शिक्षकदिवस
पर कुलबुलाते विचार
“अगर आप अँगूठे और
हस्ताक्षर के बीच का फ़र्क समझ पा रहे हैं, तो आज अपने गुरुजनों को इस काबिल बनाने
के लिए धन्यवाद दीजिए”—अखबार के इयरपैनल पर छपे इस स्लोगन को
पढ़ ही रहा था कि अचानक लाठी टेकते, आह-ऊह करते चले आ रहे सोढ़नदासजी पर निगाह
पड़ी। लगता है हवाखोरी वाले कोटे का कुछ समय मेरे साथ गुज़ारने का इरादा है इनका,
क्योंकि अमूमन ये शाम को ही किसी से मिलने-जुलने का प्रोग्राम रखते हैं। किन्तु
ज्यूँही उनके पैरों पर निगाहें गयी, तो मैं चौंक पड़ा—ये कैसे काका ! आपके
टखने और पिण्डलियों पर पट्टियाँ और धोती पर लहू के छींटे?
सोढ़नूकाका ने अपने पुराने अंदाज में मुँह विचकाकर, सिर
हिलाते हुए कहा—“ सुना है कि आज शिक्षकदिवस है। किसी जमाने में
एक शिक्षक इतनी तरक्की कर गया था कि उसे देश के प्रथम नागरिक वाला सर्वोच्च पद मिल गया था। शायद उसी महापुरुष का जन्म दिवस है, जिसे राजनीति
की भाषा में शिक्षकदिवस कहते हैं। ”
राजनीति की भाषा ! ये क्या
कह रहे हैं काकू? राजनीति की कोई अलग भाषा होती है क्या?
“होती है बबुआ!
होती है। ये वो भाषा है, जिसकी अनेक लिपियाँ हैं। शब्दों
की वर्तनियों और अर्थों का भी कोई हिसाब नहीं। एक ही शब्द के अनेक अर्थ निकल जाते
हैं। अलग-अलग आदमियों के हिसाब से अलग-अलग मायने भी होते हैं। जब जिस अर्थ से काम
निकले वही वाला अर्थ इस्तेमाल करने की पूरी गुंजायश है इसमें। नतीजन ये दुनिया की सभी भाषाओं पर हुकूमत करने
की हुनर रखती है। पहले के जमाने में लोग कहते थे न कि ईश्वर के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। अब वाले कहते
हैं—नेता के बिना कोई काम नहीं होता। जो कुछ भी होता है, इन्हीं की बदौलत। यकीन न
हो तो मेरे पैर की हालत देखो। एक बीमार मित्र का हालचाल लेने निकला था सचिवालय
इलाके में और खुद ही बीमार होकर लौटा हूँ। भला मुझे क्या पता था कि भावी शिक्षकों
की पिटाई के साथ-साथ वहाँ राहगीरों की भी पिटाई का प्रबन्ध है नयी गठबन्धन वाली
सरकारी व्यवस्था में ! ”
यानी कि उस दिन के धरना-प्रदर्शन के
आप चश्मदीद हैं? राजधानी है काकू। इस तरह की घटनाएँ तो आए दिन होती ही
रहती हैं। हमेशा सावधान होकर रहने की जरुरत है। सड़क जाम, घेर-घेराव, रोड़े-सोड़े
ये सब नौटंकी चलते रहता है। करने वाले को भी परिणाम का पता होता है और कराने वाले
को भी। बीच में पिसते हैं आमलोग—कोई सब्जी लेने बाजार निकला है, कोई दवा लेने।
“ हाँ बबुआ ठीक कह रहे हो। लोकतन्त्र की ये ढाल अब ज्यादातर तलवार की तरह ही
इस्तेमाल होने लगी है। सिस्टम में बैठे लोगों के कान पर जूँ नहीं रेंगती इन
छोटे-मोटे हथियारों की खनक से । हरामखोरी के आकाओं पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। जबकि
आम जनता अपना हाथ काटकर बैठ चुकी होती है अगले पाँच वर्षों के लिए। जातपात वाला
वोट सही तरीके से जातपात के भी काम नहीं आता, समाज और राष्ट्र के लिए भला क्या काम आयेगा ! काम को दाम यदि
दिए जाने लगें तब न भला हो आम आदमी का। यहाँ तो चाम का मोल लगाया जा रहा है—ये मेरी
विरादरी का है, ये उसकी वाली...। नतीजा है कि हस्ताक्षर और अँगूठे में ज्यादा फर्क
नहीं रह गया है। बल्कि ये कहो कि अँगूठा वाला कहीं ज्यादे मौज में है। डिग्रियों
वाला तो ननमैट्रिक सिपाहियों की हाथ की सफाई देखने को मजबूर है। दरअसल अपराधियों
