पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम्-27

                        ५. रूद्राक्ष
       
   मानव जाति के लिए वनस्पति जगत का एक अद्भुत् उपहार है-रुद्राक्ष।इसके गुणों का कितना हूँ वर्णन किया जाय, थोड़ा ही होगा। ‘रुद्र’ और ‘अक्ष’ की संधि से बना शब्द रुद्राक्ष की उत्पत्ति के कई पौराणिक प्रसंग हैं।श्री शिव पुराण में इसका विशद वर्णन है।विशेष जिज्ञासु उस मूल स्थान पर इसे देख सकते हैं।अन्यान्य ग्रन्थों में भी इसकी पर्याप्त चर्चा है।जप साधना में प्रयुक्त मालिका में इसे सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है।वैसे तो अलग-अलग मंत्रों के लिए अलग-अलग मालाओं का विधान है,किन्तु इससे रुद्राक्ष की सर्वग्राहिता में कमी नहीं आयी है।सोने और हीरे-माणिक की मालाओं से भी उत्तम माना गया है इसे।इसकी उत्पत्ति शिव के नेत्र से मानी गयी है।नेत्र- अग्नि तत्त्व का वोधक है- आलोक इसका गुण है।ऊष्मा इसकी शक्ति है।पंचतन्मात्राओं में वरीय स्थान पर है यह।आहार क्रम में लगभग अस्सी प्रतिशत नेत्रमार्ग से ही होता है।यदि आपने रुद्राक्ष को ‘ समझ लिया ’ तो समझें कि शिव का अस्सी प्रतिशत आपने पा लिया,अब थोड़ा ही शेष रहा आगे जाना।मेरा यह कथन कुछ अजीब लग रहा होगा,किन्तु अक्षरशः सत्य है यह।इन सबकी गहराइयों में उतरेंगे तो रुद्राक्ष की महत्ता और भी लक्षित होगी।शिव की प्राप्ति के लिए रुद्राक्ष का आलोक अनिवार्य है।
               रुद्राक्ष एक बहुबर्षायु मध्यम  काय वृक्ष के परिपक्व फल का गुठली है।इसका फल गूलर की तरह गोल होता है,जो गुच्छों में काफी मात्रा में फलता है।अन्तर यह है कि गूलर मोटे तने में निकले पुष्प-तन्तुओं में फलता है,और रुद्राक्ष अन्य पौधों की तरह टहनियों की फुनगी पर,जो गोल काला जामुन सा गुद्देदार होता है,किन्तु जामुन वाली कोमलता के वजाय कठोरता होती है इसके गुद्दे में।परिपक्व फल स्वतः गिर पड़ते हैं- निमौलियों की तरह।उन्हें बटोर कर जल में सड़ने को लिए डाल दिया जाता है।कुछ काल बाद अधसड़े गुद्दों को हटाकर अन्दर की खुरदरी गुठली प्राप्त कर ली जाती है- यही पवित्र रुद्राक्ष का दाना है। पूर्ण परिपक्व दाने ही गुण-कर्म के विचार से उत्तम होते हैं।कच्चे फलों से प्राप्त दाने(गुठली) के रंग और गुण में पर्याप्त अन्तर होता है।इतना ही नहीं कुछ अन्य जंगली गुठलियों के मिलावट भी आसानी से हो जाते हैं- अपक्व गुठलियों में।वैसे प्राप्ति और उपल्बधि के बीच भारी अन्तर होने के कारण मिलावट का अच्छा अवसर है।
      इसका प्राप्ति स्थान इण्डोनेसिया,नेपाल,मलाया,वर्मा आदि हैं।वैसे भारत के भी कई भागों में शौकीन लोग अपनी वाटिका में लगाकर गौरवान्वित होते हैं।इधर भारत सरकार की भी कृपा हुयी है- इसके व्यावसायिक उत्पादन के प्रयास हो रहे हैं।
    आकार भेद से रुद्राक्ष की कई जातियाँ हैं।मुख्य रुप से तो रुद्राक्ष गोलाकार ही होता है ,किन्तु कुछ लम्बे,चपटे,चन्द्राकार,अण्डाकार आदि स्वरुप भी पाये जाते हैं।दानों का आकार गोलमिर्च के आकार से लेकर छोटी मटर,बड़ी मटर,बेर,आंवले तक का पाया जाता है।लोक मान्यता है कि छोटे दाने उत्तम होते हैं।किन्तु बात ऐसी नहीं है।गुणवत्ता की दृष्टि से छोटे आकार का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।परन्तु इधर कुछ दिनों से पश्चिम ने इस पर कृपाकर दी है,साथ ही अपने ही व्यापारी संतों ने इसे दुर्लभ सा बना दिया है- कुछ नयी-नयी बातें कह कर। और जब कोई तुच्छ वस्तु भी श्रीमानों द्वारा अपनायी जाने लगेंगी तो आमजन के लिए उसका दुर्लभ हो जाना स्वाभाविक है।हमारे पुराने संत- ऋषि-महर्षि इसे शरीर के विभिन्न भागों – कंठ,जूड़ा,वाजू,कलायी आदि में धारण करते थे- वे बड़े आकार के ही हुआ करते थे।किन्तु अमीरों के सुकुमार शरीर छिल न जायें खुरदरे बड़े दानों से इसलिए छोटे दानों का आधुनिक संतो ने विज्ञापन कर डाला।अस्तु।सुविधा की दृष्टि से छोटे दाने पहनने के लिए और बड़े दाने जप के लिए उपयुक्त कहे जा सकते हैं।बहुत बड़े दाने- बेर या आंवले से बड़े तो जप के लिए भी उपयुक्त नहीं ही कहे जा सकते।
          आकार के सम्बन्ध में एक खास बात और है कि जिस पौधे में फलों का जो आकार है,हमेशा वही रहेगा।
थोड़ा बहुत अन्तर भले हो जाय।यानी छोटे आंवले जैसे फल देने वाले पौधे बड़े आंवले जैसे फल कदापि नहीं दे सकते।(आंवले में भी यही बात है)इस प्रकार चार-पांच आकार वाले पौधे होते हैं।हाँ,इन आकारों के साथ-साथ विभिन्न मुखभेद भी है।
       अतः ‘मुखभेद’ की चर्चा करते हैं।रुद्राक्ष के खुरदरे दानों पर देशान्तर रेखाओं की तरह- ऊपर से नीचे कुछ धारियाँ होती हैं- एक से अनेक तक।शास्त्रों में इक्कीस धारियों तक का उल्लेख मिलता है।इन धारियों को ही मुख कहते हैं- जितनी धारियाँ उतने मुख।चपटे आकार वाले दो मुखी,और गोल आकार वाले पांच मुखी रुद्राक्ष की भरमार है।इनमें नकली की बात नहीं है।हाँ पुष्ट-अपुष्ट दानों को पहचानना आवश्यक है।छः मुखी भी प्रायः सहज प्राप्त हैं।किन्तु शेष मुख-संख्या वाले का सर्वथा अभाव है।वाजार की मांग को देखते हुए धूर्त-दुष्ट व्यापारी कृत्रिम(लकड़ियों पर खुदाई करके,अथवा पांच को यथासम्भव सात,नौ आदि मुख बनाकर लोगों को ठगते रहते हैं।एक मुखी सर्वाधिक श्रेष्ठ और दुर्लभ है,अतः इसकी सर्वाधिक ठगी होती है। जहाँ तक मेरी जानकारी है,अलग-अलग मुखों के लिए अलग-अलग पौधे नहीं होते।एक ही पौधे में मुख(धारियों) का अन्तर संयोग से मिल जाता है-ठीक उसी तरह जैसे बेल की तीन पत्तियां एक डंठल से जुड़ी होती हैं,और सभी ‘त्रिपत्तियों ’की यही स्थिति होती है;किन्तु संयोग और सौभाग्य से उसी पौधे में चार-पांच-छः यहाँ तक की ग्यारह पत्तियां भी एक डंठल से जुड़ी मिल जाती हैं,जिन्हें तन्त्र में काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है।प्राचीन ग्रन्थों में मुख के अनुसार ही रुद्राक्ष का वर्गीकरण किया गया है।
