न्यासःपरिचय और प्रयोग
साधना
जगत में संकल्प और विनियोग के बाद बात आती है न्यास की;तत्पश्चात् ही ध्यान,पटल, कवच, स्तोत्र,हृदयादि-पाठ-जपादि
का विधान है। न्यास अपने आप में साधना नहीं है,प्रत्युत साधना की तैयारी है—तद्वांछित
योग्यता प्राप्ति का प्रयास। संकल्प की थोड़ी गहराई में है विनियोग,और उससे भी
गहरे में है न्यास। किन्तु मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि न्यास साधना-भवन
का शिलान्यास है... आधारशिला है। यदि इसका स्थापन ही दुर्बल हुआ तो भवन कैसा होगा? ये बात अलग है कि विभिन्न साधनाओं में शब्दों
और क्रियाओं में किंचित भेद हो,पर मूल बात वही है।
न्यास के सम्बन्ध में अबतक मैंने
जो पढ़ा-समझा-जाना,अनुभव किया, उसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ। उच्च साधकों की
दृष्टि में, यह मेरी बचकानी हरकत कही जा सकती है; किन्तु नये जिज्ञासुओं के लिए शायद बहुत उपयोगी हो जाय।
शास्त्रों में कहा गया है कि
न्यास करने से साधक का शरीर साधनार्थ आवश्यक योग्यता प्राप्त करता है। साधक में
देव-भाव की उत्पत्ति होती है। साधना का मूल सिद्धान्त है कि देवता जैसा बन कर ही
देवोपासना की जा सकती है, की जानी चाहिए भी। न्यास-विधान इसी का क्रियात्मक स्वरुप
है।
‘अस’ धातु में ‘नि’ उपसर्ग लगाने पर ‘न्यास’ शब्द बनता
है। ‘अस’ धातु के मुख्यतः दो अर्थ हैं—क्षेपण करना और स्थापन करना। जिसका जो स्थान नहीं है,यदि वह वहां बैठा हो, तो
उसे वहां से हटा कर, वहां के उचित स्वामी को प्रतिष्ठित करना ही न्यास है।
शास्त्र वचन है—शरीरमाद्यंखलुधर्मसाधनम्।।
साधना का आदि (बुनियादी)साधन शरीर ही है। इसके अंग-प्रत्यंग का जबतक शुद्धिकरण
नहीं होगा, तबतक साधना में वह सहायक कैसे हो सकेगा! स्नान, आचमन,प्राणायाम आदि क्रियाओं द्वारा शरीर का शोधन
ही किया जाता है। विविध प्रकार के न्यासों का भी कुछ ऐसा ही उपयोग है। दूसरी बात
है कि शरीर के प्रति ममत्व-भाव होता है—मेरा सिर,मेरा मुख...। इससे इन अंगों का
वास्तविक महत्त्व वैचारिक या भावनात्क रुप से पिछड़ जाता है,जिसके कारण क्रिया
में त्रुटि आती है,फलतः सफलता-प्राप्ति
में विलम्ब होता है। अतः विविध अंगों को साधनागत भाव से परिपूर्ण करना ही न्यास का
उद्देश्य है।
मूलतः यह तन्त्र का विषय
है,(तन्त्र का एक अर्थ विधि भी तो है)। साधक और साधना के स्तर के अनुसार इसका
क्रमिक अधिग्रहण होता है। प्रारम्भ में मात्र अंगादि के स्पर्श का ही निर्देश होता
है; किन्तु प्रायः लोग आजीवन यही करते रह जाते हैं--
यहीं चूक हो जाती है। खड़िया-पट्टिका लिए हुये, महाविद्यालय की ओर प्रस्थान करते
हैं,और वाह्य परिसर का चक्कर लगाते रह जाते हैं। इसके आगे की क्रियाओं के साथ भी
यही बात होती है। बातें गुरु-गम्य होने के कारण स्पष्ट नहीं हो पाती। प्रायोगिक पक्ष
तो प्रायोगिक ही हुआ करता है। फिर भी प्रारम्भ में सैद्धान्तिक पक्ष पर चर्चा की
जा सकती है। की जानी भी चाहिए, अन्यथा मूल के विनष्ट(लुप्त)होने का खतरा हो सकता
है। वैसे सौभाग्य से जिन्हें योग्य गुरु
प्राप्त हों, उनके लिए सिद्धान्त गौंण हो जाता है। वे तो सीधे प्रयोग में
उतर जा सकते हैं।
साधना में विविध प्रकार के न्यास
की चर्चा है, यथा- १)अंगन्यास(षडंगन्यास)-करन्यास,२)ऋष्यादि-न्यास,३)मन्त्र-न्यास, ४)मातृका-न्यास (वहिर्मातृका,अन्तर्मातृका), ५)व्यापक-न्यास, ६)षोढा-न्यास इत्यादि। तथाच—सारस्वत-न्यास—अस्मिन्सारस्वते न्यासेकृते जाड्यं
विनश्यति।।मातृकागण-न्यास-तृतीयेऽस्मिन्कृते न्यासे त्रैलोक्यविजयी भवेत्।। षड्देवीन्यास—तुर्यं
न्यासं नरः कुर्याज्जरा मृत्युं व्यपोहति ।। ब्रह्माख्यन्यास—कृतेस्मिन्पञ्चमे
न्यासे सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।। महालक्ष्म्यादिन्यास—धनाप्ति।।
