दान-धर्म
की बारीकियाँ
“ मन्दिरों
में दान देना महापाप है ”—
यदि ये कहा जाए तो तथाकथित आस्थावानों को बड़ा कष्ट होगा । जरा भी धैर्य-धारण न कर
सकने वाले भक्तगण तो बिलकुल उबल पड़ेंगे और हो सकता है कि आलेख को पूरा
पढ़ने-समझने से पहले ही कोसने लग जायें। ऐसा भी हो सकता है कि अभद्र अभिव्यक्तियाँ
जारी हो जाएँ। अतः उन महानुभावों से मेरा निवेदन है कि पहले आलेख को धैर्यपूर्वक
पढ़ें, फिर अपना विचार बनावें।
...धर्मस्यतत्त्वंनिहिते
गुहायाम्... – बड़ा
ही गूढ़ संदेश है। धर्म को समझने और परिभाषित करने में कदम-कदम पर हम चूक जाते
हैं। प्रायः घोर अधर्म को ही नासमझी में धर्म समझ लेते हैं। अतः एक बात का सदा
ध्यान रखना चाहिए कि धर्म देश, काल, पात्र सापेक्ष है। अर्थात् व्यक्ति, स्थान और समय के अनुसार आशु परिवर्तनशील
है। हमारी समझ की चूक का कारण भी यही है। एक धर्म होता है – आपदधर्म—जो अति
तात्कालिक विशिष्ट है। सीधे-सीधे कहें—आपातकाल में पालनीय धर्म विशेष । न कि
सामान्य प्रयोजनीय ।
विविध धर्मकार्यों में दान
भी एक है। यहाँ हम सिर्फ दान पर ही विचार करने जा रहे हैं। अन्यान्य शास्त्र-वचनों
की खोज और मीमांशा से कहीं अधिक स्पष्ट है श्रीमद्भगवद्गीता का ये संदेश, जिस पर
प्रत्येक दानियों को ध्यान देना चाहिए । श्रद्धात्रयविभागयोग नामक गीता के
अध्याय १७, श्लोक-
२०,
२१,
२२ में दान को सात्त्विक, राजस, तामस
तीन भागों में विश्लेषित करते हुए, श्रीकृष्ण कहते हैं —
दातव्यमिति
यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे
।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं
सात्त्विकं स्मृतम् ।।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं
फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं
स्मृतम् ।।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च
दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्
।।
अर्थात् दान देना कर्तव्य है—ऐसे
भाव से जो दान समुचित देश, काल, पात्र के उपलब्ध होने पर निष्कामभाव से दिया जाता
है, उसे सात्त्विक दान कहा गया है। ये सात्त्विक दान वस्तुतः दान होते हुए भी दान नहीं
है, प्रत्युत त्याग है। एक गुना दान का सहस्रगुना पुण्य मिले—इस भाव (विचार) से जो
दान दिया जाता है, वो सात्त्विक दान भला कैसे हो सकता है? दान के प्रति मोह बना रह गया, फलाकांक्षा बनी रह गयी । दान के बदले यदि
कुछ पाने की कामना बनी रह गयी, तो वह राजसी दान ही कहलायेगा, न कि सात्त्विक । इसी
भाव को अगले श्लोक में स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि जो दान
क्लेशपूर्वक, प्रत्युपकार के लिए, किसी फल-प्राप्ति-कामना से किया जाय वह राजसी
दान है। आगे तामसी दान को परिभाषित करते हैं—जो दान बिना सत्कार के अवज्ञापूर्वक, अयोग्य
देश-काल-पात्र को दिया जाए वह तामसी दान है। हालांकि विद्वानों का ये भी मत है कि
कलियुग में तो दान ही एकमात्र धर्म है। अतः जैसे भी हो दान दिया जाना चाहिए। इससे
त्याग की प्रवृत्ति बनेगी और कल्याण होगा।
किन्तु ध्यातव्य है कि— कुपात्रदानाच्च
भवेद्दरिद्रो दारिद्र्य दोषेण करोति पापम् । पापप्रभावान्नरकं प्रयाति
पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ।। भाव ये है कि कुपात्र को दिये गए दान का परिणाम
ये होता है कि बारम्बार दरिद्र होकर पाप कर्मों में प्रवृत्त होना पड़ता है।
दान की उक्त कसौटी पर कितने दान
