संस्कार परिचय
संस्कार
शब्द सम् उपसर्गपूर्वक कृञ् धातुमें
घञ् प्रत्यय लगानेपर ‘ संपरिभ्यां करोतौ भूषणे’ पाणनीय
सूत्रानुसार भूषण अर्थ में ‘सुट् ’ करनेपर सिद्ध होता है। संस्करण, विमलीकरण,
विशुद्धिकरण, परिष्करण इत्यादि अर्थों में इसका प्रयोग होता है। काशिकावृत्ति के अनुसार उत्कर्ष के आधान को
संस्कार कहते हैं— उत्कर्षाधानं संस्कारः । न्यायशास्त्र के अनुसार गुणविशेष
का नाम संस्कार है, जो तीन प्रकार का होता है—वेगाख्य, स्थितिस्थापक एवं भावनाख्य।
मेदिनीकोश में प्रतियत्न, अनुभव, मानसकर्म आदि अर्थ कहे गए हैं। सामान्य रूप से
‘प्रभाव’ वा ‘छाप’ के अर्थ में भी
इसका प्रयोग करते हैं—कैसा संस्कार है...क्या संस्कार दिया है माता-पिता
ने...इत्यादि।
आश्वलायनगृह्यसूत्र,
बौधायनगृह्यसूत्र, पारस्करगृह्यसूत्र, वाराहगृह्यसूत्र, वैखानसगृह्यसूत्र, व्यासस्मृति,
मनुस्मृति, शंखस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, संस्कारप्रकाश, संस्कारदीपक,
संस्कारमयूष इत्यादि ग्रन्थों में संस्कार विषयक विशद चर्चायें मिलती है।
आर्यावर्तीय सनातन परम्परा में संस्कारों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण
माना गया है। यहाँ दोषों का मार्जन एवं कमियों को दूर करके धर्मार्थकाममोक्षादि
के योग्य बनाने वाली क्रिया को
संस्कार कहा गया है। संस्कारो नाम स भवति यस्मिन् जाते पदार्थो भवति योग्यः
कश्चिदर्थस्य— संस्कार वह है, जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य
के योग्य हो जाए।
याज्ञवल्क्यस्मृति
आचाराध्याय २-१३ में कहा गया है—एवमेनः शमं याति बीजगर्भसमुद्भवम्। (बीज और
गर्भजनित दोषों का शमन होता है संस्कारों से) प्रत्यक्षतः मनुष्येतर प्रसंगों में
भी विविध संस्कार-प्रक्रिया अपनायी जाती है। यथा— औषधि-निर्माण हेतु पारदादि
धातुओं का संस्कार करते हैं। भूगर्भ से प्राप्त हीरे को तरह-तरह से काट-छांट-तराश
कर आभूषण-योग्य बनाते हैं। खेत में उत्पन्न अन्नादि को काटने, कूंटने, धोने,
सुखाने, पीसने आदि विविध प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही खाद्य योग्य बनाया जाता
है। ये सभी संस्कार ही हैं। इसी भाँति मनुष्य को भी संस्कारित करने की आवश्यकता
बतलायी गयी है शास्त्रों में।
ध्यातव्य
है कि जन्म-जन्मान्तर के शुभाशुभ कर्मों के संस्कार हमारे अन्दर सूक्ष्म रूप से
संचित रहते हैं। चौरासी लाख योनियों में एक मात्र मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है, शेष
सभी भोग (परिणाम) योनियाँ हैं। मनुष्ययोनि की उपादेयता इसी में है कि संचित
प्रभावों की शुद्धिकरण करे। क्रमशः कर्मकाण्डीय व्यवस्थाओं से गुजरते हुए, तन्त्र-योग-साधना
क्रियाओं द्वारा संचित कर्मों का विनाश (क्षय) और संयमन ही मोक्षमार्ग में अग्रसर
करता है। इस सम्बन्ध में मनु महाराज कहते हैं—
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।
कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च ।। भाव ये है
कि वेदोक्त कर्मोंद्वारा द्विजगणों का शरीरसंस्कार करना चाहिए।
तन्त्रवार्तिक के
अनुसार संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं—योग्यतां
चादधानाः क्रियाः संस्काराः इत्युच्यन्ते। गृह्यसूत्रादि शास्त्र कहते
हैं कि द्विजमात्र को अपनी-अपनी वेदशाखानुसार संस्कार कराना चाहिए—स्वे स्वे
गृह्ये यथा प्रोक्तास्ताथा संस्कृतयोऽखिलाः । इन्हीं बातों को महानिर्वाणतन्त्र
में शिव-पार्वती संवादक्रम में कहा गया है कि संस्कार के बिना शरीर शुद्ध नहीं
होता। अशुद्ध व्यक्ति देवपित्रादि (हव्य-कव्य) कार्यों का अधिकारी नहीं होता। अतः
लोक-परलोक में कल्याण की इच्छा वाला विप्रादि वर्णों को अपने-अपने कुलाचारानुसार
अत्यन्त प्रयत्न पूर्वक संस्कारकर्मों का सम्पादन करना चाहिए। यथा—
संस्कारारेण विना देवि
देहशुद्धिर्न जायते।
नासंस्कृतोऽधिकारी स्याद्दैवे
पैत्र्ये च कर्मणि।।
अतो विप्रादिभिर्वर्णैः
स्वस्ववर्णोक्तसंस्क्रिया।
कर्तव्या सर्वथा यत्नैरिहामुत्र
हितेप्सुभिः ।।
अतः संस्कार
नितान्त अपेक्षित हैं। इससे शारीरिक एवं मानसिक मलों का अपाकरण होकर आध्यात्मिक
पूर्णता की सिद्धि होती है, जो मानवजीवन का परम लक्ष्य है।
स्पष्ट
है कि संस्कार का प्रयोजन शरीर की वाह्याभ्यन्तर शुद्धि है। वाणी, विचार, कर्म की
सम्यक् शुद्धि संस्कारों की उपादेयता है। वस्तुतः ‘व्यक्ति’ के निर्माण की
क्रमिक प्रक्रिया है—संस्कार। संस्कारों की महत्ता की प्रमाणिकता हेतु स्मृति का
ये वचन
पर्याप्त है— जन्मना
जायते शूद्रः संस्करात् द्विज उच्यते।
हालाँकि ये
श्लोक काफी विवादित रहा है, आधुनिक विचारकों या कहें नासमझों के बीच, जो पढ़ते कम
हैं, गुनते बिलकुल नहीं और बोलते बहुत ज्यादा हैं।
किंचित्
शब्द भेद से इन्हीं बातों का समर्थन निरूक्तकार महर्षि यास्क के वचनों में भी
मिलता है—
जन्मना जायते शूद्रः संस्करात् भवेत् द्विजः।
वेद पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः।।
स्पष्ट है कि
जन्मजात सभी शूद्रवत हैं। (यहाँ शूद्र और शूद्रवत के सूक्ष्म भेद पर ध्यान दें)। द्विजत्व,
विप्रत्व और ब्रह्मणत्व क्रमिक रूप से संस्कार और कर्म आधारित हैं। किंचित्
भाव-भेद सहित उक्त बातें ब्रह्मपुराण में भी कही गयी हैं—
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया वापि विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते।।
यहाँ ब्राह्मण
शब्द उपलक्षण रूप में प्रयुक्त है, न कि सामान्य अर्थ में। भाव ये है कि ब्राह्मण-ब्राह्मणी
संयोग से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण, क्षत्रिय युगल से उत्पन्न क्षत्रिय और वैश्य
युगल से उत्पन्न वैश्य है। इनमें क्रमिक रूप से संस्कार बल प्रदान करके द्विजत्व
की प्राप्ति होती है। उपनयनादि के पश्चात् वेदादि पठन का अधिकार प्राप्त होता है, जिससे
