गतांश से आगे...भाग 6
क्रमशः...
मेरी
बात पर बाबा एकदम से झल्ला गये– ‘
हां,
खुराफ़ात तो हैं ही,पर
विकृत मस्तिष्क वालों के
नहीं,बल्कि उन तथाकथित दिमागदार पागलों
के,उन मूर्खों के जिन्हें भारतीय संस्कृति का जरा भी ज्ञान नहीं है। तुम्हें क्या
लगता है- कोई सामान्य कलाकार ने बनाया है इन मूर्तियों को...किसी कामी और भोगी ने
बनवाया है इन्हें ? लानत है ऐसी सोच पर,जो खुद के दिमाग से कभी
सोचने का प्रयास भी नहीं करता। तुम्हारे दिमाग से ये कूड़ा निकालने के लिए मैं ये
स्पष्ट कर दूं कि वस्तुतः ये तन्त्र-साधना के महान केन्द्र रहे हैं किसी जमाने
में। किसी महान तन्त्र–साधक के दीर्घ अनुभव और ज्ञान के प्रतिविम्ब हैं ये भित्ति-शिल्प।
इतना तो तुम जानते ही हो कि कोई भी विषय हो उसका दो पथ,दो विचार-धारा या कहो पहलू
अवश्य होता है- सीधा और उल्टा,दक्षिण और
वाम। हमारा तन्त्र भी लेफ्ट-राइट से अछूता नहीं है,बल्कि ये कहो कि इसी ढर्रे पर
सभी जगह दक्षिण-वाम भेद होता गया।मुक्ति के दो रास्ते हैं,जो एक दूसरे को काटते
नहीं,विरोधी भी नहीं। एक है आरज़ू-विनती
वाला- सौम्य रास्ता; और
दूसरा है जोर-जबरदस्ती वाला कठिन रास्ता। एक पूर्णतः निरापद है,तो दूसरा असिधार
वत, पूर्णतः कंटकाकीर्ण। किन्तु हां,एक कछुए की चाल है,तो दूसरा विमाननगति। एक
रास्ता त्याग की प्रशस्त पगडंडी से होकर जाता है,और दूसरा रास्ता भोग के कटीले
चौड़े पथ से...।’
मुझे एक बात याद आयी- पिताजी कहा करते थे- कुलपरम्परानुसार ही साधना करनी
चाहिए। यानी वाम-दक्षिण जो भी हो,मार्ग परिवर्तन करने से,स्वयं की सिर्फ हानि ही
नहीं,सर्वनाश होजाता है। अतः मार्ग कदापि न बदले– आखिर इसका क्या मतलब हुआ महाराज?
जरा दम लेकर बाबा फिर कहने लगे - ‘ पहले मैं इस प्रसंग को पूरा करलूं,फिर तुम्हारी बात का जवाब
दूंगा। हो सकता है,इन्हीं बातों में तुम्हारे लिए उत्तर भी हो। हां,तो मैं कह रहा
था कि उन स्थानों का भ्रमण यदि तुम ठीक से किये हो, तो देखे होवोगे कि परिसर की
भित्तियां पटी पड़ी है- मैथुन रत विविध मिथुनों से,विभिन्न भंगिमाओं में । पश्चिम
के पर्यटकों यहां तक दार्शनिकों,मनोवैज्ञानिकों और सामाजशास्त्रियों को भी ये सब
रहस्य समझ नहीं आया- क्या मतलब- परिसर में नग्न मूर्तियां,और अन्दर सब कुछ
खाली-खाली...बिलकुल रिक्त...कहीं कुछ नहीं...आकाश की तरह शून्य...नीरव...शान्त
कोष्ठ के सिवा। क्या कभी तुमने सोचा- ऐसा क्यों? नहीं न। सोच भी
नहीं पाओगे, समझ भी नहीं सकते इस गहन तन्त्र-विज्ञान को। पशु हो न और ये पशुता से
पार लेजाने वाला विषय है। ’
मैंने नम्रता पूर्वक जिज्ञासा व्यक्त की- महाराज ! यदि मेरे सुनने-जानने लायक हो तो कृपया अवश्य बतायें- आखिर
क्या रहस्य है इन नग्न मिथुनों में।
सिर हिलाते हुए बाबा ने कहा- ‘ समझने वालों के लिए बहुत
साधारण सी बात है,और न समझने वाले के लिए बिलकुल बकवास। स्कूलों में नर्सरी का
क्लास होता है न,आजकल तो ‘प्ले’
भी हो गया है। वामतन्त्रसाधना का ये प्ले है। साधना की पवित्र दीक्षा-भूमि में
पदार्पण करने से पूर्व यानि इस महामन्दिर
में प्रवेश करने से पूर्व परिसर की भित्तियों का अवलोकन करो,लम्बें समय तक प्रत्येक
