मातृमहिमा


                                          मातृमहिमा
                                      (मातृशक्तिशरणागति)
            माता की महत्ता और गरिमा पर प्रकाश डालना शब्द-सामर्थ्य-परे है । विविध शास्त्र-पुराणादि इसके वर्णन से पटे पड़े हैं । सूक्ष्म जीव को स्थूल शरीरधारी  बनाकर संसार में लाने का एकमात्र माध्यम माता ही है । दत्तात्रेय,कृष्ण,राम,परशुराम,बलरामादि अवतारी पुरुषों को भी माता का आलम्ब लेना ही पड़ा है । ध्यातव्य है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा ने मानसी सृष्टि ही की थी, किन्तु वे पूर्णतः सफल नहीं हो पाये । अन्ततः लाचार होकर उन्हें मैथुनी सृष्टि का सहारा लेना पड़ा । मैथुनी-सृष्टि के लिए एक ही तत्व को दो भागों में विभक्त करना पड़ा- नारी और पुरुष यानी शक्ति और शक्तिमान । स-शक्त पुरुष ही सृष्टि का ' वपक ' होता है । मूलतः एक ही शक्ति द्विधा विभक्त होकर बीज और क्षेत्र दोनों बन जाती है । दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि केवल ईक्षणशक्ति से काम नहीं चल सकता । स्रजन हेतु क्रियाशक्ति की भी आवश्यकता होती है । मैथुनीक्रिया से ही सृष्टि का विस्तार सम्भव हो पाया ।  शक्ति को धारित करने वाला कोई अन्य घटक अनिवार्य ही नहीं अपरिहार्य है ।  मातृगर्भ की उर्वरा भूमि में पितृबीज वपन मात्र से काम चलने को नहीं, प्रत्युत उसके पालन-पोषण की भी आवश्यकता होती है । अन्तः - वाह्य उभय रुप में पोषण का ये कार्य सम्पन्न होता है, तब कहीं सृष्टि का वास्तविक विस्तार हो पाता है । 
            तन्त्र हो या योग मातृका-रहस्य को सम्यक रुप से समझे-बूझे-साधे वगैर काम नहीं चल सकता ।  सामान्य तौर पर सामान्य जन के लिए, जो योग और तन्त्र की साधना नहीं कर सकते, करने में सक्षम नहीं हैं, या करना जिनका अभीष्ट नहीं है, उनके लिए कर्मकाण्ड की व्यवस्था सुझायी गयी है । इसे यों भी कह सकते हैं कि प्रारम्भ में विविध कर्मकाण्डीय व्यवस्था और क्रियायों से गुजर कर, मन और शरीर को परिपक्व बनाकर, अन्ततः उच्च साधना में अग्रसर हुआ जा सकता है । कर्मकाण्डीय क्रियाओं से सामान्य सांसारिक मल दग्ध हो जाते हैं और उत्तरोत्तर विकास का मार्ग प्रशस्त होता है । अज्ञानवश कुछ लोगों को ये कर्मकाण्डीय जंजाल व्यर्थ या उलझनपूर्ण प्रतीत होता है । किन्तु इसे अक्षरारम्भ की " खड़िया-पट्टिका " कहें तो अधिक स्पष्टी हो । हालाकि कर्मकाण्ड के रास्ते से भी मोक्ष-द्वार तक पहुँचा जा सकता है ।
            कर्मकाण्ड में मातृका-पूजन को सर्वोपरि रखा गया है । यही कारण है कि छोटे-बड़े किसी भी पूजन का प्रारम्भ गौरी-गणेशपूजन से ही होता है । मातृशक्ति गौरी और विघ्नेश्वर गणेश । यहां इस संशय में न रहें कि ये आद्यपूज्या गौरी तो गणेशमाता पार्वती हैं, फिर ये माता और पुत्र के एकत्र पूजन का क्या औचित्य ! वस्तुतः यहां " मूलप्रकृति और पुरुष " की बात है । सांख्य वाले पुरुष । पुराण - शैली में कहें तो कह सकते हैं कि सीधे राधा और श्रीकृष्ण की पूजा है ये ।
