पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-147

गतांश से आगे...अध्याय 23 भाग 21

होमान्ते बलिदानम्— होम समाप्ति के पश्चात् दधि,उड़द,चरु(हविष)आदि से विविध पूजित देवता के निमित्त बलि प्रदान करने का विधान है।पत्रावली वा दोने में दधिमाष(उड़द) मिश्रित कर थोड़ा-थोड़ा रख दे,तथा एक-एक प्रज्ज्वलित दीप भी रख दें,तदन्तर मूल संकल्प,एवं एकांग संकल्प बारी-बारी से करें,तथा हवन वेदी के समीप ही सुविधानुसार संकल्पित दोनों को रखते जायें।

संकल्प—ॐ अद्य......सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य मम सर्वोपद्रवशान्तिपूर्वकमायुरारोग्य सर्वैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं नवग्रहादिभ्यः शिख्यादिभ्यः क्षेत्रपालादिभ्यश्च बलिदानं करिष्ये — तदर्थ पुष्पाक्षतजलद्रव्यादि लेकर संकल्प बोलें।
मुख्य संकल्प के बाद एक दोने को हाथ में उठा लें, और पुनः तदर्थ पुष्पाक्षतजल- द्रव्यादि लेकर संकल्प बोलें- 
(1)  ॐ अद्य......ग्रहपीठस्थेभ्यः सूर्यादि नवग्रहेभ्यः अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता- गणपत्यादिपञ्चलोकपाल-इन्द्रादिदशदिक्पालवास्तोष्पतिसहितेभ्यः साङ्गेभ्यः सपरिवारेभ्यः सशक्तिकेभ्यः सायुधेभ्यः एतं सदीपं दधिमाषबलिं समर्पयामि। भो भो सूर्यादयोग्रहाः अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता- गणपत्यादिपञ्चलोकपाल-इन्द्रादिदशदिक्पाल- वास्तोष्पतिसहिताः साङ्गाः सपरिवाराः सायुधाःसशक्तिकाः मम सकुम्बस्य सपरिवारस्य आयुःकर्तारः क्षेमकर्तारः शान्तिकर्तारः पुष्टिकर्तारस्तुष्टिकर्तारः कल्याणकर्तारः वरदा भवत।।

(2) एक पत्रावली में यथेष्ट मात्रा में हविष्य(चरु) लेकर,पुनः पुष्पाक्षतजलद्रव्यादि लेकर संकल्प बोलें— ॐ अद्य......वास्तुमण्डलदेवेभ्यः साङ्गेभ्यः सपरिवारेभ्यः सशक्तिकेभ्यः सायुधेभ्यः एतं पायसबलिं समर्पयामि। भो देवाः गृहं रक्षध्वं बलिंभक्षध्वं मम सकुम्बस्य सपरिवारस्य आयुःकर्तारः क्षेमकर्तारः शान्तिकर्तारः पुष्टिकर्तारस्तुष्टिकर्तारः कल्याणकर्तारः वरदा भवत।।
(3) पुनः एक पत्रावली में यथेष्ट मात्रा में हविष्य(चरु) लेकर,पुनः पुष्पाक्षतजलद्रव्यादि लेकर संकल्प बोलें— ॐ अद्य......वास्तुमूर्तिभ्यां साङ्गाभ्यां सपरिवाराभ्यां सशक्तिकाभ्यां सायुधाभ्यां इदं सदीपं पायसबलिं समर्पयामि। भो वास्तुमूर्ते इदं बलिं गृहाण,त्वं मम गृहे  मम सकलकुम्बस्या सपरिवारस्या आयुःकर्तारौ क्षेमकर्तारौ शान्तिकर्तारौ पुष्टिकर्तारौ तुष्टिकर्तारौ कल्याणकर्तारौ भवेताम्।।
(4) अब,मिट्टी की कड़ाही को कज्जल,सिन्दूर,कुमकुमादि से चित्रित कर(किंचित आचार्य के मत से वंशपात्र में कुश बिछाकर)यथेष्ट मात्रा में(चार मनुष्य के भोजन भर)दधि,माष,चूड़ा,चरु,पान,सुपारी,लौंग,कपूर, इलाइची, दक्षिणाद्रव्य आदि पदार्थों को रख कर,चारमुंह वाला दीपक जलाकर, ॐ भूर्भुवः स्वः क्षेत्रपालाय नमः  कहते हुए पंचोपचार पूजन करके,प्रार्थना करे— नमो वै क्षेत्रपालस्त्वं भूतप्रेतगणैः सह। पूजां बलिं गृहाणेमं सौम्यो भवतु सर्वदा।। पूजान्देहि धनं देहि सर्वकामांश्च देहि मे। आयुरारोग्यकं दिहि विर्वघ्नं कुरु सर्वदा।।               