      वैसे तो रुद्राक्ष सीधे शिव से सम्बन्धित है,फिर भी विभिन्न मुखों का विभिन्न देवताओं से संबन्ध बतलाया गया है;और जब मुखों के स्वामी देवता निश्चत हैं तो उनका अलग-अलग मंत्र होना भी स्वाभाविक है।
यहाँ एक से चौदह मुख तक की सूची प्रस्तुत किया जा रहा हैः-
मुख  देवता मन्त्र
एक  शिव  ऊँ ह्रीँ नमः
दो   अर्धनारीश्वर ऊँ नमः
तीन  अग्नि ऊँ क्लीँ नमः
चार  ब्रह्मा  ऊँ ह्रीँ नमः
पांच  कालाग्निरूद्र ऊँ ह्रीँ नमः
छः   कार्तिकेय   ऊँ ह्रीँ हूँ नमः
सात  सप्तर्षि,सप्तमात्रिका ऊँ हुँ नमः
आठ  वटुक भैरव  ऊँ हुँ नमः
नौ   दुर्गा  ऊँ ह्रीं हूँ नमः
दस  विष्णु ऊँ ह्रीं नमः
ग्यारह रुद्र,इन्द्र    ऊँ हुँ नमः
बारह आदित्य    ऊँ क्रौं क्षों रौं नमः
तेरह  कार्तिकेय,इन्द्र    ऊँ ह्रीं नमः
चौदह शिव,हनुमान ऊँ नमः
     सामान्यतया रुद्राक्ष-साधना-शोधनादि में सीधे शिवपंचाक्षर(ऊँ नमः शिवाय) का ही प्रयोग करें।विशेष साधना में तो विशेष बातें हैं ही।
     रुद्राक्ष में थोड़ा रंग भेद भी है- हल्के लाल,गहरे लाल,और काले।वैसे व्याख्याकार इस रंग भेद को वर्ण भेद से जोड़ना पसन्द करते हैं।किन्तु इस सम्बन्ध में मेरी कोई खास टिप्पणी नहीं है।बस इतना ही ध्यान रखें कि रुद्राक्ष का दाना सुपुष्ट और अखण्डित हो।
     रूद्राक्ष में शीर्ष और तल(head-tail) भेद भी है।माला गूंथने में इनका विचार होना अति आवश्यक है।प्रायः साधकों की शिकायत होती है - "मैंने बहुत जप किया,किन्तु सफलता नहीं मिली।" साधना में असफलता के अनेक कारण हैं- यह गहन विवेचन का एक अलग विषय है।यहाँ मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि गलत तरीके से गूंथी गयी माला से अभीष्ट-सिद्धि कठिन हो जाती है,और माला गूंथने वाली चूक प्रायः होती ही है।माला गूंथने का सही तरीका ठीक वैसा ही है जैसे कि आप एक सौ आठ व्यक्तियों को पंक्तिवद्ध खड़ा कर रहे हों।ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का मुख अपने सामने वाले के पीठ की ओर होगा।और एक सौ आठ की इस पंक्ति को अचानक वृत्त बनाने कहेंगे तो क्या होगा? ठीक इसी तरह प्रत्येक दानों को धागे में तल की ओर से पिरोयेंगे।इस प्रकार एक का शीर्ष दूसरे के तल से मिलता रहेगा,और अन्त में दोनों सिरो को आपस में जोड़कर दोनों धागों के सहारे एक सौ नौवां दाना(सुमेरु) को भी इसी विधि से पिरो देंगे। शीर्ष और तल(head-tail) की पहचान अति सरल है- शीर्ष अपेक्षाकृत ऊभरा हुआ होता है,जब कि तल भाग सपाट होता है।यह ठीक वैसा ही है जैसे नासपाती का फल डंठल से लगा हुआ हो –यही शीर्ष हुआ और दूसरा तल या पृष्ठ भाग।माला गूंथने में एक और अहं बात का ध्यान रखना है कि प्रत्येक दानों के बीच स्थूल ग्रन्थि वनानी चाहिए,ताकि दो दाने आपस में टकराते न रहें।यह नियम जप-साधना के लिए बनायी जारही माला के लिए अत्यावश्यक है।इसके (बीच की ग्रन्थि)बिना माला व्यर्थ है।हाँ,धारण करने वाले माला में यह बहुत जरुरी नहीं है।वैसे इसमें भी ग्रन्थि हो तो कोई हर्ज नहीं।
      माला गूंथने के नियम में एक और अति आवश्यक निर्देश है—
स्व हस्त ग्रथिता माला,स्वहस्तात्घृष्ट चन्दनम्। स्वहस्त लिखितम्स्त्रोतम् शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।। (अपने हाथ से गूथी गयी माला,घिसा गया चन्दन,लिखा गया स्तोत्र- स्वयं व्यवहृत करने से इन्द्न का भी श्री-मान हानि हो सकता है) यानी कि अपने हाथ से गूंथी न जाय,बल्कि अपने निर्देशन में किसी अन्य से गुंथवायी जाय- वह घर का कोई सदस्य(स्त्री-पुरुष) हो या योग्य बाहरी व्यक्ति। कुछ ऋषियों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि माला गूथना - पुत्री को जन्म देने के समान है।अब अपनी जन्मायी हुयी कन्या से संयोग तो नहीं ही करेंगे।खैर,ठीक पुत्री वाली बात भले न हो,किन्तु कुछ रहस्य अवश्य है- ऋषियों की वाणी में,जिसे मान लेना ही मैं श्रेयष्कर समझता हूँ।आज के परिवेश में उचित है कि सामने बैठकर, माला गूंथने वाले किसी करीगर से अपने निर्देशन में गूंथवा लें- शीर्ष और तल(head-tail) का भेद बताते हुए।
     प्रायः लोग बाजार से माला खरीद कर सामान्य शोधन करके(या बिना किए) क्रिया में लग जाते हैं- जो कि बहुत बड़ी भूल है। प्रसंगवस यहाँ रुद्राक्ष परीक्षा(पहचान)और माला संस्कार की संक्षिप्त चर्चा करना उचित लग रहा है।
रुद्राक्ष की परीक्षाः-
Ø 1. खरीदा जा रहा दाना(माला) रुद्राक्ष ही है- किसी समानदर्शी फल का बीज अथवा लकड़ी पर की गयी नक्कासी तो नहीं- यह जाँचना जरुरी है।परिपक्व फल से उत्तम रुद्राक्ष का दाना प्राप्त होता है।कच्चे फल से प्राप्त दानों को ‘भद्राक्ष’ कहते हैं।यह गुणवत्ता में अतिन्यून है।
Ø 2. रुद्राक्ष के दानों को(गूंथा हुआ माला नहीं) टब,नाद,बाल्टी वगैरह में जल भरकर डाल दें।जो दाने वरतन के तल में जाबैठें- वे ही सही(पुष्ट) दाने हैं।ऊपर तैरते दाने अपरिपक्व और ग्रहण योग्य नहीं हैं।ये प्रभावहीन हैं।
Ø 3. गुणवत्ता की दृष्टि से दानों का बड़ा-छोटा होना बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है।आम तौर पर धारण के लिए छोटे और जप के लिए मध्यम(बड़े नहीं) आकार का चुनाव करना चाहिए।
Ø 4.दाने सर्वांगपूर्ण हों- कटे,फटे,टूटे,कीड़े-युक्त,विकृत,टेढ़े छिद्र वाले,देखने में मलिन,विलकुल चिकने न हों।
Ø 5. साधना के लिए नया रुद्राक्ष ही खरीदें।पुराना- किसी का व्यवहृत न हो।
Ø 6. पहले से घर में पड़े- पितादि द्वारा व्यवहृत माला ग्रहण किया जा सकता है,किन्तु विशेष साधना में वह भी नहीं चलेगा।पुराने माले पर किन-किन मंत्रो का जप चला है - यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है।प्रायः देखा जाता है कि घर में पड़ा पुराना माला  सीधे पूर्वज की सम्पत्ति की तरह हथिया कर व्यवहार करने लगते हैं- साधकों के लिए यह उचित नहीं है।मान लिया किसी ने माला पर वाम क्रिया साधी हो,और आप विशुद्ध दक्षिण वाले हैं,तो ऐसी स्थिति में ग्रहण कर आप परेशानी में पड़ सकते हैं।(यहाँ वाम-दक्षिण का सामान्य भेद मात्र ईंगित है,अन्तर्भेद की बात मैं नहीं कर रहा हूँ)
