शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिका- भाग ग्यारह

गतांश से आगे...

             ९.मगोपाख्यानःबहत्तरपुर
               शाकद्वीपीय पुर विमर्श-0 बहत्ततरपुर 0-
                      एक आधिकारिक ग्राम्य गीत
                         
रचयिता-मगशिरोमणि- श्री वृहस्पति पाठकजी    
                   
गणेशं गिरिजा कान्तं प्रणम्यादित्यमीश्वरम् ।
मगोपाख्यानकं गीतं वितनोति  वृहस्पतिः।।
गजवदनचरण शिर नाऊं, मगवृन्द विमल गुन गाऊंजी,
गजवदन चरण शिर नाऊं...(टेक)
भस्म अंग त्रिशूल डमरू सर्पहार मृगाजिनम् ,
जटामौलि त्रिनेत्र शशिधर बसहा चढ़ल दिगम्बरम् ।
शैल तनया संग शोभित युगल चरण मनाई हौं,
करूँ कृपा विनवै वृहस्पति पुर बहत्तर गाई हौं ।।१।।
जम्बु प्लक्ष औ शाल्मलि कु्श क्रौंच शाक सुपुष्करा,
सात द्वीप में वरण चारों नाम भिन्न सोहै भरा ।
द्विज क्षत्र वैश्य औ शूद्र नामक जम्बुद्वीप में शोभहीं,
हँस पतंगुर्धायना सत्यांग प्लक्ष में लोभहीं ।।२।।
श्रुतधर वीर्यधर अरू वसुन्धर इषन्धर हैं शाल्मली,
कु्शल कोविद अभियुक्त शोभे कुलक कुशद्विप में भली ।
पुरुष ऋषभ द्रविण देवक क्रौंच द्वीप में राजहीं,
ऋतव्रत सत्यव्रत दानव्रत अनुव्रत पुष्कर साजहीं ।।३।।
सात द्वीप प्रधान जग में शाकद्वीप विराजहीं,
तंह बसहीं चारों वरण निर्मल कर्म करि शुभ साजहीं ।
तंह जाति ब्राह्मण मग कहावे क्षत्रियन मागम रहैं,
वैश्य सब मानस कहावै शूद्र के मन्दग कहैं ।।४।।
तेहि द्विज अठारह कुल ले आये पीठ पर खग जाईके,
साम्ब के रवियज्ञ कारण कृष्ण आज्ञा पाईके ।
सूर्य के आराधना सब वेद विधि कियो हैं  यथा,
जो विदित है  इतिहास में होइहें प्रकाशित सुनु तथा।।५।।
हाथ वीणा लेई मुनिवर भ्रमत हैं  नित घर घरै,
गति अवाधित सबहिं सों कछु झूठ सांचो बरबरै ।
एक दिन मुनि जात मग में शाम्ब हैं  दश संगिले,
मुनि देखि सब चरणन  परे तंह शाम्ब उठि के नहि मिले।।६।।
गौर करि मुनि चलत जहवाँ कृष्ण क्रीड़ा करत हैं,
नायिका सब नग्न बैठी वारूणी तंह ढरत हैं ।
पूछि नारद कु्शल तत्क्षण कृष्ण से यह कही चले,
सब नायिका के शाम्ब नीको शाम्ब मन यह सब भले।।७।।
तुरत नारद शाम्ब के पंह जाइके बातें कही,
पिता तुमही तड़ाग ऊपर अबहीं  खोजत हैं सही ।
मुनि वचन सुनते झपटि पहुँचे कृष्ण पद परो जाइके,
उठि परो तिय फेरि मुख तंह शाम्ब देखी लजाइके।।८।।
शाम्ब रूप अनूप देखत नायिका लज्जित भई,
पत्र कमल बिछाई बैठी सो नितम्बहीं  सटि गई ।
नारिगण के पान मदिरा जौन चाहें सो करै,
कुलबधू के चहत नाहीं  संग्रहे तो भठि परै ।।९।।
यह चरित देखत कृष्ण बोले देह सुन्दर गर्व है,
नहीं लाज भ्रष्ट विचार कीन्हों मातु सम इह सर्व है ।
इहां आना तुमहीं नाहिं,कहा मुनि सो सांच है,
तब देह के नहीं गर्व रहिहें जानुतन यह कांच है ।।१०।।
गलित भयो तत्काल, बिनु अपराध शाम्बहिं शाप से,
कुरु दया सब किए मुनिवर बहुत विनवै वाप से ।
