गतांश से आगे...
५.
देवर्षि नारद का प्रश्न और सुतनु ब्राह्मण वटुक का तदुत्तर
प्रश्नः-
१.मातृकां
को विजानाति,कतिधा कीदृशाक्षरम् – मातृकाविद्या
का ज्ञाता कोई है
, अक्षर कितने हैं और उनका वैज्ञानिक स्वरुप क्या है ?
उत्तर-
ऊँकारः प्रथमस्तस्य चतुर्दश स्वरास्तथा । वर्णाश्चैव त्रयस्त्रिंशदनुस्वारस्तथैव च
।। विसर्जनीयश्च परो जिह्वा मूलीय एव च ।
उपध्मानीय एवापि द्विपञ्चाशदमीस्मृताः ।।
अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते । मकारश्च स्मृतो
रुद्रस्त्रयश्चैते गुणाः स्मृताः ।। अर्द्धमात्रा च या मूर्ध्निं परमः स सदाशिवः।।
(प्रथम
मातृकावर्ण ऊँकार है, जो अ-उ-म् का संघटन है। अ- ब्रह्मा, उ-विष्णु, म्-रुद्र-
त्रिगुणमय स्वरुप हैं। अनुस्वार स्वरुप अर्द्धमात्रा ही सदाशिव हैं।) अकार से औकार
तक चौदह स्वर, ककारादि तैंतीस व्यंजन,अनुस्वार,विसर्ग,जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय—ये
कुल मिलाकर बावन मातृतावर्ण हैं। अकार से औकार पर्यन्त चौदह स्वर ही चौदह मनु हैं।
इनके प्रसिद्ध नाम हैं— स्वायम्भुव,स्वारोचिष, औत्तम, रैवत,तामस, चाक्षुष,वैवश्वत,सावर्णि,ब्रह्मसावर्णि,रुद्रसावर्णि,दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि,
रौच्य तथा भौत्य । श्वेत,पाण्डु, लोहित,ताम्र,पीत, कपिल, कृष्ण,श्याम,धूम्र, अतिपिंगल,अल्पपिंगल,त्रिरंग,बहुरंग
एवं कवर — ये क्रमशः उक्त चौदह मनुओं के रंग हैं । क से ठ पर्यन्त बारह व्यंजन मूलतः द्वादशादित्य
हैं । इन बारहों के क्रमशः प्रसिद्ध नाम हैं — धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंशु,
भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु । ड से ब पर्यन्त ग्यारह रुद्र हैं
। ये हैं क्रमशः- कपाली, पिंगल, भीम,विरुपाक्ष,विलोहित, अजक, शासन, शास्ता, शम्भु, चण्ड
और भव । भ से ष पर्यन्त आठ वसु हैं । यथा- ध्रुव,घोर,सोम, आप, नल, अनिल,प्रत्यूष
तथा प्रभास । स और ह ये दोनों अश्विनीकुमार हैं । इस प्रकार ये तैंतीस देवता हुए ।
प्रकारन्तर में ये ही तैंतीस कोटि कहे गए । ध्यातव्य है कि यहां ‘कोटि’
शब्द प्रकार बोधक है, न कि संख्या बोधक । अनुस्वार, विसर्ग,जिह्वामूलीय तथा
उपध्मानीय —ये चार अक्षर ही क्रमशः जरायुज, अण्डज, पिण्डज और उद्भिज नामक चार
प्रकार के जीव हैं सृष्टि में । अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च ।
उपध्मानीय इत्येते जरायुजास्तथाऽण्डजाः । स्वेदजाश्चोद्भिञ्जाश्चापि पितर्जीवाः प्रकीर्तिताः
।। (स्क.पु.कुमारिकाखंड
३-२५४)
आगे,
विप्र कुमार सुतनु ने देवर्षि नारद को बतलाया कि जो पुरुष उक्त देवों का आश्रयी
होकर निज कर्मानुष्ठान में सतत तत्पर रहते हैं वे ही अर्द्धमात्रा स्वरुप सदाशिव
को लब्ध होते हैं । ध्यातव्य है कि आमतौर पर लोग शिव, शंकर, रुद्र, सदाशिव आदि को
एक ही मान लेते हैं,जब कि इनमें पर्याप्त अन्तर है । अतः यात्रापथान्तर भी
स्वाभाविक है । अस्तु।
(नोटः-उक्त
मातृका विषय साधना-विधि सहित मैंने अपने बहुचर्चित तान्त्रिक उपन्यास— ‘बाबाउपद्रवीनाथ
का चिट्ठा’ में और भी
विस्तार से वर्णित किया है । ये पुस्तक रुप में प्रकाशित है, तथा ब्लॉग पर भी
उपलब्ध है। जिज्ञासु बन्धु इस लिंक पर जाकर भी देख सकते हैं— punyarkkriti.simplesite.com
के उपन्यास सेक्शन में, तथा punyarkkriti.blogspot.com . यानी इसी ब्लॉग में)
प्रश्न
२. पञ्चपञ्चाद्भुतं गेहं को विजानाति वा द्विजः – पांच
गुने पांच यानी पचीस तत्त्वों के अद्भुत गृह को कौन जानता है ?