पर तो आकाओं का वरदहस्त होता है, उन्हें छू-छा करना भी मना है। ऐसे में हाथ की
खुजली मिटाने के लिए ऐसे मौकों का ही तो इन्तज़ार रहता है। “—इतना कहकर काका
जरा रूके। पास रखे बेंत के मोढ़े पर इत्मिनान से बैठकर बोले— “एक बात समझ नहीं
आती— रिटायर्मेंट के बाद के पेंशन वाला मौज तो रहा नहीं अब, ईमानदारी से नौकरी
करने वाले की गर्दन पर भी हमेशा भ्रष्टाचारियों की तलवार लटकते रहती है। फिर भी
क्यूँ मारीमारी है इतनी इन दो कौड़ी की सरकारी नौकरियों के लिए? ”
सरकारी नौकरी यानी सिस्टम का
हिस्सेदार। हम लूट रहे हैं, तुम भी लूटो। हाल की ही बात है, एक दुकान पर पहुँचा।
भीड़ लगी थी—ग्राहक की नहीं, तमाशबीनों की। मैं भी जरा उनका हिस्सा बन गया।
तू-तू-मैं-मैं से पता चला कि एक हेडमॉटसा’ब हैं और दूसरा उन्हीं का कोई प्रतिद्वन्द्वी।
आए दिन सरकारी स्कूलों में लाखों-लाख की लॉट्रियाँ निकलती हैं—सांयन्स सामग्री, स्पोर्ट्स
सामग्री, पाठ्य सामग्री, मनोरंजन सामग्री...। हेडमॉटसा’ब का कहना था कि माल घटिया से
घटिया दो, बिल तगड़ा से तगड़ा हो, आँखिर क्या करें ऊपर तक हिसाब देना होता है।
कभी-कभी नीचे वालों को भी खुश करना पड़ता है। दरअसल बीच के मार्जिन को लेकर दुकानदार
से बकझक हो रही थी। वो अपना हिस्सा बीच में एडजस्ट करना चाह रहा था।
यही है हमारा सिस्टम काकू। इसी सिस्टम का हिस्सा
बनने को सभी बेताब हैं। काम के घंटे कम
होंगे, जेब का बजन ज्यादा होगा। जिम्मेवारी-जवाबदेही नाम की कोई चीज नहीं होगी। जरा
सोचिये ये महाभ्रष्ट मास्टर भला क्या शिक्षा देगा हमारे नौनिहालों को? कुकुरमुत्ते की तरह डिग्रीकॉलेजों से लेकर
ट्रेनिंगकॉलेजों की बाढ़ आयी है। अपनी औकात भर फेंको, डिग्रियाँ बटोर लाओ। और फिर
जरुरत के हिसाब से भुनाते रहो सरकारी विभागों में। ये सड़कों पर जो भीड़ दीख रही
हैं शिक्षित बेरोजगारों की ये वास्तव में शिक्षित नहीं हैं। शिक्षित होते तो कहीं
न कहीं सही जगह पाये होते, जहाँ योग्यता की माँग है, हुनर की पहचान है। वास्तव में
ये मिहनती होते, काम करने की ललक होती, तो दारोगा की नौकरी की दक्षिणा पन्द्रहलाख
नहीं होती । सही समझ होती तो आरक्षण की
कैंची से कतरने के बावजूद इतनी बेरोजगारी—समझ से परे है। शिक्षा का स्तर इसलिए
गिरा है काकू क्योंकि शिक्षक का स्तर गिरा है। शिक्षानीति गिरी है। शिक्षारीति
गिरी है। अब अनुशासन और नैतिकता के पाठ नहीं पढ़ाये जाते स्कूलों में। वो सब
गुरुकुल जमाने की तरह आउटडेटेड हो गए हैं। गुरुभक्त आरुणी की कथा मनुवादी कहानियों
में गिनी जाने लगी हैं। गुरुद्रोण को कठघरे में खड़े करती एकलव्य के कटे अँगूठे वाली
कहानी दोहन-शोषण-अपमान के विषदंश से गुजरकर नौनिहालों तक पहुँचती हैं। मारना तो
दूर, डाँट-डपट भी कानूनन अबैध है। मेन्टल टॉर्चर लॉ के अन्तर्गत आता है। और
परीक्षा में नम्बर—वो तो निन्यानबे से कम आना ही नहीं चाहिए—ऊपर वालों की फरमान
है।
अतः इस घातक व्यवस्था का परिष्कार
जबतक नहीं होगा, तब तक समाज और राष्ट्र का कल्याण सम्भव नहीं है काकू। प्रशिक्षित शिक्षकों
की भीड़ पुलिस की लाठियाँ खाती रहेंगी और आप जैसे भलेमानस कि पिण्डलियों में
पट्टियाँ बँधती रहेंगी। धोती लहू-लुहान होती रहेगी।
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