नाड्योपचारतन्त्रम्-The Origin of Accupressure

गतांश से आगे...तीसरा भाग

 द्वितीय अध्याय
                              
                                      इतिवृत

नाड्योपचारतन्त्र एक अद्भुत चिकित्सा-विज्ञान है,जो किसी प्रकार से बाहरी औषधि-सेवन किये बिना ही,रोगों का निवारण निर्मूल रुप से करने में सक्षम है। चीनी और जापानी चिकित्सा-पद्धति के नाम से जो आज जगत विख्यात हो रहा है,सच पूछा जाय तो मूल रुपेण विशुद्ध भारतीय है,जिसका जन्म कब,कहां और कैसे,किन परिस्थियों में हुआ— प्रश्न जिज्ञेय,और समीचीन भी है।
तर्कसंगत है कि इसका जन्म वहीं हुआ होगा,जहां पहले पहल मानवी संरचना खड़ी हुयी होगी; क्यों कि स्रष्टा ने शरीर-निर्माण के साथ-साथ उसके रक्षक और व्यवस्थापक का भी निर्माण अवश्य कर दिया था।
शरीर पञ्चभूतात्मक  संगठन है,जिसमें लाख चेष्टा और सतर्कता के वावजूद व्यतिक्रम (आहार-विहार जनित) आना ही आना है,और तय है कि जब भी,जरा भी व्यतिक्रम होगा,तो शरीर में उसके लक्षण प्रकट होंगे। इन लक्षणों को ही हम रोग कह सकते हैं,जाने-अनजाने व्यतिक्रम की प्रतिक्रिया भी कह सकते हैं। इसे सर्व विदित और मान्य करार देने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अतः इस बात का ध्यान रखते हुए महान स्रजक ने शरीर के भीतर ही उसके कुछ खास प्रशिक्षित रक्षकों को भी प्रतिस्थापित कर दिया। विधाता-प्रदत्त बुद्धि-विवेक के बदौलत मानव ने समयानुसार उस रक्षक को पहचान भी लिया,उससे काम लेना भी प्रारम्भ कर दिया,भले ही उसकी परिभाषा और व्याख्या का विश्लेषण बहुत बाद में किया हो। आदिम युग में भी मानव को यह सब ज्ञान था,जिसे उसकी क्रिया-कलापों के सूक्ष्म अध्ययन से जाना-समझा जा सकता है।
नाड्योपचार को विशुद्ध भारतीय कहने की धृष्टता कैसे की जा रही है,इस पर जरा गौर करना जरुरी है।
सभ्यता का विकास आर्यावर्त में (या कहें भारतवर्ष में )  सबसे पहले हुआ - यह वेद-पुराण-सिद्ध है। और चुंकि यह पद्धति मानव-संरचना के साथ ही उद्भुत हुयी है,तो निश्चित है कि वहीं हुयी,जहां सर्वप्रथम मानवकृति आविर्भूत हुयी। भारतीय दर्शन की मान्यता है कि सारी सृष्टि ‘ मूल ’ से सर्जित हुयी,यानी मूलप्रकृति से विलग होकर(वस्तुतः यहां विलग शब्द का प्रयोग भी समुचित नहीं है)सारा दृष्यजगत आविर्भूत हुआ। अलग होकर- असम्पृक्त होकर सृष्टि-चक्र गत्यमान हुआ। इस वियोग को समाप्त कर पुनः संयोग को स्थापित करने के लिए योग-विज्ञान विकसित हुआ। उस योग-विज्ञान का आधार बना- नाड़ी-विज्ञान। नाड़ी के मूल में बड़े यत्न से,बड़े ही कलात्मक रुप से संजोया गया समस्त कलाओं और विद्याओं की कुञ्जि को, और इस प्रकार संयोग-वियोग,वियोग-संयोग के क्रम से सृष्टि-चक्र चलायमान हुआ।