Ø 7. दीक्षागुरु द्वारा आशीष स्वरुप प्राप्त माला आँख मूद कर ग्रहण करने योग्य है।
Ø 8. जप-साधना में माला का परिवर्तन(अदला-बदली)कदापि नहीं होनी चाहिए।इसी भांति धारण करने वाले मालों का भी नियम है।
Ø 9. पहले जप किया हुआ माला बाद में धारण किया जा सकता है,किन्तु धारण किया हुआ माला जप के योग्य कदापि नहीं है।प्रायः देखते हैं कि सुविधा की दृष्टि से लोग एक ही माला रखते हैं- गले में से निकाल कर जप किए,और पुनः गले में डाल लिए- यह विलकुल अज्ञानता और मूढ़ता है।सामान्य जन को इससे कोई अन्तर भले न पड़ता हो,साधकों को ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए।
Ø 10. शीर्ष-तल विचार को छोड़,शेष नियम (गूंथने से लेकर ग्रहण,शोधन,और धारण तक) सभी प्रकार के माला के लिए लागू होता है,न कि सिर्फ रुद्राक्ष के लिए।
Ø 11. तांबे के दो टुकड़ों के बीच रुद्राक्ष को रख कर दबाने से असली रुद्राक्ष का दाना घिरनी की तरह नांचने लगेगा- ऐसा कथन है शास्त्रों का,किन्तु मैंने परीक्षा किया कुछ दानों पर – शतप्रतिशत यह लागू नहीं होता,फिर भी थोड़ा कम्पन अवश्य अनुभव होता है।वह भी नहीं तो हल्के विद्युत तरंग की अनुभूति अवश्य होगी- वशर्ते कि शारीरिक रुप से आप अपेक्षाकृत शुद्ध हों।नियमित नाड़ीशोधन आदि के अभ्यासी को यह अनुभव अधिक तीव्र होता है।वैसे भी उनकी अनुभूतियों का क्षेत्र काफी विकसित होता है।
माला का संस्कारः-  ऊपर वर्णित नियमों के अनुसार रुद्राक्ष ग्रहण कर विधिवत माला तैयार हो जाने के बाद उसे संस्कारित करना भी अतिआवश्यक है- विशेषकर साधना हेतु।धारण करने के लिए भी सामान्य संस्कार कर लिया जाए तो कोई हर्ज नहीं,किन्तु साधना हेतु तो असंस्कारित माला कदापि ग्राह्य नहीं है। माला –संस्कार के लिए सर्वार्थ सिद्धियोग,सिद्धि योग,अमृत सिद्धि योग,गुरुपुष्य योग,रविपुष्य योग,   सोम पुष्ययोग आदि में से कोई सुविधाजनक योग का चुनाव करना चाहिए।चयनित दिन को नित्यक्रियादि से निवृत्त होकर, क्रमशः जल,दूध,दही,घृत,मधु,गूड़,पंचामृत,और गंगाजल से (कमशः आठ प्रक्षालन) करने के बाद, तांबे या पीतल के पात्र में पीला या लाल वस्त्र बिछा कर,सामने रखें।स्वयं पूजा के प्रारम्भिक कृत्य- आचमन,प्राणायामादि करने के बाद जल-अक्षतादि लेकर संकल्प करें-
ऊँ अद्य.....श्री शिव प्रीत्यर्थं मालासंस्कारमहंकरिष्ये। (संकल्पादि पूजा विधि के लिए कोई भी नित्यकर्म पुस्तक का सहयोग लिया जा सकता है।यहाँ संक्षेप में मुख्य बातों की चर्चा कर दी जारही है,जो सीधे सामान्य पूजा-पद्धति में नहीं है।)
   अब पुनः जल लेकर विनियोग करेंगे- ऊँ अस्य श्री शिवपंचाक्षर मंत्रस्य वामदेव ऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्री सदाशिवो देवता ऊँ बीजं,नमः शक्तिः,शिवाय कीलकं साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं न्यासे पूजने जपे च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास- ऊँ वामदेवाय ऋषये नमः शिरसि – कहते हुए अपने शिर का स्पर्श करे।
         ऊँ अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे- कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
         ऊँ सदाशिवदेवतायै नमः हृदि- कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
         ऊँ बीजाय नमः गुह्ये  -     कहते हुए अपने गुदामार्ग  का स्पर्श करे।
         ऊँ शक्तये नमः पादयोः -    कहते हुए अपने दोनों पैरों का स्पर्श करे।
         ऊँ शिवाय कीलकाय नमः सर्वांगे - कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
         ऊँ नं तत्पुरुषाय नमः हृदये - कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
         ऊँ मं अघोराय नमः पादयोः - कहते हुए अपने पैरों का स्पर्श करे।
         ऊँ शिं सद्योजाताय नमः गुह्ये  - कहते हुए अपने गुदा का स्पर्श करे।
         ऊँ वां वामदेवाय नमः मूर्ध्नि - कहते हुए अपने मूर्धा का स्पर्श करे।
         ऊँ यं ईशानाय नमः मुखे   - कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
करन्यास- ऊँ अंगुष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों अंगूठों का स्पर्श करे।
         ऊँ नं तर्जनीभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों तर्जनी का स्पर्श करे।
         ऊँ मं मध्यमाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों मध्यमा का स्पर्श करे।
        ऊँ शिं अनामिकाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों अनामिका का स्पर्श करे।
        ऊँ वां कनिष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों कनिष्ठा का स्पर्श करे।
        ऊँ यं करतलकरपृष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों हथेलियों का स्पर्श करे।
हृदयादिन्यास-ऊँ हृदयाय नमः - कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
        ऊँ नं शिरसे स्वाहा- कहते हुए अपने सिर का स्पर्श करे।
        ऊँ मं शिखायै वषट् - कहते हुए अपने शिखा का स्पर्श करे।
        ऊँ शिं कवचाय हुम् - कहते हुए अपने दोनों वाजुओं का स्पर्श करे।
        ऊँ वां नेत्रत्रयाय वौषट् - कहते हुए अपने दोनों नेत्रों का स्पर्श करे।
        ऊँ यं अस्त्राय फट्   - कहते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा को वायें हाथ की हथेली पर बजावे।
 पुनः जल लेकर विनियोग करे- ऊँ अस्य श्री प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः ऋग्ययुःसामानि
च्छन्दान्सि क्रियामयवपुः प्राणाख्या देवता आँ बीजं,ह्रीँ शक्तिः क्रौं कीलकं देवप्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः।
प्रतिष्ठा-न्यासः-  ऊँ ब्रह्म-विष्णु-रुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि(सिर का स्पर्श)
              ऊँ ऋग्ययुःसामच्छन्दोभ्यो नमः मुखे (मुख का स्पर्श)