होइ प्रसन्न विचार के कही तुम अराधहु तपन के,
होईहें तब देह निर्मल,सविधि सविता जपन के।।११।।
तेहि अवधिकरि जपति निशिदिन,नाम लेत हजार हौ,
एक भुक्त अलोन भोजन,दण्डवत दै बारहो ।
एक विंशति नाम के स्तुति,मुदित होइ रवि वर दियो,
सूर्य के आराधना करी,शाम्ब तनु निर्मल कियो ।।१२।।
गज वदन चरण शिर नाऊं,मग वृन्द विमल गुन गाऊंजी..(टेक)
भक्ति जागी देव श्रेष्ठ हीं करौं  अबहीं  स्थापना,
योग मन्दिर रचि बुलायो जम्बुद्वीप के ब्राह्मणा ।
कल्याण स्वस्ति पुण्याह वाचक यथा योग ले आवहीं,
तेज देखत मिश्रहां के कर्म तजि-तजि भागहीं ।।१३।।
जो भयो है ब्रह्माचार्य होता तिनहि बैठत नहीं बने,
जो मन्त्र पाठी वेद विद मूरख अपर को को गने ।
पंच द्रविड़ पंच गौड़हिं शाम्ब दृढ़ करि लावहीं ,
तनु दग्ध माठर तेज सो पुनि यज्ञ भूमि न आवहीं ।।१४।।
शाम्ब के मन विकल देखत,तेहि क्षण मुनि गावहीं,
यह देव के कर्माधिकारी शाकद्वीप से आवहीं ।
कृष्ण गरूड़ ही कहा वहु विधि प्रौढ़ होइ तुम जाइ हौ,
यज्ञ के यश तुमहिं होइहैं यथायोग्य लेइ आइहो ।।१५।।
पाँच जलनिधि लांघि खगपति गए जहाँ द्विजवर रहैं,
तार्क्ष्य देखि यज्ञ लायक शीत आतप सब सहैं ।
ध्यान पूजा करत जपतप उलटि गायत्री पढ़ैं,
मौन भोजन कर्म पट विधि तेज से दिन-दिन बढ़े ।।१६।।
वैनतेय कही दयानिधि पीठि पर सब आवहु,
चलहु जम्बुद्वीप में तुम शाम्ब यज्ञ करावहुं ।
कौल करि भूदेव चल भए फेरि घर पहुँचाइहौं,
तुम दक्षिणा जो लेब नाहिं निज तेज से घर आइहौं ।।१७।।
यहि भाँति द्विजवर कुल अठारह पीठ खगपति के चढ़े,
साम्ब के ढीग आइ सब विधि यज्ञ करि आशिष पढ़े ।
करि देवपूजा विदा मांगी गरूड़ के लेई आवहु,
यही द्वीप ब्राह्मण बहुत  हैं  हम ही घर पहुँचावहु ।।१८।।
गज वदन चरण शिर नाऊं,मग वृन्द विमल गुण गाऊंजीं..(टेक)
तेही समय यदुपति सकल परिजन मुनि सहित विनती करी,
करजोरी बहुविधि थार भरि रतन आभूषण धरी ।
जब लेन गयो तब यज्ञ कारण कौल कीन्हों पक्षिणा,
तत्काल कहि भूदेव चलि भयो हम न लीहौं  दक्षिणा ।।१९।।
तब शाम्ब बोले हे महाशय ! बहुत अब हम का कहौं,
तुम दक्षिणा जो लेब नाहिं यज्ञफल कैसे लहौं ।
फल फूल पत्र में दोष नाहीं  नारियल एक लीजिये,
मन मुदित होइके जानि किंकर सुफल वर अब दीजिए ।।२०।।
तँह पान बीड़ा अति सुवासित लवंग एलादिक परी,
एक नारियल दे विदा कीन्हों गुप्त मोहर से भरी ।
तब हरि के वाहन एक एक हि भार से नहीं चलि सके,
जो ले आए कुल अठारह एक से पन्थहि थके ।।२१।।
भूदेव जी हत तेज होइ गयो भार हमसे नहि सहे,
तुम दक्षिणा जो लियो मुनि यही लागो हम पहिले कहे ।
ध्यान करि भूदेव देखे शाम्ब हमसे छल किये,
दान देकर तुम हमसे तेज बल सब हरि लिए ।।२२।।
यज्ञ करि यजमान सौंपहिं अयश बहुविधि पाइहौं,
तेज बल हत कवन विधि से द्वीप निज सब जाइहौं ।
कर जोरि बहुविधि शाम्ब बोले विनय करि भूदेवहिं,
कृपा करि के रहिए इत सब सकल परिजन सेवहिं ।।२३।।
तप योग जम्बुद्वीप में करि पाप सब करि मीजिए,