रोग निवारण आवश्यक बन गया योग के लिए,क्यों कि योग-साधना तभी सम्भव है, जब साधनाधार सुदृढ़ (निरोग,रोगमुक्त) होगा। इस प्रकार रोग-निवारण की मूल पद्धति कायगत विभिन्न नाड़ियों से सम्बन्धित है। प्राचीन चिकित्सा-शास्त्र-  आयुर्वेद का नाड़ी-विज्ञान सिर्फ निदान विषयक है, तो योग का नाड़ी-विज्ञान निदान और चिकित्सा दोनों से सम्बन्धित है। इस प्रकार आयुर्वेद की नाड़ियां और योग की नाड़ियों में सूक्ष्म भेदाभेद है। भेद,अभेद,और भेदाभेद- तीनों स्थितियां समान रुप से तर्कसंगत हैं।
नाड्योपचारतन्त्रम्- उक्त योग-विज्ञान का अविभाज्य अंग है। विदित हो कि अनेकार्थी प्रयुक्त  तन्त्र शब्द विविध अर्थों में यहां भी प्रयुक्त हुआ है,फिर भी तन्त्र यानी System, व्यवस्था शब्द पर अधिक बल दिया जा सकता है। अनेकानेक प्राचीन संहिता ग्रन्थों के गहन अध्ययन से ज्ञात होता है कि अब से कोई छःहजार वर्षों पूर्व तक भी इस पद्धति का भरपूर ज्ञान आर्यावर्त वासियों को था,और उसके बाद के काल में भी रहा। भले ही डार्विनवादी इस सृष्टि के इतिहास को ही कुछ हजार वर्षों में समेट कर,अपने क्षुद्र खांचें में जड़ दिये हों,किन्तु शास्त्रों की गहराई में ऊतरने वाला इस बचकानेपन पर सिर्फ मुस्कुरा भर लेता है।
प्रसंगवश यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस विज्ञान को स्वतन्त्र (अलग) रुप से किसी विशेष चिकित्सा-पद्धति के रुप में देखे जाने की जरुरत ही नहीं महसूस हुयी। क्यों कि सहज – सामान्य मानव क्रिया-कलापों में ही समाहित था यह विज्ञान। रोग-निवारण हेतु अलग से कुछ खास करने-कराने की आवश्यकता ही नहीं होती थी,क्यों कि दिनचर्या ही ऐसी बनी हुयी थी। आम आदमी की सामान्य चर्या ही ऐसी थी कि बहुत कुछ सहज रुप से होता जाता था। परिणामतः हम प्रायः स्वस्थ रहते थे। इस प्रकार हमारे मुख्य उद्देश्य की पूर्ति अनजाने में ही, अनायास ही होते रहती थी। रोगी हो जाने पर शरीर को रोग-मुक्त करने से कहीं अच्छा है, महत्त्वपूर्ण है- इस बात का ध्यान रखना कि हम रोगी हों ही नहीं।
रोग-रोधन की यह फिलॉसफी आज भी चीन,जापान में अधिक रसी-बसी है। किंबदन्ती है कि वहां का पुराना चिकित्सक इस बात का दावा करता था कि अपनी निगरानी में रखे गये लोगों को वह रोगी नहीं होने देगा,अर्थात् रोग-निवारण हेतु वहां किसी तरह का शुल्क नहीं लिया जाता था। शुल्क लिया जाता था रोग न होने देने की निगरानी के लिए। जैसे आजकल व्यापारी वर्ग अच्छा वकील और एकाउन्टेन्ट खास कर इसलिए रखता है,जो उसे सरकारी और कानूनी पचरों से बचा सके। टैक्स संरक्षण में सहयोगी हो सके। वहां की प्राचीन व्यवस्था में दुर्भाग्यवश यदि कोई व्यक्ति रोगी हो जाता था तो उसकी पूरी जिम्मेवारी – चिकित्सा-व्यवस्था से लेकर आर्थिक व्यवस्था तक,उस निगरानी कर्ता पर होती थी,और रुग्ण व्यक्ति किसी तरह का शुल्क देने के वजाय,पहले से देते आ रहे शुल्क को भी दण्ड स्वरुप बन्द कर देता था।
भारतीय मनीषियों का स्वास्थ्य-रक्षा-सिद्धान्त अपने आप में अद्भुत है। स्वस्थ रहने
हेतु अलग से विशेष निर्देश देने के वजाय,सामान्य दिनचर्चा और कार्यप्रणाली को ही बड़े सूझबूझ से व्यवस्थित कर दिया गया था। परिणामतः सिर्फ योग के विशेष साधक ही नहीं , प्रत्युत आम आदमी भी उसी सुव्यवस्थित दिनचर्चा और कार्यप्रणाली में ढला हुआ था।