विप्रत्व की सिद्धि होती है। उक्त तीनों की सिद्धि हो जाने पर उसे श्रोत्रिय कहा
जाता है।
ध्यातव्य
है कि संस्कारयुक्त निम्न वर्णजात भी ब्राह्मण हो सकता है और संस्कारहीन विप्र भी
शूद्र हो सकता है। विविध पुराणों में अनेकानेक ऐसे प्रसंग हैं, जहाँ संस्कार की
महत्ता और गरिमा सिद्ध की गयी है। वस्तुतः संस्कार हमारा कायिक-वाचिक-मानसिक संशोधन-प्रक्रिया
है।
सामान्यतः संस्कार के दो भेद कहे गए हैं—मलापनयन और गुणाधान । कुछ विद्वानों ने इसे तीन भागों में विभाजित किया है—दोषमार्जन (दोषापनयन), अतिशयाधान और हीनांगपूर्ति। वस्तुतः दोष (मल) को दूर करके गुण का आधान करना—ये दो ही मुख्य संस्कार हैं। जैसे दर्पण पर पड़ी धूल को पोंछ कर स्वच्छ करना फिर उसे रंग-रोगन से सुन्दर बनाना—ये दो कार्य हुए।
मनुष्य सृष्टि का उत्कृष्टतम प्राणी
है। अपने संस्कारों और कर्मों के परिणाम से इसे मोक्ष का अधिकारी कहा गया है। अतः
मनुष्य को संस्कारित करना अति आवश्यक है। ऊपर कहे गए मुख्य दो विभागों (प्रकारों-क्रियाओं)
के आधार पर ही मनुष्य के लिए कई आवश्यक संस्कार सुझाए गए हैं।
भले ही विभिन्न
गृह्यसूत्र एवं स्मृतिग्रन्थों में संस्कारों की प्रचुर चर्चा है; किन्तु इसकी निश्चित संख्या पर ऋषिगण एकमत
नहीं हैं।
गौतम स्मृति
में संस्कारों की संख्या ४० कही गयी है। यथा— गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनं
जातकर्म नामकरणान्नप्राशन-चौलोपनयनं चत्वारि वेदव्रतानि स्नानं सहधर्मचारिणीसंयोगः
पञ्चानां यज्ञानामनुष्ठानमष्टका पार्वणं श्राद्धं श्रावण्याग्रहायणी
चैत्र्याश्वयुजीति सप्त पाकसंस्थाः अग्न्याधानमग्निहोत्रं दर्शपौर्णमासौ
चातुर्मास्यान्याग्रयणेष्टिर्निरूढपशुबन्धः सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञसंस्थाः
अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थः षोडशी वाजपेयोऽतिरात्र आप्तोर्याम इति सप्त
सोमसंस्था इत्येते चत्वारिंश-त्संस्काराः । अष्टावात्मगुणा दया सर्वभूतेषु
क्षान्तिरनसूया शौचमनायासो माङ्गल्यमकार्पण्यमस्पृहेति ।।
विस्तृत
रूप से अनुष्ठानक्रम और लक्षण सहित कल्पसूत्रों में भी संस्कारों की संख्या ४० ही कही गयी है। यथा—
गर्भाधन, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन, चतुर्वेदव्रत, समावर्तन (स्नान), विवाह, पञ्चमहायज्ञ,
अष्टका, पार्वण, श्राद्ध, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी, अग्न्याधान,
अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयणेष्टि, निरूढ़पशुबन्ध, सौत्रामणी,
अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं आप्तोर्याम।
इनमें गर्भाधान से लेकर विवाह पर्यन्त चौदह संस्कारों से
पवित्र गृहस्थ बनता है और अगले संस्कारों से उत्तरोत्तर माननीय बनता है मनुष्य।
ध्यातव्य है कि चतुर्वेदव्रत के अन्तर्गत ही पूर्वकाल में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद
आदि की शिक्षा दे दी जाती थी। पञ्चमहायज्ञ गृहस्थ का नित्यकर्म कहा गया है। इसके
बारे में मनुस्मृति तृतीय अध्याय में विस्तृत वर्णन है। अष्टकादि आश्वयुजी पर्यन्त
सात स्मार्तकर्म पाकनिष्ठ हैं। अग्न्याधान से सौत्रामणी पर्यन्त सात श्रौतकर्म
हविपनिष्ठ हैं और अग्निष्टोमादि आप्तोर्याम पर्यन्त सात श्रौतकर्म सोम (पूतिका) निष्ठ
हैं। उक्त चालीस संस्कारों के अतिरिक्त आठ आत्मगुण की चर्चा मिलती है—दया, क्षान्ति,
अनसूया, शौच, अनायास, माङ्गल्य, अकार्पण्य एवं अस्पृहा ।
ब्रह्मसूत्र ३।४। ३४ (शारीरक भाष्य) की व्याख्यानुसार निरशनसंहिताध्ययन, प्रायणकर्म, जप, उत्क्रमण, दैहिक, भस्मसमूहन, अस्थिसंचयन एवं श्राद्ध — ये आठ संस्कार और जुड़ जाने पर कुल संस्कारों की संख्या ४८ हो जाती है—
यस्यैते अष्टाचत्वारिंशत् संस्कारा
इत्याद्या च ।।
महर्षि
अंगिरा ने इनका अन्तर्भाव २५ संस्कारों में कर लिया है। यथा—पञ्चविंशतिसंस्कारैः संस्कृता ये द्विजातयः।
ते पवित्राश्च योग्याश्च श्राद्धादिषु सुयन्त्रिताः ।।
गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो वलिरेवं च ।
जातकृत्यं नामकर्म निष्क्रमोऽन्नाशनं तथा।।
चौलकर्मोपनयनं तद्व्रतानां चतुष्टयम् ।
स्नानोद्वाहौ चाग्नयणमष्टका च यथायथम् ।।
श्रावण्यामाश्वयुज्यां च मार्गशीर्ष्यां च पार्वणम् ।
उत्सर्गश्चाप्युपाकर्म महायज्ञाश्च नित्यशः ।
संस्कारा नियता ह्येते ब्राह्मणस्य विशेषतः ।।
ये पचीस संस्कार
नित्य, नैमित्तिक, मासिक और वार्षिक भेद से चार प्रकार के कहे गए हैं। महर्षि
आश्वलायन कहते हैं—
नैमित्तिकाः षोडशोक्ताः समुद्वाहावसानकाः ।
सप्तैवाग्रयणाद्याश्च संस्काराः वार्षिका मताः ।।
मासिकं पार्वणं प्रोक्तमसक्तानां तु वार्षिकम्।
महायज्ञास्तु नित्याः स्युः सन्ध्यावच्चाग्निहोत्रवत् ।।
इसमें गर्भाधान
से विवाह पर्यन्त सोलह संस्कार नैमित्तिक है। आग्रयण आदि उपाकर्म पर्यन्त सात
संस्कार मासिक वा वार्षिक है। पंचमहायज्ञ, संध्यापोसन तथा अग्निहोत्र नित्यकर्म
हैं।
आगे चल कर
महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ने मुख्य रूप से १६ संस्कारों की ही
चर्चा की है। व्यासस्मृति १। १३-१५ में ये क्रम
इस प्रकार है— गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।
नामक्रियानिष्क्रमणोऽन्नाशनं वपनंक्रिया।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।
केशान्तं स्नानमुद्वाहो विवाहाऽग्नि
परिग्रहः।।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः
षोडशस्मृताः।।
अर्थात् – गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण,
निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह , आवसथ्याधान एवं
श्रोताधान ।
मनुस्मृति
में मात्र १३ संस्कारों का ही वर्णन है। यथा—गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशान्त, समावर्तन, विवाह और
अन्त्येष्टि। महर्षि याज्ञ्यवल्क्य ने भी इन्हीं संस्कारों का वर्णन किया है। केवल