            गौरी-गणेशपूजन के पश्चात् षोडशमातृकाओं की पूजा की बात आती है, भले ही सूर्यादि नवग्रहों, गणेशादि पंचलोकपालों एवं इन्द्रादि दशदिकपालों का समावेश भी हो जाता है पूजनक्रम में ; किन्तु मुख्य उद्देश्य होता है— विविध मातृकापूजन । यथा- गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया । देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः।। धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवताः ।। गणेशेनाधिका ह्येता वृद्धौ पूज्यास्तु षोडशः ।। कर्मादिषु च सर्वेषु मातरः सगणाधिपाः ।  पूजनीयाः प्रयत्नेन पूजिता पूजयन्ति ताः ।। पुनः श्री आदि सप्तघृतमात्रिका, तृणमात्रिकादि का पूजन होता है । इसी क्रम में आगे चतुःषष्टियोगिनीमातृका के पूजन का भी विधान है । कार्यान्त में अग्निपूजन के पश्चात् अग्निपत्नी स्वाहा की पूजा होती है । ये स्वाहाशक्ति ही कृत कर्मों की वाहिका हैं । ध्यातव्य है कि पितृकार्यों में पितृ-पत्नी स्वधा का स्मरण और प्रयोग बारम्बार होता है ।
            इस प्रकार हम पाते हैं कि देवकार्य वा पितृकार्यों के विविध कर्मकाण्डों के मूल में मातृ-शक्ति की ही महत्ता प्रतीत होती है ।
            सामान्य सांसारिक जीवन में भी माता की सर्वाधिक श्रेष्ठता की बात कही जाती है । माता का स्थान पिता और गुरु से भी ऊपर है- 
सर्वेषामपि पूज्यानां पिता वन्द्यो महान् गुरुः ।
पितुः शतगुणैर्माता गर्भधारणपोषणात् ।।
माता च पृथिवीरुपा सर्वेभ्यश्च हितैषिणी ।
नास्ति मातुः परो बन्धुः सर्वेषां जगतीतले ।। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड-७२-११०,१११)
संक्षेप में कह सकते हैं कि  पिता की तुलना में माता सौगुना पूज्या है, वन्दनीया है । दीक्षागुरु के चयन- प्रसंग में यहां तक कहा गया है कि पिता को गुरु बनने का यानी गुरुमन्त्रदीक्षा का अधिकार नहीं है, किन्तु माता को है । माता सर्वोत्कृष्ट और सर्व निरापद गुरु हो सकती है किसी भी साधना-क्षेत्र में । यहां ये प्रश्न उठ सकता है कि योग वा तन्त्र-मार्ग में माता की वास्तविक (शैक्षणिक व व्यावहारिक) योग्यता यदि अनुकूल नहीं होगी तो क्या होगा ? वस्तुतः वैसी स्थिति में माता को साक्षी मान कर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान अन्य स्रोत से ग्रहण किया जाना चाहिए ।
सच पूछें तो संसार के सभी ऋणों से मुक्त हुआ जा सकता है, परन्तु मातृऋण से मुक्ति असम्भव है। मातृशक्तिशरणागति ही एकमात्र मुक्ति का उपाय है मातृऋण से । यही कारण है कि गयाश्राद्धादि के समय पार्वणक्रिया में पिता-मातादि द्वादश प्रधान पिण्ड-कार्य सम्पन्नता के पश्चात् माता के लिए अतिरिक्त षोडश पिण्ड देने की अनिवार्यता कही गयी है-   
आगर्भज्ञानपर्यन्तं पालितो यत्त्वया ह्यहम् । 
आवाहयामि ताः मातृृर्दर्भपृष्ठे तिलोदकैः ।। (श्राद्धपारिजातादि श्राद्धीय ग्रन्थ)   
