पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-156

गतांश से आगे... अध्याय 26 भाग 4

सीढ़ियों का वास्तुदोष- वास्तुमंडल में कहाँ-क्या नामक अध्याय में सीढ़ियों का उचित स्थान दर्शाया गया है।नैर्ऋत्य कोण को भारी होना चाहिए- ऐसा मानकर लोग प्रायः इस कोण पर सीढ़ियाँ बना देते हैं,किन्तु यह उचित नहीं है।इससे नीचे-ऊपर दोनों मंजिलें दोषपूर्ण होजाती हैं। ईशानकोण की सीढी सर्वाधिक हानिकारक है।सीढ़ी कहीं भी हो,सुविधा के लिए उसके नीचे ईन्जीनियर की राय से शौचालय या सेप्टीटैंक बन जाता है,तो और भी हानिकारक हो जाता है। प्रायः जगह की कमी से या आदतन लोग सढ़ियों पर सामान रख देते हैं,इससे भी वास्तुदोष पैदा होता है। सीढ़ियाँ बिलकुल खाली और साफ-सुथरी रहनी चाहिए। ईशान कोण की सीढ़ी का कोई सही परिहार नहीं है,इसे हर हाल में हटाना ही चाहिए। वैसे ठीक विपरीत नैर्ऋत्यकोण को भारी करके इसका आंशिक हल निकाला जा सकता है। सम्भव हो तो नैर्ऋत्यकोण की जमीन खोद कर भारी मात्रा में कुछ वोल्डर यहाँ गाड़ दिये जायें,इससे भी कुछ परिहार होजाता है।अन्य स्थान पर बनी दोषपूर्ण सीढ़ी के निवारण के लिए(तोड़ना यदि सम्भव न हो तो)सीढ़ी के नीचे, प्रत्येक चढ़ाई पर वास्तुदोष निवारणयन्त्र लगाना चाहिए। इसे नीचे के चित्र में स्पष्ट किया जारहा है-
यहाँ दो चित्र दिये गये हैं- एक तो सीढ़ियों का सही स्थान दर्शाता है,और दूसरा है सीढियाँ यदि दोषपूर्ण स्थिति में हों ते उनके नीचे वास्तुदोषनिवारण यन्त्र कहाँ स्थापित करें।(यन्त्र निर्माण की विधि इसी पुस्तक में अन्यत्र मिल जायेगा)     


               विधिवत प्राणप्रतिष्ठित किये हुए तांबें या पीलल के यन्त्र को सीढ़ी के तल में जड़ दें। इसे प्रत्येक तल में(हरमोड़पर)लगाना चाहिए।ध्यातव्य है कि यह यान्त्रिक उपाय ईशान कोण की सीढ़ी का दोष कदापि नहीं मिटा सकता।सीढ़ी के वास्तुदोष को दूर करने के वास्तुवंशी का भी प्रयोग किया जाता है,जो काफी लाभदायक सिद्ध होता है।पीतल की बनी वंशी के जोड़े को खास तरीके से बाँध कर सीढ़ी के प्रवेश और निकास द्वार पर लटका दिया जाता है।आगे इसी अध्याय में दोषनिवारणसाधना क्रम में इसकी चर्चा करेंगे। सीढ़ियों का व्यतिक्रमित होना,यानी सभी की ऊँचाई-चौड़ाई एक समान न होना भी दोषपूर्ण माना गया है।एक और गड़वड़ी यहाँ पायी जाती है- सुन्दरता या सुविधा की दृष्टि से कारीगर मोड़पर के पायदान को तिरछा (सिंघाड़े जैसा) कर देता है।यह भी वास्तुसम्मत नहीं है।इन सभी दोषों के निवारण के लिए वास्तुवंशी या वास्तुयन्त्र का प्रयोग किया जाना चाहिए।अज्ञानता में प्रायः लोग वामावर्त(anticlockwise)सीढ़ी बना देते हैं। यह बहुत ही हानिकारक है।यदि गलत स्थान में गलत ढंग(विपरीत)से बना हुआ होगा तो दोष भी ज्यादा होगा। हो सके तो इसे तोड़कर पुनः सही ढंग से बनायें।न सम्भव हो तो उक्त यन्त्र की शक्ति और संख्या को बढ़ाकर प्रयोग कर सकते हैं।


