पांव धरना) है। हेमबज्रतन्त्र में इन शब्दों को किंचित अन्य रुप में भी स्पष्ट
किया गया है- जननी भण्यते प्रज्ञा जनयति यस्याज्जगजनम् । भगनीति तथा प्रज्ञा
विभागं च निगद्यते । गुणस्य दुहणा प्रज्ञा दुहिता च निगद्यते ।।- वस्तुतः ‘प्रज्ञा’
की बात की जा रही है। चार प्रकार की मुद्राओं की बात की जा रही है- जननी, भगिनी,भागिनेयी,पुत्री
आदि संकेतों से- कर्ममुद्रा,ज्ञानमुद्रा,महामुद्रा, एवं फलमुद्रा का ही संकेत है। इतना
ही नहीं, इस श्लोक के अन्य भी कई गूढार्थ हैं। अब भला योग्य गुरु का अभाव होगा, तो
अर्थ का अनर्थ तो लगेगा ही न?...
क्रमशः...
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