उत्तर—
पञ्चभूतानि पञ्चैव कर्मज्ञानेन्द्रियाणि च । पञ्च पञ्चापि विषया मनोबुद्ध्यहमेव च
।। प्रकृतिः पुरषश्चैव पञ्चविंशः सदाशिवः । पञ्चपञ्चभिरेतैस्तु निष्पन्नं
गृहमुच्यते ।। (स्क.पु.कुमारिकाखंड ३-२७१)
वस्तुतः
त्रिगुणात्मिका सृष्टि पचीस ईंटों का अद्भुत भवन है । महर्षि कपिल ने
सांख्य दर्शन में इन्हें विशद रुप से वर्णित किया है, जो नास्ति सांख्यसमं
ज्ञानं, नास्ति योगसमं बलम् - को
चरितार्थ करता है । आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी— पांच महाभूत ; शब्द, स्पर्श,रुप,रस,गन्धादि,इनके पांच विषय ;
हस्त,पाद,मुख, गुदा, उपस्थादि पांच कर्मेन्द्रिय ; कर्ण, नासिका,नेत्र, जिह्वा, त्वचादि
पांच ज्ञानेन्द्रिय; मन,बुद्धि,अहंकार,प्रकृति और पुरुष—ये
ही कुल पच्चीस मूलतत्त्व हैं । इनका सम्यक् (तत्त्वतः) ज्ञान ही परमात्म बोध है । यदग्ने
स्यामहं त्वं त्वं वाधास्या अहम् ।
स्युष्टे सत्या इहाशिषः ।। (ऋग्वेद-६.३.४०.२३)
हे प्रकाशस्वरुप परमात्मन् ! यदि मैं तू हो जाऊँ
और तू मैं हो जाय तो तेरा आशीर्वाद सच हो जाय । यानी द्वैत भाव मिटकर,एकत्वभाव
उत्पन्न हो जाये । उक्त सांख्य का यही तो परिपाक है । इसे जो जान लेता है उसका
द्वित्व तिरोहित हो जाता है । अस्तु।
प्रश्न
३.
बहुरुपां स्त्रियं कर्तुंमेकरुपाञ्च वेत्ति कः
– बहुरुपा स्त्री को एकरुपा बनाने की कला किसे
मालूम है?