चारि चारि प्रधान गांव ले बास कुल मिलि कीजिए ।
कुल एक-एक ही चार गांव ले बास करि भोगन लगे,
सो बहत्तर पुर भये यों जहाँ रही पूजवत जगे ।।२४।।
गज वदन चरण शिर नाऊं,मगवृन्द विमल गुण गाऊंजी...(टेक)
तेहि दिन से मगद्विज पूज्य होई सब जम्बूद्वीप पूजावहीं,
तेहि देखि सूर्य समान तेज से आन विप्र न आवहीं ।
भूदेव तेहि दिन से कहाए अपर द्विज लज्जित भए,
श्राद्धकर्म ओ देव पूजा महँ सदा पूजित भए ।।२५।।
आर चौबिस, अर्क बारह,बारहे आदित्य हैं,
बारहे कर मण्डली गन पुर बहत्तर विदित हैं ।
भिन्न-भिन्न विशेष पुर सब कहौं  पाँच प्रकार के,
उत्तमोत्तम सबन्हि सबसे,प्रथम कहि हौ आर के ।।२६।।
उरू खनेटु छेरि मखपा देकुली पुर डुम्बरी,
ओड़री भलुनी पवेरी पोती अदरी पण्डरी ।
शर छत्रैयार वार बद्धा मेहि अरू है शौरिका,
रहदौली जम्बु देव बोरी आर इति संसारिका ।।२७।।
उल्ल पुण्ड्रा मारकण्डेय बाल लोलः कोणशा,
चरण पुण्या गुण्य विन्या पुनर शुण्डा द्वादशा ।
एहि भाँति द्वादश अर्क शोभे ग्राम नाम से बसि गए,
आदित्य मण्डल किरण जो है सो विदित कतहि भए ।।२८।।
वरूणार्क बिल संयाम लौण्डा सपहा कुण्ड हिराशिया,
डुमरौर महुराशी गण्डैया गुणसैंया देहुलासिया ।
देवडीहा बारहो आदित्य सोहे कहीं-कहीं,
अब कहत है मण्डल जो बारह किरण विख्याती कही ।।२९।।
चण्ड रोटी डिहिक पट्टीश खण्ड शूप कपित्थ हैं,
शालि बांध तेरह परासी काँझख जुरहा जुत्थ हैं ।
बड़सार भेंड़ा पाकरी विपरोह आदिक सोहहीं,
यह कहत मण्डल बारहो जग मण्डलीगण मोहहीं ।।३०।।
गज वदन चरण शिर नाऊँ मगवृन्द विमल गुण गाऊँजी..(टेक)
ढुंढि बरी कुकरौंधा छट्ठी गौरा देवहा, 
सोरियार ठाकुरमेंरावा पंचकंठी पंचहा ।
अवधियार गण्डार्क कौशिक किरण हैं एहि भांति के,
पुर बहत्तर भए एहि विधि कहा सोई मग जाति के ।।३१।।
शाकद्वीप से जम्बू आए तेज में रवि भावना,
पुर बहत्तर गावहीं  जे जाति मग के आवना ।
बल बुद्धि वृद्धि धनेश सम धन पावहि तजि शोक के,
भोग भुक्ति अनेक पावहीं  अन्त में रवि लोक के ।।३२।।
                      (-) इति मगोपाख्यानम् (-)

पाठकजी द्वारा दिया गया— 

 आत्म परिचय
जिला पटना थाना पाली डाक महाबलिपुर रही,
शोणभद्र के तीर पूरब घर महाबलीपुर सही ।
खण्टवार पाठक वृहस्पति तन्त्र ज्योतिष भावहीं,
उपपुराण पुराण में जो मुनि कहा सोई गावहिं ।।३३।।
गुण शराँक निशाकर ही मिली शरद विक्रम वीर के,
वसु चन्द्र नाग मृगांक ते मयी शालीवाहन धीर के ।
वेद शून्य गुणाब्ज सन् में गीतिका पूरण भयी,
पाठक वृहस्पति कियो है रचना दुष्ट मुख चूरण भयी ।।३४।।
गज वदन चरण शिर नाऊँ मगवृन्द विमल गुण गाऊँजी,
गज वदन चरण शिर नाऊँ...(टेक)
                                       
       नोटः- १९५३विक्रम सम्बत्-१८१८ शालिवाहन शकः,
                      तदनुसार ई.सन्१८९६— मूल रचना काल 
                           
                  ---(ऊँ श्री प्रभाकरार्पणमस्तु)---
क्रमशः....

Comments