गतांश से आगे...अध्याय 24 भाग 2 (इस अध्याय का अन्तिम भाग)
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क्रमशः....
भूमि
चयन-शोधन-निर्माण,और व्यवस्था—
१.
वास्तुकार्य हेतु सर्वप्रथम कर्तव्य है- भूमिचयन,तत्पश्चात् उसका परीक्षण-शोघनसंस्कार।
२.
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्ट चार मानवी वर्णों की तरह, भूमि के भी चार वर्ण
कहे गये हैं-ब्राह्मणी,क्षत्रिया,वैश्या और शूद्रा भूमि।
३.
कुश,तुलसी,उत्तम वृक्ष लतादि जहाँ उत्पन्न हों ऐसी भूमी ब्राह्मणी कही
गयी है,जिसका गन्ध उत्तम,स्वाद मधुर,रंग श्वेत होता है.
४.
मन्दिर,विद्यालय,उद्यान,जलाशय,बुद्धिजीवियों के कार्यस्थल ऐसी ही भूमि
पर होने चाहिए।
५.
शरादि(सरकंडा,पतेल,काश) उत्पन्न होने वाली,रक्तगन्धा,कसैले स्वाद
वाली,रक्त वर्णा भूमि को क्षत्रिया कहा गया है।आयुधादि
निर्माण,रक्षाकार्य,राजगृहादि हेतु यह प्रसस्त भूमि है।
६.
कुशकाश से व्याप्त मधुगन्दवाली वैश्याभूमि किंचित पीत वर्णा होती
है।ऐसी भूमि व्यापारियों एवं व्यावसायिक कार्य- बैंक,वित्तीय संस्थानादि के लिए
अच्छी मानी गयी है।
७.
कंटीले तृणों वाली,मदिरागन्धयुक्ता श्याम वर्णा भूमि को शूद्रा कहा
गया है।वास हेतु यह निंदित है।नीचकर्मियों के लिए उत्तम है-मांस का व्यवसाय,बूचरखाना
आदि यहाँ बनाये जा सकते हैं।
८.
आजकल जैसेतैसे कूड़ाकरकट भर वासयोग्य भूमि बनाई जा रही है।ये सर्वदा
त्याज्य कहे गये हैं।ऐसी भूमि में वास करके धन भले ही कमाले,किन्तु सुख-शान्ति की
प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती।
९.
वास्तु कार्य हेतु भूमि का प्लवत्व विचारणीय है।दक्षिण-पश्चिम-नैर्ऋत्य
की ढलान वाली भूमि अच्छी नहीं होती।
१०.
पूरब,उत्तर,ईशान की ढलान अच्छी कही गयी है।
११.
विपरीत ढलान को सुधार कर वासयोग्य बनाया जा सकता है।
१२.वास्तुभूमि से पश्चिम-दक्षिण-नैर्ऋत्य में
पहाड़,टीले,ऊँचे बुर्ज आदि अच्छे माने गये हैं।
१३.पूरब,उत्तर,ईशान आदि दिशाओं में
नदी,सरोवर,खुले मैदान आदि उत्तम माने गये हैं।
१४.
श्मशान,कब्रगाह,अस्पताल आदि के पास वास नहीं करना चाहिए।
१५.
मन्दिर,मस्जिद आदि धार्मिक स्थल भी वास हेतु अच्छे नहीं हैं। इनके
समीप गृहस्थों के नहीं बसना चाहिए,जबकि समाज में विपरीत धारणा है कि मन्दिर के पास
वास करना अच्छा है।
१६.
भूमि का आकार भी बहुत महत्व
रखता है।वर्गाकार,आयताकार भूमि वास के योग्य श्रेष्ट
है।विषमवाहु,त्रिकोण,शकट,दण्ड,व्यजन आदि आकार वाली भूमि पर वास न किया जाय।
१७.
सिंहमुखी-व्याघ्रमुखी भूमि को प्रायः अशुभ और गोमुखी को शुभ मान लिया
जाता है,किन्तु सच पूछा जाय तो ये दोनों ही दोषपूर्ण हैं।न्यूनाधिक दोष का अन्तर
है सिर्फ।
१८.सम्भव हो तो विषम आकार को काट-छांट कर
सुधारने के बाद वास योग्य बनाया जा सकता है।
१९.