उत्तर—
स्त्री
एक रुप अनेक—एक ऐसी स्त्री जो सदा अनेकानेक रुप धारण करते रहती है—प्रश्न प्रथम
दृष्ट्या बड़ा ही जटिल प्रतीत होता है । मानवी बुद्धि में समाने वाला विषय ही नहीं
है यह, किन्तु किंचित ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री तो अनेक रुपा है
ही । निर्बुद्धि पुरुष को रिझाने हेतु सदा अनेकानेक रुप धारण करते रहती है । और पुरुष
उलझा रहता है सदा उसके जाल में । कदाचित निकल जाये जंजाल से तो मुक्त हो जाये ।
पुरुषवादी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे ठीक से समझ नहीं पाने के कारण इसके विरोध
में खड़ा हो गया है । और विरला कोई समझ गया इसके चरित्र को,तो मुस्कुरा कर बाहर
निकल गया या कहें निर्विकार खड़ा रह गया- यथास्थान और वह स्वयं ही निराश होकर परे
हट गयी ।
नारद
के इस प्रश्न में सांख्य के बाइसवें तत्त्व- बुद्धि के बारे में कहा गया है । बुद्धिरुपां
स्त्रियं प्राहुर्वुद्धिं वेदान्तवादिनः । सा हि नानार्थभजनान्नानारुपं प्रपद्यते
।। धर्मस्यैकस्य संयोगाद्वहुधाप्येकिकैव सा । इति यो वेद तत्वार्थं नासौ
नरकमाप्नुयात् ।। बुद्धि स्त्री ही है न ! स्त्रीलिंगी
। ध्यातव्य है कि यह आद्यशंकर की ‘माया’ नहीं । ये तो बुद्धि है- मन के बाद
वाला जटिल तत्त्व,जो सदा मनुष्य को अनेकानेक रुप धारण करके नचाते रहती है । क्षण
में कुछ, क्षण में कुछ । सत्य को मिथ्या, असत्य को सत्य,कुरुप को रुप,रुप को कुरुप
बताते रहती है । जिसका कोई अस्तित्त्व ही नहीं,उसे अस्तित्त्ववान साबित कर देती है
अपनी वाक्पटुता से,चातुर्य से । वेदान्तवादियों ने इसे ठीक से पहचाना है, और जैसे
छोटे से लौह अंकुश से विशाल गजराज वशीभूत हो जाता है, उसी भांति धर्माचरण के अंकुश
से इसे वश में करने की युक्ति सुझायी है।
दश लक्षणयुक्त धर्मानुयायी सदा इस बहुरुपा के चंगुल से बाहर निकलने में सफल
हो जाता है। या कहें उसकी अनेकरुपता ही निरस्त हो जाती है- धर्माचारी के सामने ।
अतः विद्वान मनुष्य को सतत सावधान रहकर, यत्न पूर्व धर्म का पालन करना चाहिए। (अब
यहां धर्म को हिन्दू,मुसलमान, ईसाई,पारसी,जैन,बौद्ध,सिक्ख आदि न समझ ले कोई । ये
सब धर्म कदापि नहीं हैं । ये सब बहुरुपा बुद्धि के भ्रमजाल हैं हमें फंसाने-उलझाने
हेतु।) धर्मस्य तत्त्वं निहिते गुहायां...। अस्तु।
प्रश्न
४.
को वा चित्रकथं वंधं वेत्ति संसार गोचरः –
विचित्र चित्रबंध क्या है
?
उत्तर—
अब
वटुक सुतनु देवर्षि के चित्रवंध विषयक चौथे प्रश्न का उत्तर दे रहा है
। मुनियों ने जिसे नहीं कहा है, यानी तत्त्वदर्शियों द्वारा जो प्रमाणित (अनुभूत) नहीं
है, जो वचन देवों को मान्य नहीं है यानी स्वीकार नहीं है,उसे ही विद्वानों ने
विचित्र कथा से मुक्त बन्ध(वाक्यविन्यास) कहा है । तथा जो कामयुक्त वचन है, वह भी
इसी श्रेणी में आता है । ऐसा वचन कदापि सुनने और मानने योग्य नहीं है । वास्तव में
वह बन्धन है,मोक्ष कदापि नहीं । अस्तु।
प्रश्न
५.
को वार्णवमहाग्राहं वेत्ति विद्यापरायणः - समुद्र
में रहने वाले सर्वाधिक भयंकर महाग्राह का ज्ञान किसे है
?
उत्तर- एको लोभो महान् ग्राहो
लोभात्पापं प्रवर्तते । लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रवर्तते ।। स्कन्दपुराण
कुमारिकाखंड ३-२७७ से प्रारम्भ कर अगले दश श्लोकों में लोभ रुपी महाग्राह
की विशद चर्चा है । संसार रुपी महार्णव में उबचूब हो रहे प्राणी (विशेष कर मनुष्य
- जो एकमात्र बुद्धि सम्पन्न है) को लोभ रुपी महाग्राह सदा ग्रसे रहता है । काम,
क्रोध, मोहादि सब इसके ही साथी-संगी हैं । कहा गया है- लोभः पापस्य कारणम्
। बहुधा पापों का मूल कारण लोभ ही है । इसका स्वरुप सर्वदा एक समान नहीं रहता ।
बहुत बार तो इसे ठीक से पहचानने में भी कठिनाई होती है । और न पहचान पाने के कारण
बुद्धिमान मनुष्य भी लोभ के शिकार हो जाते हैं । लोभी अजितेन्द्रिय पुरुष में
दम्भ,द्रोह,निन्दा, चुगली,डाह आदि दुर्गुण सहज ही समाविष्ट हो जाते हैं । लोभासक्त
मनुष्य सदाचार से दूर हो जाता है । ऐसे लोगों की गति तिनके-पत्तों से ढके गहरे
कुंए के पार जाने जैसी होती है,जो युक्तिवाद का आश्रय लेकर अनेकानेक पन्थ चला देते
हैं, और धर्म के सन्मार्ग का लोप कर देते हैं ।
यहां तक कि धर्म को अलंकार बनाकर संसार को ठगने-लूटने का साधन बना लेते हैं
। अतः प्रज्ञावान पुरुष को सदा इससे सावधान रहना चाहिए । अस्तु।
प्रश्न
६.
