गतांश से आगे...अध्याय अठाइस,भाग- दो
गत भाग में आपने अहिबल चक्र में मूल श्लोकों को देखा,अब....
गत भाग में आपने अहिबल चक्र में मूल श्लोकों को देखा,अब....
मूल
श्लोकों की चर्चा के बाद,अब इसके प्रयोगात्मक पक्ष पर विचार करते हैं। महर्षि ने
प्रथम श्लोक में ज्ञापित किया है कि साधकगण इस अहि नामक चक्र की साधना करके भूगत
सोना,चाँदी,रत्नादि सहित शल्या- शल्य, शून्यादि का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर सकते
हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह विद्या सिर्फ ज्योतिषीय गणना मात्र नहीं
है,प्रत्युत साधना भी अनिवार्य है। संकेतात्मक रुप से मूलग्रन्थ में विविध मन्त्र-साधना
की भी चर्चा है। यथा- वाग्वादिनी,स्वप्नेश्वरी,भूमिविदारणादि,जिसका ज्ञान साधक को
अन्य ग्रन्थों से प्राप्त करना चाहिए। ज्योतिष सम्बन्धी गणित कार्यों के लिए भी दिशा-
निर्देश मात्र है। अतः इसके प्रयोगकर्ता को ज्योतिष शास्त्र का कम से कम सामान्य
ज्ञान तो अवश्य होना चाहिए। क्रिया का प्रारम्भ ही प्रश्नकुण्डली से हो रहा है। यानी
इष्टकाल साधन के पश्चात् ग्रहसाधन भी करना है। नवांश का ज्ञान भी आवश्यक है। चुँकि
ज्योतिष-तन्त्रादि के क्रियात्मक पक्ष पर प्रकाश डालना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं
है,इस कारण उन बातों का संकेतमात्र ही यहाँ मिल सकेगा। जिज्ञासु पाठकों को इसके
लिए अन्यान्य ग्रन्थों (गुरुओं) का सहयोग लेना चाहिए।
विषयवस्तु
से परिचय कराकर, दूसरे श्लोक से सीधे प्रायोगिक चर्चा प्रारम्भ हो जाती है।
मूलग्रन्थ में विविध पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या भी नहीं है। अतः प्रसंगवश हम
उनका यथासम्भव समावेश करते चलेंगे, ताकि नवीन जिज्ञासुओं को अधिक परेशानी न हो।
भूखण्ड पर कार्य करने हेतु नाप-जोख के लिए एक
पैमाना चाहिए। प्राचीन समय में अंगुल,बित्ता,हाथ आदि का चलन था। भले ही आजकल विविध
नवीन पैमानों का चलन है,किन्तु वास्तुशास्त्र में इन प्राचीन पैमानों का अपना अलग
महत्त्व है। यहाँ इस क्रिया में हम निम्नांकित माप का प्रयोग करेंगे- वितस्तिद्वितयं
हस्तो राजहस्तश्च तद्वयम् । दशहस्तैश्च दण्डः स्यात् त्रिंशद्दण्डो निवर्तनम्।। यानी
दो वित्ते का हाथ होता है(तर्जनी से अंगूठे पर्यन्त हथेली का विस्तार आठ अंगुल
होता है,इसे ही बित्ता कहते हैं)। तदनुसार दो हाथ का राजहस्त(जो आगे चल कर गज
कहलाया),और दश हाथ का एक दण्ड होता है। इस प्रकार ३० दण्ड × ३० दण्ड = ९००वर्ग दण्ड यानी ३०० × ३०० हाथ = ९०,००० वर्गहाथ भूमि को एक निवर्तन माना
गया है।
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने अपनी पुस्तक ‘लीलावती’ में माप के आधार को इस