अब, उस बलिपात्र को उठाकर,पुष्पाक्षतजलद्रव्यादि लेकर संकल्प बोले— ॐ क्षें क्षेत्रपालाय साङ्गाय सपरिवाराय सायुधाय सशक्तिकाय मारीगण-भैरव-राक्षस-कूष्माण्ड-वेताल-भूत-प्रेत- पिशाच-पिशाचिनी-शाकिनी-डाकिनीगण सहिताय एष सदीपताम्बूलदक्षिणाकृशरान्नबलिर्नम।ॐ नमो भगवते क्षेत्रपालाय त्रयस्त्रिंशत्कोटिदेवाधिनिर्जिताय भासभासुरकिंकिणीज्वालामुखभैरव- रुपिणे तुरु तुरु मुरु मुरु लल लल षष षष फेंफेंकाररुपिणे भो भो क्षेत्रपाल ! एनं सदीपं कृशरान्नबलिं गृहाण,गृहाण। मम सपुत्रपरिवारं पाहि पाहि,दिशो रक्ष रक्ष, बलिं भक्ष भक्ष, मम सपुत्रपरिवारस्य रक्षाकर्ताऽऽयुष्यकर्ता क्षेमकर्ता शान्तकर्ता तुष्टिकर्ता पुष्टिकर्ता स्थिरकर्ता भव।। अनेन बलिदानकर्मणा क्षेत्रपालः प्रीयताम्।।— इस प्रकार बोल कर पुष्पाक्षतद्रव्यादि उस बलिपाल में छोड़ दे।
अब,नापित या तदनुरुप किसी अन्य व्यक्ति को बुलाकर, उस पात्र को उठाकर, यजमान पति-पत्नी के सिर पर दक्षिणक्रम से एक बार घुमाकर, गृहमंडल से दूर कहीं जाकर, एकान्त में रखवा दे।आचार्य अपने स्थान से उठ कर, हाथ में यथेष्ट मात्रा में अक्षत लिए हुए,उस व्यक्ति के पीछे-पीछे भवन के द्वारदेश तक अक्षत छिड़कते हुए विदा करें,और हाथपैर धोकर वापस अपने आसन पर आयें।                                                              

क्षेत्रपाल-विदाई मन्त्रः- ॐ हिंकाराय स्वाहा हिंकृताय स्वाहा क्रन्दते स्वाहा वक्रन्दाय स्वाहा प्रोथते स्वाहा प्रप्रोथाय स्वाहा गन्धाय स्वाहा घ्राताय स्वाहा निविष्टाय स्वाहोपविष्टाय स्वाहा सन्दिताय स्वाहा वल्गते स्वाहासीनाय स्वाहा शयानाय स्वाहा स्वपते स्वाहा जाग्रते स्वाहा कूजते स्वाहा प्रबुद्धाय स्वाहा विजृम्भमाणाय स्वाहा विवृताय स्वाहा संहानाय स्वाहोपस्थिताय स्वाहायनाय स्वाहा प्रायणाय स्वाहा।।(शु.य.२२-७)
(नोटः-मत्स्यपुराण अध्याय २६८,श्लोकसंख्या ९-३१ तक उक्त सभी देवों को अलग-अलग दोनों में अलग-अलग वस्तुओं से बलि देने का निर्देश है।विश्वकर्मप्रकाश के दशवे अध्याय में दिक्पालों को विशेषकर पुनः पूजित करने का भी विधान है,तथा सर्पेभ्योऽपि हिरण्यं च ब्रह्मणे गां पयश्विनी तथा च पायसं दद्यात् सर्वेभ्यश्च सदीपकम् भी चर्चित है।विश्वकर्मप्रकाश के पांचवे और नवें अध्याय में बलि सम्बन्धी और भी निर्देश हैं।यहाँ सार्वभौतिक बलि की भी बात कही गयी है।आचार्य को अपने विवेक,यजमान की श्रद्धा और सुविधानुसार कार्य करना चाहिए।)

