गतांश से आगे...
सोलहवें अध्याय का चौथा भाग...
कुलदेवी/देवता का पूजन-काल—
कुलदेवी/देवता पूजन का समय भी कई प्रकार के परम्परा में है। ज्यादातर कुलों में
श्रावणी (रक्षाबन्धन) और होली के दिन यानी अर्द्धवार्षिक क्रम से पूजा की परम्परा
है। इस परम्परा पर गौर करें तो एक बात साफ झलकती है कि ये आयनिक पूजा
परम्परा है- जहां सूर्य के क्रमशः दोनों अयनों - उत्तरायण और दक्षिणायन का ग्रहण
हो रहा है। थोड़े और गहराई में जायें, तो पायेंगे कि सूर्य की बारह संक्रान्तियों
से इसका सीधा जुड़ाव है।
उक्त मुख्य कालों के
अतिरिक्त मुण्डन,उपनयन,विवाहादि मुख्य संस्कारों के अवसर पर भी कुलदेवता-देवी की पूजा
अनिवार्य रुप से की जाती है। की जानी भी चाहिए। हां, किसी-किसी कुल में
पूजा-तिथि-भेद है। जैसे- श्रावण शुक्ल सप्तमी की बहुत जगहों में परम्परा है।
विषुआन की भी परम्परा है कुछ कुलों में। इनके अलावे दीपावली(कहीं
पितृदीपावली-धनत्रयोदशी, तो कहीं चतुर्दशी, तो कहीं देव दीपावली) को सामान्य पूजा
सहित दीपदान की परम्परा भी है। इटहटिया मखपवार (करहरी, औरंगाबाद) में नित्य सांध्यदीप
की भी परम्परा है। इनके यहां आधिकारिक पूजा (पूजा का अधिकार-ग्रहण) लड़के के
मुण्डन संस्कार के समय काफी धूम-धाम से होती है। इनके कुछ कुलों में साल में चार
बार- आषाढ़,माघ,अगहन और वैशाख महीने में पूजा की परम्परा है, तो कुछ कुलों में मात्र
मुण्डन काल में। विवाह-उपनयनादि में सामान्य पूजा भी की जाती है। किन्तु वाध्यता
जैसी बात नहीं है। खंटवार(भारद्वाज गोत्र,पाठक विगहा,औरंगाबाद,बिहार) में
मेषसंक्रान्ति के अगले दिन एवं अगहन पूर्णिमा को भी पूजा की जाती है। डोमरौर पुर
में पौष अमावस्या को भी पूजा होती है। भलुनियार पुर (रामपुर,देवकुण्ड, औरंगाबाद,बिहार)की
परम्परा है कि विवाह में मंडप,देवपूजी और चौठारी तीनों दिन पूजा होती है। तीनों
दिन का प्रसाद भी भिन्न-भिन्न होता है। प्रसाद में क्रमशः
दालपूड़ी,खीर,पिट्ठी,कसार(चावल का आटा,गुड़,दूध मिश्रित पेड़ियां- बिना सिद्ध किये
हुए,जिसे यहां की क्षेत्रीय भाषा में कचवनियां कहते हैं), पुनः खीर पूड़ी का
प्रयोग होता है। उरवार (बहादुरपुर,रफीगंज, बिहार) में देवोत्थान एकादशी के दिन
थापा जगाने की परम्परा है। यानी पुरानी छाप पर ही पुनः छाप देना । ऐसी परम्परा अन्य जगहों में भी है।
कुलदेवी/देवता की पूजा से पहले किंचित कुलों में पुरुषोत्तम पूजा का विधान है।
कहीं-कहीं इसे नरिआरा पूजन कहते हैं। वस्तुतः यह मूल पूजन का पूर्वांग है। यह पूजा
मार्गशीष,फाल्गुन,वैशाख,आषाढ़,श्रावणादि मास के शुक्ल पक्ष में किसी मंगलवार को
सायंकाल में देवकक्ष के द्वार पर विष्णु-पूजा के रुप में की जाती है, जिसे कुल की
पूजाधिकारिणी स्त्री सम्पन्न करती है। सामान्य पञ्चोपचार पूजन के पश्चात्
हविष्यान्न निवेदित किया जाता है। कहीं-कहीं उक्त काल में सिर्फ आटे या चौरेठ
(कसार) से पूजा की जाती है। अर्पित हविष्य के पांच कवल पत्रावली में रख कर, पुनः
