गतांश से आगे....
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार -भाग ग्यारह
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार -भाग ग्यारह
बहुद्वार विशेषः-
बहुद्वारेष्वलिन्देषु न द्वारनियमस्मृतः।
तथोपसदने
जीर्णे द्वारे सन्धारणेऽपि च।।(वास्तुरत्नाकर ८-५१)
अनेक कमरों वाले भवन में विशेष द्वार नियम
लागू नहीं होता,अर्थात् वांछित स्थान पर द्वार बनाया जा सकता है,तथा मुख्यसदन के
अतिरिक्त सदनों में भी ये सुविधा है।
कथन का अभिप्राय यह है कि एक बड़े से परिसर में मुख्यभवन के अतिरिक्त कई
सहभवन होते हैं।मुख्यभवन भी बहुमंजिल-बहुकक्षीय होता है।ऐसी स्थिति में द्वार-नियम
काफी लचीला हो जाता है।सिर्फ मुख्यद्वार उचित स्थान पर बना कर शेष द्वार
रुचि-अनुसार बनाये जा सकते हैं;किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि वास्तु-नियम की
धज्जी उड़ा दी जाय।जहाँ तक सम्भव हो सके, यथोचित वास्तु नियमों का पालन अन्य
दरवाजों की स्थापना के लिए भी करना चाहिए।विशेष लाचारी की स्थिति में ही नियम भंग
किया जाय,तथा उसके परिणाम और दोष निवारण का भी उपाय अवश्य कर लिया जाय।
मुख्यद्वार का नाम(दिशानुसार)-
दिशा
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नाम
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फल
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पूर्व
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विजयद्वार
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अतिशुभ,सुख और
विजयदायी
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दक्षिण
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यमद्वार
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संघर्षपूर्ण,स्त्रियों
के लिये विशेष कष्टकर
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पश्चिम
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मकरद्वार
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दुर्जेय किन्तु आलस्यकारी
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उत्तर
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कुबेरद्वार
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शुभद,सुखद,समृद्धिदायक
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मुख्यद्वार के बाद भीतर का दूसरा द्वार-
भवन में प्रवेश के बाद आंगन,बरामदा,कक्ष
आदि में जाने का भी विचार जरूरी है।इसके लिए भी वास्तु
सम्मत मार्गदर्शन हैं।अन्तःप्रवेश की मुख्य चार स्थिति
के आधार पर चार प्रकार कहे गये हैं।यथाः-
§ उत्संग द्वार -सर्वोत्तम है कि दूसरा अन्तःद्वार
मुख्यद्वार के सम्मुख हो।इसे उत्संग द्वार कहते हैं।इससे धन-धान्य,सुख-समृद्धि आती
है।
§ सव्य द्वार- अन्तःद्वार-प्रवेश मुख्यद्वार से दाहिने
हो तो सव्यद्वार कहलाता है।यह भी उक्त फलदायी है।
§ अपसव्य द्वार - प्रवेश से बायीं ओर पड़ने वाला अपसव्य
द्वार नानाक्लेश-रोगादि का निमंत्रक है।अतः इससे सदा परहेज करना चाहिए।
§ पृष्ठभंग द्वार- मुख्यद्वार में प्रवेश के बाद विपरीत
दिशा में होकर अन्तः प्रवेश हो तो उसे पृष्ठभंग द्वार कहते हैं।वस्तुतः यह परिसर
प्रवेश और मुख्यद्वार के आपसी सम्बन्ध को ईंगित करता है।यह स्थिति गृहस्वामी के
लिए अति अमंगलकारी है।
उक्त चार प्रकार के द्वारों का विचार समान
रुप से परिसर प्रवेश के क्रम में भी करना चाहिए,यानी परिसर में प्रवेश के बाद
मुख्यभवन में प्रवेश किस भांति हो रहा है। वास्तुराजवल्लभ,मत्स्य पुराण आदि ग्रन्थों में स्पष्ट निषेध किया
गया है।जहाँतक हो सके भवन में सभी तरह के वामावर्त कार्यों से सर्वथा बचना ही
चाहिए।चाहे वह पीलर खड़ा करने की बात हो या सीढ़ी बनाने की बात या कोई अन्य
निर्माणकार्य।जैसा कि कहा गया है- सव्यावर्तःप्रशस्यते—अपसव्यो विनाशाय.....।
क्रमशः....
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