प्राचीन भारतीय परम्पराओं पर दृष्टिपात करने पर ऐसी बहुत सी बातें स्पष्ट हो सकती हैं। नींद खुलते ही,विस्तर पर पड़े-पड़े ही अपनी हथेलियों पर दृष्टिपात करना- कराग्रेवसते लक्ष्मी,कर मध्ये सरस्वती,कर मूले स्थितो ब्रह्मा,प्रभाते कर दर्शनम् यह कोई धार्मिक प्रार्थना,कामना,कृत्य भर नहीं है,प्रत्युत नाड्योपचारतन्त्रम् का ही हिस्सा है। पुनः खास भंगिमा(मुद्रा)में शरीर को रखकर, यत्रतत्र दबाव देना,प्रणाम करना(हाथ जोड़कर), विस्तर से एकाएक सीधे न उतरकर,पहले दांये पैर के अंगूठे को,फिर एकएक कर पैर की पांचों अंगुलियों का धीरे-धीरे भूस्पर्श- समुद्रवसनेदेवि,पर्वतस्तन- मण्डले, विष्णु पत्नीं नमस्तुभ्यं, पादस्पर्शस्क्षमस्वमें – भी सिर्फ कोरी प्रार्थना नहीं है पृथ्वी देवी की,प्रत्युत उसी विज्ञान का हिस्सा है। उच्चरित वर्ण और मातृकाओं का खास महत्व और उपयोग है। विशिष्ट प्रभाव है हमारे शरीर पर। अब मूर्खता वश इस वर्ण योजना को उलट-पुलट करके,भावानुवाद करके हम वही हासिल नहीं कर सकते,जो हासिल होना चहिए था। इसी भांति अन्य नियम- विशेष वनस्पति (नीम,बबूल आदि) से दातून करना,जीभ रगड़कर कुल्ला करना (खास संख्या में), ताम्रपात्र में रखे वासी जल से ऊषा-पान करना,टहलते हुये दूर जंगल-दिशा-निवृत्ति आदि, शौच कालिक विशिष्ट मुद्रा(बैठने का तरीका),कानों पर सूत्रवेष्ठन,सिर का ढका और बंधा होना, नाभी-प्रदेश पर तरह-तरह से दबाव डालना,हथेली पर ठुड्डी टिकाकर शौच हेतु बैठना, प्रातःस्नान,प्राणायाम,ध्यान,उपस्थान की त्रिविध मुद्रायें,न्यास,जप पूर्वा-पर विविध मुद्रायें, रुद्राक्ष-मणिका पर जप,दीर्घ शिखा की बड़ी सी गांठ,कर्ण-वेधन,नासा-वेधन,यज्ञोपवीतादि संस्कार,खड़ाऊँ धारण,मुख्य कार्यों के पूर्व स्वर विचार, भोजन पूर्व की मुद्रायें,भोजन हेतु बैठने का तरीका,भोजन करने की विधि,शयन-विचार और विधि,लोकनियमों की अद्भुत परम्परा- कवच-कुण्डल,बाजूबन्द,चूड़ी,कड़े आदि विविध आभूषण धारण,धान कूटना,चक्की पीसना,कुंए से जल निकालना,हाथ जोड़कर प्रणाम करना,साष्टांग दण्डवत, परिक्रमा आदि शत-सहस्र रीति-रिवाजों के सम्यक् पालन में ही तो स्वस्थ और निरोग तथा दीर्घ जीवन के रहस्य छिपे हुये थे। इस अद्भुत चिकित्सा-पद्धति की पृष्ठभूमि में इन बातों पर गौर किया जा सकता है, जिन्हें आधुनिकता के दौर में दकीयानूसी,और पुरानी कह कर भुला दिया गया है,या फिर समय और स्थान की मजबूरी कह कर नज़रअन्दाज़ कर दिया जा रहा है।
हालाकि आज भी हम उनमें से बहुत सी क्रिया-कलापों को उसी परम्परागत तरीके से बिना सोचे-समझे कुछ करते भी जा रहे हैं,फलतः उनसे मिलने वाले लाभ हमें प्राप्त भी हो रहे हैं; किन्तु वस्तुतः उनके रहस्य का ज्ञान तो लुप्त प्राय ही है।