भूखंड का आकार पूरब-पश्चिम अधिक होतो सूर्यवेध कहलाता है,और
उत्तर-दक्षिण अधिक होने पर चन्द्रवेध।भवन सूर्यवेध और जलाशय चन्द्रवेध नहीं होना
चाहिए। इससे विकाश बाधित होता है,साथ ही अन्य तरह की परेशानियों का भी सामना करना
पड़ता है।
२०.
भूमि के आकार में प्रलम्ब वा संकोच दोनों ही हानिकारक हैं।ये कहाँ किस
कोण वा दिशा में हैं— इस पर दोष की मात्रा निर्भर है।
२१.दलदली क्षेत्र,भूकम्प प्रभावित
क्षेत्र,विद्युतीयक्षेत्र,चुम्बकीय प्रभाव वाले क्षेत्र भी वास योग्य नहीं होते।
२२.
मोबाईल टावरों के समीप में वास करना कई घातक बीमारियों को आहूत करना
है।
२३.
मनोनुकूल भूमि का चुनाव करने के बाद,शल्योद्धार विधि से परीक्षण भी
अवश्य कर लेना चाहिए।
२४.
भूगर्भीय परीक्षण भी यथासम्भव विशेषज्ञों से अवश्य करानी चाहिए।
२५.
भूगर्भीय ज्ञान हेतु शल्योद्धार सहित धराचक्र एवं अहिबल चक्र का सहारा
लेना चाहिए।
२६.
पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण ये चार दिशायें हैं,एवं ईशान,अग्नि,नैर्ऋत्य
और वायु ये चार विदिशायें वा कोण कहे गये हैं। वास्तुशास्त्र में इनका विशेष
महत्त्व है।
२७.
दिशा-विदिशा मिलाकर आठ की संख्या बनती है,जिनमें सूर्यादि नवग्रहों का
वास है।राहु-केतु को एकत्र ही नैर्ऋत्य कोण पर स्थान मिला है।
२८.
आठ दिशाओं के अलावा आकाश और पाताल की भी वास्तुसम्मत गणना है,यानी
आठ+दो=दस की संख्या होगयी। इन दशों के स्वामी को
दिक्पाल कहा जाता है।प्रादक्षिण क्रम से इन्द्र,अग्नि,यम,निर्ऋति, वरुण,वायु,कुबेर
और ईशान तथा आकाश-पाताल के स्वामी क्रमशः ब्रह्मा और अनन्त कहे गये हैं। प्रत्येक
वास्तु कार्य में इन दस दिक्पालों का पूजन सर्वाधिक आवश्यक है।
२९.
चार दिशायें,चार कोण,आकाश-पाताल,इन सबके स्वामी दिक्पाल और तत् तत्
प्रतिष्ठित नवग्रहों की स्थिति सुदृढ़ हो तो वास्तु (भवन) को बहुत बल मिलता है।
३०.
चयनित वास्तुभूमि को समान आकार के नौ खण्डों में विभाजित कर
दिशा-विदिशा,और मध्य का ज्ञान करना चाहिए।
३१.विशेष विचार हेतु इसे ही नौ गुणे नौ,वा आठ
गुणे आठ यानी एक्यासी वा चौंसठ समान आकारों में विभाजित किया जाता है,जिसे
वास्तुपद कहते हैं।
३२.
वास्तुमंडल (निर्माणाधीन भवन) में कहाँ क्या बनाना चाहिए इसका आधार यह
वास्तुपद ही है।प्रत्येक पद के एक-एक स्वामी हैं।उनके नाम,रुप,गुण,स्वभाव आदि के
अनुसार ही निर्माण करना होता है।
३३.
भवन में पांचों तत्व(आकाश,वायु,अग्नि,जल,पृथ्वी)को संतुलित करना
सर्वाधिक आवश्यक है।
३४.
आकाश तत्व को संतुलित रखने हेतु भवन के मध्य(केन्द्रीय भाग) को
यथासम्भव रिक्त,स्वच्छ,खुला रखना चाहिए। इसे ही ब्रह्म स्थान कहा गया है।
३५.