- को वाष्टविधं ब्राह्मण्यं वेत्ति ब्राह्मण सत्तमः - अष्टविध ब्राह्मणों का
ज्ञान किसे है
?
उत्तर-
अब
देवर्षि नारद के छठे प्रश्न का उत्तर देते हुए ब्राह्मण वटुक सुतनु कहते हैं- अथ
ब्राह्मणभेदांस्त्वमष्टौ विप्रावधारय । मात्राश्च ब्राह्मणश्चैव श्रोत्रियश्च ततः
परम् ।। अनूचानश्च तथा भ्रूणो ऋषिकल्प ऋषिर्मुनिः । इत्येतेऽष्टौ समुद्दिष्टा
ब्राह्मणाः प्रथमं श्रुतौ ।। तेषां परं परः श्रेष्टो विद्यावृत्तविशेषतः ।
ब्राह्मणानां कुले जातो जातिमात्रो यदा भवेत् । अनुपेतक्रियाहीनो मात्र
इत्यभिधेयते ।। एकोदेशमतिक्रम्य वेदस्याचारवानृजुः । स ब्राह्मण इति प्रोक्तो
निभृतः सत्यवाग्घृणी ।। एकां शाखां सकल्पां च षड्भिरङ्गैरधीत्य च । षट्कर्मनिरतो
विप्रः श्रोत्रियो नाम धर्मवित् ।। ....
(नोट— आलेख बोझिल होने के वजह से
सभी श्लोकों को यहां नहीं दिया जा रहा है। जिज्ञासुओं को इसे मूल ग्रन्थ में देखना
चाहिए।)
इस प्रकार स्कन्दपुराण कुमारिका खंड ३- २८७ से २९८ तक
बारह श्लोकों में ब्राह्मणों के आठ भेद (कर्मानुसार) बतलाये गये हैं। यथा- १. मात्र,२.ब्राह्मण,३.श्रोत्रिय,४.अनुचान,५.भ्रूण,
६.ऋषिकल्प,७.ऋषि, और ८.मुनि । ज्ञान, विद्या और सदाचार की विशेषता से उक्त आठ
प्रकार पूर्व-पूर्व की तुलना में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ कहे गए हैं ।
अब
यहां संक्षेप में इनका विशेष परिचय भी दिए देता हूँ, ताकि सामान्य जन को समझने में
सुविधा हो ।
यथा-
१.मात्र-
जो मात्र जन्मना ब्राह्मण है,यानी माता-पिता ब्राह्मण हैं जिनके,परन्तु उसका निज
संस्कार उपनयनादि, संध्यावन्दनकर्मादि लोप हो गया है, वह ‘मात्र’ नामक ब्राह्मण कहलाता है।
२.ब्राह्मण-
जो व्यक्तिगत स्वार्थ की उपेक्षा करके,वैदिक आचार का पालन करते हुए,
सरल,एकान्तप्रिय,सत्यवादी और दयालु है उसे ब्राह्मण कहते हैं । (ध्यातव्य है कि
यहां अष्टविध ब्राह्मणों में ब्राह्मण एक प्रकार है, न कि जाति बोधक ।)
३.श्रोत्रिय-
जो वेद की किसी एक शाखा को कल्प और षडङ्गों सहित पढ़ कर, ब्राह्मणोचित षट्कर्मों
(अध्यापन, अध्ययन, यजन,याजन,दान,प्रतिग्रह) में संयमित, संलग्न रहता है वह धर्मज्ञ
विप्र श्रोत्रिय कहलाता है। (ध्यातव्य है कि आजकल श्रोत्रिय एक जाति/प्रकार बोधक शब्द बन कर रह गया है।)
४.अनुचान-
उक्त श्रोत्रिय के लक्षणयुक्त ब्राह्मण कल्प और षडङ्गों का तत्त्वज्ञ होकर,अपने ही
अनुकूल शुद्ध,पापरहित विद्वान,श्रोत्रिय विप्र निर्मित करने की योग्यता रखता हो
उसे अनुचान(श्रोत्रिय से किंचित श्रेष्ठ )कहा गया है।
५.भ्रूण-
