एक वोध कथा- जिसकी घटना पिछले सात महीनों से मन को मथित किये हुए था,अब और टालना सम्भव न लगा,अतः कन्फेशन के लिए रख ही दे रहा हूँ- आपके सामने...पता नहीं आपको कैसा लगे!
अपराध-वोध
स्वयं को वह वैष्णव ही नहीं परम वैष्णव समझता है। वैष्णव
दिखने के जो भी बाह्य लक्षण हैं, सब कुछ लगभग ओढ़-सा लिया है- गोक्षुरु शिखा,गोपी-तिलक,तुलसी-माला-कंठी,ऊपर
से रामनामी उत्तरेय भी...। विष्णुसहस्रनाम और गीता तो बिलकुल कंठस्थ है,
श्रीमद्भागवत के शताधिक श्लोक भी। बिलकुल ब्राह्ममुहूर्त में तो नहीं, किन्तु
सूर्योदय से थोड़ा पहले नियमित विस्तर त्याग, नित्यकर्म में लग जाना,सन्ध्या-वन्दन,सस्वर
पाठ...और भी बहुत कुछ। शालग्राम-चरणामृत प्राशन के वगैर तो उसकी दिनचर्या ही अधूरी
सी है- अकाल मृत्यु हरणं,सर्व व्याधि विनाशनं। विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म
न विद्यते... पुनर्जन्म के भय से या कि निष्ठा से – यह तो वही जाने। प्रकृति
प्रेम भी किंचित झलकता है उसमें ,क्यों कि एक छोटी सी वाटिका भी लगा रखी है उसने, जिसमें
सिर्फ पुष्प ही नहीं लता,गुल्म और पादप भी हैं। अर्क,अपामार्ग,कुशा,दूर्वा के
साथ-साथ अश्वत्थ,उदुम्बर,खदिर और शमी जैसे कुछ वृक्ष भी कैद हैं वहां- यानी नवग्रह
प्रेम या कि अज्ञातभय ! जो भी हो, सभी समिधायें उपलब्ध हैं
उस वाटिका में । छोटे से घर का बड़ा सा प्रांगण इन्हीं सब से पटा पड़ा है। उन्हीं
में ‘वृन्दावन’ भी है। हां,वृन्दावन यानी तुलसी की वाटिका। वाटिका पूरी तौर पर
सुरक्षित-संरक्षित है। परिंदे को भी पर मारने में सोचने की जरुरत है।
मगर अफसोस,वह बहुत ही चिन्तित है,थोड़ा दुःखी भी। लगता है
कलयुग का पूरा बोलबाला हो गया है- कलेः पञ्चसहस्रे च गते वर्षे च मोक्षणम्....विष्णु की प्रतिज्ञानुसार शापित तुलसी धराधाम को शायद त्याग चुकी हैं,तभी
तो महाकीटनाशक तुलसी पर क्षुद्र कीटों का प्रभाव पड़ रहा है। श्वेततुलसी तो सब के
सब कीटग्रस्त हो ही चुके हैं। ऐसा कई सालों से होता आ रहा है- काले-काले छोटे
कीड़े पत्तियों पर हमला बोल देते हैं,और थोड़े ही दिनों में पूरा पौधा उनके गिरफ्त
में आकर सूख-मुरझा जाता है। इसीलिए इस बार उसने कहीं से खोज-ढूंढ़ कर श्याम तुलसी
ही लगाये हैं । किन्तु इधर महीनों से उसके श्याम तुलसी पर भी विपत्ति आ पड़ी है- न जाने क्यों कर पत्तियां ही
अलक्षित हो जा रही हैं। पौधा ज्यों का त्यों है। पत्तियों का अलोपन-रहस्य उसके समझ
से परे है। सुकोमल वृंत पर पत्तियां ज्यों ही झांकतीं,अगले दिन ही गायब। पहले तो
उसे शक हुआ घर के बच्चों पर ही,क्यों कि बाहर के बच्चों को तो इज़ाजत ही नहीं थी
वाटिका तक जाने की। अतः बच्चों को ही डांट पड़ती- कभी छोटकू को,तो कभी बड़कू को
