गतांश से आगे.....अध्याय 23 भाग 16
पञ्चलोकपाल आवाहन-पूजनः- अब पुनः मध्य वेदी के समीप आकर प्रधान
कलश के सामने, गणेशाम्बिका के समीप, पंचलोकपालों को आहूत कर पूजन करेंगे।हालाकि स्कन्दपुराण
में कहा गया है- गणेशश्चाम्बिका वायुराकाशश्चाश्विनौ तथा।ग्रहाणामुत्तरे पञ्चलोकपाला
प्रकीर्तिताः।। इस निर्देशानुसार तो इन्हें भी नवग्रहवेदी पर ही(उत्तरीभाग में
यानी केतुखंड में गणेश-दुर्गा,गुरुखंड में वायु,आकाश और अश्विनी इन पांच को स्थान
देना चाहिए,तथा बुधखंड में वस्तोष्पति और क्षेत्रपाल को भी आहूत करना
चाहिए।ध्यातव्य है कि क्षेत्रपाल के लिए स्वतन्त्र वेदी भी वास्तु पूजा मंडल में
वायु कोण पर बनाया गया है;एवं वास्तोष्पति को समाहित कर लिया गया है- नैऋत्यकोण की
मुख्य वास्तुवेदी में।अतः सुविधा/लोकरीति के अनुसार,इन्हें नवग्रह वेदी पर ही
समुचित स्थान देदें,और पुनः स्वतन्त्र वेदियों पर भी आहूत कर पूजित करें। गृहारम्भ
पद्धति के प्रारम्भ में वास्तुपूजामंडल हेतु दिये गये चित्र में मुख्यकलश के सामने
ही इन्हें दर्शाया गया है,साथ ही सप्तघृतमात्रिका को भी यहीं रखा गया है,जब कि आगे
इनके पूजा प्रसंग में अग्निकोण में षोडशमात्रिका के समीप रखने का संकेत भी दिया
गया है।यहाँ पुनः स्पष्ट कर दूँ कि इनका आवाहन-पूजन अनिवार्य है।लोकरीति के अनुसार
किंचित स्थान भेद पर अधिक संशय नहीं करना चाहिए।
आवाहनः- बायें हाथ में अक्षत लेकर,दायें हाथ से
क्रमशः निर्दिष्ट कोष्टकों में छोड़ते जायेंगे। आचार्य मन्त्रोच्चारण करेंगे- १.गणेश—(केतुखंडमें)ॐ
लम्बोदरं महाकायं गजवक्त्रं चतुर्भुजं।आवाहयाम्यहमं देवं गणेशं सिद्धिदायकम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः गणपते ! इहागच्छ,इह तिष्ठ,गणपतये नमः,गणपतिमावाहयामि,स्थापयामि।
२.दुर्गा— (केतुखंडमें)- पत्तने नगरे ग्रामे
विपिने पर्वते गृहे। नानाजातिकुलेशानीं दुर्गामावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः दुर्गे
! इहागच्छ,इह तिष्ठ, दुर्गायै नमः,दुर्गामावाहयामि, स्थापयामि।
३.वायु —(गुरुखंडमें)—आवाहयाम्यहं वायुं भूतानां
देहधारिणाम्। सर्वाधारं महावेगं मृगवाहनमीश्वरम्।।ॐ भूर्भुवः स्वः वायो !