जो अनुचान के समस्त गुणों से युक्त ब्राह्मण यज्ञ और स्वाध्याय में ही सदा रमा
रहता है, यज्ञशिष्टान्न भोजी होता है, और सभी इन्द्रियों को अपने अधीन रखता
है,विद्वान लोग उसे भ्रूण ब्राह्मण कहते हैं।
६.ऋषिकल्प-
जो सम्पूर्ण वैदिक-लौकिक विषयों का ज्ञानार्जन करके,मन और इन्द्रियों को वश में
रखते हुए सदा आश्रम में निवास करता है,उसे ऋषिकल्प कहा गया है।
७.ऋषि-
जो पहले ऊर्ध्वरेता (नैष्टिक ब्रह्मचारी) के रुप में जीवन व्यतीत
करता है, उसे किसी विषय का संदेह नहीं रहता,तथा जो शाप और अनुग्रह में पूर्ण समर्थ
और सत्यनिष्ठ रहता है, उसे ऋषि कहा जाता है।
८.मुनि-
निवृत्ति मार्ग में स्थित सम्पूर्ण तत्त्वों का ज्ञाता,काम क्रोधादि
से रहित, ध्याननिष्ठ,निष्क्रिय,जितेन्द्रिय, तथा मिट्टी और सोने में समानता रखता
हो,ऐसे ब्राह्मण को मुनि कहा गया है।
इस
प्रकार ज्ञान, कर्म और स्वभावानुसार ब्राह्मणों के आठ प्रकार कहे गए ।
प्रश्न ७. युगानां च चतुर्णां वा को मूल
दिवसान् वदेत् - चारो युगों के प्रथम
दिन कौन-कौन हैं
?
उत्तर-
कार्तिक
मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि सतयुग की आदि तिथि है। वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया
तिथि त्रेतायुग की आदि है । माघ कृष्ण पक्ष की अमावश्या द्वापर युग की आदि तिथि है
। एवं भाद्र कृष्ण त्रयोदशी कलयुग की आदि तिथि है । इन सभी तिथियों में
दान,धर्म,कर्मादि अति शुभद कहे गए हैं । (नोट- किंचत मतभेद भी है उक्त
तिथियों में । फिर भी अधिक मान्य उक्त तिथियां ही हैं ।)
प्रश्न ८. चतुर्दशमनूनां वा मूलवारं च
वेत्ति कः – चौदह मन्वन्तरों की आद्य
तिथि क्या है
?
उत्तर-
अब
मन्वन्तर की आदि तिथियों की चर्चा करते हैं - ये हैं क्रमशः आश्विन शुक्ल
नवमी,कार्तिक द्वादशी, चैत्र और भाद्र तृतीया, फाल्गुन अमावश्या, पौष एकादशी,
आषाढ़ दशमी, माध सप्तमी, श्रावण कृष्णाष्टमी, आषाढ़ पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा,
फाल्गुन चैत्र और ज्येष्ठ पूर्णिमा। ये सब भी दानादि कर्मों के लिए उत्तम कहे गए
हैं।
प्रश्न ९. कस्मिश्चैव दिने प्राप पूर्वं
वा भास्करो रथम् -- सर्व प्रथम
सूर्यनारायण किस दिन रथारुढ़ हुए ?
उत्तर-
माध
शुक्ल सप्तमी को रथ सप्तमी के नाम से जाना जाता है । वस्तुतः सूर्यनारायण के
रथारुढ़ होने का प्रथम और ‘प्रशम’ दिवस यही है । मगविप्रों के लिए
इससे उत्तम और कौन सा दिन हो सकता है ! सूर्य-साधना के
लिए यह सर्वोत्तम दिन है।
प्रश्न १०. उद्वेजयति भूतानि कृष्णाहिरिव
वेत्ति कः - काले सर्प की भांति
नित्यप्रति संसार को उद्विग्न कौन करता है ?
