बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठाःतन्त्रयोगसाधना

गतांश से आगे...अठारहवां भाग
मेरी बात पर,गायत्री कुछ कहना ही चाहती थी,कि तभी वाजूगोस्वामी की हांक सुनाई पड़ी- ‘ बाबा ने कहा था- आपलोग के लिए जलपान तैयार कर देने को, क्योंकि जल्दी निकलना है, सो सब तैयार हो गया है। अतः वहीं भोजनालय में
चलें आपलोग। मैं तबतक कुछ और काम निपटाकर आता हूँ।’
सूचना देकर गोस्वामी चला गया। उसके जाने के बाद,हमलोगों ने अपना सामान पैक किया,और चल दिये भोजनालय की ओर। रास्ते में ही वाजू मिल गया। उसने पुनः सूचना दी- जलपान के बाद बाबा ने अपने कमरे में बुलाया है। जाने से पहले वहीं भेट कर लेंगे,दोनों लोग वहीं हैं ।

कोई आध घंटे बाद हमलोग अपना सामान लिए बृद्धबाबा के कक्ष में उपस्थित हुए । किवाड़ यूं ही भिड़काया हुआ था। आज्ञा लेकर प्रवेश किए। दोनों बाबा वहीं मौजूद थे, किसी विशेष चर्चा में मशगूल । सामने कुछ पुस्तकें विखरी थी,जो देखने से ही काफी पुरानी प्रतीत हो रही थी। एक छोटी सी चौकी पर कुछ भोजपत्र और तालपत्र भी रखे हुए थे। हमें अन्दर प्रवेश करते ही बृद्धबाबा ने कहा- आओ बैठ जाओ। अब ज्यादा समय तो नहीं है तुमलोगों के पास कि कोई विशेष बातें की जा सकें; किन्तु कुछ खास चीजें हैं मेरे पास,जिसका योग्य अधिकारी समझते हुए तुम्हें सुपुर्द करना चाहता हूँ। ये सब मेरे गुरुमहाराज के धरोहर हैं- कुछ हस्तलिखित पुस्तकें। दिल्ली जाकर तुम्हें अपने मूल कर्तव्य में संलग्न हो जाना है । आज पौष शुक्ल सप्तमी है। अगले महीने वागीश्वरी दिवस,जिसे तुमलोग वसंत-पञ्चमी कहते हो, से साधना का विधिवत श्रीगणेश कर देना है। सैद्धान्तिक आधार भूमि बनायी जा चुकी है – इन दो दिनों में । अब सीधे क्रियात्मक रुप से तैयारी करनी है, अभ्यास करना है । संरक्षण हेतु तुम्हारे उपेन्द्र भैया सदा साथ हैं ही । इन पुस्तकों का समय-समय पर अवलोकन करते रहना। बहुत सी बातें- जिन पर चर्चा नहीं हो सकी है; किन्तु मैं जानता हूँ तुम्हारे मन में अनेक सवाल उठ रहे हैं, उनमें प्रायः सभी प्रश्नों का उत्तर,एवं आने वाले समय में सामयिक रुप से उपस्थित होने वाली समस्याओं का हल भी तुम्हें इन्हीं पुस्तकों से मिला करेगा। आम तौर पर बाजार में साधना सम्बन्धी असली पुस्तकें मिलती ही नहीं हैं। जो मिलती हैं,सो सिर्फ सैद्धान्तिक पक्ष की मात्र भूमिका होती है, या इसे यूं समझो कि खूब होगा तो बाजार में दूध मिल जायेगा,जिसे घर लाकर दही,मही,मक्खन और फिर घी प्राप्ति तक की प्रक्रिया तो स्वयं करनी ही होगी। ज्यादातर लोगों को तो गाय भी पालनी पड़ती है,तब ही शुद्ध दूध मिल पाता है। तुम बहुत भाग्यवान हो कि मेरे गुरुबाबा  
का संकेत हुआ, अन्यथा....
बृद्धबाबा अचानक रूक गये कहते-कहते। जरा ठहर कर फिर बोले–     ‘  गुरुमहारज ने अपनी अनुभूतियों  को लगभग उढेल दिया है इन पुस्तिकाओं में, जहां तक शब्दों में सामर्थ्य है प्रकटन का। बहुत सी बातों को चित्रों के माध्यम से भी व्यक्त किया है उन्होंने,ताकि समझने में सुविधा हो। उससे आगे,निशब्दजगत की बातें कोई क्या करेगा ! साधना की विधि कोई भी हो,गुरु चौखट तक पहुंचाने भर का काम कर सकता है,कक्ष-प्रवेश में कोई क्या सहयोगी होगा ! लो अपना धरोहर सम्भालो, और मुझे भारमुक्त करो।’– कहते हुये बृद्धबाबा सामने पड़ी सारी पुस्तकों को, वहीं पड़े पीले बंधने में पुनः बांधकर, मुझे सौंपते हुए,सिर का स्पर्श करते हुए बोले- मेरे गुरुमहाराज की अहैतुकीकृपा इसी भांति सदा तुमपर बनी रहे- इस आशीष और मंगलकामना सहित, वापस जाने की अनुमति देता हूँ। प्रयास करना, वर्ष में एक बार यहां आकर गुरुमहारज की समाधि का दर्शन कर लिया करना।
मैं अनुग्रिहत होकर,उनके चरणों में अपना माथा टेक दिया। उपेन्द्रबाबा ने कहा- अब तुमलोगों को निकलना चाहिए। बाजू को बोल दिया हूँ,गेट पर ऑटो लेकर इन्तजार कर रहा होगा। मुझे तो अभी कुछ दिन और रुकना है यहां। और वैसे भी मेरी प्रतीक्षा अधिक करने की आवश्यकता नहीं है,अपने कर्तव्य में जुट जाना है।
हमदोनों बारी-बारी से दोनों बाबाओं का चरण-स्पर्श किये,और अपना बैग उठाये कमरे से बाहर निकल पड़े। परिसर से बाहर बाजू खड़ा था,एक छोटा सा झोला लिए हुए,जिसमें रास्ते का कलेवा था- कुछ प्रसाद वगैरह। झोला गायत्री के हाथ में देकर बाजू ने झुक कर प्रणाम करना चाहा,किन्तु मैंने लपक कर उसे थाम लिया- ये क्या करते हो बाजूभाई ! गायत्री ने हाथ जोड़कर उसे नमस्ते कहा और बैठ गये ऑटो में।