बीजमन्त्रन्यास—रोगनाशक , विलोमबीजन्यास—दुःखहारी , मूलमन्त्रन्यास—स्वरुप-प्राप्ति
।। किंचित भिन्न रीति से मूलमन्त्रन्यास—कृतेस्मिनदशमे न्यासे त्रैलोक्यं
वशगं भवेत्।। कवच-मन्त्र-न्यास—1.ऐं बीजयुक्त, 2.ह्रींबीजयुक्त, 3.क्लींबीजयुक्त।।
तथाच— मूलषडंगन्यास,अक्षरन्यास, दिङ्गन्यास इत्यादि ।।)
यहां, इन सब पर थोड़ी चर्चा कर ली
जाय—
१.षडङ्गन्यास— वस्तुतः करन्यास और अंगन्यास दोनों इसके ही
प्रभेद हैं। पहले दोनों हाथों की अंगुलियों का क्रमशः आपस में मन्त्र-पूरित-स्पर्श
करते हैं। यथा—अंगूठा,तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा। तत्पश्चात करतल और
करपृष्ठ का स्पर्श किया जाता है। प्रायः लोग यहां भ्रमित होते हैं कि ये स्पर्श
कैसे हो,यानी दोनों हाथ अलग-अलग कार्य करें या कि एकत्र? मेरे विचार से अलग-अलग का कोई औचित्य
नहीं है। सबका स्पर्श तो अंगूठे से कर लेंगे,किन्तु अंगूठे का स्पर्श कौन करेगा-
ये बचकाना सवाल उठता है। वस्तुतः यह प्रश्न इस कारण उठता है क्योंकि अंगुलियों का
रहस्य हमें ज्ञात नहीं होता। ज्ञातव्य है पांच
अंगुलियां— अंगूठा,तर्जनी,मध्यमा,अनामिका और कनिष्ठा क्रमशः आकाश,वायु, अग्नि, जल
और पृथ्वी तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन पांचों का ही ऋण-धन क्रम से
दाहिना-बायां,और ऊपर-नीचे(उर्ध्वांग-निम्नांग) हाथ-पैर के प्रशाखाओं के रुप
में(सहयोग से) पंचतत्त्वों का नियन्त्रण होता है,और ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति—मानव-शरीर(पिण्ड)
की सार्थकता सिद्ध होती है। ऋण-धन के आपस में वैधिक-मिलन से ही ऊर्जा प्रवाहित होती
है। और यही तो करना है-न्यास में— ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का पिण्डीय ऊर्जा में अवतरण
का प्रयास। ध्यातव्य है कि दायें हाथ के अँगूठे का स-मन्त्र बायें हाथ के अंगूठे
से स्पर्श अनुभव-पूर्ण होना चाहिए। स्विच के नेगेटिव-पोजेटिव प्वॉयन्ट को जोड़े और बत्ती न जले—इसका मतलब है कि तार
जोड़ने में कोई त्रुटि रह गयी है,यानी कि ठीक से जोड़ें। और आगे, इसी भांति क्रमशः
शेष चार अंगुलियों का,और फिर करतल और करपृष्ठों का एकत्र रुप में। यथा—ऊँ...अंगुष्ठाभ्यां
नमः, ऊँ...तर्जनीभ्यां नमः, ऊँ...मध्यमाभ्यां नमः,ऊँ...अनामिकाभ्यां
नमः,ऊँ...कनिष्ठाभ्यां नमः, ऊँ...करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः। यही करन्यास कहलाया। उच्चारण
और स्पर्श पूर्णतः अनुभूति पूर्ण हो,तभी न्यास सार्थक होता है। बिलकुल प्रारम्भ
में सिर्फ अंगादि का स्पर्शानुभव ही पर्याप्त है,यानी अ-मन्त्र। बाद में इस क्रिया
को स-मन्त्र करने का अभ्यास करे। करन्यास प्रायः सभी देवोपासना में समान ही
है,सिर्फ तत्तद् देवों का मन्त्र-पाद परिवर्तित होता है। उपासना का प्रधान अंग
होते हुए भी,नये अभ्यासियों को इसे स्वतन्त्र रुप से भी करने का अभ्यास करना
चाहिए, ताकि साधना काल में अनुभूति और गहन हो सके।
अगले चरण में पुनः हृदयादि अंगों
का क्रमशः स्पर्श किया जाता है- तत्मन्त्रों के मानसिक उच्चारण पूर्वक। किन्तु
अंगन्यास में काफी भेद है,या कहें संकोच और विस्तार क्रम है। छः से लेकर चौवन तक
के क्रम मिलते हैं करीब। अलग-अलग मन्त्रों, देवों,साधना-पद्धतियों में अंगादिन्यास
का स्थान-वैभिन्य विविध रुप में व्यवहृत होता है। इसे ऋषियों का मतान्तर न कह
कर,क्रियात्मक भेद ही समझना चाहिए। किन्तु इन सब भेदों-प्रभेदों से अलग हट कर
सर्वमान्य या कहें प्रारम्भिक हृदयादि न्यास का क्रम यही है— ऊँ...हृदयाय नमः,ऊँ...शिरसे
स्वाहा, ऊँ...शिखायै वषट्, ऊँ...कवचाय हुँ, ऊँ...नेत्रत्रयाय वौषट्(कहीं
नेत्राभ्यां भी मिलता है), ऊँ... अस्त्राय फट्। इस सम्बन्ध में ज्ञानार्णवतन्त्रम्
में कहा गया है—हृदयं च शिरो दवि !
