पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-70

गतांश से आगे....अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार- भाग चौदह

मुख्यद्वारवेध- इस सम्बन्ध में भूखण्ड-वेध के प्रसंग में काफी कुछ कहा जा चुका है।यहाँ कुछ और तथ्यों पर एक नजर डाल लिया जाए।यथा-
मार्गतुरुकोणकूपस्तम्भभ्रमविरुद्धमशुभदं द्वारम्।
उच्छ्रायाद्द्विगुणमितांत्यक्त्वाभूमिंन दोषाय।।(वृहत्संहिता५२-७४,वास्तुरत्नाकर८-५२)
द्वारं विद्धमशोभनं च तरुणा कोणभ्रमस्तम्भकैः.
कूपेनापि च मार्गदेवभवनैर्विद्धं तथा कीलकैः।
उच्छायाद् द्विगुणां विहाय पृथिवीं वेधो न भित्त्यन्तरे
प्राकारान्तरराजमार्गपरतोवेधोन कोणद्वये।।(वास्तुराजवल्लभ ५-२७,वास्तुरत्नाकर८-५५)
अर्थात् मार्ग,वृक्ष,कोण,कूप,स्तम्भ,कोल्हू,कील,देवस्थल आदि सामने होकर द्वार-
वेधदोष उत्पन्न करते हैं;किन्तु भवन की ऊँचाई से दूनी दूरी पर हों,अथवा बीच में कोई राजमार्ग पड़े तो यह दोष निस्प्रभावी हो जाता है।