दृष्य को देखो,मानों किसी देव मूर्ति को देख रहे हो,और उससे होने वाली मानसिक
प्रतिक्रियाओं- कामोत्तेजना,आसक्ति,मोह आदि मनोवृत्तियों को टटोलो अपने भीतर।
समझने का प्रयास करो,नापने का प्रयास करो कि किस वृत्ति ने कितना प्रभावित किया
तुम्हारे चंचल चित्त को। और दीर्घ काल तक खुद को जांचते-परखते हुए, जब ये पाओ कि
इन मूर्तियों से उठी कोई तरंग तुम्हारे चित्त सरोवर को अशान्त नहीं कर रहा
है,उद्वेलित नहीं कर रहा है जरा भी,तब परिसर के भीतर,प्रकोष्ट में प्रवेश होगा।
परन्तु अभी खुश होने की बात नहीं है। क्यों कि अबतक तो दीवारों पर पत्थर की नंगी
मूर्तियां मिली थी,पर अब द्वार पर तुम्हारे स्वागत और परीक्षा के लिए जीती-जागती
नग्न मूर्तियां मिलेंगी- पुरुष भी,स्त्री भी। और इस प्रकार इस कठिन परीक्षा में भी
जब उतीर्ण हो जाओगे तब जाकर उस वामतन्त्र-दीक्षा के अधिकारी बनोगे। साधना की असली
विधि का निर्देश तो तब प्राप्त होगा।
तन्त्र
कोई बच्चों का खेल नहीं है,और न कामियों का क्रीड़ास्थल– इस बात को ठीक से न
समझ पाने के कारण ही मूर्खों,जाहिलों कामलोलुपों ने तन्त्र की गरिमा को ही धूमिल
कर दिया है पिछले दो-ढाई हजार वर्षों में। वैदिक-तान्त्रिक भारतीय संस्कृति की
गंगा-यमुनी छवि को बहुत विकृत कर दिया गया है। विकृति के इस दौर में ही ऐसी बातें
भी कही गयी एक दूसरे के विरोध में।शैव,शाक्त,वैष्णव आदि के टंटे इसी दौर में चले।
वैष्णव कब चाहेगा कि कोई शाक्त होजाय,शाक्त कब चाहेगा कि कोई वैष्णव हो जाय। किन्तु मैं कहता हूँ कि ये
दोनों ही बचकानी बात कर रहे हैं,क्यों कि यह द्वैत(भेद) उनमें विद्यमान है,यानी परिधि
के ही यात्री है, केन्द्र की ओर यात्रा शुरु भी नहीं हुयी है उनकी। मैं तो ये कहना
चाहूंगा कि वाममार्ग का अभ्यास शुरु करने से पूर्व लम्बे समय तक दक्षिणमार्ग का
अभ्यास करना चाहिए,ताकि वाममार्ग की अड़चनें,बाधायें दूर हों। महानगर की भीड़ में
तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाने से पूर्व गांव की गलियां तय करो। किन्तु हां,मेरे इस
कथन का ऐसा अर्थ भी न लगा लेना कि वाम बड़ा है,महान है। मैं यहां ऐसी तुलना कर ही
नहीं रहा हूँ। मैं केवल आपद-निरापद,सुविधा-असुविधा की बात कर रहा हूँ। गांव की गली
में टकराने-गिरने का खतरा नहीं है। गिरोगे भी तो चोट कम लगेगी,परन्तु शहर की भीड़
में टक्कर ही टक्कर है,और उठने-सम्भलने का भी अवकाश-सुविधा न के बराबर है। अतः
सावधान। इस सम्बन्ध में अभी सिर्फ इतना ही
कहना चाहता हूं कि दक्षिण-वाम तन्त्र पर फिर कभी अनुकूल समय देख कर और भी चर्चा हो
सकती है। फिलहाल वस इतना ही समझो कि हमारी संस्कृति न समग्र रुप से वैदिक है और
तान्त्रिक,प्रत्युत वैदिक-तान्त्रिक परम्परा का अद्भुत संगम है। इसमें अवगाहन करके
आनन्द-विभोर हो जाओगे...।
“...अभी सिर्फ एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात की ओर यहां इशारा कर रहा हूँ,जो
तुम्हारे मूल प्रश्न से संश्लिष्ट है– काम की ये लड़ाई क्यों जारी है? मनुष्य बारम्बार आकर्षित होता ही क्यों है विपरीत लिंगी के प्रति- क्या
इस विषय में कभी सोचा तुमने?”