प्रकार स्पष्ट किया है- यवोदरैरङ्गुलमष्टसंख्यैर्हस्तोऽङ्गुलैः
षडगुणितैश्चतुर्भिः ....तथा कराणां दशकेन वंशः। निवर्तनं विंशतिवंशसंख्यैः
क्षेत्रं चतुर्भिश्च भुजैर्निबद्धम्।। इस हिसाब से चारो ओर से घिरे हुए बीस
वांस के घेरे को निवर्तन कहते हैं।
अब, अभीष्ट भूमि अथवा भवन की परीक्षा करनी है
अहिबलचक्र से। इसके लिए सर्वप्रथम
शुभ दिन में अक्षतपुष्पद्रव्यादि लेकर योग्य वास्तुविद को विनती पूर्वक अपने आवास
पर आमन्त्रित करके,अपने कुल की अज्ञात (गुप्त) सम्पदा के सम्बन्ध में प्रश्न करेंगे।
सिद्ध वास्तुविद गृस्वामी के हस्तप्रमाण से
भवन-भूमि का मापन करेंगे,साथ ही प्रश्नकालिक इष्टकाल के आधार पर आवश्यक कुण्डली भी
तैयार
करेंगे। जैसा कि पूर्व में कह आये हैं-९०,००० वर्गहाथ तक की भूमि का परीक्षण एक
बार में सुविधापूर्वक किया जा सकता है।इससे अधिक हो, तो पुनः इसी क्रिया को
दुहराना होगा।
अब, स्थानद्वार का निर्णय करना पहला काम है।
स्थानद्वारलक्षण को ऋषियों ने इस प्रकार कहा हैः-
गृहे
यदि भवेद्द्रव्यं गृहद्वारे तदा न्यसेत्। मुख्योऽयं गदितः पक्षे हरिवंश कवीश्वरः।।
तत्कालचन्द्रमा यद्वा यत्रर्क्षे सुव्यवस्थितः। शलाकासप्तके तत्र न्यसेच्चक्रमिदं
बुधैः।। यद्वा निधिपतिर्यन्न विशेत्तद्द्वारमादिशेत्। एवं पक्षत्रयाद्धीमान्निधिं
संसाधयेत् किल।।
उक्त श्लोकों में तीन बातें कहीं गयी हैं—
1.जिस स्थान(घर)में अनुमानित-विस्मृत द्रव्य
हो,उसके द्वारस्थान (मुख्यद्वार) को ही स्थानद्वार माना जाना चाहिए।(ध्यातव्य है
कि स्थान- द्वार और द्वारस्थान बिलकुल भिन्न चीजें हैं।)
2.यदि बना हुआ भवन न होकर खाली भूखण्ड है,तो
प्रश्नकाल में जिस दिशा में नाग का सिर हो,उसे ही स्थानद्वार माना जाना चाहिए।
3.आगे दिये गये चक्रानुसार कृत्तिकादि
नक्षत्रों को सात-सात की संख्या में स्थापित करके,जिस दिशा में प्रश्नकालिक
चन्द्रमा का नक्षत्र हो, उसे ही स्थानद्वार माना जाना चाहिए।
कुछ विद्वान एक चौथी बात की ओर भी संकेत करते
हैं-
4.प्रश्नकर्ता(गृहस्वामी)जिस दिशा से होकर
परीक्षणीय भूमि पर प्रवेश करे,उसे ही स्थानद्वार माना जाना चाहिए।
प्रसंगवश,यहाँ ऊपर दिए गये संकेतों में दो
ज्ञातव्य बातों को स्पष्ट कर दें—(क) कृत्तिकादि नक्षत्रचक्र और (ख)
नाग-शिर— इसे नीचे दिये गये
चित्र और सारणी से स्पष्ट
किया जा रहा हैः- अहिबलचक्र हेतु प्रयुक्त नक्षत्रचक्र क्रमशः...... |
नाग-शिर
|
चान्द्रमास
|
पूरब
|
भादो,आश्विन,कार्तिक
|
दक्षिण
|
अगहन,पौष,माघ
|
पश्चिम
|
फाल्गुन,चैत्र,वैशाख
|
उत्तर
|
ज्येष्ठ,आषाढ़,श्रावण
|
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