और कितने दानी खरे उतरेंगे—विचारणीय है।
दानपट्टिका पर नाम खुदवाने
और सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने के ध्येय से ही ज्यादातर दान दिए जाते हैं। इतना
दान किए, इतनी सेवा किए, इतना त्याग किए—की बड़ी लम्बी सूची होती है दानियों के
पास । आजकल तो फोटो-वीडियो में दान कैद रखे जाते हैं, ताकि शेखी बघारने में सुविधा
हो। धारा 80जी के तहत टैक्स चोरी के लिए
दान एक ढाल की तरह प्रयोग होता है, इसे भलीभाँति जानते होंगे। व्यापारी वर्ग में “धर्मादा” निकालने का चलन है। दिन-रात व्यापार के नाम
पर सफेद झूठ बोलते, ठगी करते, कालाबाजारी करते, खाद्य से लेकर औषधि तक मिलावट करते
व्यापारी धर्मखाता खूब चलाते हैं - ये सोचकर कि इससे पाप कटेगा । लोकतान्त्रिक
चुनावों में दानियों की बाढ़ आ जाती है। भ्रष्ट से भ्रष्ट नेता चन्दे की रकम से
चुनाव जीतता है और फिर उसके आगामी भ्रष्टाचार का मोहरा बनता है समूचा राष्ट्र । छोटे-बड़े
उद्योगपति अपनी औकातभर चुनावी चन्दा इसीलिए देता है, ताकि आगे उसे लूटने का अवसर
मिले । यानी कि जितना बड़ा दानी उतना बड़ा लुटेरा,उतना बड़ा लोभी । मजे की बात ये है
कि न तो इस दान को ही प्रमाणित कर सकते
हैं और न इस लूट को ही।
त्योहार-उत्सव बहुल देश भारत में पूजा-पंडालों का वजट आजकल
लाखों-करोड़ों में होता है। तरह-तरह के
यज्ञानुष्ठान भी खूब होते रहते हैं, आयोजक मुक्तहस्त दान बटोरते हैं । इन सब
कार्यों से धर्मार्जन कितना होता है, ये कहना जरा कठिन है, किन्तु सामाजिक मनोरंजन
के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी नयी गति अवश्य मिलती है। परन्तु इसके दूसरे पक्ष को
भी नकारा नहीं जा सकता । धार्मिकता की अन्धी दौड़ में कलश और मूर्ति-विसर्जन के
नाम पर नदी, तालाबों को प्रदूषित करते हैं। कर्कश डी.जे. के बिना तो इक्कीसवीं सदी
के देवता-देवी प्रसन्न ही नहीं होते। और पर्दे के पीछे चलता है – जूए-शराब का दौर
भी। “ रावणदहन की
बीमारी ” से हर वर्ष हमारा पर्यावरण कितना बीमार होता है—शायद
ही इस पर कोई विचार करता हो। ये सारे खर्चे चन्दे उगाही से ही तो होते हैं। हम इसे
भी दान ही समझ लेते हैं।
धर्मशास्त्रों ने दान को
बहुत महिमामण्डित किया है, तो बहुत ही सावधानी भी निर्दिष्ट हैं। आपका दान धोखेवाज
भी हो सकता है। आप ये कह कर नहीं बच सकते कि हमने तो शुद्धभाव से दान दिया है...हमने
तो गरीब को भोजन-वस्त्र के लिए दान दिया है। यदि आपके दान के पैसे से कोई जुआ
खेलता है, गांजा-शराब पीता है, अस्त्र-शस्त्र खरीदता है, तो उससे होने वाले पाप के
लिए निश्चित ही आप भी परोक्ष उत्तरदायी हैं। ये आपको पता भी नहीं चलेगा कभी और
अज्ञात दुष्परिणाम भुगतते रहेंगे । आपने पूजा-पंडाल के लिए दान दिया । उस पंडाल
में बजने वाले डी.जे.की कर्कश ध्वनि से किसी हृदयरोगी के प्राणपखेरु उड़ गए । आप
निश्चित ही उस हत्या के जिम्मेवार हो गए, अनजाने में ही।
ज्योतिषशास्त्री स्पष्ट कहते
हैं— द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वादशेश, षष्ठेश और अष्टमेश से सम्बन्धित वस्तुओं के
दान से बचना चाहिए। जैसे— मकर लग्न वाले यदि चाँदी, मोती, चीनी, चावल, श्वेतवस्त्र
आदि दान करते हैं, तो उनके लिए घातक हो सकता है। उन्हें कुण्डली में चन्द्रमा के
बल और स्थिति की जाँच जरुर करा लेनी चाहिए । किन्तु व्यवहारिक रुप से ऐसा होता
कहाँ है? कोई सोचता-जानता-विचारता कहाँ है?