इहागच्छ,इह तिष्ठ, वायवे नमः,वायुमावाहयामि, स्थापयामि।
४.आकाश —(गुरुखंडमें)—अनाकारं शब्दगुणं द्यावाभूम्यन्तरस्थितम्।आवाहयाम्यहं
देवमाकाशं सर्वगं शुभम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः
आकाश ! इहागच्छ,इह तिष्ठ, आकाशाय नमः, आकाशमावाहयामि,स्थापयामि।
५.अश्विनी —(गुरुखंडमें)-देवतानां च भैषज्ये
सुकुमारौ भिषग्वरौ। आवाहयाम्यहं देवावश्विनौ पुष्टिवर्द्धनौ।। ॐ भूर्भुवः स्वः अश्विनौ
! इहागच्छ,इह तिष्ठ,अश्विभ्याम् नमः,
अश्विनामावाहयामि,स्थापयामि।
तदन्तर, ॐ गणेशादिपञ्चलोकपालेभ्यो नमः —इस
नाम मन्त्रोच्चारण पूर्वक यथोपचार पूजन करे,जैसा कि अन्य देवों का करते आए
हैं।तदन्तर,पुष्पाक्षत लेकर- अनया पूजया गणेशादि पञ्चलोकपालाः प्रीयन्ताम्,न
मम- बोलते हुए छोड़ दे।
तथाच- पंचलोकपालों की भांति इन दोनों को भी
नवग्रहवेदी के बुधखंड में आहूत करें।गीताप्रेस नित्यकर्मपूजाप्रकाश में कहा गया है—यज्ञादि
विशेष अनुष्ठानों में वास्तोष्पति एवं क्षेत्रपाल देवता का पृथक्-पृथक चक्र बनाकर
विशेष पूजा की जाती है।नवग्रहमंडल के देवगणों में भी इनकी पूजा करने का विधान है।इस
प्रकार, यह स्पष्ट है कि दोनों प्रकार से इनकी पूजा होनी चाहिए,क्यों कि
वास्तुशान्ति-गृहप्रवेश एक महान यज्ञ ही है।
१.वास्तोष्पति— वास्तोष्पतिं विदिक्कायं
भूशय्याभिरतं प्रभुम्। आवाहयाम्यहं देवं सर्वकर्मफलप्रदम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः वास्तोष्पते
! इहागच्छ,इह तिष्ठ,वास्तोष्पतये नमः, वास्तोष्पतिमावाहयामि,स्थापयामि।
२.क्षेत्रपाल—भूतप्रेतपिशाचाद्यैरावृतं
शूलपाणिनम्। आवाहये क्षेत्रपालं कर्मण्यस्मिन् सुखाय नः।। ॐ भूर्भुवः स्वः क्षेत्राधिपते ! इहागच्छ,इह तिष्ठ,क्षेत्राधिपतये
नमः, क्षेत्राधिपतिमावाहयामि,स्थापयामि।
तदन्तर, ॐ वास्तोष्पतये नमः,ॐ
क्षेत्रपालाय नमः —इस नाम मन्त्रोच्चारण पूर्वक यथोपचार पूजन करे,तत्पश्चात्
पुष्पाक्षत लेकर- अनया पूजया वास्तोष्पति एवं क्षेत्राधिपति प्रियेताम् न मम--बोलते
हुए दोनों देवों पर छोड़ दे।
----इति पञ्चलोपालादिपूजनम्---
दशदिक्पाल आवाहन-पूजनः-
गृहप्रवेश-वास्तुशान्ति-पूजा क्रम में अब
बारी है दशदिक्पालों की।संक्षिप्त और सामान्य विधि में तो इन्हें भी नवग्रहमण्डल
में ही यथास्थान स्थापित कर पूजित करने का विधान है। अति संक्षिप्त पूजनकर्म में
कलश के समीप ही सामने एक ही पत्रावली पर अनेक देवी-देवताओं को आहूत कर पूजित कर
देने की परम्परा है।थोड़े विस्तार में जाने पर नवग्रह मंडल पर आते हैं। कहीं-कहीं
आचार्यगण अधिक अलंकारिक स्वरुप देते हुए,वड़े यज्ञों,गृहप्रवेशादि कर्म में यज्ञ-मंडप/भवन
के विलकुल बाहर पूर्वादि क्रम से दसों दिशाओं में स्थापित कर पूजित करते हैं। इनका
नियत स्थान ऊपर दिये गये चित्र में स्पष्ट किया गया है।नवग्रहमंडल हो या पूरा
वास्तुमंडल (भवन)इनके निश्चित स्थान में परिवर्तन नहीं होगा,वे यथावत वहीं रहेंगे।