अब,रक्षोघ्न सूत्र का पाठ करेः- ॐ कृणुष्व पाजः प्रसितिन्न पृथ्वीं याहि राजेवाममाँऽइभेन। तृष्वीमनुप्रसितिं द्रूणानोऽस्तासि विघ्य रक्षसस्तपिष्ठैः।। तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनुस्पृश धृषता शोशुचानः।तपूँ◌ऽयग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृजविष्वगुल्काः।। प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदब्धः। यो नो दूरे अघश◌सो यो अन्त्यग्ने मा किष्टे व्यथिरादघर्षित् ।। उदग्ने तिष्ठ प्रत्यातनुष्व न्यमित्राँऽओषतात् तिग्महेते। यो नो अराति◌ समिधान चक्रे नीचा तन्धक्ष्यतमन्न शुष्कम्।। ऊर्ध्वो भव प्रतिविध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने। अव स्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून्। अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि।। (शु.य.१३।९-१३)
तथाच, पवमानसूक्त का भी पाठ करेः- ॐ पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः पुनन्तु मा पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा।। पुनन्तु मा पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा विश्वमायुर्व्यश्नवै।। अग्न आयू◌षि पवस आसुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुष्छुनाम्। पुनन्तु म देवजनाः पुनन्तु मनसा घियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा।। पवित्रेण पुनीहि मा शुक्रेण देव दीद्यत्। अग्ने क्रत्वा क्रतूँ रनु ।। यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा। ब्रह्म तेन पुनातु मा।। पवमानः सो अद्य नः पवित्रेण विचर्षणि।यः पोता स पुनातु मा।। उभाभ्यां देव सवितः पवित्रेण सनेव च। मां पुनीहि विश्वतः।। वैश्वदेवी पुनती देव्यागाद्यस्यामिमा वह्व्यस्तन्वो वीतपृष्ठा।। तया मदन्तः सधमादेषु वय◌स्याम पतयो रयीणाम्।।(शु.य.१९।३७-४४)
अब,दुग्ध वा जलपूर्ण घट से अविच्छिन्न धारा प्रादक्षिण क्रम से गृह को घेरते हुए गिराये यानी परिक्रमा करे,तथा सप्तधान्य(सतन्जा)उपलब्ध हो तो विखेरे।यहाँ विशेष मन्त्रपाठ का भी निर्देश है।

गर्तकर्मविधानः-अब,स्थापित-पूजित वास्तुपुरूष-प्रतिमा को उठाकर,माथे से लगावे,और वास्तुमण्डल के आकाशपद(अग्निकोणस्थ)में पहले से तैयार किए गए गर्त में ताम्रपात्र में रखकर स्थापित कर दे,तथा पुनः पंचोपचार पूजन करे।नैवेद्य स्वरुप अन्य पदार्थो के साथ धान का लावा,जौ का सत्तू,नदी का शैवाल,सप्तधान्यादि भी अवश्य प्रदान करे।नारदसंहिता,अश्वलायन गृह्यसूत्रादि में मृत्तिकापात्र की भी चर्चा है,किन्तु ध्यान रहे- मिट्टी का पात्र बिना पकाया हुआ हो,जिसके ऊपर ढक्कन भी अवश्य हो।अब,पुष्पाक्षत लेकर प्रार्थना करेः- इष्टान् कामान् प्रयच्छ त्वं दुरिष्टं च विनाशय। पुत्रपौत्रादिवृद्धिं च सततं कुरु देव ! नः।। सशैलसागरां पृथ्वीं यथा वहसि मूर्धनि। तथा मां वहकल्याणसम्पत्सन्ततिभिः सह।। तथा गर्त को सावधानी पूर्वक भर दे।कच्चा स्थान हो तो गोबर से लीप दे,पक्का हो तो सुविधानुसार पक्का करदे।ऊपर एक दीप प्रज्ज्वलित कर,पूर्वाभिमुख स्थापित कर दे,जो कम से कम एक रात तक अवश्य जलता रहे।।