अब प्रारम्भिक बात पर आते
हैं—मन्दिरों में दान देना महापाप है। गहरे अर्थ में विचार करें तो पायेंगे कि स्वतन्त्र
भारत में मन्दिरों की स्थिति परतन्त्रता से भी बदतर है। लगभग सभी बड़े मन्दिर
धार्मिकन्यासवोर्ड के अधीन हैं और न्यासवोर्ड सरकार के अधीन । सरकार के कारनामों
से हम-आप सभी अवगत हैं। नेता बनने के लिए यूँ ही इतनी बेताबी नहीं होती है । सारे
बगुले नदी किनारे मछली के लिए टकध्यान लगाये होते हैं। भोली जनता की गाढ़ी कमाई से
चुकाये गए अनाप-सनाप टैक्स से सांसद-पार्षद, पदाधिकारी ऐशोमौज़ करते हैं। इनमें
इक्केदुक्के ही वास्तव में जनसेवक हैं, बाकी के तो लुच्चे-लफंगे,रक्तचूसक ।
धर्मभीरु, धर्मप्राण भारत
में मन्दिरों की संख्या अनगिनत है। बड़े (सूचीबद्ध) मन्दिर भी हजारों में हैं। इन
मन्दिरों में अरबों-खरबों की राशि दान में आती है। एक उदाहरण के तौर पर कह सकता
हूँ कि यदि देश की पूरी अर्थव्यवस्था को मन्दिरों के भरोसे छोड़ दिया जाय, तो बड़े
सुखचैन से देशवासियों का जीवन वसर हो सकता है। स्पष्ट है कि हमारी मन्दिरों में
अकूत सम्पदा है। आज भी भारत सोने की चिड़िया है, किन्तु खेद की बात है कि हुक्मरानों
के मुट्टी में कैद होकर फड़फड़ा रही है।
उदाहरणार्थ कुछ नमूने देखें— १. तिरुपति बालाजी मंदिर की वार्षिक आय छः सौ पचास करोड़ रुपये है। मन्दिर के पास १०००करोड़
रुपये की फिक्स्डडिपॉजिट भी है, साथ ही विविध बैंकों में मन्दिर का तीन सौ किलो
सोना जमा है।
२.श्रीसाईबाबासंस्थान ट्रस्ट २०१७-१८
वित्तवर्षीय ऑडिटरिपोर्ट के अनुसार इसकी कुल सम्पत्ति दो हजार छः सौ तिरानबे करोड़,
उन्नासी लाख रुपये आँकी गई है। ट्रस्ट ने चार सौ पचास करोड़ रुपये का निवेश भी कर
रखा है। छः लाख रुपये मूल्य के चाँदी के सिक्के भी हैं इसके पास । इस मन्दिर की
वार्षिक आय करीब ३५०करोड़ रुपये है।
३.पुरी जगन्नाथ मंदिर की सम्पत्ति तीनहजार करोड़ रुपयों से भी अधिक है। इसके
आलावा श्री जगन्नाथ मंदिर के पास राज्य और राज्य से बाहर ६०,४१८ एकड़ जमीन भी है।
४. वैष्णोदेवी मन्दिर की वार्षिक आय ५०० करोड़ रुपये है। यहाँ हर साल सैकड़ों किलो
सोने-चाँदी के आभूषण चढ़ाए जाते हैं।
५.स्वर्ण मंदिर की वार्षिकआय भी करीब वैष्णोदेवी जितनी ही है।
६.मुम्बई स्थित सिद्धिविनायक मन्दिर में वार्षिक करीब अस्सी करोड़ रुपये का
चढ़ावा आता है। इसके पास सवासौ करोड़ रुपये का फिक्स्डडिपॉजिट भी है।
७.
द्वादशज्योतिर्लिंगों में प्रथम- सोमनाथ मन्दिर की वार्षिक आय १० करोड़ रुपये है।
८.
तमिलनाड, मदुरै स्थित मीनाक्षी मन्दिर की वार्षिक आय करीब छः करोड़ रुपये से अधिक
है।
९.वाराणसी
का काशी विश्वनाथ मन्दिर द्वादशज्योतिर्लिंगों में एक है। इसकी वार्षिक आय भी करीब
छःकरोड़ रुपये है।
१०.