उन कवलों को भी पंचोपचार पूजित करने का नियम है।
कुलदेवी/देवता का प्रसाद सामग्री—
कुलदेवी/देवता के प्रसाद में काफी विविधता है। विविधता का कारण कालभेद, क्रियाभेद और
स्थानभेद है। प्रयुक्त वस्तुओं में दालपूड़ी,पूआ,सादी पूड़ी,हविष्य,आटे की पिट्ठी (घी
में तला हुआ गोलीनुमा),पीठा (पानी में उबाला हुआ बड़े आकार की पिट्ठी) , ठेकुआ,आटे
का खजूर-निमकी,रोट(विशेष प्रकार का रोटीनुमा ठेकुआ),गुड़-घी मिश्रित जौ का
सत्तु,चने का साग,गेनारी साग इत्यादि हैं। विवाहादि के समय विशेष पूजा में अंखरा
बुंदिया(बिना चीनी का)चढ़ाने का भी नियम है कहीं-कहीं। प्रसाद में एक बात ध्यान देने की है कि नाम-रुप
भले ज्ञात न हो,परन्तु लवण रहित कोई न कोई प्रसाद अवश्य होता है। जैसे सादी
पूड़ी,हविष्य इत्यादि।
कुलदेवी/देवता का स्थान और दिशा—
वास्तुमण्डल
में कुलदेवता/देवी का स्थापन किस दिशा में, किस ओर हो इस विषय में भी किंचित भेद है।
वास्तुमंडल में पूजा-गृह के लिए ईशान से अग्नि पर्यन्त यानी पूरा का पूरा पूरब
दिशा प्रशस्त माना गया है। स्थापन के सम्बन्ध में शास्त्र निर्दिष्ट वास्तु नियम है कि स्थायी देवस्थापन
पूर्वाभिमुख होना चाहिए और अस्थायी देवस्थापन पश्चिमाभिमुख, यानी कि सामान्य पूजा में पूजक का मुंह पूरब की
ओर हो, तथा स्थायी देवस्थापन में पूज्य का मुंह पूरब की ओर हो,किन्तु कुलदेवी/देवता के स्थापन
में दिशा और मुंह दोनों में कुलाचार वश काफी भेद है।
प्रायः कुलों में वास्तु मंडल के अग्निकोण में
पड़ने वाले कक्ष में कुलदेवी/देवता की स्थापना की जाती है। ध्यातव्य है कि वास्तुमंडल में रसोई के लिए
भी वही स्थान नियत है। यानी कि रसोईघर को ही थोड़ा घेरकर(सीमा-बंधित कर)एक भाग में
कुलदेवी/देवता की स्थापना करते हैं। देवता के आसपास ही
अनुकूल स्थान रिक्त भी रखना होता है, जहां विवाहादि मांगलिक अवसरों पर वर-वधु के
नाम का कोहबर(कौतुकगृह)भी चित्रित किया जाता है। वधुप्रवेश के पश्चात् नवदम्पत्ति
की प्रथम रात्रि वहीं देवस्थली में ही संयम-मर्यादा सहित व्यतीत होती है। छोटे
घरों में स्थानाभाव या अन्य व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण किंचित समय वहां व्यतीत
कर, अन्यत्र सोने की व्यवस्था की जाती है। इस परम्परा के पीछे गृहस्थ जीवन के कई
रहस्य छिपे हैं,जिसे आजकल लोग विसार बैठे हैं।
किन्तु उक्त प्रधान नियम से भिन्न, अन्य स्थानों
और अन्य दिशाओं में भी कुलदेवी/ देवता को स्थापित करने का चलन है। कहीं मंडल के मध्योत्तर में उत्तरी
दीवार में दक्षिणमुखी देवी की स्थापना होती है। यहां तक कि दक्षिणाभिमुख और वास्तु
मंडल के नैऋत्यकोण वाले कक्ष में भी स्थापना देखी गयी है। इसके पीछे भी बहुत बड़ा
कारण है— नैर्ऋत्यकोण के अधिपति निर्ऋति देवी हैं। और चतुःषष्ठी वास्तुपदों में
पिता का स्थान है यह। गृहमंडल को सर्वाधिक बलवान (हर दृष्टि से) रखने के लिए
