हृदयरोग :-: ज्योतिषीय दृष्टि
आधुनिक
विचार-धारा से प्रभावित व्यक्ति प्रायः अटकल लगा लेते हैं कि हृदयरोग आधुनिक
चिकित्सा-विज्ञान की ही खोज है। कुछ ऐसा ही अनुमान कैंसर-एड्स जैसी बीमारियों के
बारे में भी लगाया जाता है; किन्तु
ये बात बिलकुल निराधार है और उन लोगों की सोच है, जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय
ग्रन्थों का अवलोकन नहीं किया है और सुनी-सुनायी बातों में आकर अपना आँख-कान-दिमाग
सबकुछ पश्चिम की ओर मोड़ लिया है।
अतिप्राचीन
ग्रन्थ ऋग्वेद से लेकर पुराण, वैद्यक, यहाँ तक कि ज्योतिषीय ग्रन्थों में भी
हृदयरोग की पर्याप्त चर्चा मिलती है। चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट, माधवनिदान, शार्ङ्गधरसंहिता
से लेकर पराशर और वराहमिहिर तक ने हृदयरोग की चर्चा की है।
यहाँ
हम हृदयरोग के ज्योतिषीय पक्ष पर एक नजर डालते हैं। ज्योतिषशास्त्र रोगोत्पत्ति के
मूल में ‘कर्म’
को स्वीकारता है। मुख्यरुप से कर्मज और दोषज दो प्रकार की व्याधियाँ कही गयी हैं।
एक तीसरी भी है - आगन्तुज व्याधि। वस्तुतः ज्योतिष ‘कालज्ञान’
का शास्त्र है , जिसका मूलाधार है ग्रह-नक्षत्रादि ।
कालपुरुष
के विभिन्न अंगों में स्थित ग्रह-नक्षत्र-राश्यादि और उनकी प्रकृति, धातु, रस, अंग,
विन्यास, बलाबल के आधार पर रोगों का विनिश्चय (निदान) और फिर उनके
उपचार-निर्देश (वैदिक, तान्त्रिक, मान्त्रिक,
भैषजीय आदि) विशद रुप से हमारे प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।
श्रीमद्भागवतपुराण
के दशम स्कन्धान्तर्गत रासपंचाध्यायी प्रसंग में हृदयरोग - नाश हेतु भगवान
भास्कर की आराधना की चर्चा मिलती है। वस्तुतः हृदयरोग से सूर्य का बड़ा ही सन्निकट
सम्बन्ध है। वेदों में सूर्य को आत्मा कहा गया है और आत्मा का निवास हृदय-स्थल में
स्वीकारा गया है। सूर्यपुत्र सौरि (शनैश्चर) और भूमिसुत मंगल तथा देवगुरु वृहस्पति
का भी कारकत्व झलकता है हृदयरोग में ।
राहु-केतु की युति, अवस्थिति वा दृष्टि को भी नकारा नहीं जा सकता । और सबके अन्त
में चन्द्रमा मनसो जाता...को कैसे भूल सकते हैं। हृदय के साथ चन्द्रमा का
जुड़ाव भी ध्यातव्य है।
हृदयरोग-कारक-ग्रहों
में मुख्यरुप से चार प्रकार की स्थितियाँ लक्षित होती हैं— सूर्य-शनि, शनि-मंगल,
मंगल-गुरु और शनि-मंगल-राहु। इनकी भावगत अवस्थिति, युति, दृष्टि आदि का प्रभाव
पड़ता है, जिसके परिणाम स्वरुप जातक हृदयरोग का न्यूनाधिक शिकार होता है। उक्त चार
प्रकार के ग्रह-योगों के आधार पर चार प्रकार की हृदयरोग-स्थिति बनती है— १.सामान्य
हृदयरोग, २.हृदयाधात,
३.हृच्छूल,
४.रक्तचाप
।
जन्मांकचक्र
में चतुर्थभाव से हृदय सम्बन्धी विचार की बात की जाती है। किन्तु ये पर्याप्त नहीं
है। चतुर्थभाव की प्रधानता है, किन्तु पंचम, षष्ठम, अष्टम, दशम और द्वादश भाव में
उक्त ग्रहों की स्थिति का विचार भी गहन रुप से करना चाहिए।
कालपुरुष
का हृदयस्थान कर्कराशि है और हृदय ही रक्तवहसंस्थान का मुख्य अवयव है। ग्रहों में
मंगल का सीधा सम्बन्ध है रक्त से। हृदय में ताप और चाप का नियंत्रण तो सूर्यात्मज
शनिदेव ही करेंगे न ! सूर्य
की अपनी राशि है सिंह और सिंहराशि कालपुरुष के औदरिक अवयव और वायुतत्त्व का नियामक
है।
यही
कारण है कि जन्मांकचक्र के चतुर्थ और पंचम भाव में कर्क वा सिंह राशि की अवस्थिति
कतिपय हृदयरोगों का संकेत देती है। किन्तु इसका अर्थ ये न समझ लिया जाये कि
मेषलग्न के सभी जातकों को हृदयरोग हो ही जायेगा ।
दशम
और द्वादश में भी कर्क वा सिंह राशि का होना हृदयरोगकारक कहा जाता है। स्थानों वा
ग्रहयोगों का विचार सिर्फ जन्मांकचक्र से ही न करके, नवांश और त्रिशांश से भी करना
विहित है - ऐसा आचार्य वराहमिहिर का कथन है।
हृदयरोगकारक
कुछ अन्यान्य ग्रह-स्थितियाँ भी हैं। यथा—
१.आयुर्वेदग्रन्थ
भावप्रकाश में कहा गया है कि राहु यदि द्वादशस्थ
हो तो हृच्छूल हो सकता है।
२.