मुख्यद्वार का वास्तुदोष- पिछले अध्यायों में मुख्यद्वार पर काफी चर्चा की गयी है।वास्तु रुपी शरीर का यह मुंह है।अतः इसका दोषपूर्ण होना बहुत हानिकारक है। इसमें मुख्य रुप से चार दोष पाये जाते हैं- स्थानदोष,दिशादोष,आकारदोष और वेधदोष।सही दिशा में,किन्तु गलत स्थान में मुख्यद्वार का होना स्थान दोष कहलाता है।यूँ तो किसी भी कोण पर,किसी भी दिशा का मुख्यद्वार हानिकारक है,किन्तु नैर्ऋत्य कोण पर (पश्चिम या दक्षिण मुख)द्वार सर्वाधिक दोषपूर्ण है।इसका कोई सही और ठोस निवारण भी नहीं है। अतः हर हाल में इसे बन्द करना ही चाहिए।मध्य दक्षिण भी सर्वाधिक हानिकर श्रेणी में है।परिवर्तन का कोई विकल्प यदि न हो तो ऐसी स्थिति में ऐसे द्वार के समीप ही(दीवार से सटे,एक छोटा सा घरौंदा बनावे,और उसमें मिट्टी की दो मूर्तियों(पुरुष-स्त्री)को विधिवत स्थापित कर दे।यह क्रिया रात्रि के दूसरे प्रहर में (नौबजे के बाद)करनी चाहिए। समय-समय पर उसकी पूजा-अर्चना भी की जाय। हर साल इन मूर्तियों का विधिवत विसर्जन भी किया करे,और पुनः नयी मूर्ति की स्थापना की जाय। इस उपचार से काफी लाभ होता है,किन्तु ध्यान रहे यह अन्तिम अस्त्र है। कोई उपाय(विकल्प)न हो तब इसे प्रयोग करें।अन्य दिशा में गलत स्थान पर मुख्यद्वार हो तो गणेशजी की मूर्ति स्थापित कर दोष निवारण हो सकता है,किन्तु एक बार मूर्ति रख देने भर से काम नहीं चलेगा, नियमित उनकी पूजा-अर्चना भी होनी चाहिए। सामान्य त्रृटि की स्थिति में वास्तुदोषनिवारण यन्त्र स्थापित करने से भी दोष कट जाता है। प्रवेशद्वार पर ही सेप्टीटैंक बना हो,जिस पर से गुजरे बिना अन्दर नहीं जाया जा सके,ऐसी स्थिति में उच्चशक्ति का ताम्रवेष्ठन(दाबकयन्त्र) किंचित कारगर हो सकता है।इसके निर्माण की चर्चा अध्याय आगे किया जायेगा।मुख्यद्वार का आकार भवन के आकार के अनुसार निश्चित किया जाता है। इसकी चर्चा पिछले अध्यायों में की जा चुकी है।आकार अनुकूल न हो तो वास्तुदोषनिवारणयन्त्र स्थापित करके लाभ लिया जा सकता है।द्वारवेध की चर्चा भी पिछले प्रसंग में की जाचुकी है(इसका पुनरावलोकन किया जा सकता है)।प्रवेशद्वार किसी प्रकार से वेधित न हो,इसका ध्यान रखे।बीच में कोई सार्वजनिक मार्ग आता हो तो वेध स्वयमेव कट जाता है।वेध की दूरी सातफीट से अधिक हो तो भी दोष कम हो जाता है।वेध को निर्मूल करना,हटाना,दूर करना सम्भव न हो (जैसे वेध दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हो) ऐसी स्थिति में विघ्नेश्वर गणेश की स्थापना बहुत ही सहायक सिद्ध होती है।वास्तुदोष निवारण यन्त्र भी लगाया जा सकता है। यन्त्र की ऊर्जा दोष की स्थिति और मात्रा पर निर्भर है। विधिवत स्वस्तिक स्थापन भी मुख्यद्वार के लिए अति उपयोगी साधन है।इसकी स्थापनाविधि की चर्चा आगे सताइसवें अध्याय में होगी।

क्रमशः...

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