दिल्ली पहुँचते के साथ ही सांसारिक कर्तव्यों में उलझ गया। ड्यूटी की गुलामी शुरु हो गयी। सप्ताह भर से अधिक,कुछ ऐसे भागमभाग में गुजर गये कि विन्ध्ययात्रा की उपलब्धियों और भावी कर्तव्य पर विचार भी न कर सका। देर रात आवास पर पहुंचता,जल्दी-जल्दी निवाला गटकता,इस बीच ही गायत्री से कुछ जरुरी बातें होजाती,और फिर थकामादा विस्तर पर ढह जाता- कटे वृक्ष की भांति।
कहने को तो उपेन्द्रबाबा को दो दिन बाद ही आना था,किन्तु उनका दो दिन कितने दिन में आयेगा वे ही जाने। हालाकि गायत्री रोज दिन गिना करती थी- आज आठ दिन हो गये...आज बारहवां दिन भी गुजर गया। इस बीच गायत्री को काफी समय मिल गया- वृद्धबाबा की दी हुयी पुस्तकों का अध्ययन करने का। पुस्तकों का शौक तो उसे बचपन से ही रहा है- कोई भी विषय हो,सामने आया कि चाट मारेगी। मेरी सारी किताबें वह कई बार पढ़ चुकी है। दुर्भाग्य ऐसा कि सही प्लेटफॉर्म नहीं मिल सका उसे। इस नये बंगले में और भी सुविधायें थी,साथ ही समय का बाहुल्य भी। आखिर करती भी क्या- पुस्तकों के अध्ययन-मनन से बढ़कर और कौन सा बढ़िया काम हो सकता है समय काटने का,वो भी उसे,जिसे पुस्तकों से लगाव हो ! इन दिनों भी उसका सारा समय अध्ययन-मनन में ही व्यतीत हुआ । मेरी कार्य-व्यस्तता वश मुझसे विशेष बातें करने का अवसर भी नहीं मिल पा रहा था उसे।
एक दिन गायत्री ने कहा- बाबाओं के आदेश का कुछ स्मरण भी है, या कि ...?
मैंने उत्साह पूर्वक कहा- क्यों नहीं,सभी आदेश और संकेत याद है,किन्तु काम का जंजाल थोड़ा छंटे तब न।
पास बैठती हुयी गायत्री ने कहा- ‘ काम का जंजाल तो जीवन भर लगा ही रहता है। आजतक किसी के पास न धन ज्यादा हुआ है,और न समय । कमाल की बात तो ये है कि समय का रोना वे लोग ही ज्यादा रोते हैं,जिनके पास समय का कोई मोल नहीं होता,या कहें समय की सबसे अधिक बरबादी करते हैं। ये कह कर मैं तुम्हारी व्यस्तता को लापरवाही नहीं साबित कर रही हूँ,बल्कि मूल उद्देश्य के प्रति अगाह कर रही हूँ। जीवन की आपाधापी में प्रायः लोग भूल ही जाते हैं- जीवन जीने की कला। इस बार बाबाओं का सानिध्य और उनकी महती कृपा,और भी उद्वेलित कर दिया मुझे। कबीर की पंक्तियां – हीरा जनम गंवायो... हर पल ठोंकर मार रहा है। सोचते-विचारते इतना वक्त गुजर गया, कुछ किया नहीं गया। सौभाग्य से,अब तो मार्ग भी स्पष्ट है,कदम बढ़ाना है केवल..। ’
गायत्री का संकेत मैं समझ रहा था,किन्तु....।
