श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययनःःबीसवाँ भाग
गतांश से आगे...
अध्याय आठ का (ज) पूजन-सम्बन्धी विविध बातें
प्रत्येक
व्यक्ति अपनी श्रद्धा, भक्ति, कामना और ज्ञान के अनुसार कुछ न कुछ पूजा-पाठ करता
है। किन्तु जाने-अनजाने अनेक गलतियाँ भी होती रहती हैं। जिज्ञासु के सामने क्या
करें, क्या न करें का द्वन्द्व प्रायः बना रहता है। कौन सी सामग्री ग्राह्य है और
कौन सी निषिद्ध, इन पर देश-दिशा-काल-पात्र-स्थिति आदि का क्या प्रभाव है, इत्यादि
बातें भी भ्रमित किए रहती हैं। पूजाकाल में पूजनसामग्रियों को यथास्थान व्यवस्थित
करने एवं उनके प्रयोग में भी अज्ञानवश प्रायः त्रुटि हो जाती है। सामान्य पूजन में
तो छोटी-मोटी गलतियाँ क्षम्य हो जाती हैं, किन्तु साधकों को इन बातों में भी विशेष
सावधान रहने की आवश्यकता है।
शास्त्रकारों
ने जीवनोपयोगी प्रत्येक छोटी-बड़ी बातों का सदा ध्यान रखा है एवं लोककल्याणार्थ
उन्हें विविध ग्रन्थों में संग्रहित कर रखा है। तत्ग्रन्थों (निर्णयसिन्धु, विष्णुधर्मोत्तरपुराण,
वाराहपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, नृसिंहपुराण, नारदपुराण, पद्मपुराण, आह्निक सूत्रावली, वीरमित्रोदय, पूजाप्रकाश,
आचारेन्दु, रुद्रधर, दक्षस्मृत्यादि मत) के आधार पर ही यहाँ कुछ चर्चा करना आवश्यक
प्रतीत हो रहा है—
१.
आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम् ।
पञ्चदैवत्यभित्युक्तं सर्वकार्मसु पूजयेत् ।। (सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और
विष्णु- इन्हें पंचदेव कहा गया है। इनकी पूजा सभी कार्यों में होनी चाहिए। आचार्य
शंकर ने पञ्चदेवोपासना के महत्त्व पर सम्यक् प्रकाश डाला है।
२.
गङ्गाप्रवाहे शालग्रामशिलायां च सुरार्चने ।द्विजपुङ्गव ! नापेक्ष्ये
आवाहनविसर्जने ।। शिवलिङ्गेऽपि सर्वेषां देवानां पूजनं भवेत् ।। सर्वलोकमये
यस्माच्छिवशक्तिर्विभुः प्रभुः ।। (वृहद्धर्मपुराण अ.५७) गंगाजी के प्रवाह में, शालग्रामशिला
में एवं शिवलिंग में सभी देवताओं का भावात्मक पूजन बिना आवाहन-विसर्जन किए, किया
जा सकता है।
३.
गृहे लिङ्गद्वयं नार्च्यं गणेशत्रितयं तथा । शङ्खद्वयं
तथा सूर्यो नार्च्यौ शक्तित्रयं तथा ।। द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्रामशिला-
द्वयम् । तेषां तु पूजयेनैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही ।। (घर में दो शिवलिंग, दो
गोमतीचक्र,दो शंख, दो सूर्यमूर्ति, तीन गणेश एवं दुर्गा मूर्ति न रखे । इससे गृहस्थ
को उद्वेग होता है। (आचारप्रकाश, आचारेन्दु)।
४.
शैली दारुमयीं हैमीं धात्वाद्याकारसम्भवाम् । प्रतिष्ठां
वै प्रकुर्वीत प्रासादे वा गृहे नृप ।। गृहे चलार्चा विज्ञेया प्रासादे
स्थिरसंज्ञिका। इत्येते कथिता मार्गा मुनिभिः कर्मवादिभिः ।। (पत्थर, काष्ठ, सुवर्णादि धातु-निर्मित मूर्तियों की
प्रतिष्ठा घर में करनी चाहिए। मूर्ति के आकार का भी ध्यान रखना अति आवश्यक है—घर
में आठ अंगुल से अधिक ऊँचाई वाली मूर्ति की स्थापना न करे। घर में चलप्रतिष्ठा और
मन्दिर में अचल प्रतिष्ठा करनी चाहिए।
५.
हालाँकि एकनिष्टता का अद्भुत महत्त्व है, किन्तु सामान्य
गृहस्थ को अनेक देवों की उपासना करनी चाहिए, क्यों कि वो प्रायः निष्काम नहीं
होता। कोई न कोई सांसारिक कामना लिए होता है। यथा— एका मूर्तिर्न सम्पूज्या
गृहिणा स्वेष्टमिच्छता । अनेक मूर्तिसम्पन्नः सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।।
६.
मिट्टी के नवीन पात्रों को सीधे जल से धोकर साफ न करें।
बल्कि पहले घृतशुद्धि करलें। यानी उस पर थोड़े घी का छिड़काव कर लें, तत्पश्चात जल
से धोवें।
७.
मिट्टी के पात्र सिर्फ एक बार ही प्रयोज्य है। दुबारा
प्रयोग सर्वदा वर्जित है।
८.
देवकार्य में अक्षत हेतु चावल को पाँच बार शुद्ध जल से
प्रक्षालित करना चाहिए, तदुपरान्त प्रयोज्यानुसार हल्दी वा रोली से रंजित करे। ध्यान
रहे कि प्रेतकर्म एवं पितृकार्यों में सिर्फ एक ही बार प्रक्षालित करना चाहिए एवं
हल्दी आदि का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए।
९.
ताम्रपात्र बहुत शुद्ध है, किन्तु इसमें घिसा हुआ चन्दन,
दूध एवं मीठे पदार्थ कदापि न रखे । ताम्रपात्र में रखा हुआ दूध मदिरातुल्य एवं
गुड़-चीनी या इनसे बने पदार्थ मांस तुल्य हो जाते हैं। चन्दन रखने हेतु पीतल की
कटोरी सर्व सुलभ है।
१०. शंख,तुलसीपत्र,विल्वपत्र,
मलयगिरिचन्दन, सुवर्ण-रजत-रत्नादि, प्राणप्रतिष्ठित
देवमूर्ति आदि को भूमि पर कदापि न रखे ।
११. शालग्रामशिला
एवं वाणलिंगादि स्वप्रतिष्ठित हैं। इनकी प्राण- प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं । शालग्रामशिलायास्तु
प्रतिष्ठा नैव विद्यते ।(स्कन्दपुराण) वाणलिंगानि राजेन्द्र ख्यातानि भुवनत्रये । न प्रतिष्ठा
न संस्कारस्तेषां नावाहनं तथा ।। (भविष्यपुराण)
१२. साधकों को आसन
के सम्बन्ध में सदा सावधान रहना चाहिए— सिर्फ पूजन ही नहीं, शयन हेतु भी । आधुनिक
समय में इस पर विचार करना ही प्रायः आवश्यक नहीं समझा जाता । लकड़ी की बनी चौकी को
शुद्ध माना जाता है, किन्तु उसकी आधुनिक बनावट बिलकुल प्रतिकूल है। कई तख्थों के
जोड़ से चौकी का निर्माण होता है। पहले इस बात का ध्यान रखा जाता था कि तख्थे
लम्बाई में ही हों । किन्तु आजकल कम कीमत के ख्याल से प्रायः चौड़ाई में ही तख्थे
हुआ करते हैं । ऐसी चौकी पर शयन करना स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है। योग और
तन्त्र की दृष्टि से विचार करने पर इसमें बहुत त्रुटियाँ दीख पड़ेंगी। आजकल प्लाई
से बनी पर्याप्त चौड़ी तख्थी का चलन है। यहाँ कटान की समस्या तो नहीं है, किन्तु
प्लाई अपने आप में काष्टतत्व होते हुए भी बिलकुल काष्ठगुणहीन है। अतः ऐसी शय्या के
उपयोग से परहेज करें। फोम, प्लास्टिक,रबर आदि से बने गद्दे भी स्वास्थ्य और साधना