शिखां च कवचं ततः। नेत्रमस्त्रं न्यसेत् ङेऽन्तं, नमः स्वाहा क्रमेण तु ।। वषट् हुं
वौषडन्तं च,फडन्तं योजयेत् प्रिये ! षडङ्गोऽयं मातृकायाः,सर्वपाप हरः स्मृतः।। यानी अंगन्यास में विहित मन्त्र-पाद के साथ
क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुँ, वौषट् और फट् का प्रयोग किया जाना चाहिए।
कहीं-कहीं विशिष्ट निर्देश भी होते हैं कि करन्यास में भी अंगन्यास की तरह ही उक्त
षट् पदों का प्रयोग किया जाय। ऐसी स्थिति में गुरु-निर्देश की ही प्राथमिकता होगी।
षडङ्गन्यास के करने में इष्ट-मन्त्र-बीज को ही छः दीर्घस्वरों से युक्त
करके,तत्तद् अंगों में प्रतिष्ठा करने की भावना की जाती है। कुछ मन्त्रों के
षडंगन्यास में उनसे सम्बन्धित विशिष्ट देवतात्मक पदों की योजना करने की विधि भी
मिलती है। हालांकि सबका उद्देश्य (लक्ष्य) मात्र एक ही है—देवमय होने का प्रयास।
अब उक्त षट् प्रयुक्त पदों को क्रमशः
स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है-
(क)
हृदयादि न्यास का पहला पद है नमः,और न्यास स्थान
है- हृदय। ध्यान देने की बात है कि नमन (झुकना)
में विनम्रता छिपी है,जो उदण्डता के विपरीत है। इस भावगत वृत्ति का स्थान है-
हृदय। प्रेम,करुणा,विनम्रता आदि यहीं के विषय हैं। प्रेम निस्सीम होता है,यानी
इसकी सीमा में सब कुछ समा जा सकता है। ध्यातव्य है कि प्रेम और भक्ति का मूल स्थान
हृदय ही है। इस न्यास का उद्देश्य है- समस्त अनात्म पदार्थों से विवेक पूर्वक
स्वयं को विलग करने का प्रयास। दाहिने हाथ की पांचो अंगुलियों को एकत्र करके,उसके
अग्रभाग से हृदय-प्रान्त का मृदु स्पर्श करके, इस न्यास को धारित किया जाता है।
(ख)
हृदयादि
न्यास का दूसरा पद है- स्वाहा,जिसका आशय है आत्मा को शीर्ष स्थान पर स्थापित
कर,स्वयं को उसके समक्ष समर्पित कर देना। साधक का सबसे बड़ा बाधक- ‘अहं’ के विसर्जन का इससे सुन्दर और क्या
उपाय हो सकता है! इसकी
मुद्रा है- दाहिने हाथ की प्रशस्त हथेली का कोमल स्पर्श अपने शिरोभाग(मध्य)में
करना। ध्यातव्य है कि परमगुरु का स्थान शीर्षप्रान्त ही कहा गया है। योगियों की
भाषा में जो सहस्रपद्म-स्थल है।
(ग)
हृदयादि न्यास का तीसरा पद है- वषट्,और इसका
स्थान है- शिखा,जो तेज का प्रतीक है। आराध्य(इष्ट)के तेज को आत्मसात करने का
प्रयास है इस न्यास के द्वारा। आधुनिक भाषा में समझें तो कहा जा सकता है कि
मानव-शरीर का एन्टीना है शिखा-प्रदेश। बाह्यतेज(देवतेज)का संग्रहण इसी विन्दु से
होता है। भले ही आज इसकी महत्ता को लोग विसार दिये हैं। आत्मा के तेजोमय स्वरुप का
अनुभव किया जाता है इस न्यास से,जिसकी मुद्रा है- दाहिने हाथ की शेष चार अंगुलियां
मुट्ठी बन्द करने जैसी बन्द होंगी,और सिर्फ अंगूठा खुला रहेगा,जिससे शिखा-देश का
स्पर्श किया जाना चाहिए, इस भावना के साथ कि दिव्य शक्ति का अवतरण हो रहा है हमारे
अन्दर, ठीक वैसे ही जैसे एन्टीना केबल को उपकरण से जोड़ कर हम आश्वस्त हो जाते हैं
कि अब वांछित दृश्य हम देख पायेंगे दूरदर्शन पर।
(घ)
हृदयादि
न्यास का चौथा पद है- हुं,जिसका सम्बन्ध कवच(सुरक्षा-उपकरण,आच्छादन) से है। इस
न्यास के द्वारा साधक सर्वात्मदेह से आच्छादित होकर,सर्वथा सुरक्षित होने की भावना