मुझे निरुत्तर और शान्त देख गायत्री उठी,और आलमीरे पर से एक पुस्तक उठा लायी,जो बाबा की दी हुयी पुस्तकों में एक थी। मेज पर रखती हुयी बोली-    ‘ आज सप्ताह भर से इसे ही पढ़ रही हूँ। लिखावट कुछ दुरुह है,इस कारण कठिनाई भी बहुत हो रही है,किन्तु भाषा और शैली बहुत ही सरल है। तन्त्र की बुनियादी बातों की विशद चर्चा है,वो भी इतने सरल ढंग से कि समझने में जरा भी कठिनाई नहीं हो रही है। ’
गायत्री के हाथ से पुस्तक लेकर,मैं देखने लगा। बड़े ही सुरुचिपूर्ण लिखावट थे- काली स्याही से। बीच-बीच में कुछ सुनहरे लिखावट भी थे,जिन्हें कोट करने के उद्देस्य से लिखा गया था,काफी चमकदार सुन्दर,एक-एक अक्षर मोतियों-से सजे थे। गायत्री ने ही बताया- ‘ ये जो काली स्याही है,वो कपूर-कज्जली,घोड़े की लीद और ग्वारपाठे के स्वरस से तैयार की जाती है,तथा ये जो सुनहरी लिखावट है, वो मनःसिला ग्वारपाठे के स्वरस में घोल कर बनायी जाती है। इस तरह के और भी विभिन्न पदार्थों वनस्पतिस्वरस से अलग-अलग रंगों की स्याही बनायी जाती थी। थूहर के दूध से एक प्रकार की जादुई स्याही भी बनायी जाती थी,जिससे सफेद कागज पर लिख भी दो तो कुछ दिखलायी न दे,और उसे गोपनीय विधि से पढ़ी जाती थी। उस सादे दिख रहे कागज पर जब असली सिन्दूर का लेप किया जाता है तब सभी अक्षर उभर आते हैं। राजाओं के गोपनीय संदेश इसी प्रकार की किसी न किसी जादुई स्याही से लिख कर ही भेजे जाते थे। स्याही बनाने की सैंकड़ो विधि मेरे दादाजी जानते थे। सरकंडे या अनार की कलम या फिर मोरपंख की डंडी से लिखते थे। तालपत्र या भोजपत्र पर इस तरह की लिखावट सैंकड़ो वर्षों तक यथावत बनी रहती है। आजकल चाइनीज-ईंक का प्रयोग किया जाता है,किन्तु उस समय के इस भारतीय स्याही से उसकी कोई तुलना क्या हो सकेगी !
मूलतः लिपि तो देवनागरी ही थी,किन्तु बंगीय लिपि का छाप था,फलतः पढ़ने में थोड़ी कठिनाई अवश्य हो रही थी,फिर भी पढ़ने की चेष्टा करने लगा।
सदाशिव और पराशक्ति की वन्दना के बाद,पुस्तक के प्रारम्भ में ही कुछ सारणियां दी हुयी थी,जिनमें तन्त्र को मूल रूप से तीन विभागों में रखकर,चौंसठ की त्रिकुटी बनी थी विष्णुक्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्ता के नाम से। पहली त्रिकुटी थी विष्णुक्रान्ता जिसके अन्तर्गत निम्न ग्रन्थों को रखा गया था-
(क)      विष्णुक्रान्ता वर्गीय तन्त्र-ग्रन्थः-