की दृष्टि से बिलकुल त्याज्य हैं। शयन हेतु लम्बाई वाले पटरी से बनी चौकी का ही
प्रयोग करें एवं साधना हेतु सफेद भेड़ के कम्बल का । कम्बल के नीचे कुशासन भी बिछा
लें तो अत्युत्तम । आसन की अदला-बदली कदापि न करें। पूजा का आसन बिलकुल व्यक्तिगत
उपयोग की वस्तु है। यहाँ तक कि पति-पत्नी,पिता-पुत्र आदि का भी आसन बिलकुल अलग
होना चाहिए। सीधे जमीन पर सोना या पूजा-पाठ, योगाभ्यास आदि करना भी निषिद्ध है।
इससे आन्तरिक ऊर्जा का क्षरण होता है।
१३. श्रीकृष्ण ने साधकों
के लिए आसन के सम्बन्ध में संक्षिप्त संकेत किया है—शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य
स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। (गीता ६-११) (पवित्र स्थान पर कुशा, मृगचर्म एवं सूती वस्त्र
को उत्तरोत्तर बिछावे।) किन्तु मृगचर्म या अन्य विविध चर्मासन का प्रयोग आम साधक
के लिए नहीं है। इसके लिए विशेष रुप से दीक्षित होना आवश्यक है। वर्तमान समय में
वन्यजीवों की सुरक्षा के ख्याल से कानूनन भी मृगचर्म वर्जित ही है।
१४. तन्त्रग्रन्थों
में कार्यभेद से आसन भेद का भी वर्णन मिलता है। यथा— कौशेयं वाथ चैलं वा
चार्मतौलमथापि वा । वेत्रजं तालपत्रं वा कम्बलं दार्भमासनम् ।। वंशाश्म दारु धरणी
तृण पल्लवनिर्मितम् । वर्जयेदासनं मन्त्री दारिद्र्यव्याधिदुःखदम् ।।
धर्मार्थकाममोक्षाप्तेश्चैलाजिनकुशोत्तरम् । यतीनामासनं श्लक्ष्णं कूर्माकारं तु कारयेत्
। गोशकृन्मृण्मयंभिन्नं तथा पालाशपिप्पलम् ।। लौहविद्धं सदैवार्कं वर्जयेदासनं
बुधः । स्वस्तिक पद्म वीरादि- ष्वेकासन समास्थितः ।। जपार्चनादिक
कुर्यादन्यथानिष्फलं भवेत् । दानमाचमनं होमं भोजनं देवतार्चनम् ।। प्रौढ़पादो न
कुर्वीत स्वाध्यायं चैव तर्पणम् । प्रौढपाद लक्षण—आसनारुढ़ पादस्तु
जानुनोर्वाथजंघयोः । कृतावसिक्थ को यस्तु प्रौढ़पादःऽस उच्यते ।।
१५. वृद्धिपाठ – श्रीदुर्गासप्तशती
पाठ की एक विशेष विधि भी है, जिसे वृद्धिपाठ कहते हैं। ये अपेक्षाकृत काफी
श्रमसाध्य है, किन्तु आनुष्ठानिक समय कम लगता है और महत्ता अत्यधिक है। ये सप्तमी,
अष्टमी और नवमी सिर्फ तीन दिनों का अनुष्ठान है। सप्तमी को दो पाठ, अष्टमी को तीन
पाठ एवं नवमी को चार पाठ करना होता है। इस प्रकार तीन दिनों में नौ पाठ पूरा होता
है । विशेष परिस्थियों में साधक इस अनुष्ठान को सम्पन्न कर सकते हैं।
१६. पूजनसामग्री
स्थानक्रम— अपनी बायीं ओर—थोड़ी दूरी पर जलपूर्ण कलश रखे । घंटा, तैलदीपक एवं
धूपदानी भी इसी ओर रहे । दायीं ओर— जलपूर्ण पंचपात्र, जलपूर्ण शंख तथा
घृतदीपक । सामने— चन्दन पुष्पादि। एवं दूसरे स्तर पर (थोड़ी ऊँचाई पर)
मूर्ति के सामने नैवेद्य स्थान सुनिश्चित करे। नैवेद्य अर्पण पूर्व जल से चौकोर
घेरा लगावे । इस विषय पर गन्धर्वतन्त्र में कहा गया है— नैवेद्यं दक्षिणे वामे
पुरतो वा न पृष्ठतः । घृतदीपं दक्षिणे तु तैलदीपस्तु वामतः ।। वामतस्तु तथा
धूपमग्रेवा नतु दक्षिणे । निवेदयेत्पुरोभागे गन्धपुष्पञ्चभूषणम्। सर्वं स्वदक्षिणे
स्थाप्यं वामेचार्घ्यं नवेशयेत् । स्थापयेच्चर्वयचोष्यादिनैवेद्यादीनिसंनिधौ ।।
करयोः क्षालनार्थाय पृष्ठे पात्रं विनिर्देशेत् । स्वस्य शक्त्यनुरुपेण सर्वं सम्पाद्ययत्नतः
।। पूजाद्रव्याणि संप्रोक्ष्य मूल मन्त्रेण साधकः । दर्शयेद्धेनु मुद्रां च द्रव्य
शुद्धिरितीरिता । तथा च सर्वमाच्छादितं कार्यं यावदावाहयेत्पराम् ।
राक्षसाः प्रतिगृह्णन्ति निराच्छादनकंयतः ।।
१७. शंख को जल में
न डुबोयें, बल्कि शंख में किसी अन्य पात्र से जल डालें, क्यों कि शंख का पृष्ठभाग अपवित्र
माना गया है—उद्धरिण्या जलं ग्राह्यं जले शंखं न मज्जयेत् । शंखस्य
पृष्ठसंलग्नं जलं पापकरं ध्रुवम्।।
१८. शंख विष्णु को
अतिशय प्रिय है। विष्णुविग्रह (शालग्रामादि) को शंखजल से ही स्नान कराना चाहिए, किन्तु
सूर्य को शंखजल से अर्ध्य न दे — न दद्याद्भास्करार्घ्यं शंखतोयैर्महेश्वरि ।।
(गन्धर्वतन्त्रम्)
१९. (क) पूजन एवं वादन के लिए अलग-अलग शंखों (वनावट
भेद से) का प्रयोग करना चाहिए। पूजन वाले शंख का पिछला मुंह बन्द होता है एवं
बजाने वाले शंख का खुला हुआ। ये बनावट प्राकृतिक न होकर बनावटी है, यानी पिछला भाग
काट कर शंख को बजने योग्य बनाया जाता है। (ख) शंख को हाथों से ठोंकना भी निषिद्ध
है। इससे विष्णु को चोट मारने का दोष लगता है। (ग) किसी भी प्रकार के शंख को सीधे भूमि
पर कदापि न रखें—
यः शंखं भूमि संस्थाप्य पूजयेत् पुरुषोत्तमम् । तस्य पूजां न गृह्यति तस्मात् पीठं प्रकल्पयेत् ।।
२०. गाय को बहुत ही
पवित्र माना गया है शास्त्रों में,किन्तु ध्यान देने की बात है कि गाय का मुखभाग
शापित है, यानी अपवित्र है। इसका पिछला भाग ही पवित्र है। दूध, गोमूत्र, गोबर ये
सब पिछले भाग से ही प्राप्त होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रहे कि घरेलू व्यवहार
में आने वाले वर्तनों में गाय को खाने-पीने न दें। इससे पात्र अशुद्ध हो जायेगा।
अज्ञानवश कोई पात्र व्यवहृत हो गया हो तो उसे महीने भर मिट्टी में गाड़ दें, फिर
निकाल कर जल से शुद्ध कर प्रयोग करें।
२१. धारण एवं जप
हेतु अलग-अलग मालाओं का प्रयोग करना चाहिए। अज्ञान में लोग गले में धारण किए हुए
रुद्राक्ष आदि माला को ही उतार कर जप में प्रयोग कर लेते हैं। यह बहुत बड़ा क्षरण
है स्वशक्ति का । (माला के सम्बन्ध में इसी पुस्तक का माला प्रकरण भी देखना चाहिए)
२२. धूप— सामान्यतः
देवदार की लकड़ी का प्रयोग धूप के लिए किया जाता है । इसके साथ अन्य सामग्रियों का
भी प्रयोग होता है। अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए धूप बनाने की विधि भी भिन्न है।
देवी प्रीतिकर धूप में इन सामग्रियों का मिश्रण होना चाहिए— चन्दनागुरुकस्तूरी
श्वेतसर्षप चन्द्रकैः । मध्वाज्य गुग्गुलान्यग्रयष्ठीमधुसितायुतैः ।। स देवदारु
