पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-155

गतांश से आगे...अध्याय 26 भाग 3

1)    संरचना दोष- भवन बनाते समय, अज्ञानता वश या लाचारी में वास्तुनियमों की अवहेलना होकर,अनुचित स्थान पर निर्माण हो जाना, संरचना-दोष कहलाता है।जैसे रसोई घर अग्नि क्षेत्र में होना चाहिए,जलस्रोत ईशान में होना चाहिए,दक्षिण-पश्चिम में ऊँचा निर्माण हो- पूरब-उत्तर की तुलना में,या चारो ओर समान ऊँचाई हो,सेप्टीटैंक सही स्थान पर हो,ब्रह्मस्थान रिक्त हो... इत्यादि नियमों का पालन न हो पाना इस दोष के अन्तर्गत आता है। इन विविध दोषों का सही परिहार बड़ा ही कठिन होता है। यहाँ ऐसे ही कुछ दोषों की अलग-अलग चर्चा करके,उसका उपचार भी सुझाया जा रहा है।यथा—
१.      पीड़ित ब्रह्मस्थान-दोष- भवन के अन्दर यह सर्वाधिक धातक दोष है। वास्तुनियम है कि ब्रह्मस्थान पूर्णतः रिक्त,भारमुक्त, अवाधित,स्वच्छ और खुला हो। निर्माण काल में यदि इन बातों का ध्यान नहीं दिया गया,और इस भाग में कोई स्तम्भ (पीलर)(बीम नहीं)गुजर रहा है,अथवा किसी प्रकार का भारी निर्माण कर दिया गया,या तुलनात्मक रुप से यह स्थान ऊँचा होने के वजाय नीचा हो गया,बोरिंग,कुआं आदि बना दिया गया, सेप्टीटैंक इस भाग में बन गया- इस प्रकार के दोषों से त्राण पाना बड़ा ही कठिन हो जाता है। और सच पूछा जाय तो इन दोषों का स्थायी हल भी शायद ही हो पाता है। एक मात्र ऑपरेशन यानी दोष को पूर्णतः दूर करना ही सही उपाय है। जैसे बोरिंग,कुआं आदि है तो उसे हटा कर सही स्थान पर ले जायें। सेप्टीटैंक का होना तो सबसे अधिक हानि कारक है, उसे तो हर हाल में हटाना ही होगा। स्तम्भ सिर्फ ऊपर-ऊपर और ईंट का है,तो कम हानि कारक है,किन्तु यदि लोहे के छड़ और कंकरीट का पीलर जमीन के भीतर पांच-दस फीट धंसा हुआ है,तो उसका सही निवारण बड़ा ही कठिन है। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी मनुष्य के हृदय में भाला चुभोया हुआ हो। अब भला उस मनुष्य को कितना हूँ बड़ा हृदयरोग विशेषज्ञ कैसे ठीक कर सकता है- यानी ऑपरेशन करना ही होगा,कुछ दिन दवा भी चलानी ही होगी।सर्वोत्तम है कि इस स्थान पर सूर्य की रौशनी आये,खुले आकाश को इस स्थान से देखा जा सके। यदि ये सभी उपाय सम्भव न हों तो अति
उच्चशक्ति का वास्तुदोषनिवारणयन्त्र इस स्थान पर लगाना चाहिए।(यन्त्र निर्माण की चर्चा इसी अध्याय के अन्त में की जायेगी)
२.    सेप्टीटैंक का अनुचित स्थान- वास्तुमंडल में सेप्टीटैंक के लिए कुछ खास स्थान ही नियत किये गये हैं(द्रष्टव्य-वास्तुमंडल में कहाँ-क्या)। वस्तुतः यह मल का भण्डारण है,अतः किसी भी शुभ ऊर्जा वाले क्षेत्र में इसका होना अनुचित है। किसी कोण पर,मध्य में,प्रवेशद्वार पर,या ऐसी जगह पर बना हुआ हो जिससे होकर ही घर में प्रवेश करना लाचारी हो तो उसका स्थानान्तरण अनिवार्य है। प्रायः लोग सीढ़ी के नीचे टैंक बना देते हैं,इससे पूरा वास्तुमंडल प्रभावित हो जाता है।इसे तोड़कर दूसरे स्थान पर लेजाना भी काफी खर्चीला है। साथ ही बने मकान में उचित स्थान भी नहीं दीखता जहाँ हटाया जा सके। ऐसी स्थिति में कुछ उपाय सुझाये जाते हैं।हालाकि यह स्थायी निवारण नहीं है,और किस व्यक्ति के लिए,किस स्थान पर, कितना कारगर होगा- दावे के साथ कहा भी नहीं जा सकता। प्रायोगिक अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि कहीं-कहीं सामान्य उपचार भी काफी सफल सिद्ध हो जाता है,और कहीं विशेष उपचार भी व्यर्थ हो जाता है।आगे सत्ताइसवें अध्याय में दोषनिवारणसाधनाक्रम में इसकी पुनः चर्चा की जायेगी।