‘ यह
तो प्राकृतिक आकर्षण है महाराज।’ – मेरा सीधा सा उत्तर था।
“ हां है तो प्राकृतिक ही,किन्तु इसका कारण क्या है? कारण
यही है कि नर और नारी दोनों अधूरे हैं। और इसकी पूर्ति का किंचित आभास मिलता है-
मिलन में। पुरुष समा जाना चाहता है नारी में,और नारी समेट लेना चाहती है पुरुष को
अपने आप में। मिलन के उस क्षण में एक अद्भुत घटना घटती है- क्षण भर के लिए उसकी
सोयी शक्ति जागृत होने हेतु कुलबुलाने लगती है। इस कुलबुलाहट में ही अतुलनीय आनन्द
का आभास मिलता है। वस्तुतः वह आनन्द है नहीं, वस आभास मात्र है। जल में पड़ने वाले
चन्द्रमा के विम्ब को कोई अज्ञानी बालक भले ही चन्द्रमा ही क्यों न समझ ले,वह असली
चन्द्रमा कदापि नहीं हो सकता। अगले ही क्षण यह दृश्य समाप्त हो जाता है, अनुभूति खतम
हो जाती है, परितृप्ति खो जाती है,और उसे ही पुनः पुनः स्मरण करके,पुनः प्राप्त
करने की ललक से विकल होकर,आकर्षित होता है मनुष्य। विज्ञान कहता है कि यह सब
हार्मोनिक एफेक्ट है- अन्तः स्रावी ग्रन्थियों के स्राव का फल है।”
‘हाँ
सो तो है ही।’- मैंने हामी भरी।
“…तृप्ति का यह अधूरापन ही विकलता का कारण है अखबारी बाबू ! अनुभवियों ने एक बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रयोग सुझाया है अधिकाधिक तृप्ति हेतु।
तुमने सुना होगा,या अनुभव भी किया होगा कि सम्भोग के समय सांस की गति काफी बढ़
जाती है। सांस का वह प्रहार ही उस सुप्त शक्ति को छेड़ता है। यदि सांस पर नियंत्रण
का अभ्यास किया जाय, तो भोग की अवधि में आश्चर्यजनक वृद्धि होगी,और भोग यदि लम्बा
होगा,तो तृप्ति भी अपेक्षाकृत टिकाऊ होगी। तृप्ति टिकाऊ होगी,तो अगले भोग की ललक
भी दीर्घ अन्तराल वाला होगा। इस प्रकार प्रत्येक भोग के समय का अभ्यास अगले भोग को
दूर सरकाता चला जायेगा। जो काम वह नित्य करता था, साप्ताहिक हो जायेगा। पांच-दस
मिनट का भोग यदि आध घंटे का हो जाय तो अगले भोग की कामना महीनों के लिए टल जायेगी,
और फिर वर्षों बरस के लिए भी टालना आसान हो जायेगा। हालाकि मैं गलत कह रहा हूँ-
टालना शब्द का प्रयोग यहाँ उचित नहीं लगता। टालने का तो अर्थ हुआ कि उपस्थित है,और
उसे ‘सायास’ टाला जा रहा है। वस्तुतः कामना की उपस्थिति ही क्षीण हो जायेगी। कामना
ही दुर्बल हो जायेगा और काम का वेग, जो अधोगमन कर रहा था,अब
शनैः शनैः उर्ध्वगामी होने लगेगा...। आह ! कितना अनुभवपूर्ण व्यवस्था है हमारी संस्कृति में- वीर्यरक्षण-पुष्टिकरण(ब्रह्मचर्य),मर्यादित वीर्यक्षरण (गृहस्थ)और तब
वानप्रस्थ,और इसके बाद सन्यास। किन्तु सब गडमड हो गया- चोला रंग दिये,सन्यासी हो
गये...। पटरी विछाई नहीं,रेलगाड़ी दौड़ा दी...।”
मैंने
बीच में ही टोका- ‘ महाराज ! सामान्य जन को सम्भोग की अवधि बढ़ाने के लिए क्या करना
चाहिए और फिर भोग को योग कैसे बनाया जाय- इस विषय पर कुछ प्रकाश डालें।’