मुख्यद्वारविचार-निष्कर्षः-
v मुख्यद्वार स्थापना काफी सोच-समझ कर करें।
v मुख्य द्वार-स्थापन मुहुर्त-विचार पूर्वक होना चाहिए- स्थापन विधान से।
v मुख्य द्वार का आकार अन्य द्वारों से कुछ बड़ा होना चाहिए। तुलनात्मक निकृष्टता अतिदोषपूर्ण है।
v मुख्य द्वार की विशिष्ट साज-सज्जा(मांगलिक चिह्न-युक्त होना)आवश्यक है।घर के अन्य दरवाजों की तरह ही इसे नहीं होना चाहिए।
v  मुख्यद्वार के सामने(न्यूनतम साढे सात हाथ के अन्दर)दूसरे भवन का द्वार,खम्भा या पीलर,किसी प्रकार का गड्ढा, सामने से आती सड़क,वृक्ष, कोल्हू,चक्की,कोई भी धार्मिक स्थल,जलाशय,या अन्य व्यवधान—ये सब द्वारवेध की श्रेणी में आते हैं।अतः इनसे सर्वथा-सर्वदा परहेज करना चाहिए।
v मुख्यद्वार के किवाड़ की जोड़ी अनिवार्य है,यानी दो पल्ले का हो।दो से अधिक पल्ले भी किसी भी द्वार के लिए अशुभ होते हैं।यह नियम अन्य दरवाजों के लिए भी लागू होता है।विशेष कारण से अधिक पल्ले लगाने हों तो पुनः उनके जोड़े का ध्यान रखना चाहिए।
v मुख्यद्वार का चारों चौखट अत्यावश्यक है।प्रायः लोग निचले चौखट को महत्वहीन समझ लेते हैं।यह नियम भी सभी दरवाजों के लिए पालनीय है।
v आवाज के साथ खुलने-बन्द होने वाले द्वार संकटकारी होते हैं,साथ ही स्त्रियों को गर्भपात की आशंका रहती है।
v किसी के घर के ठीक पिछवाड़े बने मकान का मुख्यद्वार सदा दोनों गृहस्वामियों के लिए कलहकारी होता है।इसके निवारण के लिए न्यूनतम साढ़े सात हाथ की सार्वजनिक गली का अन्तराल होना चाहिए।
v द्वार का अपनेआप खुलना-बन्द होना अच्छा नहीं है।स्वयं खुलने से उन्माद (पागलपन)की आशंका होती है,एवं स्वयं बन्द होने से कुलनाश का भय होता है।स्वयमेव खुलते-बन्द होते रहने से उच्चाटन,उद्वेग,कलह, धनक्षय,बन्धुओं से बैर आदि की आशंका बनी रहती है।
v  दक्षिण द्वार लाचारी में ही बनाना चाहिए,साथ ही इसका जवाबी काट उत्तर दिशा में अवश्य दे देना चाहिए। प्रायः देखा गया है कि दक्षिण द्वार वाले मकान को या तो शीघ्र बेंचने को मजबूर होना पड़ता है,अथवा वास करने वाला किसी न किसी कारण से हमेशा कष्ट में रहता है।
v द्वार की चौड़ाई से दुगनी- द्वार की ऊँचाई होनी चाहिए।
v वास्तुनियम से जहाँ दरवाजा लगाना जरुरी लग रहा हो,पर किसी कारण से न लग पा रहा हो तो अभाव में खिड़की,गवाक्ष आदि भी इसके परिहार/विकल्प हैं।
v सूर्य राशि से गणना करते हुए वृष,कन्या और मिथुन में ही दक्षिण द्वार स्थापित करना चाहिए।वह भी विनायक शान्ति करके ही;अन्यथा परेशानी हो सकती है।(विनायक शान्ति विधान की चर्चा आगे की जायेगी।)
v  पश्चिम दिशा- द्वार स्थापन के द्वितीय श्रेणी में है।इसमें भी पूर्वी काट आवश्यक है,किन्तु दक्षिणी जैसा अपरिहार्य नहीं।
v नाम-राशि के वर्णों के अनुसार भी द्वार स्थापन का विधान है।
v द्वार के चौखट की स्थापना दीवार की मोटाई के ठीक बीचोबीच,या बिलकुल किनारे नहीं होना चाहिए।
v यदि मुख्यद्वार पूर्वमुखी हो तो अन्तःप्रवेशद्वार पूर्वी कमरे के उत्तरी अर्द्ध भाग में रखा जाना चाहिए।
v यदि मुख्यद्वार उत्तरमुखी हो तो अन्तःप्रवेशद्वार उत्तरी कमरे के पूर्वी अर्द्ध भाग में रखा जाना चाहिए।
v यदि मुख्यद्वार पश्चिममुखी हो तो अन्तःप्रवेशद्वार पश्चिमी कमरे के उत्तरी अर्द्धभाग में रखा जाना चाहिए।
v यदि मुख्यद्वार दक्षिणमुखी हो तो अन्तःप्रवेशद्वार दक्षिणी कमरे के पूर्वी अर्द्धभाग में रखा जाना चाहिए।
v वर्जित स्थानों में मुख्य द्वार कदापि न बनाये जाए।
v मुख्यद्वार का रंग दिशा के अनुसार होना उत्तम है।इसके लिए दिशा ग्रह और उनके रंगों की सारणी देखनी चाहिए।
v विशेष स्थिति में स्वामी के नामराशि के अनुकूल रंग का चुनाव करना चाहिए।
v मुख्यद्वार-निर्माण में एक ही लकड़ी का प्रयोग किया जाना चाहिए।अधिक से अधिक चौखट और किवाड़ की काष्ट-भिन्नता हो सकती है।जैसे सखुआ के चौखट और शीशम का पल्ला हो सकता है।
v आजकल लोहे का प्रचलन जोरों पर है।सुरक्षा और मजबूती के विचार से यह युगानुकूल भी है,किन्तु इसकी त्रुटियों को समुचित रंग-योजना से दूर करना चाहिए।ऐसा नहीं कि पूरब दिशा में लोहे का चौखट-किवाड़ लगा कर नीले,पीले,हरे या लाल रंग से रंग दिया जाय।इसकी स्पष्टी हेतु दिशा, ग्रह,धातु,रंग,मित्र-शत्रु आदि की सारणी का अवलोकन करना चाहिए।
v मुख्यद्वार पर खड़े होने पर भवन का केन्द्रीय भाग नजर नहीं आना चाहिए(यानी अन्तःप्रवेश द्वार योजना सही हो)।
v  अपरिहार्य वास्तुदोषों के निवारण के लिए आगे वास्तुदोषनिवारण अध्याय का अवलोकन करें।
v यथासम्भव प्रयास हो कि निवारण का सहारा न लेना पड़े,यानी मुख्यद्वार सर्वथा त्रुटिरहित हो।

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क्रमशः....

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