नान्दीश्राद्धप्रयोग
नान्दीश्राद्ध एक भ्रामक कर्मकाण्ड है। भ्रम का
मुख्य कारण शास्त्रीय ज्ञान का अभाव है।
अतः तत् सम्बन्धित कुछ अत्यावश्यक बातों
की चर्चा अपेक्षित है।
इसके
दो और भी प्रचलित नाम हैं— आभ्युदयिकश्राद्ध और वृद्धिश्राद्ध। आमलोग
‘‘श्राद्ध’’ शब्द से ही शंकित हो उठते हैं कि किसी शुभ कार्य में इसका क्या
प्रयोजन है? तथा सामान्य ज्ञान वाले ब्राह्मण भी समुचित उत्तर के अभाव में इसे या
तो छोड़ देते हैं या अविधिक रुप से कुछ-के कुछ करके निश्चिन्त हो जाते हैं।
वस्तुतः
यह आभ्युदयिक (उत्थानहेतु) एक अद्भुत प्रयोग है। एक अति शुभ और विशिष्ट कार्य
है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सुखसमृद्धि की कामना करते हुए, एक ओर
अनेकानेक (कोटि-कोटि) देवी-देवताओं को आहूत कर, पूजित कर, उनका आशीष प्राप्त करते
हैं; ऐसे शुभ अवसर पर अपने पूर्वजों को प्रसन्न कर, उनके आशीष से क्यों वंचित रहना
चाहेंगे ?
सच
पूछें तो, देवताओं से भी कहीं अधिक आवश्यक है— माता-पितादि का आशीष प्राप्त करना —
उन पूर्वजों के सामने श्रद्धावनत होना, जिनके कारण आज हमारा अस्तित्व है और किसी
कर्म के योग्य हुए हैं हम।
अतः
नान्दीश्राद्ध विशेष देवपूजा (शुभकार्य) का प्रधान अंग है। यह अशुभ कर्म
कदापि नहीं है। यही कारण है कि शादी-विवाह, उपनयन, मुण्डन, आदि किसी
भी प्रकार के संस्कार में देवपूजन के साथ-साथ इसे भी किया जाना अनिवार्य है। अनेक
देवी-देवताओं, ग्रहों, यक्षों,योगिनियों का पूजन करना और पितरों का पूजन न
करना—आशान्वित पितरों को निराश और अपमानित करने जैसा है। फलतः उन्हें कुपित करके
नानाविध संकट और शाप को आहूत करना भी है। चुँकि गृहप्रवेश मानवजीवन का
महत्त्वपूर्ण कार्य है। जीवनोपलब्धि का एक बहुत बड़ा अंश गृहनिर्माण में व्यय हो जाता
है, इस कामना से कि सपरिवार सुखपूर्वक वास कर सके- सुदीर्घकाल तक। यज्ञोपवीतादि
विविध संस्कार और सृष्टिविधान का सर्वोत्कृष्ट कार्य – विवाह संस्कार जैसे विशिष्ट
कार्य तो बिलकुल अधूरे हैं नान्दीमुखश्राद्ध के बिना। यही कारण है कि
आभ्युदयिकश्राद्ध और वृद्धिश्राद्ध जैसी गरिमामय विशेषणों से इसे अलंकृत किया गया
है। अतः इसका पालन सावधानी पूर्वक अवश्य करना चाहिए।
नान्दीश्राद्ध
के विषय में अज्ञानता वश सर्वाधिक भूल होती है— पितृजीवी (जिसके माता-पिता जीवित
हों) इसे करना कदापि उचित नहीं समझते। समाज में प्रायः देखा जाता है कि माता-पिता
के जीवित रहते हुए, पुत्र यदि अपने पुत्र-पुत्री का विवाहादि संस्कार कर रहा होता
है, उस समय अन्य कर्मकाण्ड तो वह स्वयं करता है, परन्तु नान्दीश्राद्ध का काम अपने
पिता से करवाता है। स्वयं को इसका अधिकारी नहीं समझता। यह बहुत बड़ी नासमझी है। जबकि
शास्त्र निर्देश है – इदं अपि
जीवत्पितृकेणापिकार्यम्...तथा च येभ्य एव पिता दद्यात् तेभ्यो दद्यात् सुतः
स्वयम् । नान्दीश्राद्ध की महत्ता और औचित्य के विषय में कहा गया है— वृद्धौ