मेरी
बात पर बाबा गम्भीर मुस्कान विखेरते हुए कहने लगे- “ मनुष्य
प्रायः जो भी करता है,अच्छा या बुरा,वह एक प्रकार की बेहोशी में ही करता है। बेहोशी
यानी सजगता रहित। मैं यहाँ भोग में भी पूरे तौर पर सजग रहने की बात कर रहा हूँ।
काम-मद में मदहोश नहीं हो जाने की बात कर रहा हूँ। सम्भोग के समय ध्यान यदि सांस
पर रखने का अभ्यास किया जाय,तो भोग स्वाभाविक ही दीर्घकालिक हो जायेगा। इसकी एक और
सरल विधि हो सकती है- भोग कालिक प्रत्येक ‘प्रक्षेपण’ की
गणना करते रहो,किन्तु ध्यान रहे,गणना करते समय सांस रोके रहने की क्रिया हो।
मानसिक संकल्प रखो कि आज के भोग में हम पचीस प्रक्षेप पर्यन्त सांस रोकेंगे।
सिद्धि हो जाने पर आगे पांच-पांच के क्रम से बढ़ाते जाओ। पचास पर प्रयोग करो...पचहत्तर पर,फिर सौ पर....।
सांस नियंत्रित हुआ नहीं कि भोग जादुयी करिश्मा बन जायेगा,और स्वयं आश्यर्य करोगे।
पत्नी को ‘पतन’ का कारण न बनाकर, उत्थान का सोपान बनाओ। ये न भूलो कि वह
तुम्हारी अर्धांगिनी है,भोग्या नहीं। यही अर्धांगिनी आगे चल कर भैरवी बन जायगी,और
तुम भैरव। पत्नी तुम्हारे दोनों मार्गों की संगिनी है- वैदिक-पौराणिक-काम्य
अनुष्ठानों में दक्षिणांगी है,तो वामतन्त्र साधना हेतु पकी-पकायी भैरवी,वशर्ते कि
उसकी गरिमा और उपादेयता को समझो। वही धोबिन है,वही चमारिन,वही डोमिन भी। इसके लिए
कहीं और भटकने, जाने की जरुरत जरा भी नहीं है। खैर,मैं कर रहा था सांस को चीन्हने-
साधने की बात...।
“...अन्यान्य समय में
भी सामान्य प्राणायाम की क्रिया,ध्यान आदि का अभ्यास करने का सुन्दर अवसर मिल
जायेगा। भोग में तृप्ति होगी,तो जप-योग क्रियाओं में भी मन लगेगा,अन्यथा व्यर्थ का
दिखावा भर लोग करते हैं- आँखें बन्द कर काम-चिन्तन ही तो होता है। यहां काम शब्द
का प्रयोग मैं समस्त सांसारिक कामनाओं के अर्थ में कर रहा हूँ। ध्यान देने की बात
है कि इस प्रारम्भिक अभ्यास में और कुछ करने की आवश्यकता नहीं,बस इतना ही करो कि निरंतर(सोते-जागते,चलते-फिरते,खाते,बोलते)
सांस की गति को देखते रहो- एक चतुर ‘वाचमैन’ की तरह। नियंत्रित,संयमित करना भी
बहुत जरुरी नहीं है। ऐसा करते
हुए उत्तरोत्तर विकास के पथ
पर अग्रसर होते जाओगे- इसमें कोई दो राय नहीं...।
“.....कुल मिलाकर,मेरे कथन का अभिप्राय यही है कि भोग को भी साधना-सोपान
बनाने की जरुरत है। उसकी ओर मुंह करके मित्रता का हाथ बढ़ाओ,पीठ करके शत्रुता भाव
दिखलाओगे,घृणा और त्याग की दृष्टि डालोगे,तो वह हावी होकर पीछा करेगा, अन्त-अन्त
तक पिंड नहीं छोड़ेगा...दौड़ा-दौड़ाकर तक मारेगा। यहां तक कि बारबार जन्म लेते
रहोगे,मरते रहोगे...पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननि जठरे
शयने....भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते...।