करता है,जिसके परिणाम स्वरुप दूसरे के लिए भयप्रद और स्वयं के लिए रक्षाकारी
तेजोदीप्त होता है। साधक-शरीर के बाह्य मंडल में अदृश्य सुरक्षा-कवच(घेरा)पड़ जाता
है,जो अभेद्य है। इस न्यास को करने की मुद्रा है—दाहिने हाथ की कनिष्ठा मूल(अंगुली
जहां हथेली से जुड़ रही है)से प्रहार करने जैसी मुद्रा में अपने बायीं बाजू का
स्पर्श करना है,और ठीक ऐसी ही क्रिया बायें हाथ से दाहिने बाजू पर भी करनी है। इस
प्रकार हृदय स्थल के सामने दोनों हाथों का क्रॉस बन जायेगा,जो हृदय पर भी सुरक्षा-घेरा
का कार्य करेगा।
(ङ)
हृदयादि
न्यास का पांचवां पद है- वौषट् और इसे न्यस्त करने का स्थान है— नेत्र-क्षेत्र।
देखने को तो हमारी दो ही आँखें हैं,किन्तु योगशास्त्र हमारे एक और नेत्र की ओर
इशारा करता है,जो कि भ्रूमध्य में सुप्तावस्था में पड़ा है। इसे चैतन्य करने हेतु
स्मरण दिलाना ही इस न्यास का उद्देश्य है। इस न्यास में दाहिने हाथ की
तर्जनी,मध्यमा और अनामिका अंगुलियों का प्रयोग करते हैं,जिनमें तर्जनी दाहिनी आंख
को ईंगित करती है,अनामिका बायीं आँख को,और मध्यमा उस सुप्त नेत्र का संकेत देता
है। ध्यातव्य है कि मध्यमा अग्नितत्त्व का प्रतिनिधि है,और आँख अग्नितत्त्व का
ज्ञनेन्द्रिय। मध्यमा की मध्यस्थता में सुप्तनेत्र को चैतन्य करने का प्रयास किया
जाता है इस क्रिया में। योगशास्त्र इस स्थान को आज्ञाचक्र चक्र कहता है,जिसका
उपयोग साधकों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आत्मतत्त्व के यथार्थ ज्ञान की
कुंजी यहीं से प्राप्त होती है।
(च)
हृदयादि
न्यास का छठा और अन्तिम पद है—फट् । वस्तुतः यह अस्त्र है- ‘अस्’ और ‘त्रस्’ धातुओं से बना हुआ, जिसका अर्थ है
फेंकना और जलाना। इसके द्वारा साधक त्रिविध—दैहिक, दैविक,भौतिक तापों का निवारण
करता है,ज्ञानाग्नि में भस्म करने की भावना करता है। इसे न्यस्त करने की विधि है-
दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा को खुला रखते हुये,यानी अनामिका और कनिष्टा को
अंगूठे से दबाकर,बायीं ओर से (घड़ी की विपरीत दिशा में- anticlockwise ) घुमाकर सामने लाते हैं,और
बायीं हथेली पर प्रहार करते हैं,जिससे तीब्र ‘चटकार’ की ध्वनि निकलती है। ध्यातव्य है कि अग्नितत्त्व-
मध्यमा और वायुतत्त्व- तर्जनी के संयोग से ये क्रिया हो रही है। वायु की मैत्री से
अग्नि प्रचंड होता है,और चितादाह में चटकार की ध्वनि स्वाभाविक है। यानि प्रचंड
वेग से त्रिविध तापों की चिता जलायी जारही है—यही भावना करते हैं इस महत्त्वपूर्ण
न्यास में।
(नोटः-
उक्त षडङ्गन्यास (करन्यास, अंगन्यास)बिलकुल प्रारम्भिक क्रिया है,और प्रायः
छोटी-बड़ी सभी साधनाओं में लगभग समान रुप से व्यवहृत है; किन्तु इसके आगे के न्यास साधक और
साधना के स्तर के अनुसार न्यूनाधिक रुप से प्रयुक्त होते हैं। और दूसरी बात इस
सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि आगे प्रयुक्त न्यास क्रमशः उत्तरोत्तर साधना के भी
द्योतक हैं। विशेषकर ऋष्यादिन्यास और मन्त्र-न्यास के बाद किये जाने वाले मातृकादि न्यास तो विशिष्ट
साधकों के लिए ही हैं। सामान्य पूजा में इनकी कोई खास आवश्यकता नहीं है।)
(२) ऋष्यादिन्यास— कृतेनयेन
देवस्य सारुप्यं याति मानवः।। तथाच- ऋषिच्छन्दो देवतानां विन्यासेन विना, जप्यते साधितोऽयेष तुच्छ