१.            सिद्धीश्वरतन्त्रम्
२.            कालीतन्त्रम्
३.            कुलार्णवतन्त्रम्
४.            ज्ञानार्णवतन्त्रम्
५.            नीलतन्त्रम्
६.            फेत्कारीतन्त्रम्
७.            देव्यागमतन्त्रम्
८.            उत्तरतन्त्रम्
९.            श्रीक्रमतन्त्रम्
१०.       सिद्धियामलतन्त्रम्
११.       मत्स्यसूक्ततन्त्रम्
१२.       सिद्धसारतन्त्रम्
१३.       सिद्धिसारस्वततन्त्रम्
१४.       वाराहीतन्त्रम्
१५.       योगिनीतन्त्रम्
१६.       गणेशविमर्शिनीतन्त्रम्
१७.       नित्यातन्त्रम्
१८.       शिवागमतन्त्रम्
१९.       चामुण्डातन्त्रम्
२०.       मुण्डमालातन्त्रम्
२१.       हंसमहेश्वरतन्त्रम्
२२.       निरुत्तरतन्त्रम्
२३.       कुलप्रकाशतन्त्रम्
२४.       देवीकल्पतन्त्रम्
२५.       गन्धर्वतन्त्रम्
२६.       क्रियासारतन्त्रम्
२७.       निबन्धतन्त्रम्
२८.       स्वतन्त्रतन्त्रम्
२९.       सम्मोहनतन्त्रम्
३०.       तन्त्रराजतन्त्रम्
३१.       ललितातन्त्रम्
३२.       राधातन्त्रम्
३३.       मालिनीतन्त्रम्
३४.       रुद्रयामलतन्त्रम्
३५.       वृहद्श्रीक्रमतन्त्रम्
३६.       गवाक्षतन्त्रम्
३७.       सुकुमुदिनीतन्त्रम्
३८.       विशुद्धेश्वरतन्त्रम्
३९.       मालिनीविजयतन्त्रम्
४०.       समयाचारतन्त्रम्
४१.       भैरवीतन्त्रम्
४२.       योगिनीहृदयतन्त्रम्
४३.       भैरवतन्त्रम्
४४.       सनत्कुमारतन्त्रम्
४५.       योनितन्त्रम्
४६.       तन्त्रसारतन्त्रम्
४७.       नवरत्नेश्वर तन्त्रम्
४८.       कुलचूड़ामणि तन्त्रम्
४९.       भावचूड़ामणितन्त्रम्
५०.       दैवप्रकाशतन्त्रम्
५१.       कामाख्यातन्त्रम्
५२.       कामधेनुतन्त्रम्
५३.       कुमारीतन्त्रम्
५४.       भूतडामरतन्त्रम्
५५.       यामलतन्त्रम्
५६.       ब्रह्मयामलतन्त्रम्
५७.       विश्वसारतन्त्रम्
५८.       महाकालतन्त्रम्
५९.       कुलोड्डीशतन्त्रम्
६०.       कुलामृततन्त्रम्
६१.       कुब्जिकातन्त्रम्
६२.       यन्त्रचिन्तामणितन्त्रम्
६३.       कालीविलासतन्त्रम्
६४.       मायातन्त्रम्