केशांत का वर्णन नहीं है। आश्वलायन गृह्यसूत्र में ११ संस्कारों की ही
चर्चा है। तथा पारस्कर गृह्यसूत्र में १२ संस्कारों का वर्णन मिलता है । सबके अध्ययन-मनन के
पश्चात् व्यासस्मृति के सोलह संस्कारों की वरीयता एवं महत्ता प्रतीत होती है। अतः यथासम्भव
ये करणीय एवं पालनीय प्रतीत होते हैं। अपने गोत्र, शाखा, सूत्र, शिखा, प्रवर आदि
का ज्ञान करके तदनुसार यथासम्भव संस्कारों का निर्वहण होना चाहिए। इस सम्बन्ध में
महर्षि कात्यायन कहते हैं—
ऊनो वाऽप्यतिरिक्तो वा
यः स्वाशाखास्थितो विधिः ।
तेन संतनुयाद् यज्ञं न कुर्यात् पारशाखिकम् ।।
परशाखोऽपि कर्त्तव्यः स्वाशाखायां न नोदितः ।
सर्वशाखासु यत् कर्म एकं प्रत्यवशिष्यते ।।
उक्त
प्रसंगों से स्पष्ट है कि अपनी कुलपरम्परा को भूल-विसार कर, अन्यान्य कुरीतियों को
हम ग्रहण किए बैठे हैं। ये ठीक वैसा ही है, जैसे अपने माता-पिता को त्याग कर
अन्यान्य को अंगीकार किए हुए हैं। विडम्बना ये है कि कलिकाल बाहुल्य पाश्चात्य परम्पराओं
के अनुगामी अपनी सनातनी परम्पराओं को रूढ़िवादिता कह कर नकारते जा रहे हैं। जबकि ‘हैपी वर्थ डे और रिंग सेरेमनी’ जैसे आयोजनों का
चलन व्यापक रूप से बढ़ता जा रहा है। ऐसा
नहीं है कि ये कार्य पहले नहीं होते थे। ‘वर्धापन’ के रूप
में जन्मोत्सव मनाने की प्राचीन परम्परा है, जबकि केक काटना पाश्चात्य परम्परा से
आरोपित है। अत्यावश्यक सोलह संस्कारों में ज्यादातर लुप्त प्राय हैं। यत्किंचित्
सम्पन्न भी हो रहे हैं, वे भी असमय-अवैधी (मनमाने समय में, मनमाने ढंग से)।
प्रत्येक
मनुष्य की कामना होती है कि उसकी सन्तान सुन्दर, स्वस्थ, सुशील, विद्वान, गुणवान,
बलवान और दीर्घायु हो, किन्तु इन सब गुणों से युक्त होने के लिए हमें जो करना
चाहिए, हमारे मनीषियों ने जो रास्ते और उपाय सुझाये हैं, उनका पालन हम कर नहीं
पाते । उन नियम-सिद्धान्तों पर हमें भरोसा नहीं होता।
पुराणों में अनेक प्रसंग भरे पड़े हैं, जिनसे स्पष्ट है कि देश-काल-पात्र के अनुसार सन्तति के सृजन और विकास प्रभावित होता है। कश्यप, विनीता, कद्रु, दिति, अदिति, हिरण्यकषिपु, हिरण्याक्ष, प्रह्लाद आदि की कथाएँ गर्भाधान प्रक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु के चक्रब्यूह-भेदन के अधूरे ज्ञान पर पाश्चात्य वैज्ञानिक शोधरत हैं। बाल मनोविज्ञान, स्त्री मनोविज्ञान आदि पर विविध शोध निरन्तर हो रहे हैं। हमारे सनातन सिद्धान्तों पर वैज्ञानिकों की मुहरें लग रही हैं, फिर भी हमारी आँखें नहीं खुल रही हैं। हम चेत नहीं रहे हैं। सीधे कहें कि हम आँखें बन्द किए बैठे हैं और अन्धेरा-अन्धेरा चिल्ला रहे हैं। अपनी परम्परा को सीधे अंगीकार करने में अपमान और पिछड़ापन समझते हैं। सन्तान की इच्छा लिए आधुनिक जोड़े अस्पतालों का वर्षों-वर्षों चक्कर लगाते हुए पानी की तरह धन बहा देते हैं, किन्तु अपनी ऋषि परम्परा पर विश्वास नहीं होता।
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