निर्यासैः धूपं देव्या सुतोषदम् ।। (मलयगिरिचन्दन, अगर, कस्तूरी, सफेद सरसो,
कपूर, मधु, गोघृत, गुगुल, कपूर, यष्ठीमधु, मिश्री एवं धूना) (इनमें कस्तूरी और
सफेदसरसो दुर्लभ द्रव्य हैं)
२३. वांस की
तिल्लियों के सहारे बनाये गए अगरबत्ती का प्रयोग कदापि न करें । वांस जलाना सद्यः वंशनाशक
है। दूसरी बात ये कि बाजारु धूपबत्तियों में प्रायः लोहबान का प्रयोग होता है। जो सनातनधर्मियों के लिए बिलकुल निषिद्ध है। वैसे
भी भूत-प्रेत कर्मों में इसका प्रयोग हो सकता है, देवकार्यों में कदापि नहीं। सबसे
बड़ी बात ये है कि बाजार का बना अच्छा से अच्छा धूपबत्ती भी किसी काम का नहीं है। लकड़ी
का कोयला और कृत्रिम सुगन्ध के अतिरिक्त कोई तत्त्व नहीं है उसमें। अतः सर्वोत्तम
है कि सीधे देवदार धूप और धूना-गुग्गुल आदि का प्रयोग करे।
२४. देवीप्रतिमा
मुखविचार— याम्यास्या शुभदा दुर्गा पूर्वास्या जय वर्द्धिनी । पश्चिमाभिमुखी
नित्यं न स्थाप्या सौम्यदिङ्गमुखी ।
२५. गुरु शब्दार्थ —
गुशब्दस्त्वन्धकारःस्याद्रुशब्दस्तन्निरोधकः। अन्धकार नरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते
।। गकाराद् ज्ञान सम्पत्ती रेफः पापस्य दाहकः । उकारःच्छिवतादात्म्यं दद्यातिति
गुरुः स्मृतः।। (कुलचूड़ामणि) तथाच यामले— गकारः सिद्धिदः प्रोक्तो रेफः पापस्य दाहकः । उकारः शक्ति
इत्युक्तस्त्रितयात्मा गुरुः स्मृतः ।।
२६. गुरुविचार— बिना
विचारे जिस-तिस को गुरु न बनावे । वर्तमान समय में गुरु की स्थिति और प्राप्ति अति
दुर्लभ हो गया है। चेला बनाना विशुद्ध व्यवसाय बन गया है। गुरु नामधारी स्वयं
अज्ञानान्धकार में भटक रहे हैं, फिर वे दूसरे को ज्ञान का प्रकाश कहाँ से दे
पायेंगे । अयोग्य को गुरु बनाने से कहीं अच्छा है बिना गुरु के ही रह जाना। अन्धा
अन्धे का मार्गदर्शक कदापि नहीं बन सकता । आश्रम और सम्प्रदायिक विचार से भी गुरु का विचार
अति आवश्यक है। यथा—उदासीनो द्युदासीनां वनस्थाः वनवासिनः । यतीनाञ्च
यतीप्रोक्तो गृहस्थानां गुरुर्गृही ।। वैष्णवे वैष्णवो ग्राह्यः शैवे शैवस्तथा
पुनः ।। शाक्तके त्रितयं विद्याद्दीक्षास्वामी न संशयः ।। सर्वशास्त्रार्थ वेत्ता
च गृहस्थो गुरु रुच्यते ।।
२७. पात्रताविचार-- (महर्षि परासर
)
शान्ताय गुरुभक्ताय सर्वदा सत्यवादिने ।
आस्तिकाय प्रदातव्यं तत: श्रेयो ह्यवाप्स्यति ।।
न देयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय वा ।
दत्ते प्रतिदिनं दु:खं जायते नात्र संशय: ।। (शान्त चित्त वाले, गुरु के प्रति भक्तिभाव से युक्त, सदैव सत्य बोलने वाले, ईश्वर में विश्वास रखने वाले शिष्य को ही शास्त्र सिखाना चाहिए, इसी से कल्याण होता है। दूसरे के शिष्य, नास्तिक, शठ ( कुटिल विचार वाले) शिष्य को शास्त्र ज्ञान देने से सदैव दु:ख ही प्राप्त होता है।)
आस्तिकाय प्रदातव्यं तत: श्रेयो ह्यवाप्स्यति ।।
न देयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय वा ।
दत्ते प्रतिदिनं दु:खं जायते नात्र संशय: ।। (शान्त चित्त वाले, गुरु के प्रति भक्तिभाव से युक्त, सदैव सत्य बोलने वाले, ईश्वर में विश्वास रखने वाले शिष्य को ही शास्त्र सिखाना चाहिए, इसी से कल्याण होता है। दूसरे के शिष्य, नास्तिक, शठ ( कुटिल विचार वाले) शिष्य को शास्त्र ज्ञान देने से सदैव दु:ख ही प्राप्त होता है।)
२८. मन्त्र
व्युत्पत्ति— मननः विश्व विज्ञानं त्राणं संसार बन्धनात् ।
यतः करोति सं सिद्धो मन्त्र इत्युच्यते ततः ।। (पिंगल)
मननात्त्राणनाच्चैव मद्रूपस्यावबोधनात् । मन्त्र इत्युच्यते सम्यङ्मदधिष्टानतः
प्रिये।। (रुद्रयामल) गुप्तोपदेश तो मन्त्री मनना त्राणनादपि ।। (तन्त्रसार)
२९. यन्त्र— आवरण सहित देवता
की उपासना का आलम्बन ।
३०. मन्त्र— देवता का शब्दमय
स्वरुप ।
३१. तन्त्र—उपासना का विधान
।
३२. आगम-निगम—वैदिक सनातन धर्म
के प्रतिपादक ग्रन्थ- निगम और आगम हैं। अनादि अपौरुषेय शब्दराशि को निगम कहा जाता है
एवं ईश्वरोक्त – ईश्वर के द्वारा उपदिष्ट विधानों को तन्त्र वा आगम कहते हैं। तन्त्र
शब्द का प्रयोग यहाँ शासन के अर्थ में है। शिवोक्त शासन व्यवस्था ही तन्त्र के नाम
में अभिहित है।
३३. कायिकतीर्थादि—
मूलाधारे कामरुपं हृदिजालंधरं प्रिये । पूर्णगिरिमधोभागे उड्डियनन्तउर्ध्वके ।।
वाराणसी भ्रूवोर्मध्ये ज्वलन्ती लोचनत्रये । मावती मुखवृत्ते कण्ठेचाष्टपुरीतथा ।।
नाभिमूलेमहेशानि ! अयोध्यापुरी संस्थिता । कांची पीठंकटीदेशे
श्रीचक्रंपृष्ठदेशके ।। मूलाधारात् शताश्चैव अतलंपरिकीर्तितम् । सुतलं च वर्षशतं तलातलशतं
प्रिये ।। ऋषिवाणेन्दुवर्षान्तं संस्थितं च महातलम् । शतद्वयान्तं पाताल द्विशतं
वै रसातलम् । मूलाधाराच्च देवेशि द्वेंगुली चान्तिकेस्थिते ।। तयोर्मध्ये च
पातालस्तिष्ठन्ति परमेश्वरि । इति ते कथितंकान्ते ! योगसारंसमानतः
। नवक्तव्यंपशोरग्रे प्राणान्तेपि कदाचन ।।
३४. अंगुष्ठमर्दननिषेध—
नांगुष्ठर्मर्दयेद्देवंनाधःपुष्पैस्समर्पयेत् । कुशाग्रैर्न क्षिपेत्तोयं
वज्रपातसमं भवेत् ।। (स्नान कराते समय अँगूठे से देवमूर्तियों का मर्दन न करे।
फूलों को उलटा करके न चढ़ावे। कुशा के अग्रभाग से जलप्रोक्षण न करे। ये तीनों
वज्रपात की तरह दोषपूर्ण है।
३५. सप्तमृत्तिका – अश्वस्थानाद्गजस्थानाद्वल्मीकात्सङ्गमाद्ध्रदात्
। राजद्वाराच्च गोष्ठाच्च मृदमानीय निक्षिपेत् ।। अर्थात् घुड़साल, हाथीसार, दीमक की बॉबी, नदीसंगम, तालाब, राजद्वार और गोशाला - इन सात स्थानों की मिट्टी को कलश में डालने का विधान
है। युगानुसार ये अलभ्य या दुर्लभ नहीं हैं, फिर भी सुलभ भी नहीं
कहे जा सकते। इनके स्थान पर दुकानदार जो सो दे दे, इससे अच्छा
है - इनमें जो भी सुलभ प्राप्य हो, उसी का प्रयोग किया जाय। वेश्यालय
की मिट्टी को भी पूजनकार्य में पवित्र माना गया है । तान्त्रिक क्रियाओं में अपने आप
में इसका भी विशिष्ट स्थान है।
३६.