    (ख) रथक्रान्ता वर्गीय तन्त्र-ग्रन्थः-

१.       चिन्मयतन्त्रम्
२.       मस्त्यसूक्ततन्त्रम्
३.       महिषमर्दिनीतन्त्रम्
४.       मातृकोदयतन्त्रम्
५.       हंसमहेश्वरतन्त्रम्
६.       मेरुतन्त्रम्
७.       महानीलतन्त्रम्
८.       महानिर्वाणतन्त्रम्
९.       भूतडामरतन्त्रम्
१०.  देवडामरतन्त्रम्
११.  बीजचिन्तामणितन्त्रम्
१२.  एकजटातन्त्रम्
१३.  वासुदेवरहस्य
१४.  वृहद्गौतमीयतन्त्रम्
१५.  वर्णोद्धृतितन्त्रम्
१६.  छायानीलतन्त्रम्
१७.  वृहद्योनितन्त्रम्
१८.  ब्रह्मज्ञानतन्त्रम्
१९.  गरुड़तन्त्रम्
२०.  वर्णविलासतन्त्रम्
२१.  बालाविलासतन्त्रम्
२२.  पुरश्चरणचन्द्रिकातन्त्रम्
२३.  पुरश्चरणसोल्लासतन्त्रम्
२४.  पञ्चदशीतन्त्रम्
२५.       पिच्छिलातन्त्रम्
२६.       प्रपञ्चसारतन्त्रम्
२७.       परमेश्वरतन्त्रम्
२८.       नवरत्नेश्वरतन्त्रम्
२९.       नारदीयतन्त्रम्
३०.       नागार्जुनतन्त्रम्
३१.       योगसारतन्त्रम्
३२.       दक्षिणामूर्तितन्त्रम्
३३.       योगस्वरोदयतन्त्रम्
३४.       यक्षिणीतन्त्रम्
३५.       स्वरोदयतन्त्रम्
३६.       ज्ञानभैरवतन्त्रम्
३७.       आकाशभैरवतन्त्रम्
३८.       राजराजेश्वरतन्त्रम्
३९.       रेवतीतन्त्रम्
४०.            सारसतन्त्रम्
४१.        इन्द्रजालतन्त्रम्(क)
४२.        इन्द्रजालतन्त्रम्(ख)

४३.        कृकलासदीपिकातन्त्रम्
४४.        कङ्कालमालिनीतन्त्रम्
४५.        कालोत्तमतन्त्रम्
४६.        यक्षडामरतन्त्रम्
४७.        सरस्वतीतन्त्रम्
४८.   शारदातन्त्रम्
४९.   शक्तिसङ्गमतन्त्रम्
५०.   शक्तिकागमसर्वस्वतन्त्रम्
५१.   सम्मोहिनीतन्त्रम्
५२.   चीनाचारतन्त्रम्
५३.   षडाम्नायतन्त्रम्
५४.   करालभैरवतन्त्रम्
५५.   षोढ़ातन्त्रम्
५६.   महालक्ष्मीतन्त्रम्
५७.   कैवल्यतन्त्रम्
५८.   कुलसद्भवतन्त्रम्
५९.   सिद्धितद्धरितन्त्रम्
६०.   कृतिसारतन्त्रम्
६१.   कालभैरवतन्त्रम्
६२.   उड्डामहेश्वरतन्त्रम्
६३.   महाकालतन्त्रम्
६४.   भूतभैरवतन्त्रम्