इस लोप का कारण एक ओर प्रगति के नाम पर अन्धानुकरण है, तो दूसरी ओर दीर्घकालिक परतन्त्रता की बेड़ियां। हमारी अधिकांश कलायें और विद्यायें गुलामी की जंजीर में सिसकती दम तोड़ दी। कलाओं और विद्याओं का संग्रहालय और पुस्तकालय या तो लूट का शिकार हुआ या अग्नि की आहुति बनी। और इन सबसे जो शेष रहा उस पर विदेशी मुलम्मा चढ़ गया- या तो उसका आमूलचूल परिवर्तन हो गया,कायाकल्प हो गया,या वास्तविक रहस्य और उपयोग न समझ पाने के कारण हम स्वयं ही अर्थ का अनर्थ कर गये। हमारा इतिहास- भूगोल विदेशी कलमों से लिखा गया,और अपने इतिहास-भूगोल को भी हम विदेशी चश्में से पढ़ने के अभ्यासी हो गये। अति रहस्यमय विज्ञान- तन्त्र और योगशास्त्र इसका ज्वलन्त उदाहरण है। विज्ञानभैरव जैसे अद्भुत तन्त्रग्रन्थ को बहुतों ने बौद्धतन्त्र समझ कर पल्ला झाड़ लिया। जबकि सच्चाई ये है कि बौद्धों ने सिर्फ इसका प्रयोग किया, अपनाया,सराहा,साधा और लाभान्वित हुए।
नाड्योपचारतन्त्र के साथ कुछ भिन्न प्रकार की विडम्बना रही। उसी बौद्धकाल में भिक्षुओं द्वारा इसपर प्रयोग किये गये। इसका उपयोग किया गया। भिक्षुओं की झोली में पड़कर विभिन्न बौद्धमतावलम्बी देशों की यात्रा हुयी- चीन,जापान आदि पहुँच कर जड़ जमा लिया,और कालान्तर में हम विसार बैठे,और उसने आत्मसात कर लिया। मानवोपयोगी सरल उपचार पद्धति मान-जानकर जन-सुलभ बनाने का प्रयास किया,और आज हम इसे वहीं का मान बैठे हैं। यह कहने में हम गौरव अनुभव करते हैं कि एक्यूप्रेशर चीन की चिकित्सा पद्धति है। दीर्घपरवशता ने हमारी चिन्तनधारा को कुण्ठित कर दिया है। हम भी विदेशियों की बोली बोलने लगे हैं,अपना मौलिक चिन्तन खो सा गया है कहीं। सीधे और सपाट रुप से देखने-समझने के आदी होते जा रहे हैं। विदेश जो कहता है,वह जल्दी सुनाई पड़ता है,खुद की बातें कानों पर दस्तक भी नहीं दे पाती।
कठिन अग्नि परीक्षा के पश्चात् आज भी जो थोड़ा कुछ शेष उपलब्ध है,उस पर भी यदि हम मौलिक रुप से , स्वतन्त्र रुप से चिन्तन करें,विचार करें,तो गुत्थियां सुलझ सकती हैं। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों- वृद्धत्रयी- चरक,सुश्रुत,वाग्भट्ट आदि में सीधे-सीधे हम एक्यूप्रेशर के मूल सिद्धान्तों को ढूढ़ रहे हैं, किन्तु हम अपनी परम्परागत वर्णनशैली को नज़रअन्दाज कर रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि किसी बात को सीधे न कह कर,रहस्यात्मक रुप से,लाक्षणिक रुप से कहने के आदी रहे हैं हम। रुपक शैली का भी भरपूर प्रयोग किया है हमने। कथाक्रम में विखरे पड़े रहस्यमय विज्ञान वैदिक से लेकर पौराणिक ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। सभी कलाओं और विद्याओं का मूल – योगशास्त्र(पातञ्जलयोगदर्शन,योगवाशिष्ठ,घेरण्ड संहिता  आदि) भरे पड़े हैं विविध सिद्धान्तों से। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि सब कुछ योग में ही सन्निहित है , समाहित है । योग के लिए है। योग ही है, चाहे वो रहस्यमय तन्त्र-शास्त्र हो या कि वाणी-शास्त्र। वस्तुतः व्याकरण मात्र वाणी-शास्त्र नहीं है। वाणी तो है प्राण की अभिव्यक्ति,और इसका नियमन सिखाता है- महर्षि पतञ्जलिप्रणीत प्रसिद्ध ग्रन्थ- महाभाष्य। महाभाष्यकार कोरे वाणीशास्त्री नहीं थे; प्रत्युत वाणी,शरीर और मन- तीनों पर उनकी दिव्य लेखनी आबाध गति से चली है,जिसके प्रणाण में पर्याप्त है यह श्लोक- योगेन चित्तस्य,पदेन वाचां,मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां, पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि।। वस्तुतः व्याकरण-ग्रन्थ समझा-जाना जाने वाला महाभाष्य सिर्फ वाणी-नियामक शास्त्र नहीं है,प्रत्युत योग और मोक्ष का शास्त्र है,जिसमें अद्भुत रुप से अकारादि वर्णव्यवस्था से लेकर प्राण-नियन्त्रण-व्यवस्था तक का विशद वर्णन है। योग की पूरी साधना सुव्यवस्थित ढंग से रखी गयी है यहां ।
नाड्योपचारतन्त्र ,जिसे आज हम एक्यूप्रेशर कह रहे हैं,इसका मूल आधार ही है नाड़ी-तन्त्र। और इस नाड़ी-तन्त्र का नियमन होता है प्राणात्मिका शक्ति द्वारा ,और प्राणशक्ति के नियमन का प्रधान शास्त्र है— योगशास्त्र,व्याकरणशास्त्र ।
कायगत किस नाड़ी में प्राण-शक्ति-प्रवाह कब,कैसे,क्यों होता है,या किया जा सकता है- इस गहन रहस्य का पर्याप्त ज्ञान हमारे मनीषियों को था। इन्हीं बातों को संग्रहित किया है महर्षि पतञ्जलि ने। ये वात अलग है कि प्राचीन रुप से नाड्योपचारतन्त्रम् नाम से कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है,ये तो मेरे द्वारा किया गया नामकरण है; किन्तु नाडियों के सम्यक् ज्ञान द्वारा शरीर को स्वस्थ रखने की कला-विद्या पर आधारित होने के कारण इस नाम का औचित्य सिद्ध होता है। आधुनिक नाम-धन्य एक्यूप्रेशर(Accupressure) उस प्राचीन प्राण-विज्ञान का ही एक लघु अंश मात्र है। क्यों कि सच्चाई ये है सारा कुछ उस विराट परिमिति वाले योगशास्त्र में ही समाहित है। अतः इस तरह की जो भी चीजें होंगी वो योग के अंग-उपांग ही हो सकती हैं। और इस योग पर सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसा नहीं कि योग-साधना किसी खास समुदाय विशेष की सम्पदा है। लिंग-भेद की भी बात नहीं है। इसका अधिकारी मानव मात्र है,किन्तु हां,यह न भूलें कि इसके विशिष्ट नियम-कायदे भी हैं,जिनका पालन करना अपरिहार्य है। इस बात पर ध्यान न दे कर, या इसे व्यर्थ करार कर,मनमाने ढंग से यदाकदा जो प्रयोग हुए उसका दण्ड पूरी मानवता को भुगतना पड़ा। अतः योग की मर्यादा का ध्यान तो रखना ही होगा।
यह योग-साधना तभी सफल हो सकती है,जब उसका प्रधान उपकरण- मानव शरीर स्वस्थ और सबल होगा।अतः इस उपकरण को विकाररहित रखने के लिए अनेक उपाय सुझाये गये, जो आगे चलकर स्वतन्त्र चिकित्सा-विज्ञान का रुप ले लिए। तथाकथित एक्यूप्रेशर उन्हीं में एक है,जो सीधे सीधे नाड्योपचार का ही अर्द्धांग मात्र है। हां,अर्द्धांग ही,क्यों कि उधर आधुनिकों ने इसे दो रुप में उजागर किया है- एक्यूप्रेशर और एक्यूपंचर नाम से। ये दोनों नाम खास कर चीन देश में विकसित हुए। उधर जापान ने तो इसे शिआत्सु नाम पहले ही दे रखा
था।