पञ्चरत्न — 1.कनकं कुलिशं मुक्ता पद्मरागं च नीलकम्।एतानि पञ्चरत्नानि
सर्वकार्येषु योजयेत् ।। अर्थात् सोना, हीरा, मोती, पद्मराग और नीलम - ये पंचरत्न कहे गये हैं। 2. वज्रमौक्तिकवैदूर्यं प्रवालं
चन्द्रनीलकम् । अलाभे सर्वरत्नानां हेम सर्वत्र योजयेत् ।। अर्थात् हीरा, मोती, वैदूर्य (विल्लौर), मूंगा, नीलम ये पाँच रत्न हैं। इन सबके अभाव में सोने का प्रयोग करना चाहिए। 3. माणिक्यं
मौक्तिकं हेमं प्रवालं रजतादिकम् । पञ्चरत्नाङ्गमित्येतत् सर्वं शान्तिकरं परम् ।।
अर्थात् माणिक्य, मोती, मूंगा, सोना, चाँदी ये पाँच रत्न कहे गये हैं, जिनका उपयोग सभी प्रकार के शान्ति-पुष्टिकर्मों में किया जाता है। विभिन्न
पूजापाठ, यज्ञादि में इनका प्रयोग होता है। आजकल इनके नाम पर
कृत्रिम रत्नों की पुड़िया दुकानदार थमा देता है और अज्ञानता या मूढ़तावश लोग ले लेते
हैं। यदि श्रद्धा और औकात हो तो रत्नों की दुकान से असली रत्न लें । नकली के प्रयोग
का कोई औचित्य नहीं है। पाँच के स्थान पर एक ही रत्न डालें, किन्तु असली डालें।
३७.
पञ्चपल्लव— अश्वत्थोदुम्बर प्लक्ष चूत न्यग्रोध पल्लवाः ।
पञ्चभंगा इति ख्यात्वा सर्व कर्मसु शोभनाः ।। पीपल, पाकड़, वट, गूलर और आम को
पंचपल्लव कहा गया है। इनका प्रयोग यज्ञादि विशेष पूजनकार्य में कलश पर रखने हेतु
किया जाता है। सामान्य पूजन में अथवा अभाव में सिर्फ आम के पल्लव का उपयोग किया जा
सकता है। अज्ञान में लोग अशोक आदि अन्य पल्लवों को इसमें समाहित कर लेते हैं। अशोक
भी पवित्र वनस्पतियों की श्रेणी में है। किन्तु इसका प्रयोग वन्दनवार आदि बनाने
हेतु किया जाना चाहिए। पल्लव के लिए नहीं।
३८.
शास्त्रों
में पत्नी को वामांगी कहा गया है; किन्तु सर्वत्र ये नियम मान्य नहीं है।
पाँच स्थानों पर ही पत्नी वामांगी है—आशीर्वाद लेते समय, आचार्यादि के पैर धोते
समय, यज्ञान्त अभिषेक के समय, शयन-शैय्या पर एवं भोजन आदि के समय पत्नी को बायें
बैठाना चाहिए, जबकि अन्यान्य पूजाकार्यों में दायें बैठना चाहिए । इस सम्बन्ध में
स्पष्ट शास्त्रादेश है - आशीर्वादेऽभिषेकेच
पादप्रक्षालने तथा, शयने भोजने चैव पत्नीतूत्तरतो भवेत् ।।
३९.
सपत्निक
पूजनकार्य में आचार्य द्वारा ग्रन्थिबन्धन क्रिया सम्पन्न करायी जाती है - ॐ
मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुड़ध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलाय तनोहरिः।।-
के उच्चारण सहित अक्षत (अक्षत कहते हैं
पांच बार प्रक्षालित किया गया अरवा चावल,जो हरिद्राचूर्ण मिश्रित हो), फूल, सुपारी
और द्रव्य लेकर यजमान-पत्नी की चुनरी में डाल कर, गांठ लगाकर, यजमान की चादर से
संयुक्त कर देना - ग्रन्थिबन्धन क्रिया कहलाती है। किसी भी सपत्निक कार्य में
ग्रन्थिबन्धनक्रिया अनिवार्य है।
४०.
ग्रन्थिबन्धन
से सम्बन्धित एक खास बात पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ— प्रायः लोगों को पूजन कार्य
में देखा जाता है कि पति कोई कार्य कर रहा होता है,तो पत्नी अपने हाथ से पति के
हाथ को पकड़े रहती है या फिर पुरुष हवन कर रहा होता है, उस समय आहुति डालते वक्त
वायें हाथ से अपने ही दायें हाथ को छूये रहता है- ये दोनों ही कार्य अति
मूर्खतापूर्ण है। ग्रन्थि बन्धन युक्त पत्नी का पति के शरीर का स्पर्श किये रहने
का कोई प्रयोजन या औचित्य नहीं है, इसी भाँति दाहिने हाथ से हवन कुण्ड में आहुति
प्रदान करते समय या कुछ अन्य कार्य करते समय वायें हाथ से स्पर्शित किये रहना भी
व्यर्थ और अविधिक, अविवेकपूर्ण ही है। पत्नी की भूमिका पूजन कार्य में हर तरह का
सहयोग करना है, जितना वह सहजता से कर सके। जीवनरथ के दो चक्के मिल कर धर्मकार्य
में संलग्न हैं। ग्रन्थिबन्धन के पश्चात् किसी एक के द्वारा भी किया गया कार्य
दूसरे के द्वारा किया गया ही माना जायेगा। इसमें जरा भी संशय नहीं है। एक और बात
का ध्यान रखना चाहिए—सपत्निक कर्म का विशेष महत्त्व है। जिसकी पत्नी जीवित हो उस पुरुष
को कोई भी ऐसा कार्य अकेले नहीं करना चाहिए और यही नियम पत्नी के लिये भी मान्य
है। हाँ, विधवा, विधुर, परित्यक्ता आदि के लिए बात अलग होगी।
४१.
प्रदक्षिणा— पूजन के अन्त में प्रदक्षिणा का विधान है। इस सम्बन्ध
में कहा गया है—एका चण्ड्या रवेः सप्त तिस्रः देव विनायके । हरेश्चतस्रः
कर्तव्याः शिवस्यार्धप्रदक्षिणा ।।( देवी की एक प्रदक्षिणा करे। सूर्य की सात बार,
गणेश की तीन बार,विष्णु आदि की चार बार एवं शिव की आधी प्रदक्षिणा करे, यानी अर्घ्या
तक जाये और वापस अपने स्थान पर आ जाये। अर्घ्या का उलंघन न हो—पार न करे। जहाँ
प्रदक्षिणा का स्थान सुलभ न हो, वहाँ अपने आसन पर ही खड़े-खड़े, दक्षिणावर्त घूमे
। जिन देवी-देवताओं का नाम इस सूची में नहीं है उनकी पाँच परिक्रमा करे।
४२.
प्रणाम— उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा । पद् भ्यां
च सजानुभ्यां शिरसा मनसाधिया ।। पञ्चाङग कः प्रणामः स्यात् सर्वत्र प्रवराविमौ ।।
४३.