न तर्पिता ये वै पितरौ गृहमेधिनः। तत्सर्वमफलं ज्ञेयमासुरो विधिरेव सः।। यहाँ
तक कि जिस व्यक्ति को किसी ज्ञाताज्ञात कारण से सन्तान-वाधा हो, विकास अवरुद्ध हो,
अकारण उलझनें आरही हों,पढ़ाई-लिखाई-नौकरी-चाकरी में बाधाएँ आ रही हों या कुण्डली
में पितृदोष हो, तो उसे एक नहीं, अनेक बार इस आभ्युदयिकश्राद्ध को करने का सुझाव
दिया जाता है- ‘कलौ संख्याचतुर्गुणः’- कम से कम चार बार। इसी भाँति
सन्तानबाधा निवारण हेतु (सन्तान-प्राप्ति हेतु) अन्यान्य उपाय करने के पूर्व, सर्वप्रथम
वंशवृद्धिनिमित्त नान्दीश्राद्ध करना चाहिए। ‘वृद्धिश्राद्ध’ नाम की
सार्थकता भी यही है।
अब, इस
सम्बन्ध में किंचित आर्ष वचनों पर एक दृष्टि डाल लें—
१.अनस्मद् वृद्धशब्दानामरुपाणामगोत्रिणाम्।
अनाममतिलाद्यैश्च नान्दी-श्राद्धश्च सव्यवत् ।।
२.कुशस्थाने
च दूर्वाःस्युर्मङ्गलस्याभिवृद्धये ।
३.पिण्डनिर्वपणं
कुर्यान्न वा कुर्यान्नराधिप !
वृद्धिश्राद्धे महाबाहो ! कुलधर्मानवेक्ष्य हि
।। (भविष्यपुराण)
४.नान्दीश्राद्धं
पिता कुर्यादाद्ये पाणिग्रहे पुनः।
अत ऊर्ध्वं प्रकुर्वीत स्वयमेव तु नान्दिकम्।।
(स्मृतिनिर्देश)
५.पित्रोस्तु
जीवितो कुर्यात् पुनः पाणिग्रहं यदा । पितुर्नान्दीमुखंश्राद्धं नोक्तं तस्य
मनीषिणः ।।
६.दक्षिणजानुभूलग्नो
देवेभ्यः सेच्चयेज्जलम्.....तथा च.... भूलग्नसव्यजानुश्च दक्षिणाग्रकुशेन च
पितृन् संतर्पयेत् सुधी...(वृद्धपराशर)
७.नान्दीमुखे
सत्यवसू संकीर्त्यौ वैश्वदैविकौ...(निर्णयसिन्धु में महर्षि शंखवचन)
८.अत्र
सर्वे कर्म सव्येन कार्यम्...ऋजव एव कुशाः ग्राह्या...तिलार्थे यवा देया...
नामगोत्रे नोच्चार्ये....स्वधास्थाने स्वाहाशब्दोच्चारः कार्यः... (गृहप्रवेशपद्धति-
आचार्य विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी)
अब आगे, अन्यान्य श्राद्धों से नान्दीश्राद्ध के
क्रियात्मक भेद तथा किंचित तुलनात्मक विन्दुओं पर विचार करते हैं—
नान्दीश्राद्ध अन्यान्यश्राद्ध
१ |
पूर्वाभिमुख क्रिया है। अतः पूरी किया में पूर्वाभिमुख
की हस्त-पाद मुद्रायें, तीर्थ, अंजली, जानु आदि यहाँ व्यहृत होते हैं। |
१ |
दक्षिणाभिमुख क्रिया है। अतः पूरी किया में
दक्षिणाभिमुख की हस्त-पाद मुद्रायें, तीर्थ, अंजली, जानु आदि यहाँ व्यहृत होते
हैं। |
२ |
सव्य (वायें कंधे पर) जनेऊ और गमछा रखना है। |
२ |
अपसव्य (दायें कंधे पर-जनेऊ, गमछा रखना है। |
३ |
दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य है। |
३ |
कुश का प्रयोग अनिवार्य है। |
४ |
छिन्नमूल कुशा प्रयोग किया जा सकता है। |
४ |
मूल युक्त कुशा ही प्रयोग करना चाहिए, छिन्नमूल कदापि
नहीं। |
५ |
किसी प्रकार के तिल का प्रयोग वर्जित है। |
५ |
काला तिल अत्यावश्यक है। |
६ |
गणेशाम्बिका पूजन के बाद ही किया जाता है। |
६ |
गणेशाम्बिकापूजन किया ही नहीं जाता। |
७ |
दधि-चावल-हरिद्राचूर्ण का पिण्ड दिया जाता है। |