“...यहाँ एक और बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि खान-पान,रहन-सहन,परिवेश
आदि के प्रभाव से, जीवन की जटिलताएँ दिनोंदिन पुरुषों को नपुंसक बनाए जा रही है। श्वांस
की गति पर उनका नियंत्रण खोता जा रहा है। तृप्ति का अभाव वेचैन किए हुए है, और उसे
पाने के लिए रासायनिक-कृत्रिम संसाधनों का सहारा लिया जा रहा है। ये रसायन भी दो
तरह से उपलब्ध हैं समाज में- एक तो वे जिन्हें कृत्रिम रसायन के रुप में जानते
हैं,और दूसरे वे जो शुद्ध आयुर्वेदिक और हानिरहित कह कर प्रचारित किये जा रहे हैं-
अज्ञानता की यह बहुत बड़ी सामाजिक विडम्बना है,साथ ही ग्लानि और चिन्ता का विषय
भी। हम ज्यों-ज्यों कृत्रिमता की ओर झुक रहे हैं,मौलिकता दूर होते जा रही है। ऐसी
स्थिति में काम का वेग,काम की ज्वाला समग्र मानवता को भस्म कर देगा एक दिन। बड़े
दुःख की बात है कि सृष्टि के मूल सिद्धान्त- मैथुन की शिक्षा,और ज्ञान का
पारम्परिक तौर पर कोई सही व्यवस्था नहीं है हमारे समाज में। और इसका सबसे बड़ा
कारण है कि अभिभावकों, वुद्धिजीवियों और धर्मगुरुओं द्वारा इसे निकृष्ट,निंदित रुप
से देखा गया है,देखा जा रहा है। कोई पिता यह हिम्मत नहीं कर सकता है कि समय पर
अपने पुत्र को,और न कोई माता समय पर अपनी पुत्री को काम की सही शिक्षा दे सके।
नतीजा ये होता है कि प्राकृतिक रुप से शरीर में जब अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का
प्रभाव (प्रकोप) आरम्भ होता है,तो किशोर-किशोरी कस्तूरी मृग की तरह वेचैन होकर
इधर-उधर भटकने लगते हैं। एक ओर पारिवारिक तल पर शिक्षा का अभाव,और दूसरी ओर ‘सिनेमायी
जहर’ , जो आग में घी का काम करता है; फलतः बेचैन मृग,पहले से ताक लगाये, किसी
शिकारी के सिकंजे में आ जाता है। तान्त्रिक और सिद्धवैद्य(डॉ.सेक्शोलॉजिस्ट) बन कर,
युवापीढ़ी को गुमराह करने के लिए शहर के हर नुक्कड़ पर जाल बिछाये बैठे हैं ऐसे
लोग,जिन पर न समाज का ध्यान है,और न सरकार का। ट्रेन,बस,शहर-देहात की दीवारें पटी
पड़ी होती हैं, इनके मुफ्त,भोंड़े विज्ञापनों से। युवावस्था का अति सामान्य संकेत-
प्रदर और स्वप्नदोष, या अन्य संसर्गज बीमारियां, आदि को अतिघातकता की हवा देकर,ये
न केवल पैसे लूटते हैं,बल्कि स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ करते हैं- युवापीढ़ी नपुंसक
होते जा रही है इनकी दवाइयों का सेवन करके। किसी तान्त्रिक कहे जाने वाले सामाज के
उस ‘कोढ़ी’ के पास यदि जाओ, तो पाओगे कि उसके पास आने वालों में अधिक संख्या
किशोर-किशोरियों की ही मिलेगी,जो स्तम्भन, सम्मोहन और वशीकरण, की चाह लिए भटक रहे
हैं। दूसरे नम्बर में वो भुक्त भोगी महिलायें होंगी,जिनके पति अपनी पत्नी से तो
पतिव्रता होने की आश रखते हैं,पर स्वयं ‘किसी और की तलाश में’ सम्मोहन-वशीकरण