स्वघृष्टचन्दन निषेध— प्रायः लोग देवताओं के निमित्त
चन्दन घिसते हैं और उन्हें अर्पित करने के बाद शेष बचे चन्दन को स्वयं भी लगा लेते
हैं, किन्तु ऐसा करना बहुत ही अनिष्टकारी है। अतः अपने हाथ से घिसे हुए चन्दन स्वयं न लगाये, (किन्तु
गोपीचन्दन इसका अपवाद है)।
४४.
अपने हाथ से लिखे गए (नकल किए गए) स्तोत्र का पाठ भी न
करे एवं अपने हाथ से गूंथी गयी माला से स्वयं जप न करे। धन और यश की कामना वाले को
उक्त तीनों गलतियों से बचना चाहिए ।
४५.
इस सम्बन्ध में शास्त्रवचन है—स्वहस्त ग्रथिता माला, स्वहस्तात्घृष्ट
चन्दनम् । स्वहस्त लिखितम्स्त्रोत्रम् शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ।।
४६.
पूजा के निमित्त चन्दन बहुत पतला नहीं घिसना चाहिए—द्रवीभूतं
घृतंचैव द्रवीभूतं च चन्दनं । नार्पयेन्मम तुष्ट्यर्थं घनीभूतं तदर्पयेत् ।। (वाराहपुराण) ।
४७.
देवताओं को अनामिका अंगुली से चन्दन चढ़ावे। पितरों के
लिए तर्जनी अंगुली का प्रयोग करे। प्रेतकर्म में मध्यमा अंगुली का एवं यजमान को
अंगूठे से तिलक लगावे । चन्दन लगाने के बाद कनिष्ठा एवं अँगुष्ठ को मिलाकर
गन्धमुद्रा का प्रदर्शन करे—कनिष्ठाङ्गुष्ठयोगेनगन्धमुद्राप्रदर्शयेत् ।
४८. तिलक की महत्ता के सम्बन्ध में
शास्त्र-वचन हैं—1.ऊर्ध्वपुण्ड्रं मृदा कुर्याद् भस्मना तु त्रिपुण्ड्रकम् ।
उभयं चन्दनेनैव अभ्यङ्गोत्सवरात्रिषु ।। 2.ललाटे
तिलकं कृत्वा संध्याकर्म समाचरेत् । अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम् ।।
४९. तिलक
के सम्बन्ध में भी एक अविवेक पूर्ण चलन की ओर ध्यान दिलाना उचित प्रतीत हो रहा है—ब्राह्मण
जब किसी यजमान को तिलक लगाने के लिए अपना हाथ बढ़ाता है, तो उस समय यजमान अपना दाहिना
हाथ अपने सिर के पीछे कर लेता है - वस्तुतः यह भी एक प्रकार की अज्ञानता का ही
सूचक है। योग के गहन ज्ञान रखने वाले इस रहस्य (औचित्य-अनौचित्य) को सहज समझ सकते
हैं। आम व्यक्ति के लिए सिर्फ इतना ही सुझाव है कि तिलक लगवाने हेतु दोनों हाथों
को जोड़कर, नम्रता पूर्वक गर्दन थोड़ा आगे झुका दे, वस।
५०. यवांकुर विचार— नवरात्र में
कलशस्थापन यवादिरोपण के साथ करते हैं। विजयादशमी के दिन उन यवांकुरों को आशीष स्वरुप
ग्रहण-प्रदान की क्रिया सम्पन्न होती है। यवांकुर के सम्बन्ध में सिद्धान्तशेखर
में कहा गया है— यजमानाभिवृद्ध्यर्थं अंकुराणि परीक्षयेत् । सम्यगृद्धर्वं
प्ररुढ़ानि कोमलानि सितानि च । धूम्रवर्णान्यपूर्वाणि तथातिर्यग्गतानि च । श्यामलानि च कुब्जानि वर्जयेदशुभानि च ।। तथा
च— अवृष्टिं कुरुते कृष्णं धूम्राभं कलहं तथा । अपूर्णं जननाशं च दुर्भिक्षं
श्यामलांकुरं । तिर्यग्गतेभवेत् व्याधिः । कुब्जे शत्रुभयंतथा । अशुभेचांकुरे जाते
शान्तिहोमंसमाचरेत् । मूलमन्त्रेण जुहुयाद्गुरुमूर्तिधरैःसह ।। अघोरास्त्रेण
चास्त्रेण शतं वाथ सहस्रकम् ।। तथा च सारस्वते— प्ररुढ़ैरंकुरैः
कर्तुर्निर्देच्चशुभाशुभं श्यामैःकृष्णैरंकुरैरर्थहानिस्तिर्यग्रूढै-र्व्याधिरांदोलितस्तैः
। कुब्जैर्दुःखं दुःष्प्ररुढैर्मृतिं च । रोगाभुग्नैः स्थानदेशेष्ट हानिः ।।
५१. यवांकुरपूजाविधि—
(कात्यायनीतन्त्र)
शिव उवाच - यवांकुरं प्रवक्ष्यामि श्वेतं सिद्धिकरं परम् । एतेन विधिना देवि
ग्रहितव्यम् महास्तुतौ । आश्विने शुक्लपक्षस्य अष्टमी नवमी दिने । तथैव चैत्र मासे
वै गन्धपुष्पैः सदीपकैः ।। श्वेतयवांकुरं गौरि पूर्वेद्यरभिमन्त्रयेत् । (येनत्वामानयिष्यामि
सर्वसिद्धिकरी भव) द्वितीय दिवसं पुष्पं दीपं च नैवेद्यं च सदक्षिणाम ।
एकीकृत्वातु संध्यायेत् महाश्वेतयवांकुरम् ।। तमर्चयेद्विधानेने वित्तशाठ्यविवर्जितः
। त्वं मया च विभूतिस्त्वं त्वमेव प्रकृतिःपुरा । त्वमर्चनप्रयत्नेन
सर्वसिद्धिकरीभव ।। इति प्रार्थयेत् ।। ततः ऐँ नमः श्वेतयवांकुराय यं ह्रीं
ह्रूं ह्रं सः जूं स्वाहा — इत्यनेन मन्त्रेण समुद्धरेदिति । यवांकुर
समुद्धृत्य सुवर्णस्य शलाकया । संस्थाप्य स्वर्ण मध्येतु धारयेत् दक्षिणेभुजे ।
ह्रींदिवा धारयेद्धीमान् गृहे लक्ष्मीःस्थिराभवेत् । रिपुक्षयो भवेत्तस्य न रोगाः
प्रभवन्तिहि ।। अष्टगन्धेन सम्पूज्य अष्टमीनवमीदिने । राजद्वारे स मान्यः स्यात्
सदा लक्ष्मीःस्थिरा भवेत् ।। इति ।
५२. मधुपर्क— सर्पि रेक गुणं प्रोक्तं शोधितं द्विगुणं
मधु । मधुपर्क विधौ प्रोक्तं सर्पिषा च समं दधि ।। (घृत और दही एक-एक भाग, मधु दो भाग)
५३. पञ्चामृत—इन पाँच
पदार्थों को पंचामृत कहा गया है—गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, शर्करा और मधु । वस्तुतः
ये पाँच अमृततुल्य हैं। इसे एकत्र करने का क्रम है। पात्र में एकत्र करते समय उक्त
क्रम का सदा ध्यान रखना चाहिए। आयुर्वेद में विविध व्याधियों की चिकित्सा हेतु
इनका प्रयोग होता है। कर्मकाण्ड में देवताओं के स्नान हेतु ये प्रयुक्त होते हैं—अलग-अलग
एवं एकत्र रुप से भी । पंचामृतस्नान के पश्चात् शुद्धोदक स्नान भी अनिवार्य है। घृत और मधु की मात्रा समान कदापि न हो, क्योंकि
ये विषतुल्य हो जाता है। विषम मात्रा ही अपेक्षित है।
५४.