फलं भवेत् ।। अर्थात् ऋषि, छन्द,देवता
का विन्यास किए विना,जो मन्त्र-जप किया जाता है,उसका फल तुच्छ यानी न्यून हो जाता
है। अतः साधना का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए न्यास द्वारा इनसे तादात्म्य
स्थापित करना परमावश्यक है। हम पाते हैं कि प्रायः मन्त्र या स्तोत्र के विनियोग में
ही इन बातों की चर्चा रहती है,यानी जिस मन्त्र का हम जप करने जा रहे हैं, अथवा
स्तोत्र-पाठ करने जा रहे हैं,उसके ऋषि,छन्द और देवता कौन हैं- यह जानना-करना
आवश्यक है। कहीं-कहीं और भी कुछ चर्चा जुड़ी रहती है,यथा- बीज,शक्ति,कीलक,और
अभीष्ट फल। यानी कहीं मात्र तीन की,तो कहीं कुल सात बातों की चर्चा रहती है। नियम
है कि जहां जितनी बातों की चर्चा हो,वहां साधना में उतने का ही प्रयोग किया जाना
चाहिए,अन्यथा क्रिया न्यूनाधिक दोष-युक्त(त्रुटि-पूर्ण) कही जायेगी,और परिणाम भी
तदनुरुप ही होगा। पूर्व निर्दिष्ट षडंगन्यास (करन्यास-अंगन्यास) के पश्चात् सप्तांग
वा त्रयंग ऋष्यादिन्यास करने का विधान है। प्रसंगवस इन सातों से थोड़ा परिचय
प्राप्त किया जाय—
अ.
ऋषि- यह शब्द गत्यर्थक ‘ऋ’ धातु,और ‘षिङ् प्रापणे’ प्रत्यय से बना है।
अभिप्राय है कि जो मन्त्र-गति से, अर्थात् त्वरित गति से परमात्मा के स्वरुप को
प्राप्त करता है,वह साधक ही ऋषि है,जिसे मन्त्र-द्रष्टा ऋषि कहते हैं। किसी वस्तु
का कोई न कोई मूल(आदि) स्रष्टा होता ही है-यह तय है। मन्त्र-दीक्षा लेकर,साधना-क्रम
में साधक ऋष्यादि न्यास द्वारा उस ऋषि से तादात्म्य स्थापित करता है,और तब वह अपनी
साधना-द्वारा उस ऋषि के ही समान मन्त्र-गति से परमात्मा तक पहुँचता है (अभीष्ट फल
प्राप्त करता है)। चुँकि परमात्मा और गुरु का स्थान शिर में सर्वमान्य है,अतः
मन्त्र के ऋषि का न्यास शिर में ही किया जाना चाहिए। शिर के स्पर्श की
विधि(मुद्रा)पूर्व निर्दिष्ट अंगन्यास के अनुसार ही,यानी दाहिने हाथ की चारो
अंगुलियों(अंगूठा रहित)के अग्रभाग से शिरोदेश का मृदु स्पर्श सानुभूति पूर्वक
(सहानुभूति नहीं)।
आ.
छन्द- छन्द शब्द में ‘छ’ इच्छा वाचक,और ‘द’ दानार्थक है- देने अर्थ में। इस प्रकार
अभीष्ट फल देने वाला मन्त्र ही है,जो गुरु-मुख से प्राप्त होता है,शिष्य की
कर्ण-गुहा में। इस क्रम में आत्मज्योति मूलाधार से उठ कर हृदयादि से होते हुए,सहस्रदलपद्म
में आकर प्रतिष्ठित होती है। मन्त्रमय छन्द का न्यास मुख में किया जाना
चाहिए,क्यों कि साधक द्वारा जो मन्त्रोच्चारण किया जायेगा- अक्षरों का,उसका स्थान
मुख ही है। मुख में छन्द-न्यास करने की मुद्रा वैसी ही होगी,जैसे पांचों अंगुलियों
को एकत्र करके हम भोज्य-ग्रास लेते हैं। इस सम्बन्ध में ध्यान दिलाना चाहेंगे कि
साधक का भोजन हाथ से ही होना चाहिए,न कि आधुनिक उपकरण- कांटे-चम्मच से, क्योंकि उपकरणों
की सहायता से लिया गया ग्रास पंचतत्त्वात्मक ऊर्जा से वंचित रह जाता है।
इ.
देवता- ‘दिव’ धातु से बने देव शब्द में भावार्थक ‘तल’ प्रत्यय या कि
विस्तारार्थक ‘तनु’ धातु से बने ‘त’ शब्द संयोग है। तात्पर्य है सर्वात्मना
देवत्व(देव-भाव)प्राप्त करना,जिसका मूल स्थान हृदय है। अतः देवता का न्यास यहीं
करना चाहिए। न्यास की यहां मुद्रा होगी- खुली हथेली से हृदय का सानुभूति पूर्वक
स्पर्श।
ई.