सुविधा और स्थितिनुसार पूरा वास्तुमंडल या नवग्रहवेदी या कि वास्तुपूजा स्थल पर
बनाया गया घेरा—इन तीनों में किसी का भी चयन किया जा सकता है।पद्धति के प्रारम्भ
में दिये गये चित्र में हमने इन्हें वास्तुपूजा स्थल पर ही दिखाया है,जो
सुन्दर,व्यवस्थित और सुविधापूर्ण प्रतीत होता है।आगे, आवाहन मन्त्रों के साथ दिशा
और वर्ण भी निर्दिष्ट है।भवन के ऊपर,या वास्तुपूजामंडल में दिक्पालों का पताका
स्थापित करने हेतु उक्त वर्णों का उपयोग करना चाहिए।
बायें हाथ में पुष्पाक्षत लेकर,
आचार्य के आवाहन-मन्त्रोच्चार सहित यजमान(पूजनकर्ता)निर्दिष्ट स्थानों पर अक्षत
छोड़ते जायें-
१. इन्द्र–(पूर्व,पीतवर्ण)- ॐ इन्द्रं
सुरपतिश्रेष्ठं वज्रहस्तं महाबलम्। आवाहये यज्ञसिद्ध्यै शतयज्ञाधिपं प्रभुम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः इन्द्राय नमः,इन्द्रमावाहयामि,स्थापयामि।
२. अग्नि-(अग्निकोण,रक्तवर्ण)- ॐ त्रिपादं सप्तहस्तं
च द्विमूर्धानं द्विनासिकम्। षण्नेत्रं च चतुः श्रोत्रमग्निमावाहयाम्यहम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः अग्नये नमः, अग्निमावाहयामि,स्थापयामि।
३. यम-(दक्षिण,कृष्णवर्ण)-ॐ महामहिषमारुढं
दण्डहस्तं महाबलम्। यज्ञसंरक्षनार्थाय यममावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः यमाय
नमः, यममावाहयामि,स्थापयामि।
४. निर्ऋति-(नैर्ऋत्यकोण,नीलवर्ण)- ॐ निर्ऋत्यां
खड्गहस्तं च नरारुढ़ं वरप्रदम्। आवाहयामि यज्ञस्य रक्षार्थं नीलविग्रहम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः निर्ऋतये नमः, निर्ऋतिमावाहयामि, स्थापयामि।
५. वरुण-(पश्चिम,कृष्णवर्ण)-ॐ शुद्धस्फटिकसंकाशं
जलेशं यादसां पतिम्। आवाहये प्रतीचीशं वरुणं सर्वकामदम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः वरुणाय
नमः,वरुणमावाहयामि,स्थापयामि।
६. वायु-(वायुकोण,धूम्रवर्ण)-ॐ अनाकारं महौजस्कं
व्योमगं वेगवद् गतिम्। प्राणिनां प्राणदातारं वायुमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः
वायवे नमः, वायुमावाहयामि, स्थापयामि।
७. कुबेर-(उत्तर,पीतवर्ण)-ॐ आवाहयामि देवेशं धनदं
यक्षपूजितम्। महाबलं दिव्यदेहं नरयानगतिं विभुम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः कुबेराय नमः, कुबेरमावाहयामि,स्थापयामि।
८. ईशान-(ईशान,श्वेतवर्ण)-ॐ सर्वाधिपं महादेवं
भूतानां पतिमव्ययम्। आवाहये तमीशानं लोकानामभयप्रदम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः ईशानाय
नमः, ईशानमावाहयामि,स्थापयामि।
९. ब्रह्मा-(ईशान-पूर्व के बीच में,पीतवर्ण)-ॐ पद्मयोनिं
चतुर्मूर्तिं वेदगर्भं पितामहम्। आवाहयामि ब्रह्माणं यज्ञसंसिद्धिहेतवे।। ॐ
भूर्भुवः स्वः ब्रह्मणे नमः, ब्रह्मामावाहयामि,
स्थापयामि।
१०. अनन्त- (नैर्ऋत्य-पश्चिम के मध्य,नीलवर्ण,मतान्तर
से पीत वर्ण)-ॐ अनन्तं सर्वनागानामधिपं विश्वरुपिणम्। जगतां शान्तिकर्तारं