भी। किन्तु बच्चा तो बेचारा बच्चा ही होता है न ! प्रायः
अनकिये की भी सजा भुगत लेता है,सुधनी गाय
की तरह,और बहुत बार तो बड़ों की भूलों का भी शिकार होना पड़ जाता है।
एक दिन छुटनी को मेला घुमाने का प्रलोभन दिया कि वह निगरानी
करे,कि कब बड़कु या कि छोटकी यह दुःसाहस कर गुजारता है,और कानों कान खबर भी नहीं
होती। और तब जाकर एक दिन रहस्योद्घाटन हुआ तुलसी-पत्र-अलोपन का। छुटनी ने स्वयं
अपनी आँखों से देखा और दोनों भाइयों को भी गवाही में शामिल किया,ताकि मेला घुमने
का काम तीनों का एक साथ होसके। साक्ष्य को और भी पुष्ट करने हेतु मां का भी सहयोग
लिया गया।
उसने ही साहस करके कहा- ‘आप व्यर्थ ही
इतने दिनों से बच्चों को डांटते-पीटते रहे हैं,असली मुज़रिम तो वो राक्षस-सा जन्तु
है,जो आपके प्रिय वृन्दावन को नष्ट करने पर तुला है।’ और तब एक
दोपहरी में छिप कर उसने स्वयं भी निरीक्षण किया,सबसे आँख बचाकर; क्यों कि उसे
विश्वास ही न हो रहा था,कि कोई विचित्र प्राणी तुलसी-पत्तों को खा रहा है।
उसने देखा, गिरगिट की तरह ,किन्तु विशालकाय जन्तु आसपास के
पौधों पर रेंग रहा है, पास के खोढ़र से निकल कर,और धीरे-धीरे तुलसी की ओर बढ़ रहा
है। निरीक्षण करते हुए वह,और भी दुबक गया,थोड़ा सरक भी आया पौधे के समीप, खदिर की
आड़में। गिरगिट सा वह जन्तु आहिस्ते से उछला,और सीधे तुलसी पर कूद पड़ा,जिसमें
डालियां तो कई थी,पर पत्तों का अभाव था। एक-दो कोंपलें अभी झांक ही रही थी,अकुला
रही थी- वृंत से बाहर आने को कि उसने चट अपनी जीभ लगा दी उन कोंपलों पर। एक-दो-तीन
करके क्षण भर में ही सभी कोंपले काल-जन्तु का ग्रास बन गयी। वह आग-बबूला हो उठा- क्रोधाद्भवति
सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंसाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
क्रोध सम्मोहित कर देता है,सम्मोहन स्मृति-विभ्रम पैदा करता है। स्मृति-विभ्रम से
बुद्धि नष्ट हो जाती है,और बुद्धि नष्ट होने पर तो सब कुछ प्रनष्ट होगा ही न!
उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। क्रोधावेग में सब कुछ समा गया।
विकट जन्तु को दण्डित करने हेतु कोई और दण्ड न ग्रहण कर,सीधे पैर से निकाला अपना
खड़ाऊँ,और घातक प्रहार कर दिया। ये भी न सोच सका कि पादुका-प्रहार पवित्र तुलसी पादप
पर करने जा रहा है। मोटे खड़ाऊं की तीक्ष्ण प्रहार से घायल जन्तु दूर जा गिरा,लगभग
बेहोश सा होकर। प्रहार के पश्चात,क्रोध का ज्वार भी भाटा बन चुका था। उसने देखा-
दूर गिरे जन्तु की अजीब सी आँखें उसे ही घूर रही हैं, जिनसे प्रतिकार की
चिंगारियां बरस सी रही हैं।
बात आयी-गयी होजाती। ऐसी घटनायें तो प्रायः रोज ही होती हैं,सबके
साथ होती हैं। किसे इतना फुरसत है सोचने-विचारने की ऐसी-वैसी बातें !