पञ्चगव्य— गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पि कुशोदकं
पञ्चगव्यमिदं प्रोक्ताम्महापातक नाशनम् ।। गाय का मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी
इन पाँच पदार्थों को पंचगव्य कहा गया है । इसके साथ कुशोदक (कुश का धोवन)मिलाने का
भी नियम है। इन पञ्च गव्यों को मिलाने की मात्रा और मन्त्र भी वशिष्टसंहिता में निर्दिष्ट
है। तत्मात्रा— गोशकृद्द्विगुणंमूत्रं दुग्धंदद्यात्चतुर्गुणम् । घृतचाष्टगुणं
चैव पञ्चगव्ये तथादधि ।। गोबर की एक मात्रा, मूत्र की दो मात्रा, दुग्ध की चार
मात्रा, दही और घृत की आठ मात्रा को क्रमशः मिट्टी के पात्र में एकत्र कर एक
मात्रा कुशोदक भी मिला दे । इस प्रकार स-मन्त्र तैयार किया गया पंचगव्य सभी प्रकार
के पातकों का नाश करता है। इसका प्रयोग भूमिशोधन हेतु छिड़काव एवं आत्मशोधन हेतु
प्राशन के लिए किया जाना चाहिए। प्राशन की मात्रा इतनी हो कि कण्ठ के नीचे
हृदयस्थल तक पहुँच जाये। अज्ञानवश लोग समान अथवा मनमानी मात्रा में मिला देते हैं,
जिस कारण इसका स्वाद नीम वा गुडूची की तरह तिक्त हो जाता है । ऐसे में छिड़काव तो
प्रचुर मात्रा में कर देते हैं, किन्तु ग्रहण करने के लिए अंगुली से छूकर जीभ पर
लगा भर लेते हैं। फलतः समुचित परिणाम नहीं मिल पाता ।
अथ
मन्त्राः—ऊँ भूर्भुवःस्वःतत्सवितुर्वरेर्ण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियोयोनः
प्रचोदयात् ।(गोमूत्र हेतु) ऊँ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां
करीषिणीम् । ईश्वरींसर्वभूतानां तामिहोपह्व्ये-श्रियम् । (गोमय हेतु) ऊँ
आप्यायस्वसमेतुतेविवस्ततः सोमवृष्ण्यम् । भवाव्वाजस्य संगथे ।। (दुग्ध हेतु)
ऊँ दधिक्राव्णोऽअकारिषञ्जिष्णो रश्वस्यव्वाजिनः । सुरभिनोमुखाकरत्प्रणऽआयुᳫषितारिषत् ।। (दधि हेतु)
ऊँ तेजोसिशुक्रमस्यमृतमसिधामनामासि । प्रियं देवानामनाधृष्टं-देवयजनमसि ।। (घृत
हेतु) इस प्रकार क्रमशः मन्त्रोच्चारण पूर्वक सबको पात्र में एकत्र कर इस
मन्त्र से सम्यक् आलोड़न करे कुशा से— ऊँ देवस्य त्वा सवितुः
प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् ।
५५.
पूजनकार्य में विविध वनस्पतियों को कलशजल में प्रक्षेपित
करने का निर्देश है, जिनमें शतौषधि, सर्वौषधि आदि आते हैं। इस सम्बन्ध में कहा गया
है - मुरा माँसी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् । सठी चम्पकमुस्ता च सर्वौषधिगणः
स्मृतः।। अग्निपुराण १७७-१७ के अनुसार मुरामांसी, जटामांसी, वच, कुठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी, चम्पक और नागरमोथा
- इन दस ओषधियों को ग्रहण किया गया है। अन्यत्र एक प्रमाण में कहा गया है - कुष्ठं
मांसी हरिद्रे द्वे मुरा शैलेय चन्दनम् । वचा चम्पक मुस्ता च सर्व्वौषध्यो दश स्मृताः।।
यानी कुठ, जटामांसी, हल्दी, दारुहल्दी, मुरामांसी, शिलाजीत, श्वेत चन्दन, वच, चम्पा और नागरमोथा
इन दस औषधियों को ही सर्वौषधि कहा गया है। एक अन्य सूची में उपरोक्त सभी द्रव्य तो
यथावत हैं, किन्तु चम्पक के स्थान पर आंवला लिया गया है। जटामांसी
के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं इसके नाम पर छड़ीला दे दिया जाता है, जबकि असली जटामांसी ठीक जटा की तरह और अति तीक्ष्ण गंधी होता है। अतः उसे
ही प्रयोग करना चाहिए। सर्वौषधीनां दुष्प्राप्तौ क्षिपेदेकां शतावरीम् अथवा सर्वाभावे शतावरी- यानी सर्वौषधी के
अभाव में सिर्फ शतावरी का प्रयोग किया जा सकता है। शतावरी जड़ी-बूटी की दुकानों में
सुलभ प्राप्य है।
(औषधियों के
सम्बन्ध में अगले प्रसंगों में विस्तार से देखें)
५६.
कामनाभेद से कलश में प्रक्षेपण-द्रव्य भेद है। यथा— कामनाभेदेन
कलशे विशेष वस्तु— धर्मकामः क्षिपेद्भस्म धन कामस्तु मौक्तिकम्
। मोक्षकामोन्यसेद्वस्तत्रंजयकामोपराजिताम् ।। उच्चाटनार्थं व्याघ्रीं च वश्यार्थंशिखिमूलकाम्
। मारणाय मरीचञ्च कैतवं मोहनाय च । आकर्षणाय पारन्तीं प्रक्षिपेत्कलशोदरे ।। (अपराजिता
यहाँ बड़ी कटेरी के लिए और व्याघ्री छोटीकटेरी के लिए प्रयुक्त हुआ है। शिखिमूलिका
= मोरपंखी नामक वनस्पति । कैतक = धतूरा )
५७.
नैवेद्यार्पण विधि — नैवेद्य सामग्री को प्रतिमा के
सामने रखकर, अंजुलि में जल लेकर घेरा अवश्य लगावे, क्यों कि उस पर राक्षसादि की
कुदृष्टि भी रहती है। धेनुमुद्रा एवं योनिमुद्रा का प्रदर्शन करे, तत्पश्चात्
तुलसीदल पुष्पादि छोड़ कर, घंटी वादन करे। मध्यान्तर जल भी अर्पित करे। तथाच
क्रमशः पंचग्रासमुद्राओं का प्रदर्शन करे । यथा—
ऊँ प्राणाय स्वाहा (अँगुष्ठ, अनामिका कनिष्ठिका संयोजन),
ऊँ अपानाय
स्वाहा (अँगुष्ठ, मध्यमा, अनामिका संयोजन),
ऊँ व्यानाय स्वाहा (अँगुष्ठ,
मध्यमा, तर्जनी संयोजन),
ऊँ उदानाय स्वाहा (अँगुष्ठ, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका
संयोजन),
ऊँ समानाय स्वाहा ( पाँचो अँगुलियाँ एकत्र)।
ये नैवेद्यार्पण की
संक्षिप्त विधि है। तन्त्रग्रन्थों में और भी विस्तृत विधि वर्णित है।
५८.
