भोंचूशास्त्री
की वेदना
धर्म-अधर्म,न्याय-अन्याय,सत्य-असत्य, व्यवस्था- अव्यवस्था के बीच अनवरत द्वन्द देवासुर संग्राम जैसा सनातन
है – भोंचूशास्त्री का ये वक्तव्य मुझे चौंका गया । सुप्रभातम् की अप्रत्याशित
कॉलिंग-बेल के साथ भोरमभोर की उनकी उपस्थिति, टिप्पणी या कहें सूचना मेरे भीतर कई
सवालों को ला खड़ा कर दिया, किन्तु उनका जवाब ढूढ़ने का रत्ती भर भी अवसर न दिया शास्त्रीजी
ने ।
नये डेरे में आने के बाद से ही मुझे
भोंचूशास्त्री जैसे ‘कोहीनूर’ पड़ोसी मिलने का सौभाग्य-लाभ हुआ है । हालाकि
इसका असली श्रेय तो मेरे श्रीमतीजी को ही मिलना चाहिए, क्यों कि इस नये मकान को
अपनी खोजी हुनर से ढूढ़ने का काम उन्होंने ही किया था । उनकी पुरानी सहेली के पूर्व पति होने का सौभाग्य
या अब कहूं तो दुर्भाग्य प्राप्त था शास्त्रीजी को । किसी के नीजी मामले में दखल
देने की गुस़्ताखी माफ हो तो कह सकता हूँ कि बात-बात में शास्त्री जी धमकी दिया
करते थे अपनी प्राणप्यारी को छोड़ कर, गिरि-कन्दराओं में कहीं ध्यानस्थ हो जाने का,
किन्तु अभी हाल के उच्चन्यायालय के फैसले के ठीक दूसरे ही दिन शास्त्री जी के साथ
जो कुछ घटित हुआ, भगवान न करें किसी दुश्मन के साथ भी ऐसा घटित हो ।
धारा ४९७ को निरस्त कर सुप्रीमकोर्ट ने
खुद को ही भारतीय संस्कृति के कठघरे में ला खड़ा कर दिया है । मनीषियों की आत्मा सुदूर स्वर्गलोक से उसे
धिक्कारती होंगी, शापित करती होंगी । क्यों कि आदरणीय ही नहीं, सम्माननीय कहे-माने
जाने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संस्कृति पर घोर कुठाराघात करने की धृष्टता
की है, बदतमीज़ी की है, जिसका जीता-जागता, अति ज्वलन्त, सद्यः प्रमाण हैं भोंचूशास्त्री
, जिन्हें घनीभूत वेदना की साक्षात प्रतिमूर्ति कहना अतिशयोक्ति न होगी । गौरवशाली भारतीय संस्कृति और सभ्यता के इतिहास
पर कालिख पोत दिया इसके ही मान्यवरों ने, अन्यथा आज शास्त्रीजी को इस दारुण
विरहाग्नि में झुलसना न पड़ता ।
दरअसल शास्त्रीजी की प्राणवल्लभा ने उनकी
धमकी से आजिज़ आकर और आज तक कभी पहल होता न पाकर, खुद को ही मुक्त कर लिया उनकी
गृहस्थी से । उन्हें धत्ता बताकर, खुलेआम खुरानन शास्त्री के घर जा घुसी और अगली सुबह होने से पहले ही
बोरिया-विस्तर बांध कर, उस नीरस-मनहूस शहर को भी छोड़ दी, जहां शास्त्रीजी जैसे
रसहीन लोग रहते हैं ।
‘ सिर मुड़ाते ओले पड़े ’ वाली कहावत लगता है
शास्त्रीजी जैसों के लिए ही बनी होगी । उधर सुप्रीमकोर्ट का फैंसला आया और इधर
प्राणप्यारी उड़ंछू...। अब भला कौन सी धारा में बांध कर लावें खुरानन जैसे घरफोड़ू
को या कि अपनी विवाहिता पत्नी को , जिसके दाम्पत्यातिहास में सुखमय गृहस्थी का
पन्ना था ही नहीं कभी शायद ।
भोंचूशास्त्री औपचारिक शिक्षा के नाम
पर तो शून्य से थोड़े ही आगे थे, किन्तु सनातनी ज्ञान और अनुभव के अथाह सागर होने
के दावे के चलते लोगों ने उन्हें शास्त्री सम्बोधन से अभिषिक्त करना ही उचित समझा था । धर्मशास्त्र हो या कि
कर्मशास्त्र, जहां कहीं भी किसी प्रौढ़ाचार्य की ज्ञान-गाड़ी फंसती, शास्त्रीजी ही
पंक से निकालने का बीड़ा उठाते । आज उन्हीं शास्त्रीजी की वेदनामूर्ति मेरे सम्मुख
खड़ी है और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा उनके सामने खड़ा, समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसी
स्थिति में किन शब्दों के मरहम का लेप उनके जख़्मों पर लगाउँ !