              ऊँ प्राणाख्यदेवतायै नमः हृदि (हृदय का स्पर्श)
              ऊँ आँ बीजाय नमः गुह्ये (गुदा का स्पर्श)
              ऊँ ह्रीँ शक्त्यै नमः पादयोः  (पैरों का स्पर्श)
              ऊँ क्रौं कीलकाय नमः सर्वांगेषु  (पूरे शरीर का स्पर्श)
अब हाथों में रंगीन(लाल,पीला) फूल लेकर दोनों हाथों से माला को ढककर इन मन्त्रों का उच्चारण करे, और भावना करे कि देवता की शक्ति रुद्राक्ष मनकों में अवतरित हो रही है-
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य प्राणाः इह प्राणाः।
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य जीव इह स्थितः।
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वक्चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वापाणि-
पादपायूषस्थानि इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।।
अब पुनः अक्षत-पुष्प लेकर,हाथ जोड़कर निम्नांकित मंत्रो का उच्चारण करते हुए भावना करे कि शिव विराज रहे हैं मनकों में-
ऊँ भूः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि।
ऊँ भुवः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि।                                                    ऊँ स्वः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि।
इस प्रकार रुद्राक्ष-माला में साक्षात् शिव को स्थापित भाव से यथासम्भव षोडषोपचार पूजन करे।तत्पश्चात् कम से कम ग्यारह माला श्री शिव पंचाक्षर मन्त्र का जप,तत्दशांश हवन,तत्दशांश तर्पण,तत्दशांश मार्जन एवं एक वटुक और एक भिक्षुक को भोजन और दक्षिणा प्रदान कर माला-संस्कार की क्रिया को सम्पन्न करें।इस प्रकार पूरे विधान से संस्कृत रुद्राक्ष माला पर आप जो भी जप करेंगे सामान्य की तुलना में सौकड़ों गुना अधिक लाभप्रद होगा।इस बात का भी ध्यान रखें कि इस माला की मर्यादा को बनाये रखना है।जिस-तिस के स्पर्श,यहाँ तक कि दृष्टि से बचाना है।कहने का तात्पर्य यह कि सदा जपमालिका में छिपाकर मर्यादापूर्वक रखना है।बर्ष में एक या दो बार उसके वस्त्र भी बदल देना है।अस्तु।
रुद्राक्ष के तान्त्रिक प्रयोगः- आयुर्वेद एवं तन्त्रशास्त्रों में रुद्राक्ष के अनेकानेक प्रयोग बतलाये गये हैं।विविध प्रकार की दैहिक-दैविक-भौतिक संतापों का निवारण रुद्राक्ष से हो सकता है।आधुनिक विज्ञान भी इस पर काफी भरोसा करने लगा है।यहाँ कुछ खास प्रयोगों की चर्चा की जारही है-
Y     शिव-कृपा- किसी भी आकार और मुख वाले रुद्राक्ष को विधिवत शोधित-संस्कारित करके शिव-प्रतिमा की तरह पूजा जा सकता है- वस यही समझें कि साक्षात् शिव ही विराज रहे हैं रुद्राक्ष-मनके में।
Y     शिवपुराणादि ग्रन्थों में तो शरीर के विभिन्न अंगों में रुद्राक्ष धारण का विधान है,किन्तु कम से कम सिर्फ गले में ५४ या १०८ दानों की माला धारण करने मात्र से काफी लाभ होता है।धार्मिक लाभ के अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभ भी है।रक्तवहसंस्थान की विभिन्न वीमारियों में अद्बुत लाभ होता है।हृदयरोगों में इसके चमत्कार को परखा जा सकता है।ग्यारह माला शिवपंचाक्षर मंत्राभिमंत्रित रुद्राक्ष के
§  पांच बड़े दानों को गले या बायीं बांह में(सामान्य नियम से विपरीत- पुरुष या स्त्री दोनों को)बाँधने से उच्चरक्त चाप या हृदयरोग में अप्रत्याशित लाभ होता है।विना अभिमंत्रण के भी धारण करने से लाभ तो होगा ही,किन्तु अभिमंत्रित कर देने से गुण में बृद्धि हो जायेगी।इसी भांति अभिमंत्रित दानों को जल में घिस कर एक-एक चम्मच अवलेह नित्य दो-तीन बार लिया जाय तो अद्भुत लाभ होगा।स्वस्थ व्यक्ति भी इस प्रयोग को कर सकते हैं- तेज,बल,वीर्य की बृद्धि होकर आरोग्य और दीर्घायु लाभ होगा।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष के तीन-पांच-सात-नौ-ग्यारह-इक्कीश-सत्ताइस-इकतीस-चौवन या एक सौ आठ दाने सुविधानुसार धारण करने से समस्त त्रितापों(दैहिक-दैविक-भौतिक) का शमन होता है।
Y     उक्त रीति से रुद्राक्ष धारण करने से अद्भुत रुप से सम्मोहन होकर,मान-प्रतिष्ठा में बृद्धि,यश-श्री-लाभ की प्राप्ति होती है।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को घिस कर शरीर में लेप करने से भी सम्मोहन-आकर्षणादि की सिद्धि होती है।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को चन्दन की तरह घिस कर नियमित सेवन करने से भी सम्मोहन-आकर्षणादि की सिद्धि होती है।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष के पांच दाने(बड़े आकार वाले) किसी स्वच्छ तांम्र-पात्र में डाल कर रातभर छोड़ दें।सुबह उस जल का सेवन करें।इस प्रकार के महीने भर के प्रयोग से उदर-विकार,अनिद्रा अम्लपित्त,गैस,कब्ज आदि दैहिक व्याधियों मे आशातीत लाभ होता है।इस प्रयोग में ध्यान रहे कि रुद्राक्ष पर पुरानी किसी प्रकार की गंदगी न हो।
Y     विभिन्न बाल-रोगों में विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष के तीन या पांच दाने लाल धागे में (ग्रन्थियुक्त) गूथ कर सोमवार के प्रातःकाल गले में पहना दें।अद्बुत लाभ होगा।
Y     प्रायः बच्चे चिड़चिड़े हो जाते हैं,बात-बात में उन्हें किसी की टोक लग जाती है,सोते समय चिहुँक कर उठ जाते हैं,माँ का दूध या बाहरी दूध पीने से इन्कार करते हैं- इस तरह की अनेक बाल-समस्याओं में विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को माँ के दूध के साथ घिस कर, उम्र के अनुसार (आधा या एक चम्मच) पिलाने से शीघ्र लाभ होता है।
 बन्ध्यत्व निवारण हेतु समभाग विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को सुगन्ध रास्ना के साथ चूर्ण करके एक-एक चम्मच प्रातः - सायं के हिसाब से गाय के दूध के साथ ऋतुस्नान के दिन से प्रारम्भ कर लागातर सात दिनों तक सेवन करना चाहिए।यह क्रिया लागातार कुछ महीने तक जारी रखे।इस बीच सन्तानेच्छु स्त्री नित्य कम से कम एक माला शिवपंचाक्षर मंत्र का जप और शिव पूजन करती रहे।स्वयं न हो सके तो पति करे या फिर किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा कराये।