७ |
दही और हल्दी का प्रयोग नहीं होता। |
८ |
क्षौर(मुण्डन) नहीं कराना है। |
८ |
क्षौर(मुण्डन)अनिवार्य है। |
९ |
मातृपिण्ड से प्रारम्भ किया जाता है। |
९ |
पितृपिण्ड से प्रारम्भ किया जाता है। |
१० |
मातृपक्ष का आसन सपत्निक होता है। |
१० |
मातृपक्ष का आसन सपत्निक नहीं, होता, बल्कि पुरुष-स्त्री हेतु अलग-अलग होता
है। |
११ |
नौ दैवत-द्वादशदैवत दोनों प्रकार का होता है-यानी नौ
या बारह पिण्ड दिये जाते हैं। |
११ |
सिर्फ द्वादश दैवत ही होता है- यानी बारह पिण्ड दिये
जाते हैं तथा पार्वणादि में अनेक पिण्ड हो जाते हैं। |
आगे
क्रमशः संक्षिप्त और विस्तृत विधि की चर्चा है। सुविधानुसार पद्धति में सामान्य
अन्तर करके इनका उपयोग किया जा सकता है। वैसे एक अति विस्तृत विधि भी है, जो
युगानुसार अव्यावहारिक हो चला है।
नान्दीश्राद्ध
की संक्षिप्त विधिः –
पलाश-पत्रावली पर, पहली पंक्ति में पूर्वाग्र एक स्थान
पर एवं निचली पंक्ति में उत्तराग्र तीन स्थानों पर छिन्नमूल कुशा वा दूर्वा
स्थापित करने के बाद, अक्षतपुष्प- जलादि लेकर संकल्प बोले।
संकल्प- ॐ अद्य
करिष्यमाण.... (यज्ञोपवीत, विवाह, गृहप्रवेशादि कार्य) निमित्तक सांकल्पिकमाभ्युदयिकश्राद्धमहं
करिष्ये।
पाद्यम्- तत्पश्चात्
पुनः क्रमशः उक्त चारो स्थानों पर बारी-बारी से मन्त्र बोलते हुए जल प्रदान करे-
१. ॐ
सत्यवसुसंज्ञका विश्वेदेवा नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं
पादप्रक्षालनं वृद्धिः।
२. ॐ
मातृपितामहीप्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भूवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पाद
प्रक्षालनं वृद्धिः।
३. ॐ
पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पाद
प्रक्षालनं वृद्धिः।
४. ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इदं वः
पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः।
आसनम्-तत्पश्चात्
पुनः क्रमशः उक्त चारो स्थानों पर बारी-बारी से मन्त्र बोलते हुए आसन हेतु
छिन्नमूल कुशा वा दूर्वा प्रदान करे-
१. ॐ
सत्यवसुसंज्ञका विश्वेदेवा नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः
नान्दीश्राद्धक्षणौ क्रियेतां यथा प्राप्नुवन्तो भवन्तः तथा प्राप्नुवामः।
२. ॐ
मातृपितामहीप्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भूवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः
नान्दीश्राद्धक्षणौ क्रियेतां यथा प्राप्नुवन्तो भवन्तः तथा प्राप्नुवामः।
३. ॐ
पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः
नान्दीश्राद्धक्षणौ क्रियेतां यथा प्राप्नुवन्तो भवन्तः तथा प्राप्नुवामः।
४. ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः
नान्दीश्राद्धक्षणौ क्रियेतां यथा प्राप्नुवन्तो भवन्तः तथा प्राप्नुवामः।
गन्धादिदानम्-
तत्पश्चात्
क्रमशः उक्त चारो स्थानों पर बारी-बारी से मन्त्र बोलते हुए जल, वस्त्र, यज्ञोपवीत,
चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ऋतुफल, पुनःजल, ताम्बूल, सुपारी आदि
प्रदान करे (ध्यातव्य है कि सभी वस्तुओं की दोहरी चर्चा करनी है- जैसे-गन्धः सुगन्धः)—
ॐ अत्रापः पान्तु। ॐ अयं वो गन्धःसुगन्धः ।
ॐ इमे वो वाससी सुवाससी । ॐ इमानि वो यज्ञोपवीतानि सुयज्ञोपवीतानि । ॐ इमे वो
अक्षताः सुअक्षताः । ॐ इमानि वः पुष्पाणि सुपुष्पाणि । ॐ अयं वो धूपः सुधूपः। ॐ
अयं वो दीपः सुदीपः। ॐ इदं वो नैवेद्यं सुनैवेद्यम् । ॐ इदं वो आचमनीयं जलं सुजलम्
। ॐ इदं वः ताम्बूलं सुताम्बूलम् । ॐ इदं
वः पूगीफलं सुपूगीफलम् ।
तत्पश्चात् क्रमशः उक्त चारो स्थानों पर
बारी-बारी से जलाक्षत लेकर मन्त्र बोलते हुए छोड़े—
१. ॐ
सत्यवसुसंज्ञका विश्वेदेवा नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इदं गन्धार्चनं स्वाहा
सम्पद्यतां वृद्धिः।
२. ॐ मातृपितामहीप्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः
भूर्भूवः स्वः इदं गन्धार्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः।
३. ॐ पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखाः
भूर्भूवः स्वः इदं गन्धार्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः।
४. ॐ मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः
नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इदं गन्धार्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः।
भोजननिष्क्रयदानम्-
तत्पश्चात्
क्रमशः उक्त चारो स्थानों पर दही, हल्दीचूर्ण और चावल मिश्रित पिण्ड प्रदान कर,
बारी-बारी से जलाक्षत लेकर मन्त्र बोलते हुए छोड़े—
१.
ॐ सत्यवसुसंज्ञका विश्वेदेवा नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः
इदं युग्मब्राह्मणभोजनं पर्याप्तमामान्नं निष्क्रयीभूतं द्रव्यममृतरुपेण स्वाहा
सम्पद्यतां वृद्धिः।
२.
ॐ मातृपितामहीप्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भूवः स्वः
इदं युग्मब्राह्मणभोजनं पर्याप्तमामान्नं निष्क्रयीभूतं द्रव्यममृतरुपेण स्वाहा
सम्पद्यतां वृद्धिः।
३.
ॐ पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः इदं
युग्मब्राह्मणभोजनं पर्याप्तमामान्नं निष्क्रयीभूतं द्रव्यममृतरुपेण स्वाहा
सम्पद्यतां वृद्धिः।
४.
ॐ मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः
स्वः इदं युग्मब्राह्मण भोजनं पर्याप्तमामान्नं निष्क्रयीभूतं द्रव्यममृतरुपेण
स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः।
क्षीरयवजलदानम्- तत्पश्चात्
क्रमशः उक्त चारो स्थानों पर दुग्ध, जौ और जल प्रदान कर, बारी-बारी से जलाक्षत
लेकर मन्त्र बोलते हुए छोड़े तथा दाहिने हाथ का अंगूठा दिखावे—
१.
ॐ सत्यवसुसंज्ञका विश्वेदेवा नान्दीमुखाः प्रीयन्ताम् ।
२.
ॐ मातृपितामहीप्रपितामह्यः प्रीयन्ताम् ।
३.
ॐ पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखाः प्रीयन्ताम् ।
४.