मैं उन्हें बैठने के
लिए कहने की स्थिति में भी न था । उनका वेदनामय प्रलाप जारी था— भगवान कभी भला न
करे इन नेताओं का और इन न्यायाधीशों का । मजे की बात तो ये है कि ये पत्रकार भी
इन्हीं के सुर में सुर मिलाने को उत्सुक दीख रहे हैं । क्यों इतनी जल्दीबाजी रहती
है इन्हें ऐसी बाहियात खबरें छापने की ? ‘नो नेगेटिव ’ वाले दिनों में भी कुछ ‘ पॉजेटिव ’ निकाल पाना इनके लिए कठिन पड़
जाता है । इसी का नतीज़ा है कि बहुत से नेता जानबूझ कर बेतुकी बातें निर्लज्जता
पूर्वक करते रहते हैं, क्यों कि उन्हें मालूम है कि अखबार वाले इसे हेडलाइन बनाने
में जरा भी देर न करेंगे । उन्हें भला क्या पड़ी है जनहित या राष्ट्रहित से । नेताओं को सिर्फ हाइलाइट
होने से मतलब है और खबरनवीसों को सिर्फ अखबार बिकने से । देश जाये भांड़ में ...।
इन होमोसेक्शुवल-गैंग को धारा ३७७ (समलैंगिकता) के कुठाराघात से
सन्तोष न हुआ तो ४९७
(एडल्टरी) भी जोड़ लिया फैसले में और भी रास्ता साफ करने के लिए । अब बारी है ३७६ (वलात्कार) और ३५४ (छेड़खानी) की । वैसे भी ये आमबात हो गयी है । इसके बारे में ज्यादा
क्या कहना । सड़क-बाजार, रेल, विमान, ऑफिस, मन्दिर- सब जगह मर्दानगी दिखायी जाती
है- जन्मसिद्ध अधिकार समझकर और कोई खास भय भी नहीं दीखता इस धारा का । वैसे तो रसूकदारों
के लिए ३०७
वा ३०२
का भी कोई खास महत्त्व नहीं है । लिव-इन-रिलेशन पर पहले ही मुहर लग चुकी है कोर्ट
की । खाओ-पीओ-मौज करो, लूटो-पाटो-ऐश करो— चार्वाक से भी दो कदम आगे की सोच रखने
वाले धन्य हैं हमारे महानुभाव । अभी हाल में ही समाचार आया है कि सिर्फ आरोपित
होना ही पर्याप्त नहीं है चुनाव-नामांकन की अयोग्यता हेतु, यानी की आरोप सिद्ध
होना भी जरुरी है । और ये कौन नहीं जानता कि आरोप लगना और आरोप सिद्ध होना में
कितना फर्क होता है, कितनी लम्बी दोड़ होती है । कितना समय लगता है । दादा के केस
का फैसला पोता भी सुन ले तो खुद को भाग्यवान समझे । साक्ष्य और सबूत को दो आँखें
मानने वाले अंधे कानून को क्या ये भी नहीं पता कि कितना दम है इन दो आँखों में, और
कितनी सहजता से इनपर पट्टी बांधी जा सकती है ! कितने
कमाल का है न हमारा संविधान, हमारा कानून, महान है हमारी संसद और उससे भी महान है
हमारी न्यायपालिका,
जहां
गोटसे को फांसी लगती है, भगत, आजाद और विसमिल को विसार दिया जाता है और दूसरी ओर कोई बाप-चाचा सम्बोधन से प्रचारित होता है । कभी किसी ने ये भी नहीं सोचा कि राष्ट्र का भी
कोई बाप होता है क्या ! किसने कब दिया ये
खिताब आर.टी.आई. लगाने पर भी जान पाना मुश्किल । शास्त्रीजी का शव परीक्षण भी जरुरी नहीं समझा
गया और सुभाष को गुमनामीबाबा बनना पड़ा । हजारों हजार शव पर मिट्टी डाल कर यूनियन
कारबाईड को पोषित किया गया , राजीव दीक्षित जैसे चिन्तक, विचारक, वक्ता की हत्या
पर खींसे निपोरता उसका ही तथाकथित साथी अरबों का टर्नओवर करता है और इसे भी
स्वाभिमान भारत के चश्मे से देखा जाता है । व्रितानियों के पोथड़े(डाईपर) को ही
ऋषियों-मुनियों का धर्मशास्त्र और विचारकों का समाजशास्त्र मान लिया गया और उसके
ही आलोक में सात दशक गुज़र गए सुराज के बिगुल बजाते- सुशासन के नाम पर । सच पूछो तो क्या किया है इन
हरामखोरों ने विगत दशकों में …?
