पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम्-40

                  १८. गोरखमुण्डी
      गोरखमुण्डी एक सुलभप्राप्य वनस्पति है।इसके छोटे-छोटे पौधे गेहूं,जौ,रब्बी आदि के खेतों में बहुतायत से पाये जाते हैं।प्रायः जाड़े में स्वतः उत्पन्न होने वाले ये बड़े घासनुमा पौधे गर्मी आते-आते परिपक्व होजाते हैं।दो-तीन ईंच लम्बी दांतेदार पत्तियों के ऊपरी भाग में, गुच्छों में छोटे-छोटे घुण्डीदार फल लगते हैं,जो वस्तुतः फूल के ही सघन परिवर्तित रुप हैं।ये पौधे यदाकदा जलाशयों के जल सूखजाने के बाद वहाँ भी स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं।आयुर्वेद में रक्तशोधक औषधी के रुप में इसका उपयोग होता है।
     ऐसी मान्यता है कि इसके तान्त्रिक प्रयोगों के जनक तन्त्र गुरू गोरखनाथजी हैं,और उनके नाम पर ही सामान्य मुण्डी गोरखमुण्डी हो गया।पूर्व अध्यायों में वर्णित विधि से इसे ग्रहण करके उपयोग करने से कई लाभ मिलते हैं।
Y     तन्त्र-सिद्ध गोरखमुण्डी को (पंचाग) सुखा कर चूर्ण बनालें।इसे शहद के साथ नित्य प्रातः-सायं एक-एक चम्मच की मात्रा में खाने से बल-वीर्य,स्मरण-क्षमता,चिन्तन और धारणा तथा वाचा-शक्ति का विकास होता है।
Y     इसके चूर्ण को रात भर भिगोकर,सुबह उस जल से सिर धोने से केश-कल्प का कार्य करता है।
Y     गोरखमुण्डी के ताजे स्वरस को शरीर पर लेप करने से ताजगी और स्फूर्ति आती है।त्वचा की सुन्दरता बढ़ती है।
Y     गोरखमुण्डी के चूर्ण को जौ के आटे में मिलाकर(चार-एक की मात्रा में),रोटी बनाकर,गोघृत चुपड़ कर खाने से बल-वीर्य की बृद्धि होकर वुढ़ापे की झुर्रियां मिटती हैं।शरीर कान्तिवान होता है।
Y     गोरखमुण्डी का सेवन दूषित रक्त को स्वच्छ करता है।विभिन्न रक्तविकारों में इसे सेवन करना चाहिए।
उक्त सभी प्रयोग सामान्य औषधि के रुप में भी किये जा सकते हैं,किन्तु तान्त्रिक विधान से ग्रहण करके,साधित करके उपयोग में लाया जाय तो लाभ अधिक होगा यह निश्चित है।
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