मण्डले स्थापयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः अनन्ताय
नमः, अनन्तमावाहयामि,स्थापयामि।
इस
प्रकार आवाहन करने के पश्चात् ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः – इस नाम
मन्त्र का उच्चारण करते हुए,पाद्य,अर्घ्य,आचमन,स्नान,पंचामृत, शुद्धोदक स्नान,वस्त्रोपवस्त्र,यज्ञोपवीत,
पुनराचमन,गन्धादि,पुष्पादि,धूप-दीप, नैवेद्य,आचमन,ऋतुफल,पुनराचमन,ताम्बूलादि
मुखशुद्धि,द्रव्य दक्षिणा प्रदान करे,और पुनः पुष्पाक्षत लेकर अनया पूजया
इन्द्रादिदशदिक्पालाः प्रीयन्ताम्, न मम कहते हुए छोड़ दे।एवं पुनः
अक्षतपुष्पादि लेकर हाथ जोड़ कर पूजित देवताओं की प्रार्थना करे— विरञ्चिनारायणशङ्करेभ्यः
शचीपतिस्कन्दविनायकेभ्यः।लक्ष्मीभवानीकुलदेवताभ्यो नमोऽस्तु दिक्पालनवग्रहेभ्यः।।आदित्यसोमौ
बुधभार्गवौ च शनिश्चरो वा गुरुलोहिताङ्गौ। प्रीणन्तु सर्वे ग्रहराहुकेतुभिः सर्वे
सुराः शान्तिकरा भवन्तु।।
-----इतिदिक्पालपूजनम्----
चतुःषष्टियोगिनी
आवाहन पूजनः-
विविध वास्तुपूजनपद्धतियों में चतुःषष्टियोगिनीपूजन की चर्चा ही नहीं है।इनके
असमावेशन का कारण भी स्पष्ट नहीं है।वशिष्ठसंहिता,विश्वकर्मप्रकाश,मत्स्य पुराणादि
का पूजा-निर्देश- आदौ सम्पूज्य गणपं दिक्पालान् पूजयेत्ततः। धरित्रीकलशं
स्थाप्य मातृकापूजयेत्ततः....ततोग्रहार्चन वास्तुपूजाविधिमतः परम्....आदि निर्देशवाक्यों
में स्पष्ट चर्चा न होने कारण सम्भवतः ऐसा हुआ हो।सामान्य ज्ञान वाले विप्र तो यह
सोच कर निश्चिन्त हो जाते हैं कि चौंसठपद वास्तुमंडल में इनकी पूजा हो जाती है,इस कारण
अलग से जरुरी नहीं, किन्तु वास्तु विशेषज्ञ जानते हैं कि वास्तुवेदी के चौंसठ
देवताओं को चौंसठ योगिनियों से कोई मतलब नहीं,ये बिलकुल भिन्न हैं,अतः अलग से पूजा
अनिवार्य है।सामान्य पूजा में षोडशमातृकाओं के साथ-साथ इनकी भी पूजा होती है,एवं
यज्ञादि विशेष अनुष्ठानों में विशेष वेदी बनाकर पूजा करने का भी निर्देश मिलता
है।ऐसी स्थिति में वास्तुशान्ति-गृहप्रवेशादि कर्म में इन्हें समाहित न करना
अनुचित प्रतीत हो रहा है।अतः अब इनकी चर्चा करते हैं। इनका स्थान सुविधानुसार
प्रधान कलश के पास अथवा मातृकावेदी के समीप रखा जासकता है।अन्य देवावाहन की तरह ही इनके लिए भी वायें हाथ में
पुष्पाक्षत लेकर,दायें हाथ से मन्त्रोच्चारण करते हुए छोडते जायें-
१. ॐ दिव्ययोगायै नमः।
२. ॐ महायोगायै नमः।
३. ॐ सिद्धयोगायै नमः।
४. ॐ महेश्वर्यै नमः।
५. ॐ पिशाचिन्यै नमः।
६. ॐ डाकिन्यै नमः।
७. ॐ कालरात्र्यै नमः।
८. ॐ निशाचर्यै नमः।
९. ॐ कंकाल्यै नमः।
१०. ॐ रौद्रवेताल्यै नमः।
११. ॐ हुँकार्यै नमः।
१२. ॐ ऊर्ध्वकेश्यै नमः।
१३. ॐ विरुपाक्ष्यै नमः।
१४. ॐ शुष्काङ्ग्यै नमः।
१५. ॐ नरभोजिन्यै नमः।
१६. ॐ फटकार्यै नमः।
१७. ॐ वीरभद्रायै नमः।
१८. ॐ धूम्राक्षस्यै नमः।
१९. ॐ कलहप्रियायै नमः।
२०. ॐ रक्तक्ष्यै नमः।
२१. ॐ राक्षस्यै नमः।
२२. ॐ घोरायै नमः।
२३. ॐ विश्वरुपायै नमः।
२४.ॐ भयङ्कर्यै नमः।
२५.