(ग)अश्वक्रान्ता वर्गीय तन्त्र-ग्रन्थः-


१.   भूतशुद्धितन्त्रम्
२.   गुप्तदीक्षातन्त्रम्
३.   बृहत्सारतन्त्रम्
४.   तत्त्वसारतन्त्रम्
५.   वर्णसारतन्त्रम्
६.       क्रियासारतन्त्रम्
७.       गुप्ततन्त्रम्
८.       गुप्तसारतन्त्रम्
९.   वृहत्तोडलतन्त्रम्
१०.       बृहत्निर्माणतन्त्रम्
११.  वृहत्कङ्कालिनीतन्त्रम्
१२.  सिद्धातन्त्रम्
१३.  कालतन्त्रम्
१४.  शिवतन्त्र्म्
१५.  सारात्सारतन्त्रम्
१६.  गौरीतन्त्रम्
१७.  योगतन्त्रम्
१८.                      धर्मकतन्त्रम्
१९.  तत्त्वचिन्तामणितन्त्रम्
२०.  विन्दुतत्त्वतन्त्रम्
२१.  महायोगिनीतन्त्रम्
२२.  वृहद्योगिनीतन्त्रम्
२३.  शिवार्चनतन्त्रम्
२४.  शम्बरतन्त्रम्
२५.  शूलिनीतन्त्रम्
२६.  महामालिनीतन्त्रम्
२७.  वृहद्मालिनीतन्त्रम्
२८.  मोक्षतन्त्रम्
२९.  महामोक्षतन्त्रम्
३०.  वृहन्मोक्षतन्त्रम्
३१.  गोपितन्त्रम्
३२.  भूतलिपितन्त्रम्
३३.  कामिनीतन्त्रम्
३४.  मोहिनीतन्त्रम्
३५.  मोहनतन्त्रम्
३६.  समीरणतन्त्रम्
३७.  कामकेशरतन्त्रम्
३८.  महावीरतन्त्रम्
३९.  चूडामणितन्त्रम्
४०.  गुर्वचनतन्त्रम्
४१.            गोप्यतन्त्रम्
४२.            तीक्ष्णतन्त्रम्
४३.            मङ्गलातन्त्रम्
४४.            कामरत्नतन्त्रम्
४५.            गोपलीलामृततन्त्रम्
४६.            ब्रह्माण्डतन्त्रम्
४७.            चीनतन्त्रम्
४८.            वृहच्चीनतन्त्रम्
४९.            महानिरूत्तरतन्त्रम्
५०.            भूतेश्वरीतन्त्रम्
५१.            गायत्रीतन्त्रम्
५२.            विशुद्धेश्वरतन्त्रम्
५३.            योगार्णवतन्त्रम्
५४.            भेरूण्डातन्त्रम्
५५.       मन्त्रचिन्तामणितन्त्रम्
५६.            यन्त्रचूड़ामणितन्त्रम्
५७.            विद्युल्लतातन्त्रम्
५८.            भुवनेश्वरीतन्त्रम्
५९.            लीलावतीतन्त्रम्
६०.            कुरञ्जतन्त्रम्
६१.            जयराधामाधवतन्त्रम्
६२.            उज्जासकतन्त्रम्
६३.            धूमावतीतन्त्रम्
६४.            शिवतन्त्रम्

उक्त तन्त्र त्रिकुटी के बाद आद्यशंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी का एक श्लोक दिया हुआ था-

चतुःषष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसन्धाय भुवनं,               
                              स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रो पशुपतिः ।         
पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्थैकघटना,
                            स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ।।                              
जो सुनहरे मनःशिलालेख्य से उद्धृत था। तन्त्रशास्त्र में यह चौंसठ की संख्या भी रहस्यमय ही प्रतीत हुयी। प्रसंगवश बाबा ने कहा था कभी- ये इक्यावन वर्ण ही विशेष स्थितियों में किंचित उच्चारण भेद और उपध्मानीयादि अयोगवाहरुप-संयोग से तिरसठ हो जाते हैं,और फिर चौसठ का भी औचित्य सिद्ध हो जाता है। चौंसठ की उक्त त्रिकुटी में हमने गौर किया कि कुछ नाम एकाधिक कूट में भी हैं,तो कुछ समान नाम की पुनरावृत्ति समान कूट में ही हुयी है। इसका कारण तो कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया,सही समाधान बाबा ही कर सकते हैं। हां,आगे वामकेश्वर तन्त्रम् के अनुसार एक और कूट भी चर्चित
मिला। यथा-