ब्रह्मस्थान वास्तुपुरुष का हृदय माना गया है। यह वास्तुमंडल का
सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है,अतः इसकी मर्यादा-रक्षा परम आवश्यक है।
३६.
भवन में जल(कुआँ,बोरिंग)का स्थान ईशान क्षेत्र(पूरब-उत्तरकोण) में
होना चाहिए।मध्यपूर्व,मध्यउत्तर भी द्वितीय श्रेणी में है।मध्य पश्चिम भी ग्राह्य
है,किन्तु अग्नि से नैर्ऋत्य पर्यन्त पूरा दक्षिण इसके योग्य नहीं है।
३७.
छत के ऊपर का पानी टंकी जलस्रोत नहीं है,यह जलभंडारण है। अतः इसका
स्थान ईशान के वजाय वायु कोण होना चाहिए। किन्तु ठीक कोण पर नहीं,बल्कि उससे
पश्चिम हट कर,यानी वायु और वरुण का बल लेकर।जमीन के भीतर पानीटंकी बनानी हो तो
ईशान कोण पर बनायी जा सकती है।ऊँचाई के ख्याल से लोग नैर्ऋत्य कोण पर पानीटंक रख
देते हैं,यह बिलकुल गलत है। जल ही जीवन है,इसे राक्षसों के कब्जे में नहीं रखना
चाहिए।
३८.
भवन में अग्नि(रसोईघर)अग्निकोण(पूरब-दक्षिणकोण)में स्थापित होना चाहिए।
३९.
नैर्ऋत्यकोण(दक्षिण-पश्चिम कोण) राक्षस वा रक्षक का स्थान है।
गृहस्वामी का स्थान यहीं हो तो अच्छा है।
४०.
वायुकोण(उत्तर-पश्चिमकोण)आवागमन,और हल्कापन का प्रतीक है।तदनुसार यहाँ
की संरचना होनी चाहिए।
४१.
सेप्टीटैंक आज की सभ्यता का अनिवार्य अंग है,जिसे भवन में ही स्थान
देना पड़ता है। इसे बहुत सोचसमझ कर बनाना चाहिए।
४२.
किसी भी दिशा वा किसी कोण पर सेप्टीटैंक न बनाया जाय। ईशान और वायु
दोनों कोणों के बाद, दोनों ओर एक-एक कोष्ठक इसके लिए सही स्थान है।यानी कुल चार
स्थान उपयुक्त हैं।
४३.
शौचालय सुविधानुसार कहीं रख सकते हैं- दिशा और कोण छोड़ कर।
४४.
सीढ़ियाँ नैर्ऋत्य कोण पर बनायी जा सकती है,अन्य कोणों पर नहीं।
पश्चिमदिशा सर्वाधिक उपयुक्त है।
४५.भवन का प्रवेशद्वार दक्षिणदिशा छोड़कर सभी
ग्राह्य हैं,किन्तु किसी कोण पर न हो।
४६.
दक्षिण में ही प्रवेशद्वार अनिवार्य हो तो मध्य दक्षिण से अवश्य बचें।
उससे दायें-बायें एक-एक स्थान उचित है।
४७.व्यापार केन्द्र दक्षिणमुख हो सकते हैं।
बाजार में जहाँ चारों ओर दुकानें ही दुकानें हैं- उत्तर-दक्षिण का भेद नहीं माना
जाता।ये नियम सिर्फ आवासीयवास्तु के लिए है।
४८.
प्रवेशद्वार किसी भी दिशा का मध्य सर्वोत्तम कहा गया है।मध्य से एक
भाग दायें-बायें भी ग्राह्य है।इन्हीं भागों में सहद्वार भी रखे जाने चाहिए,किन्तु
दक्षिण में कदापि नहीं।
४९.
घर के भीतरी सभी दरवाजे और खिड़कियों का शीर्ष एक समान हो।तल भी समान
ही होना चाहिए।
५०.
