गतांश से आगे...अध्याय 26 भाग 2
प्रलम्ब का ठीक विपरीत संकोच दोष होता है,यानी भूखण्ड का कोई अंश कटा हुआ होना। पिछले अध्यायों में भूआकृति के विविध चित्रांकन प्रस्तुत किये गये हैं।(द्वष्टव्य- भूआकृति)। जैसा कि अगले चित्र में दर्शाया गया है-भूखण्ड का एक कोना कटा हुआ है,जिसे लाल रंग से दिखलाया गया है। दोष किसी भी दिशा-विदिशा में हो, सबका उपचार समान रुप से ही किया जाना चाहिए,क्यों कि सभी संकोच दोषों का दुष्प्रभाव समान है। ज्ञातव्य है कि प्रलम्ब की तुलना में संकोच अधिक दोषपूर्ण होता है। यहाँ भी लोगों में भ्रांतियां हैं- जैसे पूरब-ईशान के प्रलम्ब को लोग शुभ मान लेते हैं,उसी प्रकार नैर्ऋत्य के कटान को भी शुभ कहते हैं,किन्तु बात ऐसी नहीं है। शरीर का कोई अंग खंडित होगा,दोषपूर्ण ही होगा। अन्तर सिर्फ दोष की मात्रा का होगा,जैसे कि एक आँख न होना या एक अंगुली न होना- समान नहीं कहा जासकता। संकोच दोष को भी कांट-छांट कर ही शुद्ध करना चाहिए। दिये गये उदाहरण चित्र में कटे हुए लालअंश के समानान्तर ही सफेद अंश को भी काटकर शुद्ध हराअंश निकाल लिया गया।अन्य तीन दिशाओं में भी थोड़ी जगह छोड़ी गयी। ध्यातव्य है कि पूरब>उत्तर>पश्चिम>दक्षिण क्रमशः कम जगह छोड़नी चाहिए। यहाँ एक और बात का ध्यान रखना है कि उक्त नियमानुसार अधिक खुलापन अग्नि से नैर्ऋत्य पर्यन्त यदि हो रहा है,तो यह परिहार व्यवस्था लागू नहीं होगी। क्योंकि ऐसा करने से दक्षिण में खुलापन ज्यादा हो जायेगा,जो दूसरे तरह का दोष पैदा करेगा।उसके लिए दूसरे ढंग से वास्तुमंडल बांधना होगा।
प्रलम्ब का ठीक विपरीत संकोच दोष होता है,यानी भूखण्ड का कोई अंश कटा हुआ होना। पिछले अध्यायों में भूआकृति के विविध चित्रांकन प्रस्तुत किये गये हैं।(द्वष्टव्य- भूआकृति)। जैसा कि अगले चित्र में दर्शाया गया है-भूखण्ड का एक कोना कटा हुआ है,जिसे लाल रंग से दिखलाया गया है। दोष किसी भी दिशा-विदिशा में हो, सबका उपचार समान रुप से ही किया जाना चाहिए,क्यों कि सभी संकोच दोषों का दुष्प्रभाव समान है। ज्ञातव्य है कि प्रलम्ब की तुलना में संकोच अधिक दोषपूर्ण होता है। यहाँ भी लोगों में भ्रांतियां हैं- जैसे पूरब-ईशान के प्रलम्ब को लोग शुभ मान लेते हैं,उसी प्रकार नैर्ऋत्य के कटान को भी शुभ कहते हैं,किन्तु बात ऐसी नहीं है। शरीर का कोई अंग खंडित होगा,दोषपूर्ण ही होगा। अन्तर सिर्फ दोष की मात्रा का होगा,जैसे कि एक आँख न होना या एक अंगुली न होना- समान नहीं कहा जासकता। संकोच दोष को भी कांट-छांट कर ही शुद्ध करना चाहिए। दिये गये उदाहरण चित्र में कटे हुए लालअंश के समानान्तर ही सफेद अंश को भी काटकर शुद्ध हराअंश निकाल लिया गया।अन्य तीन दिशाओं में भी थोड़ी जगह छोड़ी गयी। ध्यातव्य है कि पूरब>उत्तर>पश्चिम>दक्षिण क्रमशः कम जगह छोड़नी चाहिए। यहाँ एक और बात का ध्यान रखना है कि उक्त नियमानुसार अधिक खुलापन अग्नि से नैर्ऋत्य पर्यन्त यदि हो रहा है,तो यह परिहार व्यवस्था लागू नहीं होगी। क्योंकि ऐसा करने से दक्षिण में खुलापन ज्यादा हो जायेगा,जो दूसरे तरह का दोष पैदा करेगा।उसके लिए दूसरे ढंग से वास्तुमंडल बांधना होगा।
आकृतिजनित
दोष का एक और उदाहरण चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है।आड़ा-तिरछा,त्रिकोना किसी भी
प्रकार की आकृति हो,समूचा भूखंड त्याज्य नहीं हो सकता। उसमें से शुद्ध वास्तुमंडल
का चयन किया जा सकता है। आगे दिये गये चित्र में हम देख रहे हैं कि अंडाकार भूखण्ड
में से काट कर तीन शुद्ध वास्तुमंडल का निर्माण किया जा सकता है। साथ की अन्य
आकृति में हरे रंग से कई शुद्धवास्तुमंडलों को दर्शाया गया है। कथन का अभिप्राय ये
है कि विविध आकृति जनित दोषों को निर्माण-काल में ही सुधार लिया जाना चाहिए। निर्माण
होजाने के बाद मामला पेचीदा हो जाता है। किसी प्रकार की बीमारी न हो,यह अधिक
महत्त्वपूर्ण है,बनिस्पत कि दवा खा-खाकर रोग को दूर करें।
क्रमशः...
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