बीज-
बीज वीर्य या रज(पुरुष-स्त्री)का प्रतीक
है,जिसका स्थान क्रमशः लिंग वा योनि है। यहीं आसपास मूलाधार की भी स्थिति है।( यहां
आसपास शब्द से नये अभ्यासी भ्रमित नहीं होंगे,उन्हें इस कथन में कुछ विसंगति लग
सकती है)। साधना क्रम में बीज के न्यास (स्थापना) का तात्पर्य है कि समुचित स्फुरण
और विकास कुण्डलिनी के साथ ऊर्ध्वमुखी हो,और समुचित फल साधक को प्राप्त हो सके। इस
प्रकार निश्चित है कि बीज-न्यास का स्थान पुरुष में लिंगप्रदेश,और स्त्री में
योनिगुहा (उच्च साधक के लिए- सीधे मूलाधार) में ही होना चाहिए। इसकी मुद्रा होगी-
दाहिने करतल को पीछे लेजाकर,गुद-प्रान्त का वाह्य स्पर्श।
उ.
शक्ति- शरीर को चलायमान बनाने का काम पैरों का
है। अतः मन्त्र-शक्ति का न्यास पैरों में होना चाहिए। मुद्रा होगी- बारी-बारी से
दोनों पैरों का सामान्य स्पर्श।
ऊ.
कीलक- शरीर का केन्द्र नाभिमंडल है। कीलन का
कार्य यहीं किया जाता है। यह भी एक प्रकार का सुरक्षा-कवच है,किन्तु कवच से जरा
भिन्न है-अवरोधात्मक रुप से। इसे केन्द्रीकरण भी कह सकते हैं। पूरी शक्ति को एकत्र
कर के रख देने जैसा,जहां पूरी तरह सुरक्षा मिल जाय। इस कीलन के विपरीत की क्रिया
निष्कीलन की होती है,जिसका प्रयोग विशेषरुप से कीलित मन्त्रों के लिए करना
अनिवार्य होता है। निष्कीलन न्यास का अंग नहीं है। कीलक के प्रयोग के समय
तत्मन्त्र का मानसिक उच्चारण करते हुये,अपनी चेतना को नाभिकेन्द्र पर केन्द्रित
करना चाहिये,तथा दाहिने अंगूठे से नाभिगह्वर का स्पर्श करे।
ऋ.
अभीष्ट
फल- ऋष्यादि न्यास का
अन्तिम चरण है यह । वांछित क्रिया का समुचित परिणाम प्राप्त होना ही साधक का
अभीष्ट होता है। वस्तुतः यह प्रार्थीभावावतरण की क्रिया है। अतः इस न्यास की
मुद्रा होगी- खुली हुयी अञ्जलीद्वय(दोनों हाथ को एकत्र कर भिक्षा मांगने जैसी)को
हृदय(भाव-केन्द्र)के समीप रख कर,विहित मन्त्र-पद का मानसिक उच्चारण। इस न्यास के
समय साधक अनुभव करे कि इष्ट की कृपा बरस रही है उस पर।
३) मन्त्र-न्यास— साधक
दीक्षा-ग्रहण के समय गुरु-प्रदत्त मन्त्र को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता
है,जिसे समयानुसार साधा जाता है। साधना-काल में पूर्व न्यासों के सम्पन्न होजाने
के बाद,दीक्षा-मन्त्र(वा अभीष्ट मन्त्र) का मानसिक उच्चारण करते हुए, स्थिर चित्त से
भावना करे कि उक्त मन्त्र की दैवीऊर्जा हमारे शरीर पर बरस रही है। इस प्रकार साध्य
मन्त्र से एकात्मता प्राप्त करन का प्रयास किया जाता है।
४) मातृका-न्यास— जैसा कि इस न्यास के नाम से ही स्पष्ट
है- इसमें मातृकाओं अर्थात् वर्णों(अक्षरों)की स्थापना शरीर के विशिष्ट अंगों में
विधि पूर्वक की जाती है। अकारादि वर्णमाला का ही सांकेतिक नाम ‘मातृका’ है। वर्ण या अक्षर
शब्द-ब्रह्म या वाक् शक्ति के स्वरुप हैं। इनका सूक्ष्म रुप विमर्श-शक्ति के नाम
से ख्यात है,जिसे परावाक् कहतें हैं, जिसमें स्फुरणा मात्र होती है। यही मातृका या
चैतन्यात्मक शब्द-ब्रह्म हमारे शरीर में कुण्डलिनी के रुप में व्यक्त हुयी है।
मातृका-स्वरुप-वर्ण-माला के एक-एक अक्षर का विशद वर्णन विविध तन्त्र-शास्त्रों में
उपलब्ध है। मातृका शब्द यहां अपने मूल(प्रचलित)अर्थ में भी स्पष्ट है— मातृ (माँ) के
बिना सृजन-प्रक्रिया असम्भव है। ज्ञातव्य है कि सृष्टि का सृजन वर्णों (ध्वनियों) से ही हुआ है। मातृका शब्द से
विश्व को उत्पन्न करने वाली ‘नादात्मिका’ शक्ति का बोध होता है। अतः ये मातृकाएँ
