गतांश से आगे...अध्याय 24 भाग 1
अध्याय २४.वास्तु-शत-सूत्रावली
विगत,तेइस अध्यायों में वास्तु विषयक बहुत सी
बातों की चर्चा हुयी, जिसके अन्तर्गत वास्तुसिद्धान्त और प्रयोग
पर
व्यापक प्रकाश डाला गया। इन सभी बातों को हृदयंगम कर लेने के बाद, इस विषय का शायद
ही कोई प्रश्न शेष रह जाये। वास्तुशास्त्र का गहन ज्ञान चाहने वालों को तो सभी
सिद्धान्तों,नियमों,चर्चाओं का ध्यान रखना चाहिए;किन्तु सामान्य जन कुछ विशेष
सूत्रों को जान-समझ कर भी सुविधानुसार प्रयोग कर सकें,इस विचार से आगे
वास्तुशतसूत्रावली प्रस्तुत है। इन सूत्रों को विषयानुसार कई खण्डों में बांट कर
प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रयास किया गया है कि ये सभी सूत्र भी यथासम्भव क्रमिक
रुप से ही हों।यथा—
वास्तुशास्त्र
का परिचय और प्रयोजन—
१. मानवोपयोगी विविध शास्त्रों में
वास्तुशास्त्र भी एक है,जो ‘वास’ यानी भवननिर्माण के सिद्धान्तों का
प्रतिपादन करता है। ‘वसति अस्मिन् इति वास्तु’— गृह,भवन,प्रासाद,दुर्ग,मन्दिर,नगर,ग्राम,विविध
उद्योग और व्यापार केन्द्र, ये सभी वास्तु के अन्तर्गत आते हैं। कूप,तड़ाग, वापी,यज्ञशाला,पर्णकुटी,गोशाला
आदि इसके ही अंग हैं। चित्रकला, मूर्तिकला,काष्ठकला,अन्यान्य शिल्पादि भी
वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत ही हैं। वस्तुतः वास्तुकर्म शिल्पकर्म का ही पर्याय है।
२. वास्तु कोई नवीन विषय नहीं है। विश्वकर्मा
ने समस्त विश्व को ही वास्तु के रुप में प्रतिपादित किया है। तदनुसार अखिल
ब्रह्माण्ड ही वास्तुशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय बन जाता है। प्राग्वैदिक काल से
लेकर, पौराणिक और अत्याधुनिक काल तक इसकी विशद चर्चा रही है।
३. वास्तुशास्त्र के अठारह प्रवर्तक आचार्यों
का उल्लेख मिलता है—भृगु, अत्रि,वशिष्ठ,विश्वकर्मा,मय,नारद,नग्नजित,विशालाक्ष,पुरन्दर,ब्रह्मा,कुमार,
नन्दश,शौनक,गर्ग,वासुदेव,अनिरुद्ध,बृहस्पति और शुक्राचार्य।
४.
वास्तु के देवता को वास्तोष्पति कहा जाता है।इनकी उत्पत्ति शिव के
स्वेद से मानी गयी है।
५.
स्थिर स्थिति में,वास्तुमंडल में ईशानकोण पर अधोमुख, सुप्तावस्था में
इनकी अवस्थिति कही गयी है,जिनका सिर ईशान में,तदनुसार मुड़े हुए पैर नैर्ऋत्य में
हैं। इनके मुंह से सदा तथास्तु शब्दघोष होते रहता है।
६.
भवननिर्माणादि क्रम में दिये जाने वाले पिण्ड-पूजनादि से ही वास्तुदेव
का पोषण होता है,और इनके आशीष से गृहादि का रक्षण होता है।
७.
वास्तुदेवता की चरावस्था क्रमशः विपरीत दिशा में,तीन-तीन माह की होती
है।
८.
वास्तुदेव के चैतन्य और व्यावहारिक स्वरुप को ही विश्वकर्मा कहा जाता
है। इनका ही दूसरा नाम देवशिल्पी है। दैत्यशिल्पी का कार्य करने पर इन्हें ही
मयदानव के रुप में भी जाना जाता है। मय एक जातिवेशेष का भी नाम है,जो असुरों में
ख्यात है,और शिल्पकला में निपुण है।किंचित मतभेद से इन दोनों को अलग-अलग भी
मान्यता है,और वास्तुशास्त्र के दो आदि आचार्यों के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।
९.
वास्तुशास्त्र सिर्फ सामान्य शिल्पशास्त्र भर ही नहीं है,बल्कि इसके
गहन ज्ञान के लिए ज्योतिष,तन्त्र आदि का भी ज्ञान रखना अति आवश्यक है।
१०.
वास्तुशास्त्र हमें प्राकृतिक शक्तियों का सही उपयोग(प्रयोग)सिखला
कर,सुखमय जीवन जीने की कला सिखाता है।
११.
वास्तुशास्त्र में पञ्चमहाभूत- पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और आकाश,तथा गुरत्वशक्ति,चुम्बकीयशक्ति,सौर
ऊर्जा आदि के संतुलन पर वास व्यवस्था को निर्भर माना गया है। यानी वास्तुशास्त्र
प्राकृतिक संतुलन की गहन कला का नाम है।
वास्तु
के प्रकार—
१.
वास्तु को मुख्य तीन भागों में बांटा गया है-(क) आवासीयवास्तु, (ख)
व्यावसायिक वास्तु (ग) धार्मिकवास्तु।
२.
वास्तु के उपप्रकारों में हैं- पर्णकुटी, काष्टकुटी, मृदागृह, पाषाण
गृह, इष्टिकागृह आदि। ये सभी आवासीयवास्तु के प्रकार हैं।
३.
आधुनिक काल के बहुमंजिले आवास भी आवासीयवास्तु के अन्तर्गत ही आयेंगे।
वहां भी वास्तु के यथोचित नियम-सिद्धान्त का सम्यक् पालन होना चाहिए।
४.
वास्तु का दूसरा उपप्रकार- व्यावसायिक वास्तु मुख्यतः दो प्रकार का होता
है-व्यापारिक और औद्योगिक। पुनः व्यापारिक के चार सह प्रकार कहे गये हैं- विविध
दुकानें-शोरुम-कार्यालय,होटल-रिसोर्ट-क्लब,औषधालय, विद्यालय(शिक्षणसंस्थान)।
५.
कुटीर उद्योग, लघुउद्योग, मिल-कारखाने आदि भी व्यावसायिक वास्तु के
अन्तर्गत ही आते हैं,जिन्हें औद्योगिक वास्तु के नाम से जाना जाता है।
६.
वास्तु के तीसरे प्रकार में धार्मिकवास्तु आता है,जिसके उपप्रकार हैं-
मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारा,चर्च,आश्रम,मठ,स्थानक,बौद्धविहार,धर्मशाला, अतिथिगृह,कूप,वापी,तड़ाग,सरोवर
आदि।
७.
यज्ञमंडप,यज्ञकुण्ड,हवनवेदी आदि भी धार्मिकवास्तु के ही अंग कहे गये
हैं।
८.
नदी,पहाड़ आदि की अवस्थिति का सम्बन्ध भी वासभूमि से है।
९.
आधुनिक बोरिंग,नलकूप आदि कुछ अन्य नहीं,बल्कि जलस्रोत ही हैं,अतः
इन्हें भी वास्तुनियमों के अन्तर्गत ही होना चाहिए।
क्रमशः....
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