भीतरी द्वारों में दक्षिणदिशा का दोष नहीं लगता,यानी उत्तर के कमरे का
दरवाजा दक्षिणमुख होगा ही,इससे कोई हानि नहीं है।
५१.
भोजन का स्थान रसोई घर के यथासम्भव समीप ही हो,यानी बिलकुल विपरीत
नहीं,और दूर भी नहीं।
५२.
भोजन दक्षिणाभिमुख कदापि न किया जाये।
५३.
शयन उत्तर सिर करके कदापि न किया जाय। वैज्ञानिक और धार्मिक दोनों
पक्षों से निषेध है। शरीर का चुम्बकीय प्रभाव क्षतिग्रस्त होता है,तथा मानसिक
व्याधियों का खतरा रहता है। भूतप्रेतादि अन्तरिक्षीय समस्यायें भी झेलनी पड़ सकती
हैं,जिसका चिकित्सकीय निदान भी ठीक से नहीं हो पाता।
५४.पूजा का स्थान ईशान से लेकर अग्नि पर्यन्त
कहीं भी हो सकता है,ऐसा नहीं कि सिर्फ ईशान ही हो।
५५.
भभवन की ऊँचाई चारो दिशाओं में समान होनी चाहिए।अन्तर यदि रखना हो तो
ध्यान रहे कि दक्षिण-पश्चिम की तुलना में उत्तर-पूर्व नीचा हो। यही नियम
चहारदीवारी आदि के लिए भी लागू होता है।
५६.
भवन का निर्माण कार्य अग्निकोण से प्रादक्षिणक्रम(clockwise)से ही करना चाहिए,इसके विपरीत कदापि
नहीं,और न बेतरतीब ढंग से ही कि कभी कहीं,कभी कहीं पीलर बना दिये या दीवार उठा
दिये। ऐसा करने से कार्यवाधा और धन की हानि होती है।
५७.
भभवन का मध्य भाग नीचा नहीं होना चाहिए। इसके खालीपन का महत्व है,न कि
नीचा होने का।
५८.
घर के अन्दर किसी देवता की बड़ी मूर्ति नहीं रखनी चाहिए। आठ अंगुल तक
की मूर्ति रखी जा सकती है।
५९.
शयन कक्ष में अधिक से अधिक अपने प्रियदेवता (इष्टदेव)की मात्र एक तस्वीर
पूर्वी दीवार पर रख सकते हैं।
६०.
पलंग में आइना रखने का फैशन है। यह अच्छा नहीं है।
६१.
डेसिंग टेबल भी शयन कक्ष में ऐसे रखें ताकि उसका प्रतिविम्ब विस्तर पर
न पड़े।सोते समय उस पर परदा डाल दें।
६२.
युद्ध,या अन्य रौद्र-वीभत्स दृश्यों को भवन में स्थान देना उचित नहीं
है।
६३.
सिरकटा हुआ या सिर्फ सिर(मुण्डभाग) की तस्वीर या मूर्ति घर में शोभा
के लिए भी न रखें।
६४.
घर के भीतरी रखरखाव के लिए भी पंचतत्वों के संतुलन का ही सिद्धान्त
मान्य है।यानी आन्तरिक साजसज्जा के लिए भी तत्व का नियम पालन होना चाहिए।
६५.
मांसाहारी परिवार में हनुमत्ध्वज की स्थापना नहीं होनी चाहिए।
शाकाहारी परिवार भी हनुमत्ध्वज को ईशान,वायु या मध्यपूर्व में ही स्थापित करें।वायुकोण
सर्वोत्तम स्थान है।ध्वज की ऊँचाई नौ फीट से कम न हो।
६६.
भवन को बाहरी वाधाओं से रक्षा हेतु ऊपरी मंजिल पर दशदिक्पालों के
निमित्त दश वर्छियाँ(उस-उस दिशा में मुख वाली)स्थापित की जा सकती हैं।इसे पूरे
वास्तुविधान से करना चाहिए।
६७.
मुख्यद्वार पर विघ्नेश्वर गणेश की स्थापना करके लोग निश्चिन्त हो जाते
हैं।इसका सही लाभ तभी मिलता है,जब नियमित इनकी पूजा-अर्चना हो,अन्यथा नुकसान ही
होता है।
६८.