यह सत्य है कि बाद में आधुनिक मनीषियों(विज्ञान-वेत्ताओं)द्वारा नये ढंग से काफी खोज परक अध्ययन-अन्वेषण हुये,हो रहे हैं,और भविष्य में भी होते रहेंगे; किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि योग-परम्परा का अग्रदूत- आर्यावर्त विलकुल अनजान था,इस अद्भुत चिकित्सा-पद्धति से।
यह कहकर,आज के प्रत्येक आधुनिक आविष्कारों को हम अपना कहने की धृष्टता
नहीं कर रहे हैं,परन्तु विचार पूर्वक अपनी सांस्कृतिक परम्परा को निहारने का आग्रह अवश्य है मेरा।
अब जरा योग के इस विस्मृत अंग- एक्यूप्रेशर-एक्यूपंक्चर की विदेश-यात्रा पर एक नजर डालें। चीनी लोग इसे अपना चिकित्सा-शास्त्र कहते हैं,और इसका उद्भव और विकास महज पांच हजार वर्ष पुराना मानते हैं। उनके इस दावे को आंशिक रुप से स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए,क्यों कि वस्तुतः भारत और चीन में बहुत भेद ही कहां था उन दिनों ! किन्तु यह कहना-मानना अधिक विश्वसनीय होगा कि आर्यावर्त का नाड्योपचारतन्त्रम् अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व वौद्धभिक्षुओं द्वारा भारत से बाहर श्रीलंका,चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में ले जाया गया,और समयानुसार पुष्पित-पल्लवित होते हुए, मूल सिद्धान्त समान रहते हुए भी,व्यावहारिक तौर पर दो खण्डों में विभाजित हो गया,जिसके एक खण्ड को चीन ने अपनाया एक्यूपंक्चर नाम देकर और दूसरे को जापान ने अपनाया        ‘ शिआत्सु ’ (SHITATSU) कह कर। चीन में इसका Tin An नाम भी प्रसिद्ध है। डॉ. चु लिएन द्वारा लिखित पुस्तक चेन चियु सु एह (अर्वाचीन एक्यूपंक्चर) आज भी चीन में इस विषय का अधिकृत पुस्तक माना जाता है। उधर जापान में भी इस विषय पर काफी शोधपरक कार्य हुए। कोरिया और श्रीलंका ने भी सरल और सहज चिकित्सा पद्धति में रुप में इसे आदर पूर्वक अपनाया।
अति प्राचीन होते हुए भी बीसवीं सदी के तृतीय दसक तक नाड्योपचारतन्त्र का नवीन कलेवर एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर विज्ञान सुप्त प्रायः था,और अपरिभाषित रुप में परम्परागत तरीके से थोड़ा-बहुत भारत और इजिप्ट आदि देशों में ढोया जा रहा था।
आधुनिक काल में सन् १९४९ई.में चीनी नेता माओत्से तुंग ने इसे पुनर्प्रतिस्थापित किया और फिर शनैः शनैः इसके नये परिष्कृत स्वरुप का प्रचार होता गया। उधर जापान ने भी ध्यान दिया- जापान के टोकियो नगर में Nippon Shiatsu School की स्थापना हुयी,और वहां काफी जोरशोर से अध्ययन-अन्वेषण का कार्य चलने लगा। सन् १९५०ई. में फ्रान्स के न्यूरोसर्जन डॉ.पोलनोजियर ने इस पद्धति का गहन अध्ययन किया,और इसे अत्याधुनिक रुप से प्रमाणित चिकित्सा विज्ञान का दर्ज़ा दिलाया। उनके शब्दों में एक्यूप्रेशर का नाम ओरिक्यूलर थेरापी(Oracular Therapy) । इससे सम्बन्धित शिक्षा देने हेतु प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की गयी, और फिर तो विश्व के विभिन्न देशों में ऐसी संस्थाओं की बाढ़ सी आगयी। एक्यूप्रेशर की सुग्राह्यता और व्यावहारिकता ने सबका मन मोह लिया। सन् १९७१ई. में अमेरिका के राष्ट्रपति श्री निक्सन चीन की सरकारी यात्रा पर आये। उसी क्रम में चीन में पनप रहे इस अद्भुत चिकित्सा विज्ञान से परिचित हुए,और इसके प्रचार-प्रसार को सुदूर सागर पार अपने देश अमेरिका तक ले गये। सन् १९७३ई. में डॉ.