विस्तृतविधि — सुवर्णरजतादि पात्रे
नैवेद्यं धृत्वार्पणं कुर्यात् नैवेद्यं “फट्” मन्त्र
जलेन संप्रोक्षयेत् । मूलमन्त्र जलेन सदर्भस्थ जलेन सप्तधा प्रोक्ष्य ततश्चक्रमुद्रयाभिरक्ष्य
वायुबीजेन द्वादश वाराभिमंत्रित जलेन हविः प्रोक्ष्य । तदुत्थ वायुना तद्दोषं संशोध्य
। दक्षिणकरतलेऽग्नि बीजं विचिन्त्य तत्पृष्ठे वामकरतलं कृत्वा नैवेद्यं प्रदर्श्य तदुत्थाग्निना
तद्दोषं दग्ध्वा वामकरतलेऽमृतं बीजं विचिन्त्य तत्पृष्टलग्नं दक्षिण करतलं कृत्वा नैवेद्यं
प्रदर्श्य तदुत्थामृतधारया प्लावितं विभाव्य मूल मन्त्रित जलेन संप्रोक्ष्य
तदखिलममृतात्मकंध्यात्वा तत्स्पृष्ट्वा मूलमन्त्र –मष्टधा जप्वा
धेनुमुद्रांप्रदर्श्य जलगन्धपुष्पैरभ्यर्च्य देवतायै पुष्पाञ्जलिं समर्प्य तन्मुखात्तेजोगतमिति
ध्यात्वा वामाङ्गुष्ठेन मुख्य नैवेद्य पात्रं स्पृष्ट्वा दक्षिणकरेण जलं गृहित्वा
मूलमन्त्र स्वाहान्तम् द्वादशधा पठित्वा ऊँ सत्पात्र सिद्धं सुहविर्विधानेकभक्षणम्
निवेदयामि देवेशि ! सानुगायै गृहाणतत् ।। यवनिकां कृत्वा
पद्यद्वयं पठेत्—ऊँ ब्रह्मेशाद्यैः परित उरुभिः सूपविष्टैःसमेतैःर्लक्ष्यासिंजद्वलय
करया सादरं बीज्यमानः । नर्मक्षेलीप्रहसन् मुखैर्व्याप्नुवन्पंक्ति मध्यम्
मुक्तापात्रे कनक घटिते षड्रसंचण्डिके च ।। शालीभक्तं सुभक्तं शिशिर करशितं
पायसापूपसूपं लेह्यंपेयं च चोष्यंसितममृतफलंद्वारिकाद्यंसुखाद्यम् आज्यं प्राज्यं
सभोज्यं नयनरुचिकरंराजिकैलामरीचं स्वादी यः शाकराजी परिकरम-मृताहार जोषंजुषस्व ऊँ
श्रीदुर्गायै सांगायै सायुधायै सवाहनायै सशक्तिकायै सपरिवारायै ब्रह्माविष्णुरुद्र
सहितायै नैवेद्यं समर्पयामि नमः इति सपुष्पाभ्यां हस्ताभ्यामंगुष्ठानामिकाभ्यां
नैवेद्यं पात्रं त्रिःप्रोद्धरन् । निवेदयामि भवतीदं जुषाणेदंहविःशिवे । ऊँ
अमृतोपस्तरण मसि स्वाहेति देविकरे जलं समर्पयेत् ।। वामकरेण विकचोत्पलसदृशीं, तथाच
पूर्वोक्त ग्रासमुद्रां प्रदर्श्य दक्षिणकरेण समन्त्राः ।(यहाँ पूर्व
क्रम में कही गयी ग्रासमुद्राओं का प्रयोग करें।) ततः आपोशानं दद्यात्— ऊँ
समस्त देव देवेशि ! सर्वंतृप्तिकरं परम् । अखण्डानन्द सम्पूर्णं गृहाणजलमुत्तमम्
इत्यापोशानं ( मध्ये आचमनम्) दत्वा गतसारं नैवेद्यं नैर्ऋत्यां दिशि संस्थाप्य
तदुच्छिष्टभागं उच्छिष्ट चाण्डालिन्यै समर्प्य ।।
५९.
नैवेद्य प्रकरण की तीन और मुद्रायें—१.चक्रमुद्रा—हस्तौ तु सम्मुखौ कृत्वा
संलग्नौ सुप्रसारितौ कनिष्ठांगुष्ठकौ लग्नौ मुद्राषा चक्र संज्ञिता ।। २. योनिमुद्रा— वामांगुलीनां मध्येषु
दक्षिणांगुलि संस्थिता नियोज्य तर्जनी दक्षा वाम मध्यमया तथा ।। ३. धेनुमुद्रा—दक्ष मध्यमया वामा
तर्जनींच नियोजयेत् दक्षयानामयावामां कनिष्ठांचनियोजयेत् । पिहिताधोमुखी चैषां
धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ।।
६०.
मांसादि प्रयोग निषेध— दुर्गारहस्य, श्यामारहस्य, निरुत्तर
तन्त्रम् आदि अनेक प्रमाणिक ग्रन्थों में साधकों के लिए मदिरामांसादि प्रयोग
निषिद्ध कहा गया है। वस्तुतः ये तमोगुणी क्रियायें हैं । ब्राह्मणों को सदा
सात्विक और लोककल्याणकारी क्रियाओं में ही संलग्न होना चाहिए। शिश्नोदरी और जिह्वालोलुप
भ्रष्ट लोगों ने समय-समय पर तामसी वस्तुओं का प्रयोग समावेशित कर दिया सदग्रन्थों
में । सप्तशती के अन्त में वैकतिकरहस्य में भी स्पष्ट कहा गया है—रुधिराक्तेन
बलिना मांसेन सुरया नृप । बलिमांसादि पूजेयं विप्रवर्ज्यामयेरिता । तेषांकिल
सुरामांसैर्नोक्तापूजा नृप क्वचित् ।। किन्तु इस स्पष्ट निर्देश को ही अज्ञानी
लोग क्षेपक मान लेते हैं। ये सत्य है कि वैदिक काल में अश्वमेधादि विविध यज्ञ हुआ
करते थे । किन्तु कर्मकाण्ड की आधीअधूरी बात को ही आजकल लोग समझते-करते हैं। ये
बात भूल जाते हैं कि यज्ञान्त में वो अश्व हवनकुण्ड से जीवित होकर सशरीर निकल आता
था। यही बात अन्य बलिविधान में भी है। कलिकाल में इन क्रियाओं की योग्यता नहीं है,
अतः बलिविधान का अनुकल्पप्रयोग कुष्माण्डादि का प्रावधान किया गया है। यदि साधक
में ये क्षमता है कि बलि के बकरे को पुनर्जीवित कर सके, तो फिर बलि देने में कोई
आपत्ति नहीं । बुद्ध ने भी अंगुलीमाल को कुछ ऐसा ही संदेश दिया था । यदि जीवन देने
की क्षमता है, तो मृत्यु खेल है उसके लिए, अन्यथा घोर पापकर्म। वर्तमान समय में
वामतन्त्र के प्रति जो आकर्षण दीखता है, उसका सबसे मुख्य कारण है शिश्नोदरीलोलुपता
। मदिरापान, मांसभक्षण और परस्त्रीभोग ही मुख्य आकर्षण होता है तथाकथित साधकों का ।
सच्ची साधना से कोसों दूर होते हैं ऐसे लोग । तन्त्रग्रन्थों की कूटभाषा को समझ न
पाने के कारण, योग्य गुरु के अभाव के कारण ऐसा हुआ है पिछले सहस्राधिक वर्षों में
और साधना के नाम पर पतन के गर्त में गिरता जा रहा है तथाकथित साधक समाज । तन्त्र
के नाम पर ठगी और भ्रष्टाचार का साम्राज्य विस्तृत होता जा रहा है दिनोंदिन । अतः हमारा
कर्तव्य है कि सावधान होकर, लोक को पतन के गर्त में गिरने से बचायें ।
६१.
परान्नभक्षणनिषेध – साधनाकाल में किसी प्रकार का परान्न
भक्षण और दानादि ग्रहण से विशेष रुप से बचने की आवश्यकता है। श्राद्धभोजन तो सद्यः
पतनकारी है। ध्यातव्य है कि इन दोनों का बड़ा ही घातक प्रभाव पड़ता है। लोग लोभ और
स्वार्थ ग्रस्त होकर, विवेकहीन हो गए हैं और मूर्खतापूर्ण तर्क देते हैं कि ब्राह्मण का कर्तव्य है ये । जब कि
ब्राह्मण के अन्यान्य कर्तव्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता । शास्त्रों में कहा
गया है—— यस्यान्नपानमश्नाति कुरुते धर्म संचयम् । अन्नदातुः फलंचार्द्धं कर्तुश्चार्द्धं
न संशयः ।। तस्मात्सर्व प्रयत्नेन परान्नं वर्जयेत्सुधीः ।। पुरश्चरण काले च काम्यकर्मस्वपीश्वरि
। तथा च— जिह्वादग्धा परान्नेन करौ दग्धौ
प्रतिग्रहात् । मनोदग्धं परस्त्रीभिः कार्यं सिद्धिः कथंभवेत् ।। नीलतन्त्र में
इसी प्रसंग को किंचित भिन्न रुप से कहा गया है— भक्षणे दूषिता जिह्वा मिथ्याया भाषणेनवै
। कलहै दूर्षिता जिह्वानानादोषेणदूषिता तत्कथंपामरोलोकाजिह्वाया प्रजपेन्मनुम् ।।
६२.