साक्षात् शक्ति-स्वरुपा हैं। भावना-योग द्वारा इन्हें शरीर के अंगों में न्यस्त
करके, साधक विशिष्ट शक्ति प्राप्त करता है,या कहें— जो शक्ति सुप्त पड़ी है(प्राणीमात्र
में), उसे चैतन्य (जागृत) करता है।
प्रसंगवश उक्त वर्णमातृकाओं को विशेष
रुप से जान-समझ लेना भी आवश्यक है; क्यों कि सामान्य प्रचलन से किंचित
भिन्नता है यहाँ। आजकल बच्चों को जो वर्णमाला सिखाने का प्रचलन है,उससे काफी भिन्न
है ये। अतः गौर से समझ लेना जरुरी है। अकादि सोलह स्वरवर्ण—अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ॡ,ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः(ध्यातव्य
है कि यहां ऋ और लृ का दीर्घ स्वर भी व्यवहृत हुआ है), तथा क,ख,ग,घ,ङ,च,छ,ज,झ,ञ,ट, ठ,ड,ढ,ण,त,थ,द,ध,न,प,फ,ब,भ,म,
य,र,ल,व,श,ष,स,ह,ळ(एक विशेष ध्वनि जो र+ल का योग है) (क्ष नहीं है यहां) इत्यादि
चौंतीस व्यंजन वर्ण मिल कर कुल पचास वर्ण हुये। इन्हें अनुलोम-विलोम क्रम से (यानी
प्रथम समूह मे अ से ळ तक,और फिर विपरीत क्रम से यानी ळ,स,ष,श से आ,अ तक) युक्त
करने पर कुल सौ की संख्या बनी। अब इसमें अ-क-च-ट-त-प-य-श – इन अष्टमातृकाओं को
युक्त करने पर १०८ की वर्णमाला बनती है। ‘क्ष’ इस वर्णमाला में सुमेरु के पद पर
प्रतिष्ठित होता है। ध्यातव्य है सभी वर्णों का विन्दु-युक्त उच्चारण होना चाहिए,
यानि अँ,आँ... कँ,खँ इत्यादि। एक और गूढ़ रहस्य है कि इस माला का ग्रन्थन-सूत्र
ब्रह्मनाड्यन्तर्गत चित्रिणी नामक नाडी है।
उक्त मातृका-न्यास के दो भेद
हैं-1.वहिर्मातृका न्यास और 2.अन्तर्मातृका न्यास। अन्तर्मातृका के पुनः तीन उपभेद
होते हैं-1.सृष्टि-मातृका-न्यास,2.स्थिति-मातृका-न्यास,3.संहार-मातृका-न्यास।
सृष्टि-मातृका-न्यास में भाव-शरीर की उत्पत्ति की जाती है,स्थिति-मातृका-न्यास में
उत्पन्न किये गये शरीर में देवता से तादात्म्य स्थापित किया जाता है,तथा
संहार-मातृका-न्यास में साधना-विरोधी मल से आवृत भौतिक शरीर का विलयन किया जाता
है। मातृका न्यास के प्रारम्भ में बहिर्मातृका-न्यास का ही अभ्यास किया जाता
है,जिसमें उक्त वर्णों को शरीर के विभिन्न अंगों पर आरोह-अवरोह क्रम से न्यस्त
करते हैं,और अन्तर्मातृका-न्यास में शरीर के भीतर जाकर विविध चक्रों(पद्मों)में
न्यस्त करते हैं। इस प्रकार मातृका-न्यास अपने आप में अद्भुत क्रिया है,जिसे साधने
से साधक दिव्यभाव को प्राप्त होता है। प्रारम्भ में हो सकता है,उसे कुछ भी अनुभूति
न हो,व्यर्थ जैसा लगे,किन्तु जैसे-जैसे उसकी क्रिया घनीभूत होगी,साधना का अभ्यास
होता जायेगा,अन्तर्मातृकायें चैतन्य (जागृत) होती जायेंगी,साधक का उत्तरोत्तर विकास
स्वयमेव लक्षित होता जायेगा। विशेष ध्यातव्य है कि इस न्यास का अभ्यास स्थूल गुरु
के निर्देशन में ही किया जाना चाहिए।
५) व्यापक न्यास— यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण न्यास है। इसकी
सबसे बड़ी विशेषता है कि विशेष परिस्थिति में समयाभाव वश सर्वांगन्यास करना सम्भव
न हो तो,सिर्फ इस अकेले न्यास को करके ही सर्वांगता की पूर्ती हो सकती है; किन्तु इसका ये
अर्थ नहीं कि सामान्य परिस्थिति में भी इतना ही करके निश्चिन्त हो लिया जाय। मूल
मन्त्र-न्यास (क्रमांक ३) में की गयी क्रिया को ही थोड़े व्यापक रुप सें यहां की जाती
है। मन्त्र का मानसिक उच्चारण करते हुए,सिर के ऊपर से लेकर पादतल तक,चेतना-परिभ्रमण
कराये—तीन,पांच,सात,नौ बार—इच्छानुसार इस क्रिया को दुहराये। ध्यातव्य है कि पहली