मन्त्र साध-सधवा रहे होते हैं। उन साध्वी स्त्रियों का दर्द समझने लायक है,जो ठगी
का शिकार होती है,अपने पति के नाजायज प्रेम को विद्वेषित कराने के प्रयास में। हम
देखते हैं कि समाज में तरह-तरह की विकृतियां दिनों दिन सर्प सा फन काढ़े खड़ी होती
जा रही है। रिस्ते-नाते तार-तार हो रहे हैं। उम्र और पद की गरिमा भी सीमायें तोड़
चुकी हैं। पिता-पुत्री,भाई-बहन, गुरु-शिष्या जैसा पवित्र रिस्ता भी निरापद नहीं रह
पाया है। लूट,हत्या और बलात्कार की घटनायें दिनों दिन बढ़ती जारही है- इस काम विकृति
के कारण ही। जबकि, काम एक अद्भुत ऊर्जा है। इसकी गति को संतुलित और नियंत्रित करके
राम तक पहुँचा जा सकता है,और दूसरी ओर, असंतुलित-अनियंत्रित स्थिति मानवता का
विनाश कर सकती है।”
बाबा
का लम्बा व्याख्यान बहुत कुछ सोचने को विवश कर रहा था। काम के प्रति मन में बैठा
निकृष्टता का भाव तिरोहित हो चुका था। सच में धर्मगुरुओं द्वारा काम पर विजय पाने
का उपदेश ही घातक हुआ है। गलत दिशा में मार्ग और मंजिल तलाशने को विवश किया गया
है। सृष्टिक्रम का सबसे अहम सवाल ही अनुत्तरित,अव्याख्यायित रह गया है। इसके लिए
सामाजिक जागरण की आवश्यकता है। इस जागरण की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए।
“अच्छा तो तुम सोचो-विचारो, और आराम करो। मैं चला।”-
कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए।
‘क्यों? हमने तो समझा कि गायत्री की बात मान कर,अब आप यहीं रहेंगे; और रोज दिन
आपसे कुछ ज्ञान अर्जित करने का सौभाग्य मिलेगा।’
“नहीं-नहीं, हठ न करो। मेरी बात समझने की कोशिश करो। गायत्री की बात और
तुम्हारा मान रखते हुए मैं केवल इतना ही कर सकता हूँ कि रात का भोजन यहीं ले लिया
करुँगा, जब कभी भी दिल्ली में रहूँ। वैसे प्रायः यहां-वहां जाता रहता हूं। कहीं
स्थिर तो हूँ नहीं। हाँ, कल जरुर आऊँगा। तुम भी समय पर आ जाना,देर न करना दफ्तर से
आने में।”- कहते हुए बाबा बाहर निकल गये।
गायत्री तो बहुत पहले ही सो चुकी थी, चलते
समय उसे जगाने भी नहीं दिया।
काफी देर तक विस्तर पर पड़ा,मैं विचार करता रहा- बाबा
द्वारा कही गयी बातों पर। बाबा का बहु विषयी ज्ञान,और स्वामी विवेकानन्द का उदाहरण
अधिक खींच रहा था। उसकी तह तक जाने को मन ललक उठा। काम को मित्रवत देखने-समझने की
बात भी कम दिलचस्प न थी। इसे भी ठीक से आत्मसात करके, प्रयोग करने की जरुरत है....–
सोचते हुए कब आँखें लग गयी, पता न चला।
सुबह दूधवाली की आवाज से नींद खुली। गायत्री भी बिना मुझे जगाये
अपने रूटीन-वर्क में लग गयी
थी। मेरे जगते ही उसने पूछा- “ रात कितने बजे गये
उपेन्दर भैया ? तुमने न तो उन्हें रोका,और न जगाया ही मुझे।”
वही करीब पौने एक बजे। बहुत सी गम्भीर बातें हुयी।
“ गम्भीर बातें हो रही थी,इसलिए
तुमने मुझे जगाया भी नहीं ? मेरे सुनने-जानने लायक नहीं थी
क्या ?”