उक्त मन्त्रोच्चारण पूर्वक पुनः अतिरिक्त कुशा पर आवाहन करके प्रतिज्ञा और स्मरणमूलक सोलह मन्त्रों से पिण्डदान किया जाता है ।
वर्तमान समय में सद्गुरु का मिलना अत्यन्त दुरुह है । जहां देखें बाजारवादी गुरुओं का नानाविध जाल पसरा हुआ है, जहां " कनफुकवा " शिष्यों की भीड़ के अतिरिक्त और कुछ लब्ध होने को नहीं है । ऐसे में मातृशक्तिशरणागति ही सरलतम मार्ग प्रतीत होता है । भूतल पर माता से बढ़ कर और कोई नहीं हो सकता । गर्भधारण करके जन्मदेने वाली माता के पश्चात् जिस भूमि(देश,राष्ट्र) में हम वास करते हैं वो पावन भूमि गरीयशी कही गयी है- " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयशी "
            मातृमहिमा प्रसंग में जन्मदात्री माता के अतिरिक्त अन्य पन्द्रह माताओं की बात कही जाती है । इस प्रकार माताओं (माता और माता तुल्य) की कुल संख्या सोलह हो जाती है। इस प्रकार षोडशमातृकायें यहां प्रत्यक्ष संसार में भी प्रकट हो जाती हैं । यथा-
 गर्भधात्री स्तनदात्री भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया।
 अभीष्टदेवतापत्नी च पितुःपत्नी च कन्यका ।।
 सगर्भकन्याभगिनी पुत्रपत्नी प्रियाप्रसूः ।
 मातुर्माता पितुर्माता सोदरस्य प्रिया तथा ।।
 मातुः पितुश्च भगिनी मातुलानी तथैव च ।
 जनानां वेदविहिता मातरः षोडशस्मृताः।।(ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपतिखण्ड अध्याय १५, श्लोक संख्या ३८ से ४०)
यहां ये स्पष्ट किया गया है कि जन्मदात्री माता के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री का स्तनपान करने पर वो भी माता ही कही जायेगी भले ही वो किसी अन्य जाति की क्यों न हो । इसके अतिरिक्त भोजन बनाकर देनेवाली भी माता की श्रेणी में ही आती है।  गुरु की पत्नी तो माता है ही  । जिस देवता की हम आराधना करते हैं उनकी शक्ति भी माता ही हैं । यथा- सीतामाता,पार्वतीमाता इत्यादि । पिता की अन्य पत्नियाँ (सौतेलीमाँ), माता की माता (नानी), पिता की माता (दादी) , पिता की बहन (फूआ), अपनी बहन, मामा की पत्नी (मामी), पत्नी की माता (सास) के अतिरिक्त पुत्रबधु, बेटी, भाई की पत्नी आदि भी माता की श्रेणी में ही हैं । एक अन्य प्रसंग में ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्ण जन्मखण्ड अध्याय ५९ श्लोकसंख्या ५५-५६ में उक्त माताओं के अतिरिक्त राजपत्नी(रानी),माता की बहन(मौसी) और नौकरानी को भी माता की श्रेणी में ही रखा गया है । यथा—  
गुरुपत्नी राजपत्नी देवपत्नी तथा बधूः 
पित्रोःस्वसा मित्रपत्नी भृत्यपत्नी च मातुली ।।
पितृपत्नी भ्रातृपत्नी  श्रश्रूश्च भगिनी सुता ।
गर्भधात्रीष्टदेवी च पुंसां षोडश मातरः ।।

मातृशक्तिशरणागति से इह लोक और परलोक दोनों सध सकता है । यथेच्छ भोग और मोक्ष दोनों लब्ध हो सकते हैं । अतः निर्द्वन्द्व भाव से मातृशक्ति का शरण ग्रहण करने की आवश्यकता है । यथा— शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। (श्रीदुर्गासप्तशति) अस्तु ।।
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