शास्त्रीजी के प्रवचन
से मुझे भी कुछ बोलने का बल मिला । सादर उनका हाथ पकड़ कर वरामदे में रखे बेंत
वाले मोढ़े पर विठाया और बोला— ऐसा क्यों कहते हैं शास्त्री जी ? क्या नहीं दिया देश के मसीहाओं ने , अकेलापन न खले इसके लिए दो टुकड़े
करके पाक पड़ोसी दिया, धारा ३७० (कश्मीर मामला)
दिया, अमर आरक्षण की बूटी पिलाई, जो देश को सदा युवा रखने में कामयाब रहेगा । धर्म
तो पहले भी था, जातियां पहले भी थी, किन्तु दशहरे के पहले गाय का मांस मन्दिर में
और ईद के पहले सूअर का मांस मस्जिद में फेंक आना - इन्हीं के बदौलत तो हमने सीखा
है । करपात्री पर गोलियां चली और स्वतन्त्रता संग्राम का एक अहम मुद्दा माना जाने
वाला- गोकसी बन्दी का बिल बड़े कलाबाजी से निरस्त हुआ । इस रहस्य की बात तो उस दिन आपने ही कहा था न कि
कई मानिन्द हिन्दू कहे जाने वाले गोमांस के बिना रह ही नहीं सकते । फिर ऐसा क्यों
न किया जाये कि ये हिन्दु-मुस्लिम आपस में कटारें भांजते रहें और हम घड़ियाली आँसू
बहाते हुए मज़हबी ज़ंग की आँच में अपनी रोटियाँ सेंकते रहें । जाति हटाओ का नारा
देते रहें और जाति प्रमाणपत्र भी बीडीओ साहब निर्गत करते रहें । आरक्षण के बम्बू
से ठेलठाल कर अयोग्यों को उच्चासन पर बैठाते रहें, और असली योग्यता उधर बिदेशी
बाजारों में बिकती रहे । समाज के एक बड़े वर्ग को निकम्मा बनाते रहें- सबकुछ फ्री
का दे-बांट कर । गांधी जयन्ती मनाते रहें और गांधी के सदविचारों
को लहुलुहान करते रहें । क्या गांधी ने ही कहा था आर्यावर्त भरत भूमि में दो ऊँची
कुर्सियां लगाने को ? जिस दिन आधी रात को
‘ सैम्पेन
और बोगदा ’
की बोतलें खुल रही थी, ‘
मारकोपोलो ’
के धुएं में माँ भारती का दम घुट रहा था, कुटिला
मेम अपनी सफलता पर थिरक रही थी, ठीक उसी
समय सुदूर नोआखाली के बन्द कमरे में बैठा बूढ़ा बाप अपने अश्रुसिक्त चेहरे को मज़हबी
आंसुओं के गंगाजल से धोने की नाकामयाब कोशिश में लगा था । दो ऐयास वेटे तो अपनी-अपनी
कुर्सियां सहेजने की जुगत में थे, बूढ़े बाप की अब भला क्या चिन्ता !