ॐ कामाक्ष्यै नमः।
२६. ॐ उग्रचामुण्डायै नमः।
२७.
ॐ भीषणायै नमः।
२८. ॐ त्रिपुरान्तकायै नमः।
२९. ॐ वीरकौमारिकायै नमः।
३०. ॐ चण्ड्यै नमः।
३१. ॐ वाराह्यै नमः।
३२. ॐ मुण्डधारिण्यै नमः।
३३. ॐ भैरव्यै नमः।
३४.ॐ हस्तिन्यै नमः।
३५.
ॐ क्रोधदुर्मुकख्यै नमः।
३६. ॐ प्रेतवाहिन्यै नमः।
३७.
ॐ खट्वाङ्गदीर्घलम्बोष्ठ्यै नमः।
३८. ॐ मालत्यै नमः।
३९. ॐ मन्त्रयौगिन्यै नमः।
४०. ॐ अस्थिन्यै नमः।
४१. ॐ चक्रिण्यै नमः।
४२.ॐ ग्राहायै नमः।
४३.ॐ भुवनेश्वर्यै नमः।
४४.
ॐ कण्टक्यै नमः।
४५.
ॐ कारक्यै नमः।
४६. ॐ शुभ्रायै नमः।
४७.
ॐ क्रियायै नमः।
४८.ॐ दूत्यै नमः।
४९. ॐ करालिन्यै नमः।
५०.ॐ शङ्खिन्यै नमः।
५१. ॐ पद्मिन्यै नमः।
५२.
ॐ क्षीरायै नमः।
५३.
ॐ असन्धायै नमः।
५४.
ॐ प्रहारिण्यै नमः।
५५.
ॐ ॐ लक्ष्म्यै नमः।
५६.ॐ कामुक्यै नमः।
५७.
न ॐ लोलायै नमः।
५८.
ॐ काकदृष्ट्यै नमः।
५९.ॐ अधोमुख्यै नमः।
६०. ॐ धूर्जट्यै नमः।
६१. ॐ
मालिन्यै नमः।
६२. ॐ घोरायै नमः।
६३. ॐ कपाल्यै नमः।
६४. ॐ विषभोजिन्यै नमः।
उक्त चौसठयोगिनियों के नाममन्त्रों से
आवाहन करने के बाद पुनःपुष्पाक्षत लेकर—
आवाहयाम्यहं
देवीर्योगिनीः परमेश्वरीः। योगाभ्यासेन संतुष्टाः परं ध्यानसमन्विताः।।
दिव्यकुण्डलसंकाशा दिव्यज्वालास्त्रिलोचनाः। मूर्तिमतीर्ह्यमूर्त्ताश्च
उग्राश्चैवोग्ररुपिणीः।।
अनेकभावसंयुक्ताः संसारार्णवतारिणीः। यज्ञे कुर्वन्तु निर्विघ्नं
श्रेयो यच्छन्तु मातरः।। ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः,युष्मान् अहम् आवाहयामि, स्थापयामि,पूजयामि
च—बोलते हुए
छोड़ दे,और पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करे— ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः कहते
हुए।पूजन के बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना करे—यज्ञे कुर्वन्तु विर्विघ्नं श्रेयो
यच्छन्तु मातरः।
पुनः अक्षत
लेकर— अनया पूजया ॐ चतुःषष्टियोगिन्यः प्रीयन्ताम्, न मम- कहकर
छोड़दे।
---इति चतुःषष्टियोगिनीपूजनम्---
क्रमशः....
Comments
Post a Comment