प्रधान (विशिष्ट) देवता को यहीं स्थापित करने की परम्परा बनायी गयी है उन कुलों
में,जो काफी महत्वपूर्ण है ।
कुलदेवी/देवता पूजन का अधिकार— पूर्व प्रसंगों से स्पष्ट है कि शाकद्वीपियों में
मातृकापूजन पर विशेष बल दिया गया है। यही कारण है कि पूर्वोक्त नामावली में
मातृकाओं की संख्या अधिक है। दूसरी बात ध्यान देने योग्य है कि कुल की स्त्री (मातृका
स्वरुप) की दाहिनी हथेली का छाप ही पूजित होता है- उसके ही द्वारा । कुलवधू को ही
अधिकार है कुलदेवी/देवता पूजन का। किसी अन्य कुल की स्त्री, यहां तक कि निज कुल की लड़कियां,
यानी विवाहोपरान्त जिनका कुल बदल चुका है, कुलदेवी/देवता
पूजन की अधिकारिणी नहीं हैं। इतना ही नहीं
प्रायः कुलों में परम्परा है कि इस पूजन में पुरुषों की कोई खास भूमिका ही
नहीं है। अलेकी स्त्री ही सब कुछ सम्पन्न करती है- मन्त्रहीनं क्रियाहीनं...न कोई
मन्त्र न कोई आडम्बर । बस, सिर्फ और सिर्फ तन्मयता,एकाग्रता, एकनिष्टता,बिलकुल
समर्पित भाव से। और उद्देश्य -
पति-पुत्रादि का सर्वविध कल्याण। मातृकाभाव में , मातृकामय होकर, मातृका
पूजन । इन सबके पीछे सबसे बड़ा रहस्य है—कुलवधू(कुल की स्त्री मात्र)का
सम्मान। थोड़े और खुले विचार से सोचेंगे तो सीधे नारी-सम्मान की बात की जा रही है।
नारी मात्र महामाया का स्वरुप है। यही उद्भव है,विकास है,संहार भी है। नारी के
बिना नर का अस्तित्व ही क्या है ? शिवा रहित शिव शव हैं—यह सिर्फ शिव के लिए ही थोड़े
जो कहा गया है।
अब हम उसके समर्पण-भाव की
बात करते हैं। सच पूछा जाय तो एक स्त्री जितना सहज समर्पति हो सकती है,पुरुष कदापि
नहीं। पुरुष के अहं के विसर्जन में बहुत समय लगता है,जब कि स्त्रियां मौलिक रुप से
समर्पित होती है। यही कारण है कि स्त्रियों के लिए बहुत से नियम बिलकुल ढीले हैं।
उन्हें न उपवीती होने की आवश्यकता है और न गायत्री दीक्षा की । वे तो साक्षात
महामाया की परम चैतन्य-जाग्रत विभूति हैं, फिर वाह्याडम्बर क्यों ! पवित्री धारण भी उनके लिए नहीं
है। जवकि पुरुष की क्रिया उपवीत,गायत्री और पवित्री के वगैर अधूरा है। वह विविध
मन्त्रों के बन्धन में बन्धा हुआ है। पुरुष के लिए बात-बात में नियम-आचार-विचार है
और वाध्यता भी है। पुरुष के लिए मुण्डन अनिवार्य है- मरणाशौच में और जननाशौच में
भी। अन्यान्य लौकिक-पारलौकिक क्रियाकलापों में भी मुण्डन को अत्यावश्यक कहा गया
है। जबकि स्त्रियों के लिए सधवावस्था में केश-छेदन भी वर्जित है। मात्र नख-छेदन
करके स्त्री शुद्ध हो जाती है। पुरुष सचैल(वस्त्र सहित) शिरोस्नान के वगैर कदापि
शुद्ध नहीं हो सकता। जबकि स्त्रियां मात्र अधोवस्त्र परिवर्तन करके भी सायंकालीन
क्रिया सम्पन्न कर सकती है। सचैल शिरोस्नान उसके लिए अनिवार्य नहीं है।
स्त्री का अध्वांग सर्ग-विस्तार क्षेत्र
है,तो उर्ध्वांग सर्ग-सम्पालन क्षेत्र। स्तन की पवित्रता और गरिमा इतनी है
कि महादेवी पृथ्वी ने भी विष्णु से वचन लिया था कि वह सबकुछ सहन कर सकती है, किन्तु