       मानव जाति के लिए वनस्पति जगत का एक अद्भुत् उपहार है-रुद्राक्ष।इसके गुणों का कितना हूँ वर्णन किया जाय, थोड़ा ही होगा। ‘रुद्र’ और ‘अक्ष’ की संधि से बना शब्द रुद्राक्ष की उत्पत्ति के कई पौराणिक प्रसंग हैं।श्री शिव पुराण में इसका विशद वर्णन है।विशेष जिज्ञासु उस मूल स्थान पर इसे देख सकते हैं।अन्यान्य ग्रन्थों में भी इसकी पर्याप्त चर्चा है।जप साधना में प्रयुक्त मालिका में इसे सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है।वैसे तो अलग-अलग मंत्रों के लिए अलग-अलग मालाओं का विधान है,किन्तु इससे रुद्राक्ष की सर्वग्राहिता में कमी नहीं आयी है।सोने और हीरे-माणिक की मालाओं से भी उत्तम माना गया है इसे।इसकी उत्पत्ति शिव के नेत्र से मानी गयी है।नेत्र- अग्नि तत्त्व का वोधक है- आलोक इसका गुण है।ऊष्मा इसकी शक्ति है।पंचतन्मात्राओं में वरीय स्थान पर है यह।आहार क्रम में लगभग अस्सी प्रतिशत नेत्रमार्ग से ही होता है।यदि आपने रुद्राक्ष को ‘ समझ लिया ’ तो समझें कि शिव का अस्सी प्रतिशत आपने पा लिया,अब थोड़ा ही शेष रहा आगे जाना।मेरा यह कथन कुछ अजीब लग रहा होगा,किन्तु अक्षरशः सत्य है यह।इन सबकी गहराइयों में उतरेंगे तो रुद्राक्ष की महत्ता और भी लक्षित होगी।शिव की प्राप्ति के लिए रुद्राक्ष का आलोक अनिवार्य है।
               रुद्राक्ष एक बहुबर्षायु मध्यम  काय वृक्ष के परिपक्व फल का गुठली है।इसका फल गूलर की तरह गोल होता है,जो गुच्छों में काफी मात्रा में फलता है।अन्तर यह है कि गूलर मोटे तने में निकले पुष्प-तन्तुओं में फलता है,और रुद्राक्ष अन्य पौधों की तरह टहनियों की फुनगी पर,जो गोल काला जामुन सा गुद्देदार होता है,किन्तु जामुन वाली कोमलता के वजाय कठोरता होती है इसके गुद्दे में।परिपक्व फल स्वतः गिर पड़ते हैं- निमौलियों की तरह।उन्हें बटोर कर जल में सड़ने को लिए डाल दिया जाता है।कुछ काल बाद अधसड़े गुद्दों को हटाकर अन्दर की खुरदरी गुठली प्राप्त कर ली जाती है- यही पवित्र रुद्राक्ष का दाना है। पूर्ण परिपक्व दाने ही गुण-कर्म के विचार से उत्तम होते हैं।कच्चे फलों से प्राप्त दाने(गुठली) के रंग और गुण में पर्याप्त अन्तर होता है।इतना ही नहीं कुछ अन्य जंगली गुठलियों के मिलावट भी आसानी से हो जाते हैं- अपक्व गुठलियों में।वैसे प्राप्ति और उपल्बधि के बीच भारी अन्तर होने के कारण मिलावट का अच्छा अवसर है।
      इसका प्राप्ति स्थान इण्डोनेसिया,नेपाल,मलाया,वर्मा आदि हैं।वैसे भारत के भी कई भागों में शौकीन लोग अपनी वाटिका में लगाकर गौरवान्वित होते हैं।इधर भारत सरकार की भी कृपा हुयी है- इसके व्यावसायिक उत्पादन के प्रयास हो रहे हैं।
    आकार भेद से रुद्राक्ष की कई जातियाँ हैं।मुख्य रुप से तो रुद्राक्ष गोलाकार ही होता है ,किन्तु कुछ लम्बे,चपटे,चन्द्राकार,अण्डाकार आदि स्वरुप भी पाये जाते हैं।दानों का आकार गोलमिर्च के आकार से लेकर छोटी मटर,बड़ी मटर,बेर,आंवले तक का पाया जाता है।लोक मान्यता है कि छोटे दाने उत्तम होते हैं।किन्तु बात ऐसी नहीं है।गुणवत्ता की दृष्टि से छोटे आकार का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।परन्तु इधर कुछ दिनों से पश्चिम ने इस पर कृपाकर दी है,साथ ही अपने ही व्यापारी संतों ने इसे दुर्लभ सा बना दिया है- कुछ नयी-नयी बातें कह कर। और जब कोई तुच्छ वस्तु भी श्रीमानों द्वारा अपनायी जाने लगेंगी तो आमजन के लिए उसका दुर्लभ हो जाना स्वाभाविक है।हमारे पुराने संत- ऋषि-महर्षि इसे शरीर के विभिन्न भागों – कंठ,जूड़ा,वाजू,कलायी आदि में धारण करते थे- वे बड़े आकार के ही हुआ करते थे।किन्तु अमीरों के सुकुमार शरीर छिल न जायें खुरदरे बड़े दानों से इसलिए छोटे दानों का आधुनिक संतो ने विज्ञापन कर डाला।अस्तु।सुविधा की दृष्टि से छोटे दाने पहनने के लिए और बड़े दाने जप के लिए उपयुक्त कहे जा सकते हैं।बहुत बड़े दाने- बेर या आंवले से बड़े तो जप के लिए भी उपयुक्त नहीं ही कहे जा सकते।
          आकार के सम्बन्ध में एक खास बात और है कि जिस पौधे में फलों का जो आकार है,हमेशा वही रहेगा।
थोड़ा बहुत अन्तर भले हो जाय।यानी छोटे आंवले जैसे फल देने वाले पौधे बड़े आंवले जैसे फल कदापि नहीं दे सकते।(आंवले में भी यही बात है)इस प्रकार चार-पांच आकार वाले पौधे होते हैं।हाँ,इन आकारों के साथ-साथ विभिन्न मुखभेद भी है।
       अतः ‘मुखभेद’ की चर्चा करते हैं।रुद्राक्ष के खुरदरे दानों पर देशान्तर रेखाओं की तरह- ऊपर से नीचे कुछ धारियाँ होती हैं- एक से अनेक तक।शास्त्रों में इक्कीस धारियों तक का उल्लेख मिलता है।इन धारियों को ही मुख कहते हैं- जितनी धारियाँ उतने मुख।चपटे आकार वाले दो मुखी,और गोल आकार वाले पांच मुखी रुद्राक्ष की भरमार है।इनमें नकली की बात नहीं है।हाँ पुष्ट-अपुष्ट दानों को पहचानना आवश्यक है।छः मुखी भी प्रायः सहज प्राप्त हैं।किन्तु शेष मुख-संख्या वाले का सर्वथा अभाव है।वाजार की मांग को देखते हुए धूर्त-दुष्ट व्यापारी कृत्रिम(लकड़ियों पर खुदाई करके,अथवा पांच को यथासम्भव सात,नौ आदि मुख बनाकर लोगों को ठगते रहते हैं।एक मुखी सर्वाधिक श्रेष्ठ और दुर्लभ है,अतः इसकी सर्वाधिक ठगी होती है। जहाँ तक मेरी जानकारी है,अलग-अलग मुखों के लिए अलग-अलग पौधे नहीं होते।एक ही पौधे में मुख(धारियों) का अन्तर संयोग से मिल जाता है-ठीक उसी तरह जैसे बेल की तीन पत्तियां एक डंठल से जुड़ी होती हैं,और सभी ‘त्रिपत्तियों ’की यही स्थिति होती है;किन्तु संयोग और सौभाग्य से उसी पौधे में चार-पांच-छः यहाँ तक की ग्यारह पत्तियां भी एक डंठल से जुड़ी मिल जाती हैं,जिन्हें तन्त्र में काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है।प्राचीन ग्रन्थों में मुख के अनुसार ही रुद्राक्ष का वर्गीकरण किया गया है।