प्राणप्रतिष्ठित पीतल या तांबें का स्वस्तिक घर में लगाने से विविध
वास्तुदोषों का निवारण होता है।
६९.
भवन के किसी भाग में वास्तुदोष स्पष्ट होतो उसका निवारण करना चाहिए।
७०.
दोष को समाप्त करना सम्भव न हो तो उसका परिहार जनित उपाय करके काम
चलाया जा सकता है।
७१.
द्वारवेध एक बहुत बड़ा वास्तुदोष है।प्रवेश द्वार के सामने विजली का
खम्भा,कुआँ,कोई और गड्ढा,पेड़,अरुचिकर वस्तु आदि वेध पैदा करते हैं।किन्तु इनकी
दूरी ग्यारह फीट से अधिक हो या बीच में सार्वजनिक रास्ता हो तो दोष में कमी आ जाती
है।
७२.
नित्य प्रातःसायं घर में देवदारधूप,गूगुल,धूना आदि जलाना चाहिए। इससे
सभी प्रकार के दोषों का शमन होता है।
७३.
बांस की तिल्लियों से बनी अगरबत्तियों का प्रयोग कदापि न करें,इससे
सन्तान पक्ष की हानि होती है।
७४.शंख,घंटा-घंटी,वांसुरी आदि की
ध्वनियां,तथा भजन-कीर्तन-संगीत भी वास्तुदोषों को दूर करता है। ठीक इसके विपरीत
आधुनिक कर्कश स्वर,बेढंगे संगीत वास्तुदोष पैदा करते हैं। यह ध्वनि-विज्ञान सम्मत
बात है।
७५.
चाचारो कोनों और मध्य भाग में उच्च शक्ति का प्राणप्रतिष्ठित वास्तु दोष
निवारण यन्त्र स्थापित करना चाहिए।
७६.
किराये के मकान में भी नियम वही होगा जो अपने मकान में होता है।
७७.
वावास्तुदोष-पीडित मकान को किराये पर लगाकर,निश्चिन्त नहीं होना
चाहिए। मात्रा भले ही कम हो, दोष हावी रहेगा ही।
७८.
आवासीयवास्तु के सभी मूल सिद्धान्त धार्मिक और व्यावसायिक वास्तु के
लिए भी समान रुप से लागू होते हैं।
७९.
भवन परिसर में बड़े आकार के पेड-पौधे न लगाये। फूल-पत्तियां
सुविधानुसार लगायी जा सकती हैं।
८०.
आजकल शमी के पौधे का जोरदार चलन है। इसे सही स्थान पर लगाने से ही लाभ
होगा,अन्यथा हानि होगी। शमी का पौधा मध्य पश्चिम यानी शनि के क्षेत्र में ही लगाना
चाहिए।
८१.थूहर-(कैकटस प्रजाति) इसे घर में न
लगायें। लगाना ही हो तो नैर्ऋत्यकोण में लगायें।
८२.
भवन निर्माण के प्रारम्भ में भूमिपूजन(संक्षिप्तवास्तुपूजन)अवश्य
करें।
८३.
भवन तैयार हो जाने के बाद विशेषविधान से वास्तुपूजन करके ही
गृहवास(प्रवेश)करें।
८४.
साल में एक बार वास्तुहोम अवश्य करना चाहिए। इससे भवन की वास्तुऊर्जा
हमेशा जागृत रहती है।
८५.
भवन में किसी प्रकार से तोड़फोड़ बदलाव करने के बाद भी संक्षिप्त
वास्तुशान्ति आवश्यक है।
८६.
गृहवासी के कर्म और संस्कार पर भी वास्तु का गुण-दोष निर्भर करता
है-इसे सर्वदा याद रखें।
उक्त सूत्रावली में वास्तु
परिचय,प्रयोजन,प्रकार,चयन,शोधन,निर्माण, व्यवस्था आदि उपखण्डों में (११+९+८६
सूत्रों) कुछ अत्यावश्यक वास्तुनियमों की चर्चा की गयी। ये यथासम्भव पालनीय हैं।अस्तु।
क्रमशः....
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