३.    कुआँ,बोरिंग,चापाकल आदि जलस्रोतदोष- ज्ञातव्य है कि इनका सर्वोत्तम स्थान ईशान कोण है। मध्य पूर्व,मध्य पश्चिम,मध्य उत्तर भी ग्राह्य है। किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य स्थान दोषपूर्ण हैं। अन्य स्थानों का तो परिहार हो सकता है,परन्तु नैर्ऋत्य और दक्षिण का कोई ठोस परिहार भी नहीं है। उसे वहाँ से हटाना ही पड़ेगा या कहें बन्द करना ही एकमात्र उपाय है। अग्नि,वायु आदि कोणों पर हो तो उसके परिहार स्वरुप सही स्थान- ईशान या मध्य पूर्व में एक और जलस्रोत बना दें। अशुभ स्थान पर कुआँ यदि है,तो परिहार स्वरुप शुभ स्थान में कम से कम चापाकल लगा देने से भी दोष कट जायेगा। कुंए के सम्बन्ध में एक अज्ञानतापूर्ण चलन प्रायः देखते हैं कि उसे मजबूती से ढक दिया जाता है। सच पूछें तो यह खुला रहने से भी अधिक घातक है।गलत स्थान में बने कुँएं को ढक कर दोष को कई गुना बढ़ा देना है। इसे विधिवत विसर्जन करके,शुद्ध मिट्टी या बालू से भर देना चाहिए। वरुण विसर्जन अति आवश्यक है।कभी-कभी लोग जलस्रोत के प्रतीक रुप मटके(कलश)में जल भर कर ईशानकोण में रखने का सुझाव दे देते हैं,यह बिलकुल बचकानी हरकत है।इससे कुछ लाभ नहीं। पुराना बोरिंग,चापाकल आदि को बन्द करने या हटाने का सही तरीका ये है कि अन्दर में धंसे लोहे या प्लास्टिक के पाइप को पूरी तरह निकाल दिया जाय,न कि उसी में पड़ा रहने दिया जाय। पाइप को निकालने के बाद रिक्त स्थान में बालू भर देना चाहिए।आधुनिक मतावलम्बी तथाकथित वास्तु शास्त्री किसी भी दोष के परिहार स्वरुप उसके प्रतीकों का उपयोग करते हैं। यह बिलकुल नादानी है।उपचार उपचार है। सही तरह से होने पर ही कारगर होगा- मान्त्रिक हो या भौतिक। क्या कोई बीमारी दवा की गोली खाने के बजाय दवा की तसवीर रखने से ठीक हो सकती है ? खाद्य पदार्थों की तसवीर देखने से भूख जा सकती है ? तो फिर प्रतीकात्मक प्रयोग से क्या होना है- समझने वाली बात है।
    रसोईघर का अनुचित स्थानदोष- रसोई घर वास्तु मंडल का अग्नि-संतुलक है,पाचन संस्थान है। मानव शरीर में पाचन संस्थान(Digestive System) का जो महत्त्व है,कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति वास्तुमंडल में रसोईघर की है। रसोईघर यदि मध्य दक्षिण या नैर्ऋत्य कोण में बना हुआ है,तो इसका कुछ भी सही परिहार नहीं है।इसे यहाँ से हटाना ही होगा।यम और राहु के स्थान में रहकर रसोईघर कभी सुरक्षित नहीं होसकता।मध्य पश्चिम यानी शनि के स्थान में हो तो खाना बनाने की दिशा का परिवर्तन किंचित परिहार हो सकता है।इस स्थान के रसोई घर की आन्तरिक व्यवस्था में नियमानुसार सुधार करके सही परिहार निकाला जा सकता है।इसी भांति वायुकोण या अन्य स्थानों के भी परिहार-नियम होंगे।पिछले अध्यायों में रसोईघर की संरचना पर प्रकाश डाला गया है। वहाँ कुछ वैकल्पिक सुझाव भी दिये गये हैं।विशेष जानकारी के लिए वहाँ दिये गये चित्रों का अवलोकन करना चाहिए। रसोई घर में अन्नपूर्णा की नियमित पूजा,और उक्त कक्ष के अग्निकोण में नित्य सायं घी का दीप जलाना काफी लाभदायक होता है।सुविधानुसार कभी भी रसोईघर में ही संक्षिप्त रुप से वास्तुहोम,नवग्रहहोम,अग्नि के निमित्तविशेष होमादि क्रिया करने से रसोईघर का वास्तुदोष शमित होता है।अग्नि का रंग लाल है,अतः इस रंग का अधिकाधिक प्रयोग रसोई घर की आन्तरिक साजसज्जा में करने से लाभ होता है। लालरंग के बल्व जलाना भी किंचित लाभदायक हो सकता है।

क्रमशः...

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