      वैसे तो रुद्राक्ष सीधे शिव से सम्बन्धित है,फिर भी विभिन्न मुखों का विभिन्न देवताओं से संबन्ध बतलाया गया है;और जब मुखों के स्वामी देवता निश्चत हैं तो उनका अलग-अलग मंत्र होना भी स्वाभाविक है।
यहाँ एक से चौदह मुख तक की सूची प्रस्तुत किया जा रहा हैः-

मुख  देवता मन्त्र

एक  शिव  ऊँ ह्रीँ नमः
दो   अर्धनारीश्वर ऊँ नमः
तीन  अग्नि ऊँ क्लीँ नमः
चार  ब्रह्मा  ऊँ ह्रीँ नमः
पांच  कालाग्निरूद्र ऊँ ह्रीँ नमः
छः   कार्तिकेय   ऊँ ह्रीँ हूँ नमः
सात  सप्तर्षि,सप्तमात्रिका ऊँ हुँ नमः
आठ  वटुक भैरव  ऊँ हुँ नमः
नौ   दुर्गा  ऊँ ह्रीं हूँ नमः
दस  विष्णु ऊँ ह्रीं नमः
ग्यारह रुद्र,इन्द्र    ऊँ हुँ नमः
बारह आदित्य    ऊँ क्रौं क्षों रौं नमः
तेरह  कार्तिकेय,इन्द्र    ऊँ ह्रीं नमः
चौदह शिव,हनुमान ऊँ नमः
     सामान्यतया रुद्राक्ष-साधना-शोधनादि में सीधे शिवपंचाक्षर(ऊँ नमः शिवाय) का ही प्रयोग करें।विशेष साधना में तो विशेष बातें हैं ही।
     रुद्राक्ष में थोड़ा रंग भेद भी है- हल्के लाल,गहरे लाल,और काले।वैसे व्याख्याकार इस रंग भेद को वर्ण भेद से जोड़ना पसन्द करते हैं।किन्तु इस सम्बन्ध में मेरी कोई खास टिप्पणी नहीं है।बस इतना ही ध्यान रखें कि रुद्राक्ष का दाना सुपुष्ट और अखण्डित हो।
     रूद्राक्ष में शीर्ष और तल(head-tail) भेद भी है।माला गूंथने में इनका विचार होना अति आवश्यक है।प्रायः साधकों की शिकायत होती है - "मैंने बहुत जप किया,किन्तु सफलता नहीं मिली।" साधना में असफलता के अनेक कारण हैं- यह गहन विवेचन का एक अलग विषय है।यहाँ मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि गलत तरीके से गूंथी गयी माला से अभीष्ट-सिद्धि कठिन हो जाती है,और माला गूंथने वाली चूक प्रायः होती ही है।माला गूंथने का सही तरीका ठीक वैसा ही है जैसे कि आप एक सौ आठ व्यक्तियों को पंक्तिवद्ध खड़ा कर रहे हों।ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का मुख अपने सामने वाले के पीठ की ओर होगा।और एक सौ आठ की इस पंक्ति को अचानक वृत्त बनाने कहेंगे तो क्या होगा? ठीक इसी तरह प्रत्येक दानों को धागे में तल की ओर से पिरोयेंगे।इस प्रकार एक का शीर्ष दूसरे के तल से मिलता रहेगा,और अन्त में दोनों सिरो को आपस में जोड़कर दोनों धागों के सहारे एक सौ नौवां दाना(सुमेरु) को भी इसी विधि से पिरो देंगे। शीर्ष और तल(head-tail) की पहचान अति सरल है- शीर्ष अपेक्षाकृत ऊभरा हुआ होता है,जब कि तल भाग सपाट होता है।यह ठीक वैसा ही है जैसे नासपाती का फल डंठल से लगा हुआ हो –यही शीर्ष हुआ और दूसरा तल या पृष्ठ भाग।माला गूंथने में एक और अहं बात का ध्यान रखना है कि प्रत्येक दानों के बीच स्थूल ग्रन्थि वनानी चाहिए,ताकि दो दाने आपस में टकराते न रहें।यह नियम जप-साधना के लिए बनायी जारही माला के लिए अत्यावश्यक है।इसके (बीच की ग्रन्थि)बिना माला व्यर्थ है।हाँ,धारण करने वाले माला में यह बहुत जरुरी नहीं है।वैसे इसमें भी ग्रन्थि हो तो कोई हर्ज नहीं।
      माला गूंथने के नियम में एक और अति आवश्यक निर्देश है—

स्व हस्त ग्रथिता माला,स्वहस्तात्घृष्ट चन्दनम्। स्वहस्त लिखितम्स्त्रोतम् शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।। (अपने हाथ से गूथी गयी माला,घिसा गया चन्दन,लिखा गया स्तोत्र- स्वयं व्यवहृत करने से इन्द्न का भी श्री-मान हानि हो सकता है) यानी कि अपने हाथ से गूंथी न जाय,बल्कि अपने निर्देशन में किसी अन्य से गुंथवायी जाय- वह घर का कोई सदस्य(स्त्री-पुरुष) हो या योग्य बाहरी व्यक्ति। कुछ ऋषियों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि माला गूथना - पुत्री को जन्म देने के समान है।अब अपनी जन्मायी हुयी कन्या से संयोग तो नहीं ही करेंगे।खैर,ठीक पुत्री वाली बात भले न हो,किन्तु कुछ रहस्य अवश्य है- ऋषियों की वाणी में,जिसे मान लेना ही मैं श्रेयष्कर समझता हूँ।आज के परिवेश में उचित है कि सामने बैठकर, माला गूंथने वाले किसी करीगर से अपने निर्देशन में गूंथवा लें- शीर्ष और तल(head-tail) का भेद बताते हुए।
     प्रायः लोग बाजार से माला खरीद कर सामान्य शोधन करके(या बिना किए) क्रिया में लग जाते हैं- जो कि बहुत बड़ी भूल है। प्रसंगवस यहाँ रुद्राक्ष परीक्षा(पहचान)और माला संस्कार की संक्षिप्त चर्चा करना उचित लग रहा है।

रुद्राक्ष की परीक्षाः-
Ø 1. खरीदा जा रहा दाना(माला) रुद्राक्ष ही है- किसी समानदर्शी फल का बीज अथवा लकड़ी पर की गयी नक्कासी तो नहीं- यह जाँचना जरुरी है।परिपक्व फल से उत्तम रुद्राक्ष का दाना प्राप्त होता है।कच्चे फल से प्राप्त दानों को ‘भद्राक्ष’ कहते हैं।यह गुणवत्ता में अतिन्यून है।
Ø 2. रुद्राक्ष के दानों को(गूंथा हुआ माला नहीं) टब,नाद,बाल्टी वगैरह में जल भरकर डाल दें।जो दाने वरतन के तल में जाबैठें- वे ही सही(पुष्ट) दाने हैं।ऊपर तैरते दाने अपरिपक्व और ग्रहण योग्य नहीं हैं।ये प्रभावहीन हैं।
Ø 3. गुणवत्ता की दृष्टि से दानों का बड़ा-छोटा होना बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है।आम तौर पर धारण के लिए छोटे और जप के लिए मध्यम(बड़े नहीं) आकार का चुनाव करना चाहिए।
Ø 4.दाने सर्वांगपूर्ण हों- कटे,फटे,टूटे,कीड़े-युक्त,विकृत,टेढ़े छिद्र वाले,देखने में मलिन,विलकुल चिकने न हों।
Ø 5. साधना के लिए नया रुद्राक्ष ही खरीदें।पुराना- किसी का व्यवहृत न हो।
Ø 6. पहले से घर में पड़े- पितादि द्वारा व्यवहृत माला ग्रहण किया जा सकता है,किन्तु विशेष साधना में वह भी नहीं चलेगा।पुराने माले पर किन-किन मंत्रो का जप चला है - यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है।प्रायः देखा जाता है कि घर में पड़ा पुराना माला  सीधे पूर्वज की सम्पत्ति की तरह हथिया कर व्यवहार करने लगते हैं- साधकों के लिए यह उचित नहीं है।मान लिया किसी ने माला पर वाम क्रिया साधी हो,और आप विशुद्ध दक्षिण वाले हैं,तो ऐसी स्थिति में ग्रहण कर आप परेशानी में पड़ सकते हैं।(यहाँ वाम-दक्षिण का सामान्य भेद मात्र ईंगित है,अन्तर्भेद की बात मैं नहीं कर रहा हूँ)