आयुर्वेदग्रन्थ गदावली के अनुसार सिंहराशि के द्वितीय द्रेष्काण में यदि जन्म हो
तो हृच्छूल हो सकता है।
३.इसी
ग्रन्थ में ये भी कहा गया है कि चतुर्थेश चतुर्थभावगत ही हो और पापयुत वा दृष्ट हो तो भी हृच्छूल हो
सकता है।
४.जन्मांकचक्र
में सूर्य मकर, वृष, वृश्चिक वा सिंह राशिगत हो तो
हृदयरोग हो सकता है।
५.निर्बल,
विरामसन्धिगत वा सुप्त शनि की स्थिति हृदयरोग
कारक बन सकती है। तथा अष्टमभावगत शनि भी हृदयरोग
के
कारक बन सकते हैं।
६.
तृतीयेश यदि राहु वा केतु युत वा दृष्ट हों तो हृदयरोग हो
सकता है।
७.
चतुर्थभाव में कोई भी पापग्रह हों साथ ही चतुर्थेश पापयुत हों
तो हृदयरोग हो सकता है।
८.
सूर्य षष्ठेश बनकर चतुर्थभावगत स्थित हों तो भी हृदयरोग हो
सकता है।
९.
कुम्भराशिगत सूर्य धमन्यावरोध उत्पन्न करते हैं।
१०.शुक्र
मकरराशि के हों तो भी हृदयरोग हो सकता है।
११.जातक
पारिजात एवं सारावली में कहा गया है कि चन्द्रमा
शत्रुक्षेत्री
हों तो हृदयरोग हो सकता है।
ध्यातव्य
है कि ग्रह-मैत्री-चक्र में चन्द्रमा का कोई शत्रु नहीं कहा गया है। किन्तु हां
चन्द्रमा से बुध, शुक्र और शनि को एकपक्षीय शत्रुता अवश्य है। तदनुसार
पंचधामैत्रीचक्र में स्थिति का निश्चय कर लेना चाहिए।
ये
तो हुयी हृदयरोग की स्थितियाँ। किन्तु ये प्रभावी कब होंगी ये विचारणीय विन्दु है।
ध्यातव्य है कि कलिकाल में पराशर-मत की विशेष मान्यता है— कलौ पाराशरस्मृतिः।
ये बात सिर्फ ‘स्मृति’
के सन्दर्भ में ही मान्य न होकर ज्योतिष में भी उतना ही महत्वपूर्ण है। महर्षि
पराशर ने शुभाशुभग्रहों के प्रभाव-काल के लिए तत्तत पंचदशाओं (महा, अन्तर, प्रत्यन्तर,
सूक्ष्म और प्राण) को ही माना है। दशाओं में अनेकानेक मत होते हुए भी विंशोत्तरी
को वरीय सूची में रखा गया है। अतः निर्विवाद रुप से कहा जा सकता है कि जन्मांकचक्र
के साथ-साथ चलितांक, नवांश और त्रिशांश का गहन अवलोकन करते हुए, दशासाधन करके
रोगोत्पत्ति वा प्रभाव-काल का निश्चय करना चाहिए तथा कारक ग्रहों के बलाबल के
अनुसार रोग-स्थिति को भाँपना चाहिए। इसके साथ ही उक्त कारकग्रहों के अतिरिक्त भी
यदि कोई मारकेश की स्थिति बनती हो तो उसका भी सूक्ष्मता से विचार कर लेना चाहिए।
ग्रहशान्ति
एवं रोगनिवारण—
१.
कारण का मारण—बहुश्रुत कथन है। रोग
के कारक का सम्यक् ज्ञान करके समुचित उपचार करना चाहिए।
२.
सुविधा और स्थिति के अनुसार योग्य
दैवज्ञ के संरक्षण में वैदिक, तान्त्रिक वा पौराणिक मन्त्रों द्वारा कारकग्रह की
यथोचित शान्ति करानी चाहिए।
३.
ग्रहों का जप, होम, भैषजस्नान, दानादि
शास्त्र सम्मत मार्ग कहे गए हैं।
४.
रत्न-धारण, यन्त्र-धारण,
यन्त्र-पूजन
आदि भी उपाय प्रशस्त हैं।
५.
महामृत्युञ्जय की क्रिया को प्रायः
अमोघ मान लिया जाता है और सीधे उसी पर निर्भर हो जाया जाता है, किन्तु ये नियम
सर्वत्र लागू नहीं होना चाहिए। विभागीय कारवायी की असफलता के पश्चात ही इसका
प्रयोग किया जाना चाहिए।
६.
योग्य तान्त्रिक के निर्देशन में
ललितादेवी की सम्यक् उपासना अति लाभकारी है।
७.
रासपंचाध्यायी तथा सूर्यसूक्त का
पाठ भी शास्त्र-सम्मत है।
८.
आयुर्वेदीय औषधियों पर यथोचित
मान्त्रिक प्रयोग करके, प्रभावित व्यक्ति को कुछ समय तक खिलाना भी लाभदायक होता
है। अस्तु।
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