ॐ मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः नान्दीमुखाः
प्रीयन्ताम् ।
तत्पश्चात् उक्त चारो स्थानों पर क्रमशः जल, पुष्प,
अक्षत और पुनः जलधारा प्रदान करेः-
१.ॐ शिवा
आपः सन्तु। २.ॐ सौमनस्यमस्तु। ३.ॐ अक्षतश्चारिष्टं चास्तु। ४.ॐ अघोराः पितरः
सन्तु।
तत्पश्चात्
पुष्पांजलि लेकर, आचार्य की ओर देखते हुए, प्रार्थना करेः- ॐ गोत्रान्नो
वर्धतां दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेव च, श्रद्धा च नो मा व्यगमद्, बहु
देयं च नोऽस्तु अन्नं च नो बहु भवेदतिथींश्च लभेमहि याचितारश्च नः सन्तु मा च
याचिस्म कश्चन। एता सत्या आशिषः सन्तु। - आचार्य यजमान पर अक्षत छिड़क कर आशीष
दें— ऊँ सन्त्वेताः सत्या आशिषः ।।
दक्षिणासंकल्प- तत्पश्चात्
मुनक्का, आंवला, जौ और अदरख क्रमशः चारो स्थानों पर अर्पित करे तथा द्रव्य, अक्षत,
पुष्प, कुशा, जल हाथ में लेकर दक्षिणा संकल्प करे (इसे चार बार अलग-अलग या एकत्र
भी कर सकते हैं)—
१.ॐ सत्यवसुसंज्ञका विश्वेदेवा नान्दीमुखाः
भूर्भूवः स्वः कृतस्याभ्युदयिकनान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठार्थं द्राक्षामलकयवमूल-निष्क्रयिणीं
दक्षिणांदातुमहमुत्सृजे ।
२. ॐ
मातृपितामहीप्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भूवः स्वः
कृतस्याभ्युदयिकनान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठार्थं द्राक्षामलकयवमूल-निष्क्ययिणीं
दक्षिणांदातुमहमुत्सृजे ।
३. ॐ
पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः कृतस्याभ्युदयिकनान्दीश्राद्धस्य
फलप्रतिष्ठार्थं द्राक्षामलकयवमूल-निष्क्रयिणीं दक्षिणांदातुमहमुत्सृजे ।
४.ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः
कृतस्याभ्युदयिकनान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठार्थं द्राक्षामलकयवमूल-निष्क्रयिणीं
दक्षिणांदातुमहमुत्सृजे।
विशेषार्घ्यः-तत्पश्चात्
एक दोने में जौ, जल, फल, दूर्वा, छिन्नमूलकुशा, चन्दन, पुष्पादि लेकर निम्नांकित
मन्त्रोच्चारण पूर्वक चारों स्थानों पर अर्ध्य दे— ॐ यवोऽसि सोमदैव्त्यो गोसवो
देवनिर्मितः। प्रत्नमद्भिः प्रत्नः पुष्ट्यानान्दीमुखान् पितृमिमान् लोकान्
प्रीणयाहि नः स्वाहा न मम।।
तत्पश्चात्
इस मन्त्र को भी पढ़े— ॐ उपास्मै गायता
नरः पवमानायेन्दवे अभि देवाँ इयक्षते।। पुनः जल लेकर- अनेन नान्दीश्राद्धं
सम्पन्नम् कहकर छोड़ दे।
आचार्य
बोलें- सुसम्पन्नंनान्दीश्राद्धमिति।।
विसर्जन- तत्पश्चात्
अग्रलिखित मन्त्रोच्चारण पूर्वक विसर्जन करे- ॐ वाजे वाजे वत वाजिनो नो धनेषु
विप्रा अमृताऽऋतज्ञाः।अस्य मध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः । आ मा
वाजस्य प्रसवो जगम्यादेमे द्यावापृथिवी विश्वरुपे। आ मा गन्तां पितरा मातरा चामा
सोमोऽमृतत्वेन गम्यात् । ॐ विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्।
(उक्त मन्त्र के बाद प्रायः लोग लोटा बजाते हैं,
यह घोर अज्ञानता है। वस्तुतः यह वाजे-वाजे विसर्जन का मन्त्र है। मन्त्र बोल कर
ताली बजाना चाहिए न कि लोटा। ताली बजाने के बाद अक्षत छिड़क दे।)
अब, चढ़ाये गये फल, मिष्टान्न, द्रव्यादि
को उठाकर आचार्य को दे दे और पिण्डों को पत्रावली समेत मोड़कर, नवीन पीले वस्त्र
में बाँध कर वहीं मातृकावेदी के समीप रख दे। बाद में, पूरी क्रिया समाप्त हो जाने
पर उस पोटली को उठाकर पवित्र स्थान में रख देना चाहिए जहाँ लम्बे समय तक सुरक्षित
रह सके।
क्रमशः.......
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