Ø 7. दीक्षागुरु द्वारा आशीष स्वरुप प्राप्त माला आँख मूद कर ग्रहण करने योग्य है।
Ø 8. जप-साधना में माला का परिवर्तन(अदला-बदली)कदापि नहीं होनी चाहिए।इसी भांति धारण करने वाले मालों का भी नियम है।
Ø 9. पहले जप किया हुआ माला बाद में धारण किया जा सकता है,किन्तु धारण किया हुआ माला जप के योग्य कदापि नहीं है।प्रायः देखते हैं कि सुविधा की दृष्टि से लोग एक ही माला रखते हैं- गले में से निकाल कर जप किए,और पुनः गले में डाल लिए- यह विलकुल अज्ञानता और मूढ़ता है।सामान्य जन को इससे कोई अन्तर भले न पड़ता हो,साधकों को ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए।
Ø 10. शीर्ष-तल विचार को छोड़,शेष नियम (गूंथने से लेकर ग्रहण,शोधन,और धारण तक) सभी प्रकार के माला के लिए लागू होता है,न कि सिर्फ रुद्राक्ष के लिए।
Ø 11. तांबे के दो टुकड़ों के बीच रुद्राक्ष को रख कर दबाने से असली रुद्राक्ष का दाना घिरनी की तरह नांचने लगेगा- ऐसा कथन है शास्त्रों का,किन्तु मैंने परीक्षा किया कुछ दानों पर – शतप्रतिशत यह लागू नहीं होता,फिर भी थोड़ा कम्पन अवश्य अनुभव होता है।वह भी नहीं तो हल्के विद्युत तरंग की अनुभूति अवश्य होगी- वशर्ते कि शारीरिक रुप से आप अपेक्षाकृत शुद्ध हों।नियमित नाड़ीशोधन आदि के अभ्यासी को यह अनुभव अधिक तीव्र होता है।वैसे भी उनकी अनुभूतियों का क्षेत्र काफी विकसित होता है।

माला का संस्कारः-  

ऊपर वर्णित नियमों के अनुसार रुद्राक्ष ग्रहण कर विधिवत माला तैयार हो जाने के बाद उसे संस्कारित करना भी अतिआवश्यक है- विशेषकर साधना हेतु।धारण करने के लिए भी सामान्य संस्कार कर लिया जाए तो कोई हर्ज नहीं,किन्तु साधना हेतु तो असंस्कारित माला कदापि ग्राह्य नहीं है। माला –संस्कार के लिए सर्वार्थ सिद्धियोग,सिद्धि योग,अमृत सिद्धि योग,गुरुपुष्य योग,रविपुष्य योग,   सोम पुष्ययोग आदि में से कोई सुविधाजनक योग का चुनाव करना चाहिए।चयनित दिन को नित्यक्रियादि से निवृत्त होकर, क्रमशः जल,दूध,दही,घृत,मधु,गूड़,पंचामृत,और गंगाजल से (कमशः आठ प्रक्षालन) करने के बाद, तांबे या पीतल के पात्र में पीला या लाल वस्त्र बिछा कर,सामने रखें।स्वयं पूजा के प्रारम्भिक कृत्य- आचमन,प्राणायामादि करने के बाद जल-अक्षतादि लेकर संकल्प करें-
ऊँ अद्य.....श्री शिव प्रीत्यर्थं मालासंस्कारमहंकरिष्ये। (संकल्पादि पूजा विधि के लिए कोई भी नित्यकर्म पुस्तक का सहयोग लिया जा सकता है।यहाँ संक्षेप में मुख्य बातों की चर्चा कर दी जारही है,जो सीधे सामान्य पूजा-पद्धति में नहीं है।)
   अब पुनः जल लेकर विनियोग करेंगे- ऊँ अस्य श्री शिवपंचाक्षर मंत्रस्य वामदेव ऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्री सदाशिवो देवता ऊँ बीजं,नमः शक्तिः,शिवाय कीलकं साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं न्यासे पूजने जपे च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास- ऊँ वामदेवाय ऋषये नमः शिरसि – कहते हुए अपने शिर का स्पर्श करे।
         ऊँ अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे- कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
         ऊँ सदाशिवदेवतायै नमः हृदि- कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
         ऊँ बीजाय नमः गुह्ये  -     कहते हुए अपने गुदामार्ग  का स्पर्श करे।
         ऊँ शक्तये नमः पादयोः -    कहते हुए अपने दोनों पैरों का स्पर्श करे।
         ऊँ शिवाय कीलकाय नमः सर्वांगे - कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
         ऊँ नं तत्पुरुषाय नमः हृदये - कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
         ऊँ मं अघोराय नमः पादयोः - कहते हुए अपने पैरों का स्पर्श करे।
         ऊँ शिं सद्योजाताय नमः गुह्ये  - कहते हुए अपने गुदा का स्पर्श करे।
         ऊँ वां वामदेवाय नमः मूर्ध्नि - कहते हुए अपने मूर्धा का स्पर्श करे।
         ऊँ यं ईशानाय नमः मुखे   - कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
करन्यास- ऊँ अंगुष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों अंगूठों का स्पर्श करे।
         ऊँ नं तर्जनीभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों तर्जनी का स्पर्श करे।
         ऊँ मं मध्यमाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों मध्यमा का स्पर्श करे।
        ऊँ शिं अनामिकाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों अनामिका का स्पर्श करे।
        ऊँ वां कनिष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों कनिष्ठा का स्पर्श करे।
        ऊँ यं करतलकरपृष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने दोनों हथेलियों का स्पर्श करे।
हृदयादिन्यास-ऊँ हृदयाय नमः - कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
        ऊँ नं शिरसे स्वाहा- कहते हुए अपने सिर का स्पर्श करे।
        ऊँ मं शिखायै वषट् - कहते हुए अपने शिखा का स्पर्श करे।
        ऊँ शिं कवचाय हुम् - कहते हुए अपने दोनों वाजुओं का स्पर्श करे।
        ऊँ वां नेत्रत्रयाय वौषट् - कहते हुए अपने दोनों नेत्रों का स्पर्श करे।
        ऊँ यं अस्त्राय फट्   - कहते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा को वायें हाथ की हथेली पर बजावे।
 पुनः जल लेकर विनियोग करे- ऊँ अस्य श्री प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः ऋग्ययुःसामानि
च्छन्दान्सि क्रियामयवपुः प्राणाख्या देवता आँ बीजं,ह्रीँ शक्तिः क्रौं कीलकं देवप्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः।

प्रतिष्ठा-न्यासः-  ऊँ ब्रह्म-विष्णु-रुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि(सिर का स्पर्श)
              ऊँ ऋग्ययुःसामच्छन्दोभ्यो नमः मुखे (मुख का स्पर्श)
              ऊँ प्राणाख्यदेवतायै नमः हृदि (हृदय का स्पर्श)