शिवाबलि विधानम्— काम्यप्रयोगेषु शुभाशुभज्ञानार्थ—
ततः सायंकाले देवतां सम्पूज्य आमिषान्न यथोपपन्न द्रव्यजलसहित पक्वान्नंपूजा
सामग्रीञ्च श्मशानादि निर्जने नीत्वा उदङ्मुखोभूत्वा प्रणानायम्य षडंग न्यासं
कृत्वार्थं संस्थाप्य अर्धोदकं गृहीत्वा अद्योत्यादि अमुक गोत्रोमुकराशि
अमुकशर्माहं श्रीमच्चण्डिका-प्रीतये शिवायाः पूजनंबलिदानं च करिष्ये—इति
संकल्प्य, मुक्त चिकुर उत्त्थाय कालि कालि शिवाआहूय इष्ट देवतात्वेनभावयेत्
। ऊँ शिवायै नमः इति गन्धाक्षतैः सम्पूज्य विन्दु त्रिकोण वृत्त चतुरस्र मण्डले
बलिपात्रं निधाय अंगुष्ठानामिकाभ्यां धृत्वा ऊँ गृह्ण देवि ! महाभागे शिवे ! कालाग्निरुपिणि ! शुभाशुभफलं व्यक्तं ब्रूहि
गृह्णबलिं त्विदम् । इत्युत्सृजेत् तद्देशात्किंचिदुपसृत्य तासुभोक्त्रीषु तिष्ठन्तीषु
पुष्पचन्दन सहित पुष्पाञ्जलिमादायोत्थाय स्वेष्टदेवताधिया प्रणम्यस्तोत्रं पठेत् । ऊँ शिवारुप धरे देवि ! कालि ! कालि ! नमोऽस्तुते । उल्कामुखि ! ज्वलज्जिह्वे
घोरदंष्ट्रे करालिनि ! श्मशानवासिनि प्रेतेशवमांसप्रियेऽनघे ! श्मशान चारिणि शिवे
फेरोजंबुक रुपणि नमोऽस्तुते महामाये जगत्तारिणि ! कालिके ! मातंगी कुक्कुटे रौद्रि कालि ! कालि ! नमोऽस्तुते ! सर्वसिद्धिप्रदे भीमे भयंकरि ! भयापहे प्रसन्ना भवदेवेशि मम भक्तस्य कालिके !
संसारतारिणि जये जय सर्वशुभंकरि ।। विस्रस्तचिकुरे चण्डे चामुण्डे ! मुण्डमालिनि ! संसारकारिणि शिवे सर्व सिद्धि
प्रयच्छमें ।। दुर्गे ! किराति शवरि प्रेतासनगतेऽनघे । अनुग्रहं कुरुसदा कृपया मां
विलोकय ।। राज्यं प्रयच्छविकटे वित्तमायुः स्त्रियंशिवम् । शिवाबलि विधानेन
प्रसन्नाभव फेरवे । नमस्तेस्तु नमस्तेस्तु
नमस्तेस्तु
नमोनमः ।। ततस्तुत्वा तदुच्छिष्टं यथा काक खराश्च प्रभृतयो दुष्ट जनाभुंजीरन् तथा
रात्रावेवभूमौ निखन्य गृहमागत्य पुनर्देवतायै चन्दनपुष्पादीनि निवेद्य
विहितान्नजलं च द्वात्रिंशद्वारमभिमन्त्र्य देवतायै निवेद्य भोजनपानादिकंसुखेनकुर्यादिति
शिवाबलिं विधानम् ।।
६३.
समाज में हम प्रायः देखते हैं कि कर्मकाण्डीय दक्षिणा बकाया रह जाता
है। इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट शास्त्रीय निर्देश है—यज्ञे दक्षिणया साकं पत्रेण च फलेन च
। कर्मिणो फलदाता चेत्येवं वेदविदो विदुः ।। कृत्वा कर्म च तस्यैवं तूर्णं दद्याच्च
दक्षिणाम् । तत्कर्म फलमाप्नोति वेदैरुक्तमिदं मुने ।। मुहूर्ते समतीते तु भवेच्छतगुणा
हि सा । त्रिरात्रे तद्दशगुणा सप्ताहे द्विगुणा ततः ।। मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्राह्मणानं
च वर्धते । संवत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटिगुणा भवेत् ।। (भावार्थ यह है
कि यज्ञ की समाप्ति पर दक्षिणा संकल्प करते हुए तत्क्षण ही दक्षिणा दे दिया जाय, अन्यथा यज्ञफल की प्राप्ति
नहीं होगी और दक्षिणा में अकूत वृद्धि होने लगेगी - मास भर के विलम्ब से लक्षगुणित
हो जायेगा और साल लगते-लगते तीन करोड़ गुणा... यानी अकूतराशि।
६४.
ब्राह्मणवरण — पूजापाठ यज्ञादि हेतु सर्वप्रथम योग्य
ब्राह्मण का चुनाव करना होता है। पूर्वोक्त कसौटी पर परखते हुए विप्रचयन के पश्चात्
उसका विधिवत वरण होना चाहिए । इस सम्बन्ध में रुद्रकल्प में कहा गया है—भोजनं भोजनाधारश्छत्रोपानत्कमण्डलुः
। आसनं वसनं मुद्राकर्णभूषोपनीतकम् ।। एतद्दशविधं देयं पदं परण सिद्धये । पदाभावेत्रयं
देयं पात्रवस्त्रांगुलीयकम् ।। (भोजनार्थ अन्नादि, भोजनपात्र-जलपात्रादि सहित, छाता-जूता, कमण्डलु, आसन,
वस्त्रत्रय (धोती गमछा चादर), जनेऊ, द्रव्य और आभूषण ये दस वरणद्रव्य कहे
गए हैं। अभाव में पात्र, वस्त्र और अँगूठी प्रदान करे।
६५.
पूजा-शान्ति-यज्ञादि कार्य किससे करायें? यह प्रश्न भी अति विचारणीय
है। मनुमहाराज ने तो बड़ी कठोरता दिखलायी है— असीजीवी मसीजीवी देवलो ग्रामयाचकः
। धावकः पाचकश्चैव षडेते ब्राह्मणाधमाः ।।
न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः । होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा
।। नरके हि पतन्त्येते जुह्वन्तः स च यस्य तत् । तस्माद्वैतानकुशलो होता स्याद्वेदपारगः
।। ब्राह्मणस्त्वनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति । तस्मै हब्यं न दाताव्यं न हि भस्मनि
हूयते ।। नक्षत्रसूची खलु पापरुपो हेयः सदा सर्वसुधर्मकृत्ये...।
६६.
स्कन्दपुराण में कहा गया है- पाखण्डिनश्च पतिता ये चान्ये
नास्तिका द्विजाः । पुण्यकर्मणि तेषां वै सन्निधिर्नेष्यते क्वचित् ।।
उक्त शास्त्र वचनों का अभिप्राय किसी
ब्राह्मण विशेष को उत्कृष्ट और किसी को नीचा दिखाना नहीं है, प्रत्युत कर्म और ज्ञान
की महत्ता को लक्षित किया गया है। समान्य विचारणीय है कि क्या हम किसी डॉक्टर के पुत्र
को चिकित्सा के लिए नियुक्त कर लें...या ईन्जीनियर का बेटा ईन्जीनियर ही होगा...या
कि जज का बेटा जज की पद पर आसीन हो जायेगा? यदि ऐसा नहीं हो सकता
तो फिर किसी वैदिक-कर्मकाण्डी-ज्योतिषी-वास्तुविद का बेटा भी पैतृक गुणग्राही हो ही
जायेगा - कैसे सम्भव है? पराम्परा के निर्वाह में हम ज्ञान के
औचित्य को विसार देते हैं और मोहवश वंशानुगत (कुलपुरोहित) को बिना सोचे समझे अंगीकार
कर लेते हैं। परिणाम यह होता है कि योग्य कर्मकाण्डी ब्राह्मण के चुनाव में चूक जाते
हैं। श्रौत-स्मार्तादि समस्त कर्मों में योग्य ब्राह्मण का चयन करना चाहिए। कुलपुरोहित
यदि अयोग्य हैं, तो उन्हें आंशिक दान-दक्षिणादि देकर
क्षमा मांग ले, किन्तु उनसे
कार्य कराना उचित नहीं है।
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क्रमशः...
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