थी
क्यों नहीं। मेरा मन तो न कर रहा था कि वे जायें,किन्तु रोकने पर भी रुके नहीं।
हाँ,आज जरुर आने को बोल गये हैं।
शाम
को निश्चित समय पर बाबा पधार चुके थे,मैं ही जरा लेट हो गया। डेरा पहुँचा तो
देखा,कि बाबा डटे हुए हैं, बैठक-कम-बेडरुम में,और गायत्री अपनी पुरानी यादों की
पिटारी खोले हुए है। बाबा जब भी मिले,मैं अपनी ही जिज्ञासाओं में उन्हें उलझाये रहा,
गायत्री को मौका ही नहीं मिला,अपनी बातों के लिए। सो आज, मौका देख पहले ही बैठकी
लगा चुकी थी । गायत्री कह रही थी- “...उपेन्दर भैया! तुमको
ऐसा नहीं करना चाहिए था, आखिर क्यों भाग गये थे शादी के मंडप से ? क्या लड़की में कोई खोट थी,जो अचानक पता चला ?”
“नहीं गायत्री ! नहीं, लड़की में खोट रहती तो कम
सोचने वाली बात थी,खोट थी उसके बाप की सोच में; और ये सारा तिगड़म भिड़ाया हुआ था-
मेरे मामाश्री और पिताश्री का। ऊपर वाले का दिया हुआ इतना धन है कि सात पुस्त तक बैठ
कर भोग करे; फिर भी इन दोनों को तो दौलत की भूख है न। निस्पुत्र के यहाँ मेरी शादी
तय किया था इसी लोभ में। और वह कहता था कि शादी करके यहीं बस जाना होगा। एक मात्र
यही वारिश है। इतनी सम्पत्ति है, कौन देखभाल करेगा? ”- बाबा
कह रहे थे- “अब भला तुम ही बताओ गायत्री ! अपनी सम्पत्ति का देखभाल तो मैं कर नहीं सकता,फिर ये ससुराल
की सम्पत्ति का बोझ कौन उठाता,वो भी घर-जमाई बन कर ? ये
धन-सम्पत्ति जो है न बड़ी खतरनाक चीज है, वो भी रजवाड़ों की,जमींदारों की सम्पत्ति।
कौन कहें कि युधिष्ठिर के धर्मराजी विधि से अर्जित की गयी है। ज्यादातर ऐसी
सम्पत्तियाँ नाज़ायज़ तरीके से ही अर्जित की गयी रहती हैं। तुम नहीं जानती,पर है
एकदम सही—कर्म के विषय में जैसे कहा गया है- सात्विक,राजस,तामस तीन गुणों वाला,
उसी भांति धनार्जन में भी विचार अवश्य करना चाहिए कि आगत धन का गुण क्या है। त्रिगुणात्मक
सृष्टि में सब कुछ तीन गुणों वाला ही है, और उसका परिणाम भी वैसा ही होता है।
तामसी वृत्ति से अर्जित सम्पदा का भोग भी मनुष्य को तामसी बना डालता है,और उसका
विपाक बड़ा दीर्घकालिक होता है। कई जन्मों तक भी पीछा नहीं छोड़ता।”
‘मैंने
तो सुना था कि तामसी आहार से सदैव बचना चाहिए। तामसी धन भी क्या इसी तरह बहुत घातक
है?’ - इत्मिनान से
बैठते हुए मैंने सवाल किया । बाबा से सवाल करके,गायत्री मेरे लिए चाय नास्ते की
व्यवस्था में लग गयी।
“ बड़ी ही समीचीन जिज्ञासा रखी तुमने। आजकल लोग ये सारी बातें एकदम ही
विसार दिये हैं,फिजूल समझ कर। सचपूछो तो ये ‘आहार’ शब्द भी बड़ा विचारणीय है।” – कहते हुए बाबा ने पीछे गर्दन घुमाकर कीचन की ओर देखा- “ तुम भी सुन रही हो न गायत्री ?”
