अध्याय ग्यारह का शेषांश-
(४)
धन-ऋण कांकणी विचार-
इस सूत्र द्वारा भूमि चयन करने के लिए
सर्वप्रथम उपर्युक्त द्वितीय विधि से अपने नाम और वांछित नगर के नाम का वर्ग जान
लेना चाहिये।इसके बाद धन-ऋण का विचार करना चाहिये।
यथा-
नागेश का नाम-वर्गांक हुआ- ५ एवं पटना का ग्राम वर्गांक हुआ- ६
अब
इन दो अंकों से क्रमशः दो बार क्रिया करके धन-ऋण की जानकारी करेंगे।
यथा-
१. (नाम × २ + ग्राम)
÷ ८ = नाम कांकणी
२. (ग्राम × २ + नाम) ÷ ८ = ग्राम कांकणी
अब,
(नागेश-
५ × २ + पटना- ६) ÷ ८ = शेष 0 नाम कांकणी
(पटना- ६ × २ + नागेश- ५)
÷ ८ = शेष १ ग्राम कांकणी
यहाँ
हम देखते हैं कि नाम की काकिणी कम है, ग्राम की कांकणी से।परिणाम यह होगा कि
पटना नगर नागेश के लिये हमेशा आर्थिक दृष्टि से हानिकारक होगा। इसी सूत्र से विचार
करने का एक और तरीका ऋषियों ने सुझाया है,जिसमें संख्यायें तो वे ही होंगी, किन्तु
गणना भिन्न रीति से करना है।
अंकस्य वामागति - गणितीय सूत्रानुसार नाम-ग्राम,और ग्राम-नाम की स्थापना करे।पूर्व
रीति से आठ का भाग देकर शेष का फल विचार करे।यथा-
नाम-ग्राम- ६५ ÷ ८ = शेष १ नाम काकिणी अथवा
नाम ऋण
ग्राम-नाम- ५६ ÷ ८ = शेष ० ग्राम काकिणी अथवा
नाम धन
इस
तरह से धन-ऋण की अधिकता का विचार करेंगे।उपर के उदाहरण में नाम का धन ० है,और ऋण १ है।अतः नागेश के लिये पटना में रहना आर्थिक रूप से हानिकारक
होगा।
उक्त दोनों उदाहरण मूलतः एक ही सूत्र की, अलग-अलग
ऋषियों की व्याख्यायें हैं।अतः किसी संशय की बात नहीं।
भूमि-चयन-विचार
में प्रयुक्त सिद्धान्तों पर आर्ष वचन-
१)
काकिण्यां वर्गशुद्धौ च वादे द्यूते स्वरोदये।
मन्त्रे
पुनर्भूवरणे नामराशेः प्रधानता।।(मु.चि.वा.प्र.)
२)
साध्यवर्गं पुरः स्थाप्य साधकं पृष्ठतो न्यसेत्।
विभजेदष्टभिः शेषं साधकस्य धनं तथा।।
व्यत्ययेनागतं शेषं साधकस्य ऋणं स्मृतम् ।
धनाधिकं स्वल्पमृणं सर्वसम्पत्प्रदं
स्मृतम्।।
(वशिष्ठ)
३)
गोसिंहनक्रमिथुनं निवसे न मध्ये।
ग्रामस्य पूर्वककुभोऽलिझषाङनाश्च।
ग्रामस्य पूर्वककुभोऽलिझषाङनाश्च।
कर्को
धनुस्तुलभमेषघटाश्च तद्वद्।
वर्गास्स्वपञ्चपरा बलिनः स्युरैन्द्र्याः।। (मु.चि.वा.प्र.)
वर्गास्स्वपञ्चपरा बलिनः स्युरैन्द्र्याः।। (मु.चि.वा.प्र.)
४) स्फुटिता च सशल्याच वल्मीकाऽरोहिणी तथा।
दूरतः परिहर्तव्या कर्तुरायुर्धनापहा।।
स्फुटिता मरणां कुर्यादूषरा धननाशिनी।
सशल्या क्लेशदा नित्यं विषमा शत्रुवर्धनी।।(वृहत्संहिता)
५)
ग्रामादेरनुकूलत्वं दिशो भूतग्रहस्य च।
गृहधिष्ण्यादिकं
शुद्धं वीक्ष्यायव्ययमंशकान्।।
सुगेहं
रचयेद्धीमान्वास्तुशास्त्राऽनुसारतः।।(वास्तुरत्नाकर-भू.परि.प्र.)
६)
आदौ भूमिपरीक्षणं शुभदिने पश्चाच्च वास्त्वर्चनं,
भूमेः शोधनकं
ततोऽपि विधिवत्पाषाणतोयान्तकम्।
पश्चाद्वेश्र्मसुरालयादिरचनार्थं
पादसंस्थापनं
कार्यं
लग्नशशाङ्कशाकुनबलैः श्रेष्ठे दिने धीमता।। (वास्तुराजवल्लभ-११-१४)
इस प्रकार आर्ष वचनानुसार,पहले भूमि की हर
तरह से परीक्षा करे, फिर वास्तुपूजन करके विलकुल तह तक(जल निकलने तक)भूमि का शोधन
करे।उसके बाद लग्न-चन्द्रादि शकुन-बल-विचार करके शुभ मुहूर्त में पाद-संस्थापन(layout) करना चाहिये।
क्रमशः....
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