पोल डडली के नेतृत्व में अमरीकी चिकित्सकों का एक दल इस पद्धति के विशेष प्रशिक्षण और अध्ययन हेतु चीन पहुंचा। डॉ.डडली वाइट ने इसके चमत्कारिक गुणों को स्वीकारते हुए कहा कि यह पद्धति क्यों सफल होती है,यह कहना तो मुश्किल है,किन्तु यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि पद्धति बिलकुल सही है,आसान और आशु लाभप्रद भी है। अतः इस पर विशेष अध्ययन-अन्वेषण की आवश्यकता है।
यहां यह ध्यान देने की बात है कि डॉ.वाइट यह क्यों नहीं समझ पाये कि यह पद्धति कैसे सफल होती है- इसका मुख्य कारण है कि वे योग के रहस्यों से सर्वथा अनभिज्ञ थे। एक्यूप्रेशर के चमत्कारिक और प्रभावकारी कारणों का रहस्य शिरा-धमनी विशेषज्ञ डॉ.वाइट कायगत स्थूल शिरा और धमनियों में ढूढ़ रहे थे, जो उनके विषयगत ज्ञान के अनुरुप स्वाभाविक ही था; जबकि इसका असली रहस्य तो योग वर्णित विभिन्न सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाडियों में छिपा है,क्यों कि यह वस्तुतः नाड्योपचारतन्त्र का विषय है। और तभी तो नाड्योपचारतन्त्र नाम की सर्थकता भी सिद्ध होती है।
जो भी हो डॉ.वाइट को उन दिनों इस पद्धति का रहस्य भले न सूझा हो,किन्तु अमरीका में इस विषय का अध्ययन गहन रुप से जारी हो गया,और अन्त में लम्बे खोज-परख के बाद वहां के विशेषज्ञों ने इस पद्धति को एक नये नाम से अलंकृत कर दिया- Reflexology अर्थात् प्रतिबिम्ब विज्ञान ।
सम्प्रति अमेरिका में कई केन्द्र चल रहे हैं,जहां इस प्रतिबिम्ब विज्ञान पर गहन अध्ययन हो रहा है। International Institute of Reflexology, Florida, U.S.A. इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। जापानियों द्वारा संचालित शिआत्सु पद्धति पर आधारित Wataru Ohashi Shiatsu Education Center, New York भी अच्छी भूमिका निभा रहा है। The G-Jo Institute, Holly Wood, U.S.A. के नाम से विख्यात Non for profit Natural Health Research & Educational Organization के रुप में यह संस्था एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति(Reflexology) पर काफी अध्ययन किया है। यहां से कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुयी हैं, जो आने वाली पीढ़ी के लिए सुदृढ़ मार्गदर्शक का काम करेगी। Essex (United Kingdome) का  Institute of Reflexology शरीर-मालिश के विशेष तौर-तरीकों पर अध्ययन करते हुए, प्रतिबिम्ब विज्ञान(Reflexology Science) को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया है। व्रिटिश लेखक Sir Michael Blate ने भी G-Jo Finger Tip Technique के नाम से इस पद्धति को वर्णित किया है,अपनी विभिन्न पुस्तकों में,जो मूलतः सहारा बनाया है- Reflexology को ही। पद्धति का नया नामकरण- Finger Tip Technique वस्तुतः कुछ नया नहीं, बल्कि जापानी नाम शिआत्सु (SHIATSU) का ही अंग्रेजीकरण मात्र है।  कोलम्बो, श्रीलंका में स्थापित The Open International University ने Medicina Alternativa के रुप में इसे प्रकाशित किया है।