हनुमान मन्दिर, पटना की वार्षिक आय करीब बारह करोड़ रुपये है।
इन अरबों-खरबों की सम्पदा पर गिद्ध-दृष्टि लगी रहती है। मन्दिर की व्यवस्था
और रखरखाव के नाम पर भीख की तरह कुछ छोड़ दिया जाता है, दानपेटी में। बाकी के रकम
झपट लिए जाते हैं ।
ये सच है कि कई मन्दिरों के आय का सदुपयोग विद्यालय, अस्पताल, अनाथालय आदि
चलाने के लिए किए जाते हैं। किन्तु ये भी उतना ही सत्य है कि मन्दिर की दानराशि का
प्रयोग चर्चो और मस्जिदों के विकास के लिए भी जाता है। और सबसे बड़ी दुःखद बात ये
है कि मन्दिरों को छोड़कर, शेष धार्मिक स्थलों (चर्च आदि) पर “दानझपटथ्योरी” लागू ही नहीं होता।
हमारा देश धर्मनिर्पेक्षता सिद्धान्त का पालक-पोषक है न । और आप जानते ही
हैं कि धर्मनिर्पेक्षता की परिभाषा क्या है। सुनियोजित ढंग से वर्ग विशिष्ट को
पोषित करते रहना ही हमारी धर्मनिर्पेक्षता है। एक देश में दो संविधान वैध हो सकते
हैं, तो एक शरीर में दो जुबान क्यों नहीं हो सकती ! एक जुबान कमरे में बैठ कर बोलने के काम आता है और दूसरा
मंच पर चढ़कर भाषण देने या मीडिया के सामने बातें करने के लिए।
अब जरा एक और मंच पर आपको लिए चलते
हैं—बाबाओं के मंच पर। कबीरवाणी तो पढ़े ही होंगे—जाति न पूछो साधु की...। चूल्हे
की राख लपेटे जटाजूट-जीवर-चीमटाधारी से भला आप वर्ण-जाति की चर्चा ही कैसे करेंगे ? पाप लगेगा न ?
सच्चाई ये है कि हमसभी अपनी विविध कामनाओं से अन्धे हैं। वेटा चाहिए, धन
चाहिए, शत्रु की पराजय चाहिए, योग्यता हो न हो मन माफिक नौकरी चाहिए, काले-कलूटे
वेटे के लिए भी सुराहीदार गर्दन वाली मिल्कीवाइट बहू चाहिए, टीनेजरों को लवर चाहिए...।
चाहिए...चाहिए की इस भीड़ में बुद्धि-विवेक कुन्द हो चुका है। और ऐसे में बहुरुपियों
की तरह बाना बनाये बाबाओं की बाढ़ आ गयी है
। भाऊक भक्तों के कलेजे से लहू निकाल लेने की कला उन्हें अच्छी तरह आती है। अगली
कतार में बैठी महिलाओं से दान के नाम पर जेवर उतरवा लेने की कहानी अभी बहुत पुरानी
नहीं हुयी है। नामीगिरामी बाबाओं के विविध कारनामें भी जग-ज़ाहिर हैं।
मन्दिरों का एक पक्ष और भी है—आए दिन
सड़क किनारे सरकारी जमीन पर सिन्दूर लगाकर दो-चार ईंटे रख दी जाती हैं और वहाँ
झोपड़ी डालकर एक गंजेड़ी बैठ जाता है। आसपास के लफंगों को लेकर, अड्डेबाजी शुरु हो
जाती है। दुःसाहस पूर्वक सड़क पर बेरियर लगाकर चन्दे की उगाही भी दवंगयी से होने लगती
है। और फिर कालनेमी की मायाजाल का विस्तार होने लगता है। अन्धभक्तों की भीड़ जुटने
लगती है। बाबा भभूत और ताबीज बांटते-बांटते प्रसिद्ध हो जाते हैं।
अतः आप इस भ्रम में न रहें कि घोर कलिकाल में धार्मिकता की बाढ़ आ गयी है। धर्म तो कहीं किसी कन्दरे में पड़ा सिसक रहा
होगा। चारो ओर फैले “कालनेमियों” की जाल से भाउक भक्तों का उबरना बड़ा मुश्किल हो
रहा है।
दूसरों को मन्दिर जाते देख कर, सत्संग जाते देखकर, दान करते देख कर आप भी
भाउक न हो जाएँ । देखा-देखी की अन्धी दौड़ में रेस का घोड़ा न बने।
किसी भूखे को भोजन दे दें, जरुरत हो तो वस्त्र दे दें । किसी गरीब की
झोपड़ी पर छप्पर का इन्ज़ाम कर दें । किसी निर्धन की कन्या का विवाह करा दें। किसी
लाचार रोगी का इलाज करा दें । और इन सबसे समय बचे तो बन्द कमरे में आँखें मूंद कर
प्रभु का ध्यान करें । वो आपके भीतर ही कहीं छिपा बैठा है । मन्दिर के ईंट-पत्थरों
की कैद से उबकर बहुत दूर चला गया है ।
जो भी करें बिलकुल व्यक्तिगत तौर पर करें। किसी संस्थागत बैनर और कैमरे की
बाट न जोहें। गांठ बाँध लें— ये बैनर और फोटो चित्रगुप्त के दरवार में रत्तीभर भी
काम आनेवाले नहीं हैं ।
और इन महामन्दिरों का दान—ये तो सीधे रौरवनरक का द्वार ही खोल देगा । अस्तु
।
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