कार्तिक शुक्ल पक्ष की चौदवीं तिथि। लगभग भोर का समय। यूं
तो वह कार्तिक-स्नान का पुण्यलाभ नियमित नहीं कर पाता था,किन्तु कुछ खास तिथियों
का ध्यान अवश्य रखता था। कल पूर्णिमा है। ब्रह्ममुहूर्त का स्नान करना है। इसके
लिए नित्य की अपेक्षा कुछ पहले विस्तर त्यागना होगा- उसे ध्यान में था। किन्तु हठात
नींद खुली, इस पुण्य-ध्यान के कारण नहीं,प्रत्युत एक विचित्र स्वप्न के कारण,जिसे
स्वप्न कहा जाय या कि साक्षात- वह निर्णय न ले पा रहा था। और जब इतनी साधारण सी
बात अनिर्णित हो जाय,फिर ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या का रहस्य-वोध कैसे हो!
वह तो दुर्बोध है ही।
उसने देखा- विस्तर के पास कोई खड़ा है,श्वेत...धवल...लगभग
मानवाकार,पर मानव है नहीं, स्वर मानवी है सिर्फ-
‘ गीता तो बहुत रट लिए हो तोते की तरह,परन्तु विद्याविनयसंपन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः – को समझने में बहुत देर है अभी । पंडित कुल में जन्म लेना और पंडित
होने में बहुत अन्तर है।’
–– उसके ये शब्द तीर की तरह चुभ गये, झकझोर गये दिलोदिमाग को।
विचारने को विवश हो गया...।
थोड़ा विचार करने पर लगा कि सच में केवल ब्राह्मण-पुत्र
हूं- ब्राह्मण होने के अहंकार से मत्त। विद्याविनय सम्पन्न कदापि नहीं । सृष्टि के
कण-कण में एक ही परमात्मतत्त्व का दर्शन बहुत दूर की बात है। एकोऽहंवहुस्यामः तो और भी अबूझ।
आकृति के स्वर अभी भी उसके कर्णगुहा में प्रविष्ट हो रहे
थे- ‘... तुम्हारे अधैर्यपूर्ण अज्ञानता ने मुझे एक और शरीर लेने को विवश कर
दिया...वृन्दावन वास और तुलसी-पत्र-प्राशन से मेरे पूर्व जन्मार्जित कृत्यों का
क्षय होरहा था। वस थोड़ा ही शेष रह गया था, मेरे अनुष्ठान के पूरे होने में।
खैर,सम्भवतः यही होना था। प्रभु का विधान तो सदा मंगलमय ही हुआ करता है,भले ही
अमंगल-सा क्यों न प्रतीत हो। तुम्हारे पादुका-प्रहार ने चोटिल कर,इस नश्वर
काय-व्यूह को त्यागने हेतु विवश कर दिया। अब किसी नूतन काय की व्यवस्था करनी होगी।
मेरा वह जर्जर मृत काय वहीं तुम्हारी वाटिका में पड़ा है। उसे पवित्र सोणभद्र की
धारा में प्रवाहित कर देना,चूकना नहीं।’
उक्त स्वर के साथ ही आँखें खुल गयी । दृश्य अदृश्य हो चुका
था। हड़बड़ा कर उठा। मुंह अन्धेरे ही वाटिका में गया। तुलसी-पादप-तल में ही प्राणी
की मृतकाया पड़ी थी। आसपास कुछ चीटियां चक्कर लगा रही थी,मानों सुरक्षा घेरा बांध
रही हों- वीरगति प्राप्त संसार-सेनानी के शव की।
भागकर भीतर आया। नूतन पीतवस्त्र का एक टुकड़ा उठा लाया।
समादर पूर्वक उठाया उस पार्थिव शरीर को,और रामनामसत्य का गुंजन करते हुये नदीतट की
ओर चल पड़ा। सद्गति मन्त्रोच्चारण पूर्वक जलसमाधि देने के साथ ही कुछ दिव्य स्वर
पुनः कानों में पड़े....मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि
सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि में।। यही
परम भागवतधर्म है, शेष तो सब तैयारियां है,या कि आडम्बर...दिखावा..अहं-पोषण। अस्तु।
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