पूर्णाहुतिकर्मः-अब,पुनः पूर्व आसन पर हवनवेदी के समीप आकर पूर्णाहुति कर्म करे(किंचित आचार्यों का मत है कि गृहप्रवेशकार्य में पूर्णाहुति कर्म नहीं करना चाहिए)।होमार्थ सूखा नारियल,जिसमें जल न हो,लालवस्त्र से वेष्ठित कर, यथेष्ट मात्रा में घृत कुमकुमादि लेपित कर ॐ पूर्णाहुत्यै नमः मन्त्र से पंचोपचार पूजन करके,हविष्य,गुड़,मधु,दधि,घृतादि सहित पुनः पुष्पाक्षतजलादि लेकर संकल्प बोले-  ॐ अद्येत्यादि...कृतवास्तुशान्ति कर्म सांगतासिद्ध्यर्थं मृडनामाग्नौ पूर्णाहुति होष्यामि —कहते हुए अग्नि में डाल दे,और स्रुवा में घृत भर कर ऊपर से प्रदान करे-ॐ पूर्णादर्वि परापतसुपूर्णा पुनरापत व्वस्नेव व्विक्रीणावहा इष मूर्जग्वंशतक्रतो स्वाहा।इदमग्ने वैश्वानराय वसुरुद्रादित्येभ्यः शतक्रतवे सप्तवते अग्नये अद्भ्यश्च न मम।।

वसोर्धाराहोमः- वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्। देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः।। इदमग्नये वैश्वानराय न मम।।

अब,हवनवेदी की प्रदक्षिणा करके पुनः आसन पर आकर,स्रुवा से थोड़ा भस्म निकाल कर—ॐ त्रायुषं जमदग्नेः इति ललाटे, ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम् –इति ग्रीवायाम्, ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम् इति दक्षिण वाहुमूले, ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् इति हृदि —उक्त चार स्थानों में भस्म लगाने के पश्चात् पूर्वस्थापित प्रणीता के जल पर क्षत्रित घृत को अनामिका से स्पर्श कर होठों में लगालें,तथा प्रोक्षणी के जल को कुशा से सिर पर प्रोक्षित करे।पुनः परिस्तरण कुशा को क्रम से उठाकर घी में डुबोकर ॐ देवागातुविदो गातुं वित्वा गातुमित।मनसस्पत ऽइमं देव यज्ञग्वं स्वाहा वातेधाः बोल कर अग्नि में छोड़ दें।

पूर्णपात्रदानः-अब,अग्निवेदी के समीप ब्रह्मकलश में लगाये गये कुश ग्रन्थि को खोल दे,और, पुष्पाक्षतद्रव्यादि सहित हाथों में उठाकर संकल्प बोले- ॐ अद्य कृतस्य सग्रहयागवास्तु शान्तिकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं पूर्णपात्रं सदक्षिणां ब्रह्मणे तुभ्यमहं सम्प्रददे।

प्रधानदक्षिणाः- ॐ अद्य कृतस्य सग्रहयागवास्तुशान्तिकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं तत्सम्पूर्ण फलप्राप्त्यर्थं यथाशक्ति दक्षिणां ...गोत्राय...शर्मणे आचार्याय,तथाच ......ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे।।
आचार्य स्वस्ति बोलकर यजमान पर अक्षत छिड़कें।

अभिषेकः- यजमान सपुत्रादि को एकत्र कर कलश के जल से अभिषेक करे।अभिषेक की क्रिया उपस्थित अन्य विप्र भी अक्षत,पुप्ष.जलादि से करें।अभिषेक के समय पत्नी पति के बामभाग में आजाये।ध्यातव्य है कि अबतक की पूरी क्रिया में वह दाहिने बैठी हुयी थी।कहा गया है— आशीर्वादेऽभिषेके च पादप्रक्षालने तथा।शयने भोजने चैव पत्नी तूत्तरतो भवेत्।।

अभिषेकमन्त्र—ॐ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयश्वती प्रदिशः सन्तु मह्यम्।। ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः। सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेऽ भवत्सरित्।। ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदममासीद।। ॐ पुनन्तु मा देवजनाः पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा।। ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्वाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिये दधामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ।। ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्वाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रेणाग्नेः साम्राज्येमाभिषिञ्चामि।। ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्वाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभि षिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभि षिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि।।  ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रंतन्न आसुव।। ॐ धामच्छदग्निरिन्द्रो ब्रह्मा देवो बृहस्पतिः। सचेतसो विश्वे देवा यज्ञं प्रावन्तु नः शुभे। ॐ त्वं यविष्ठ दाशुषोनृः पाहि शृणुधी गिरः। रक्षा तोकमुतत्मना।। ॐ अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। प्र प्रदातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।। ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षग्वं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व◌शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।। ॐ सुशान्तिर्भवतु। सरितः सागराः शैलास्तीर्थानि जलदा नदाः। एते त्वामभिषिञ्चन्तु सर्वकामार्थसिद्धये।।शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु।अमृताभिषेकोऽस्तु।।

क्रमशः....

Comments