नारी-स्तन-भार को कदापि सहन नहीं कर सकती । यही कारण है कि स्त्रियों के लिए पेट
के बल (स्तन को भूमि पर टिका कर) शयन करना वर्जित है।
कुल परम्परा-रक्षण में भी
इसी मातृका-शक्ति का सर्वविध मान रखा गया है। स्त्रियों को विशेषाधिकार दिये जाने
के पीछे एक और कारण है- क्रिया को सरल,सहज बनाना। किन्तु कहीं-कहीं अज्ञानवश या
प्रमादालस्यवश कुलदेवीपूजन को गृहस्थ कृत्य
की वरीयता सूची से ही निकाल फेंकते हैं और इसका प्रत्यक्ष-परोक्ष
दुष्परिणाम भी भुगतते रहते हैं।
किन्तु हां,कुछ कुलों में
सपत्निक कुलदेवीपूजन की भी परम्परा है, तो उसका निर्वाह भी होना ही चाहिए। वैसे भी
वार्षिक पूजन में तो नहीं , किन्तु नये भवन में कुलदेवता स्थापन क्रम में तो
सपत्निक पूजन का विधान है ही।
अतः जिस कुल में जो परम्परा
हो- सपत्निक पुरुष या अकेली स्त्री (कहीं-कहीं सिर्फ पुरुष भी) का निर्वाह होना
चाहिए।
कुलदेवी/देवता पूजन अधिकारग्रहण भी बहुत महत्त्व रखता है। मुख्य रुप से इसके दो ही
अवसर हैं- 1. नये भवन में कुलदेवी/देवता का स्थापन और 2.
सन्तान के विविध संस्कार- मुण्डन,उपनयन,विवाहादि। अस्तु। कुल-परम्परानुसार विधिवत
अधिकार ग्रहण किए वगैर कुलदेवी/ देवता का पूजन नहीं करना
चाहिए।
कुलदेवी/देवता पूजन-प्रयोजन—
वस्तुतः जब तक हम ज्ञान-परिपक्व नहीं हो जाते,तब तक सांसारिक झमेले
लगे ही रहेंगे। अतः ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणि....। इस संसारार्णव से बाहर निकलने के लिए ऋषि-मुनियों ने बहुत सी
विधियां सुझायी हैं। कुलदेवी/देवता की
सम्यक् उपासना उन्हीं में एक है। इसकी विस्तृत विधि है। पद्धति है। पटल है। मन्त्र
है। यन्त्र है। यदि हमें कल्याण और विकास की लालसा है तो इन सबके बारे में जानना
होगा। ढूढ़ना होगा। समझना होगा। मानना होगा। करना होगा। अन्यथा अन्धेरे में तीर
मारते-मारते जीवन व्यतीत हो जायेगा। लब्ध कुछ खास हो नहीं पायेगा।
प्रत्येक व्यक्ति का
सौभाग्यपूर्ण परम कर्त्तव्य है कि वह सर्वाधिक वन्दनीय अपने जनक-जननी के
पश्चात् उनके भी मूल पालक-रक्षक कुलदेवता/देवी की
आराधना करें। यही मूल है। मूल से विलग होकर,रहकर न लोक सध सकता है और न परलोक...छिन्ने
मूले नैव पत्रं न शाखा...। जड़ सींचा गया सम्यक् रुप से यदि तो तने और
पत्तियां स्वतः सुपुष्ट होंगी। इनका छेदन-भेदन,त्याग-प्रमाद सर्वथा-सर्वदा अहितकार
होगा । हमारी बहुत सी ज्ञात-अज्ञात समस्याओं का समाधान सीधे यहीं से निकल आता है, अथवा
अन्य मार्गों (विधियों) से समाधान ढूढ़ने के पूर्व इस मूल क्रिया को अवश्य सम्पन्न
कर लेना चाहिए। अस्तु।
---)ऊँ श्री हरिदश्वार्पणमस्तु(---
क्रमशः...
boot bhot bhot dhanyavad guru ji
ReplyDeleteमेरी रचना अच्छी लगी,यानी मेरा श्रम सार्थक हुआ । धन्यवाद।
Deleteमेरी रचना अच्छी लगी,यानी मेरा श्रम सार्थक हुआ । धन्यवाद।
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