उत्तर- जो
प्रतिदिन याचना करता है,वह पापात्मा सदा सबके लिए उद्वेगकारी है । यह कह कर
याचना(भीख मांगना) को अति निकृष्ट कर्म कहा गया है। वैसे भी मांगने वाले का हाथ
सदा नीचे ही रहता है । आत्महीनता की भावना से भी ग्रसित रहता है ।
प्रश्न ११. को वास्मिन् घोर संसारे
दक्षदक्षतमो भवेत् – सुदक्ष कौन है
?
उत्तर-
इस
लोक में किस कर्म से मुझे सिद्धि प्राप्त हो सकती है और मृत्योपरान्त यहां से मुझे
कहां यानी किस लोक में जाना है - इस बात का भलीभांति विचार करके,जो पुरुष भावी
क्लेश के निराकरण का सदा प्रयत्न करते रहता है, विद्वानों ने उसे ही सुदक्ष कहा है
।
प्रश्न १२.पन्थानावपि द्वौ
कश्चिद्वेत्ति वक्ति च ब्राह्मणः – दोनों मार्गों को कौन जानता और बतलाता है?
उत्तर-
वेदान्तवादियों
ने दो मार्ग कहे हैं—अर्चि और धूम्र । इसे ही देवयान और पितृयान भी कहा गया है ।
श्रेयस और प्रेयस भी यही है । इन दोनों से भिन्न (विपरीत)जो अशास्त्रीय मार्ग है
उसे पाखण्ड कहते हैं । वस्तुतः दो ही मुख्य मार्ग हैं । अर्चीमार्गी पुरुष मोक्ष
का पूर्ण अधिकारी है और धूम्रमार्गी जीव स्वर्गादि पुण्यफल भोग कर पुनः वापस आता
है इसी संसार में । उपनिषदों ने श्रेय और प्रेय नामक दो ही मार्ग सुझाये हैं ।
श्रेयमार्ग का पथिक ही अर्चिमार्ग का अनुसरण करते हुए मुक्ति प्राप्त करते हैं ।
इसके विपरीत प्रेयमार्ग का अनुयायी निरन्तर जन्म-मृत्यु-चक्र में आवागमन करते हुए
व्यतीत करते हैं । श्रेयमार्गी सीधे सूर्य की ओर प्रस्थान करते हैं । उनका
उत्तरोत्तर विकास होते रहता है । जबकि प्रेयमार्गी सदा इन्द्रिय-सुख-लिप्त-मोहित
अनन्तकाल व्यतीत करता है संसार सागर में । वस्तुतः ये दक्षिणायन या धूम्रमार्ग ही
है, जो अन्धकार का प्रतीक है।
इस
सम्बन्ध में महर्षि पिप्लाद के वचन हैं—
अघोत्तरतेण
तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मानमन्विष्या दित्यमभिजयन्ते । एतद्वै
प्राणानामायतनमेतदमृतमभयमे तत्परायणमेतस्मान्न पुनरावर्तन्त ।। (प्रश्नोपनिषद्
१-१०)
जिन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विश्वास पूर्वक तप, ब्रह्मचर्यादि से जीवन
को संयमित रखते हुए सदा सूर्य रुपी परमेश्वर में लगा दिया है, वे मनुष्य
उत्तरीमार्ग (उत्तरायण) से लोकान्तर प्रस्थान करते हैं । गीता में गोविन्द
ने कहा है - यं प्राप्यं न विवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। इसे दूसरे शब्दों
में कह सकते हैं - निष्काम कर्मी और सकाम कर्मी । निष्कामी मुक्त होजाता है, और
सकामी सदा बन्धन में रहता है, भले ही वह ब्रह्मा का दिन क्यों न हो । एक न एक दिन अन्त तो होगा ही न ! अस्तु।
इस
प्रकार देवर्षि नारद को अपने सारे प्रश्नों का समुचित उत्तर प्राप्त हुआ विप्र
कुमार सुतनु द्वारा । कलाप ग्राम के अन्यान्य ब्राह्मणों का दर्शन करके नारदजी
स्वयं को धन्य समझने लगे और श्रीमन्नारायण नारायण का गायन करते हुए प्रस्थान किए।
एवमस्तु।
अब
इस कठिन कसौटी पर परखने पर सोचने-विचारने को विवश हो जाता हूँ कि हम सब कहां हैं !
---))))ऊँ श्री भास्कराय नमः((((---
बहुत dhanbad apka
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