अच्छा हुआ एक सपूत ने उसे मुक्ति देदी अन्यथा पता नहीं किन-किन
बातों पर रोना पड़ता बेचारे को । किंचित बिगड़े हालातों को सम्भालने वाले प्रबुद्ध
पटेल न होते तो पता नहीं और क्या-क्या हुआ होता...।
भोंचूशास्त्री पूरे तैस में थे ।
कहने लगे— सच पूछो तो गांधी को अमर्यादित जितना गांधीवादियों ने किया है उतना किसी
और ने नहीं । इतना ही नहीं, हजार वर्षों की गुलामी में जितना लूटपाट मचा, उतना तो
चन्द दशकों में ही पूरा कर दिया अपने ही रहनुमाओं ने ।
जरा गर्दन टेढ़ी करके शास्त्रीजी ने
कहा- एक और रहस्य की बात बताउँ तुम्हें - एक विशेषज्ञ ने सलाह दी है कि धरती पर जनसंख्या
का वोझ बहुत ज्यादा है । अच्छे-खासे संसाधन इसमें ही खप जाते हैं । कठोरता पूर्वक
परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाने में जानते ही हो कि एक अभिनेत्री को कितना कुछ सहना
पड़ा था । अतः नया तरीका इज़ाद किया गया- धारा ३७७ के सहारे । अब तुम
ही सोचो न- समलैंगिक सम्बन्ध होंगे तो बच्चे कहां से आयेंगे फिज़ूल के ?
और वैसे भी शादी के बाद मजे कम चिन्ता ज्यादा सताती है- कहीं बच्चा
न ठहर जाये । अब जरा सोचो कितना दूरगामी लाभ होगा इससे हमारे देश को ! आये दिन प्रायः हर घरों में कमोवेश पति-पत्नी की तू-तू-मैं-मैं होती है ।
दोनों का जीना हराम हो जाता है । गलती से भी पड़ोसन पर या कहो पड़ोसी पर नज़रें
चली गयी तो बाहर से भीतर तक बवाल मच जाता है । अब इसे नियन्त्रित करने वाला कानून
ही न रहेगा तो भला किस बूते पर झगड़े-लड़ाइयां होंगी ? सीना
तान कर औरतें कहेंगी- हम तुम्हारी मिल्कियत नहीं...मेरा शरीर, मेरा मन...मेरा
दिल...जिसे चाहें दूंगी...। और कुछ ऐसी ही बातें कहने का अधिकार मर्दों को भी
अनकहे ही मिल जायेगा – है न मजे की बात ? बड़ा ही विचित्र
रहा है हमारा देश- सात सेकेन्ड में ही मन भर जाता है और बात करते हैं- सात जनमों
तक सम्बन्ध निभाने की । ऐसा भी भला कोई सम्बन्ध होता है ? यही
सब देख-सुन कर तो विदेशी हमें पिछड़ा कहते हैं । मिथकों में भला कितना जीये
इकीसवीं सदी का भारत ? कुछ और भी फायदे सुनो इन धाराओं के
निरस्ती के— ।
शास्त्रीजी इससे आगे कुछ कहते कि
तभी अचानक मेरी श्रीमतीजी प्रकट हुयी वरामदे में, बिलकुल काली स्वरुप में, जिनके
हाथ में कटार और खप्पर की जगह झाड़ू की मूठ थी । बिना मीन-मेष के सीधे प्रहार कर
दी शास्त्रीजी के सिर पर और दहाड़ उठी— “ तुम्हारे
जैसे मर्दों के चलते ही ये दुनिया नापाक होते जा रही है । सत्तर चूहे खाकर बिल्ली
चली हज़ को...जीवन गुजार दिया ३७७ के चक्कर में और अब बात करने
चले हैं भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ? तुम्हारे
जैसे मुखौटे पर मुखौटा लगाये मर्दों ने ही बरबाद किया है इस धरती को, रौदा है सदा
नारी को अपनी मिलकियत समझ कर । जीवन खपा दी जिसने तुम्हारी सेवा में, उसके बदले
में तूने क्या दिया मेरी उस सहेली को ? डूब मरो कहीं जाकर चुल्लु
भर पानी में....। ”
झाड़ू के दूसरी ही प्रहार में
शास्त्रीजी उड़ंछू हो गए थे । मौका देख मैं भीतर जा घुसा वाथरुम में, सुबह का
फ़ारिग होने के ख्याल से ।
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