१.     महामायातन्त्रम्
२.     शम्बरतन्त्रम्
३.     योगिनीतन्त्रम्
४.     जालशम्बरतन्त्रम्
५.     तत्त्वशम्बरतन्त्रम्
६.     भैरवाष्टकतन्त्रम्
७.     बहुरुपाष्टकतन्त्रम्
८.     माहेश्वरीतन्त्रम्
९.     कौमारीतन्त्रम्
१०.   वैष्णवीतन्त्रम्
११.   वाराहीतन्त्रम्
१२.   माहेन्द्रीतन्त्रम्
१३.   चामुण्डातन्त्रम्
१४.   शिवदूतीतन्त्रम्
१५.   ब्रह्मयामलतन्त्रम्
१६.   रुद्रयामलतन्त्रम्
१७.   विष्णुयामलतन्त्रम्
१८.   लक्ष्मीयामलतन्त्रम्
१९.   उमायामलतन्त्रम्
२०.   स्कन्दयामलतन्त्रम्
२१.   गणेशयामलतन्त्रम्
२२.   जयद्रथयामलतन्त्रम्
२३.   चन्द्रज्ञानतन्त्रम्
२४.   वासुकितन्त्रम्
२५.   महासम्मोहनतन्त्रम्
२६.   महोच्छुष्मतन्त्रम्
२७.   वातुलतन्त्रम्
२८.   वातुलोत्तरतन्त्रम्
२९.   हृद्भेदतन्त्रम्
३०.   तन्त्रभेदतन्त्रम्
३१.   गुह्यतन्त्रम्
३२.   कामिकतन्त्रम्
३३.   कलावादतन्त्रम्
३४.   कलासारतन्त्रम्
३५.   कुब्जकामततन्त्रम्
३६.   तन्त्रोत्तरतन्त्रम्
३७.   वीणातन्त्रम्
३८.   त्रोतलतन्त्रम्
३९.   त्रोतलोत्तरतन्त्रम्
४०.   पञ्चामृततन्त्रम्
४१.   रुपभेदतन्त्रम्
४२.   भूतडामरतन्त्रम्
४३.   कुलसारतन्त्रम्
४४.   कुलोड्डीशतन्त्रम्
४५.   कुलचूड़ामणितन्त्रम्
४६.   सर्वज्ञानोत्तरतन्त्रम्
४७.   महाकालीमततन्त्रम्
४८.   महालक्ष्मीमततन्त्रम्
४९.   सिद्धयोगेश्वरीमततन्त्रम्
५०.   कुरुपिकामततन्त्रम्
५१.   देवरुपिकामततन्त्रम्
५२.   सर्ववीरमततन्त्रम्
५३.   विमलामततन्त्रम्
५४.   पूर्वाम्नायतन्त्रम्
५५.   पश्चिमाम्नायतन्त्रम्
५६.   दक्षिणाम्नायतन्त्रम्
५७.   उत्तराम्नायतन्त्रम्
५८.   निरुत्तरतन्त्रम्
५९.   वैशेषिकतन्त्रम्
६०.   ज्ञानार्णवतन्त्रम्
६१.   वीरामलतन्त्रम्
६२.   अरुणेशतन्त्रम्
६३.   मोहिनीशतन्त्रम्
६४.   विशुद्धेश्वरतन्त्रम्

उक्त तन्त्र-ग्रन्थ-सूची के पश्चात् एक और तालिका दी गयी थी,जिनकी कुल संख्या तो चौंसठ ही थी,किन्तु इन्हें पूर्व तालिकाओं की तरह एकत्र न रखकर,आठ अष्टकों में विभक्त करके रखी गयी थी। यथा- इन आठ वर्गों में आठ-आठ की संख्या इस प्रकार बनती है-1)भैरवाष्टक- स्वच्छन्द , भैरव,चंड,क्रोध,उन्मत्तभैरव, असितांग, महोच्छुष्म,कपालीश।2)यामलाष्टक–ब्रह्म,विष्णु,रुद्र,स्वच्छन्द,आथर्वण,रुरु,वैताक 3)मताष्टक--रक्त,लम्पट,लक्ष्मीमत,मत,चालिका,पिंगला,उत्फुल्लक,विश्वाद्य।    4)मङ्लाष्टक-पिचुभैरवी,तन्त्रभैरवी,ब्राह्मी,कला,विजया,चन्द्रा,मंगला,सर्वमंगला। 5)चक्राष्टक-मन्त्रचक्र,वर्णचक्र,शक्तिचक्र,कलाचक्र,विन्दुचक्र,नादचक्र,गुह्यचक्र, और खचक्र। 6) बहुरुपाष्टक—अन्धक,रुरुभेद,अज,मूल,वर्णभण्ट,विडंग,ज्वालिन, और मातृरोदन। 7)वागीशाष्टक-भैरवी,चिंचिका,हंसा,कदम्बिनी, हृल्लेखा, चन्द्रलेखा,विद्युल्लेखा,और विद्युमान्। 8)शिखाष्टक—भैरवी,वीणा, वीणामणि, सम्मोह,डामर,अथर्वक,कबन्ध,और शिरच्छेद।
क्रमशः...

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