              ऊँ आँ बीजाय नमः गुह्ये (गुदा का स्पर्श)
              ऊँ ह्रीँ शक्त्यै नमः पादयोः  (पैरों का स्पर्श)
              ऊँ क्रौं कीलकाय नमः सर्वांगेषु  (पूरे शरीर का स्पर्श)
अब हाथों में रंगीन(लाल,पीला) फूल लेकर दोनों हाथों से माला को ढककर इन मन्त्रों का उच्चारण करे, और भावना करे कि देवता की शक्ति रुद्राक्ष मनकों में अवतरित हो रही है-
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य प्राणाः इह प्राणाः।
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य जीव इह स्थितः।
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वक्चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वापाणि-पादपायूषस्थानि इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।।
अब पुनः अक्षत-पुष्प लेकर,हाथ जोड़कर निम्नांकित मंत्रो का उच्चारण करते हुए भावना करे कि शिव विराज रहे हैं मनकों में-
ऊँ भूः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि।
ऊँभुवःपुरुषंसाम्बसदाशिवमावाहयामि।                             ऊँ स्वः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि।
इस प्रकार रुद्राक्ष-माला में साक्षात् शिव को स्थापित भाव से यथासम्भव षोडषोपचार पूजन करे।तत्पश्चात् कम से कम ग्यारह माला श्री शिव पंचाक्षर मन्त्र का जप,तत्दशांश हवन,तत्दशांश तर्पण,तत्दशांश मार्जन एवं एक वटुक और एक भिक्षुक को भोजन और दक्षिणा प्रदान कर माला-संस्कार की क्रिया को सम्पन्न करें।इस प्रकार पूरे विधान से संस्कृत रुद्राक्ष माला पर आप जो भी जप करेंगे सामान्य की तुलना में सौकड़ों गुना अधिक लाभप्रद होगा।इस बात का भी ध्यान रखें कि इस माला की मर्यादा को बनाये रखना है।जिस-तिस के स्पर्श,यहाँ तक कि दृष्टि से बचाना है।कहने का तात्पर्य यह कि सदा जपमालिका में छिपाकर मर्यादापूर्वक रखना है।बर्ष में एक या दो बार उसके वस्त्र भी बदल देना है।अस्तु।

रुद्राक्ष के तान्त्रिक प्रयोगः- 

आयुर्वेद एवं तन्त्रशास्त्रों में रुद्राक्ष के अनेकानेक प्रयोग बतलाये गये हैं।विविध प्रकार की दैहिक-दैविक-भौतिक संतापों का निवारण रुद्राक्ष से हो सकता है।आधुनिक विज्ञान भी इस पर काफी भरोसा करने लगा है।यहाँ कुछ खास प्रयोगों की चर्चा की जारही है-
Y     शिव-कृपा- किसी भी आकार और मुख वाले रुद्राक्ष को विधिवत शोधित-संस्कारित करके शिव-प्रतिमा की तरह पूजा जा सकता है- वस यही समझें कि साक्षात् शिव ही विराज रहे हैं रुद्राक्ष-मनके में।
Y     शिवपुराणादि ग्रन्थों में तो शरीर के विभिन्न अंगों में रुद्राक्ष धारण का विधान है,किन्तु कम से कम सिर्फ गले में ५४ या १०८ दानों की माला धारण करने मात्र से काफी लाभ होता है।धार्मिक लाभ के अतिरिक्त स्वास्थ्य लाभ भी है।रक्तवहसंस्थान की विभिन्न वीमारियों में अद्बुत लाभ होता है।हृदयरोगों में इसके चमत्कार को परखा जा सकता है।ग्यारह माला शिवपंचाक्षर मंत्राभिमंत्रित रुद्राक्ष के
§  पांच बड़े दानों को गले या बायीं बांह में(सामान्य नियम से विपरीत- पुरुष या स्त्री दोनों को)बाँधने से उच्चरक्त चाप या हृदयरोग में अप्रत्याशित लाभ होता है।विना अभिमंत्रण के भी धारण करने से लाभ तो होगा ही,किन्तु अभिमंत्रित कर देने से गुण में बृद्धि हो जायेगी।इसी भांति अभिमंत्रित दानों को जल में घिस कर एक-एक चम्मच अवलेह नित्य दो-तीन बार लिया जाय तो अद्भुत लाभ होगा।स्वस्थ व्यक्ति भी इस प्रयोग को कर सकते हैं- तेज,बल,वीर्य की बृद्धि होकर आरोग्य और दीर्घायु लाभ होगा।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष के तीन-पांच-सात-नौ-ग्यारह-इक्कीश-सत्ताइस-इकतीस-चौवन या एक सौ आठ दाने सुविधानुसार धारण करने से समस्त त्रितापों(दैहिक-दैविक-भौतिक) का शमन होता है।
Y     उक्त रीति से रुद्राक्ष धारण करने से अद्भुत रुप से सम्मोहन होकर,मान-प्रतिष्ठा में बृद्धि,यश-श्री-लाभ की प्राप्ति होती है।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को घिस कर शरीर में लेप करने से भी सम्मोहन-आकर्षणादि की सिद्धि होती है।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को चन्दन की तरह घिस कर नियमित सेवन करने से भी सम्मोहन-आकर्षणादि की सिद्धि होती है।
Y     विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष के पांच दाने(बड़े आकार वाले) किसी स्वच्छ तांम्र-पात्र में डाल कर रातभर छोड़ दें।सुबह उस जल का सेवन करें।इस प्रकार के महीने भर के प्रयोग से उदर-विकार,अनिद्रा अम्लपित्त,गैस,कब्ज आदि दैहिक व्याधियों मे आशातीत लाभ होता है।इस प्रयोग में ध्यान रहे कि रुद्राक्ष पर पुरानी किसी प्रकार की गंदगी न हो।
Y     विभिन्न बाल-रोगों में विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष के तीन या पांच दाने लाल धागे में (ग्रन्थियुक्त) गूथ कर सोमवार के प्रातःकाल गले में पहना दें।अद्बुत लाभ होगा।
Y     प्रायः बच्चे चिड़चिड़े हो जाते हैं,बात-बात में उन्हें किसी की टोक लग जाती है,सोते समय चिहुँक कर उठ जाते हैं,माँ का दूध या बाहरी दूध पीने से इन्कार करते हैं- इस तरह की अनेक बाल-समस्याओं में विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को माँ के दूध के साथ घिस कर, उम्र के अनुसार (आधा या एक चम्मच) पिलाने से शीघ्र लाभ होता है।
 बन्ध्यत्व निवारण हेतु समभाग विधिवत शोधित-साधित रुद्राक्ष को सुगन्ध रास्ना के साथ चूर्ण करके एक-एक चम्मच प्रातः - सायं के हिसाब से गाय के दूध के साथ ऋतुस्नान के दिन से प्रारम्भ कर लागातर सात दिनों तक सेवन करना चाहिए।यह क्रिया लागातार कुछ महीने तक जारी रखे।इस बीच सन्तानेच्छु स्त्री नित्य कम से कम एक माला शिवपंचाक्षर मंत्र का जप और शिव पूजन करती रहे।स्वयं न हो सके तो पति करे या फिर किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा कराये।
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