बार सिर से पैर तक आवे,फिर पैर से सिर तक वापस जाये। ऊपर से नीचे,नीचे से ऊपर- ये
दो मिल कर एक चक्र पूरा होता है। इस सम्बन्ध में एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है
कि साधना में व्यवहृत ‘
सौस्थानिक न्यास ’ से यह बिलकुल भिन्न है। व्यापक न्यास का दूसरा गूढ़ नाम ‘ औत्थानिक
न्यास ’ है। देवभाव को आत्मसात
करने में इस न्यास की बड़ी भूमिका है।
६) षोढान्यास— न्यास की पराकाष्ठा है- षोढान्यास । षोढ़ा का शाब्दिक
अर्थ है छः प्रकार का। यह अति गोपनीय न्यास है। इसकी विधि अलग-अलग
महाविद्याओं के लिए अलग-अलग है। इसकी चर्चा श्रीकालीनित्यार्चन,श्रीकल्पद्रुम आदि
ग्रन्थों में विशेष रुप से मिलती है। कहते हैं कि यह न्यास अपने आप में एक साधना
तुल्य है। इसके सिद्ध होजाने पर साधक पृथ्वी,जलादि पंचतत्त्वों तक का अधिकारी बन
जा सकता है। विशेष प्रचलित षोढान्यास के अन्तर्गत गणेश, सूर्यादि
नवग्रह, अश्विन्यादि नक्षत्र, मेषादि राशि, शिख्यादि योगिनी, विविध पीठादि का प्रयोग
किया जाता है। इसकी साधना से साधन-पथ के सारे विघ्नों का नाश होकर,साधक का
उत्तरोत्तर विकास होता है। सामान्य दैवी शक्तियां भी साधक को विचलित नहीं कर पाती।
इस न्यास के सिद्ध हो जाने के बाद साधक को बड़ी सावधानी से रहना पड़ता है। वह
स्वयं ही इतना प्रणम्य हो जाता है कि यदि भूल से भी किसी के आगे(गुरु-मातादि को
छोड़कर) सिर झुका दे(प्रणाम करने हेतु),तो तत्काल उस प्रणम्य के सिर का विस्फोट हो
जाये।
न्यास की महत्ता और उपादेयता के सम्बन्ध में विविध
शास्त्रों के वचन मननीय हैं,जो कुछ इस प्रकार हैः-
(क)न्यासस्तु देवतात्मत्वात् स्वात्मनो देह
कल्पना- अपने शरीर को
देवतात्मक समझने(वस्तुतः देवतात्मक तो है ही)हेतु न्यास किया जाता है।
(ख) पञ्चभूतांगदेवानां
न्यसनान्यास उच्यते- पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु
और आकाशादि पंचमहाभूतासृत देवों की स्थापना करने से ही न्यास की क्रिया सम्पन्न
होती है।
(ग)
चैतन्यं
सर्व भूतानां शब्द ब्रह्मेति मे मतिः । तत् प्राप्य कुण्डीली-रुपं,प्राणिनां देह-मध्यगं
। वर्णात्मनाऽऽविर्भवति,गद्य-पद्यादि भेदतः।। - सभी भूतों का चैतन्य रुप शब्द-ब्रह्म ही है। वही कुण्डलिनी
रुप में समस्त प्राणियों में स्थित है,जो वर्णात्मा द्वारा गद्य-पद्य रुपात्मक
व्यक्त होता है।
(घ)
न्यासं
विना जपं प्राहुरासुरं विफलंबुधाः । न्यासात् तदात्मको भूत्वा,देवो भूत्वा तु तं
यजेत्- न्यास के बिना जो
मन्त्र-जप किया जाता है,वो व्यर्थ होजाता है,क्यों कि वह आसुरी होजाता है(इससे
न्यास की महत्ता सिद्ध होती है । अतः न्यास द्वारा देवता बनकर,पूजन-यजन
करना चाहिए।
(ङ)अकृत्वा
विधिवन्नयासान् नाचार्यामधिकार वान् – विधि- सम्मत
न्यास न करने वाला अर्चन (साधना) का अधिकारी नहीं होता।
इस प्रकार हम पाते हैं कि न्यास कितना महत्त्वपूर्ण है। भले
ही साधना की पृष्ठभूमि है यह,किन्तु फिर भी सम्यक् न्यास मात्र से ही साधक में
अद्भुत क्षमता आ जाती है। अतः इसकी महत्ता को हृदयंगम करते हुए,यथासम्भव पालन करना
प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है। पुनः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि न्यास अंग
छूने की औपचारिकता मात्र नहीं है, प्रत्युत चेतना के अवतरण और निर्वाध प्रवाहण का
आवश्यक घटक है- न्यास । अस्तु।
---------------()()--------------
Comments
Post a Comment