“हां भैया, मेरा ध्यान तुम्हारी बातों में ही है। तुम अपना व्याख्यान जारी
रखो । आहार-विहार पर मुझे भी बहुत शंका है। ” - गायत्री
नाश्ते का ट्रे लिए आयी , और उसे मेरे सामने रखकर पुनः वापस चली गयी,चाय लाने, ‘ अभी
आयी ’ कहती हुई।
बाबा
कहने लगे- “ सीधे तौर पर हम आहार को भोजन के अर्थ में ले लेते हैं, और उससे भी मजे की
बात ये है कि पिछले हजारों वर्षों से इसकी बाह्य शुचिता को लेकर ही जूझ रहे हैं—
खाना-पीना का छूआछूत- इसका छूआ मत खाओ,उसका छूआ मत पीओ...नहीं तो धर्म चला जायेगा।
अब जरा तुम ही सोचो- धर्म कोई ऐसी कमजोर चीज है जो जरा से छू-छा कर देने से, चला
जायेगा हमको छोड़ कर? बात उतर रही है जरा भी गले में ?”
गायत्री
चाय चढ़ा कर आयी थी,जिसे झटपट लिए आगयी । चाय मेज पर
रखती हुई बोली- “ हां-हां,यही बात मैं भी सोचती हूँ- धर्म और छूआछूत के विषय में।”
मैंने
बीच में ही टोका- ‘ नहीं,तुम नहीं सोचती। तुम तो उल्टे मुझे ही समझाती हो इसके
बारे में। अब बताओ उस दिन तुमने मुझसे कितनी बहस की, और अन्त में अच्छा-खासा कीमती
टी-सेट ‘ महरी ’ को दे दी,क्यों कि उसमें मेरे मुसलमान मित्र ने चाय पी ली थी,और
मेरी गलती ये थी कि उसके बारे में मैंने तुम्हें पहले कहा नहीं कुछ कि कौन है। कहा
होता तो शायद उसे कुल्हड़ में चाय देती या हो सकता है- चाय ही न पिलाती।’
हमदोनों
की किचकिच पर बाबा मुस्कुराते हुए बोले - “ ये अकेली तुम्हारी
परेशानी नहीं है,गायत्री। ये समस्या है समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की,जो इसी
भेद-भाव को अपना धर्म समझता है। मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि जिस-तिस का, जैसे-तैसे दिया हुआ कुछ भी खा-पी लो। वैसे तो आज की ‘होटली
सभ्यता और बफेडीनर’ ने इसे काफी बदल दिया है,पर वो भी गलत दिशा का मोड़ है । सच
पूछो तो यह आहार विषय थोड़ा गम्भीर है,और ठीक से समझने जैसी बात है। एक ओर ‘काम-संघर्ष’,जिस
पर हमलोगों की लम्बी बातें हुई, ने हमारे साधकों का समय नष्ट किया है,तो दूसरी ओर
इस आहार विषय ने भी कम परेशानी और उलझन में नहीं डाला है। सिर्फ साधक ही
नहीं,सामान्य जन भी इस नासमझी के घोर शिकार हुए हैं। इन दोनों से समाज का बहुत
अहित हुआ है।”
‘हां-हां,इस
पर आप जरा विस्तार से कहिए; और
समझाइये अपनी गायत्री बहन को।’ –मैंने गायत्री की ओर देखते हुए कहा।क्रमशः...
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