कथन का तात्पर्य ये है कि हमारी पुरानी यौगिक पद्धति को ही अलग-अलग नाम रुप
दे-दे कर विश्व के विभिन्न देशों ने अलग-अलग स्वरुप(विज्ञान)(पद्धति) प्रमाणिक करने का बचकाना प्रयास किया है। किन्तु हां, इन विविध प्रयासों से हम भारतवासियों की तन्द्रा टूटी है, और अपने चिरपरिचित किन्तु विस्मृत रक्षक को फिर से पहचानने का प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में डॉ.आशिमा चटर्जी का वक्तव्य ध्यान देने योग्य है। २ जुलाई १९८२ को चटर्जी महोदय ने राज्यसभा को बतलाया कि आज पूरी दुनियां में एक सरल और निरापद चिकित्सा पद्धति के रुप में विख्यात हो रहा एक्यूप्रेशर पद्धति  मूलतः भारतीय ही है,जिसका उल्लेख वौद्धकालीन ग्रन्थों में भी पाया गया है। आगे उन्होंने तत्काल भारत सरकार से आग्रह किया कि इस निरापद पद्धति का प्रचार-प्रसार किया जाय,जो भारत जैसे गरीब देश के लिए अत्यधिक कल्याणकारी होगा,क्यों कि अद्यतन चिकित्सा सुविधाओं का यहां घोर अभाव है एक ओर, तो दूसरी ओर अर्थ-संकट से जूझती,दीर्घ काल तक गुलामी और परवशता की विवशता झेलती निरीह जनता के लिए महंगी चिकित्सा व्यवस्था को झेल पाना भी कठिन पड़ रहा है। और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात तो ये है कि भारत जैसे धर्मप्राण देश के लिए ऐसी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति ही उपयुक्त हो सकती है।
सन् १९८२ के बाद कई भारतीयों का ध्यान इस ओर गया। सन् १९८३ की बात है, गुजरात के प्रख्यात सन्त(मेरे गुरुदेव)श्री मणिभाई सदाराम पटेलजी हृदयरोग ग्रस्त होकर बम्बई के चिकित्सकों का द्वार खटखटा रहे थे। इसी क्रम में उनकी मुलाकात डॉ.देवेन्द्र वोराजी से हुयी,जो अभी हाल में ही अमेरिका यात्रा से वापस आये थे, इस प्रतिबिम्ब विज्ञान पर विशेष अध्ययन करके। डॉ.वोरा ने श्री मणिभाईजी को हृदयरोग निवारण हेतु, स्वयं परीक्षण करके, कुछ निर्देश दिया,जिसके प्रयोग से उन्हें यथाशीघ्र मुक्ति मिली। इस आशुकारी प्रभाव को देख कर बम्बई के उनके फैमिली डॉक्टर भी दंग रह गये,और मणिभाईजी सिर्फ रोगमुक्त ही नहीं हुये, बल्कि इस पद्धति के दीवाने हो गये। संत तो वे थे ही- गृहस्थ जीवन में होते हुये भी  बिलकुल संत। और संत का पहला गुण होता है- लोककल्याण,जो कि उनमें प्रचुर मात्रा में था। उस समय तक डॉ.वोरा और डॉ.गाला की संक्षिप्त पुस्तकें इस विषय पर हिन्दी में प्रकाशित हो चुकी थी। श्री मणिभाईजी मुख्यरुप से गुजराती जानते थे। हिन्दी का उतना अभ्यास नहीं था। उक्त दोनों सज्जनों के सानिध्य में उन्होंने इस पद्धति का गहन अध्ययन और अभ्यास किया। शरीरविज्ञान,शरीरक्रियाविज्ञान आदि विषयों का भी कुछ-कुछ ज्ञान प्राप्त किया, और फिर जनकल्याणार्थ समर्पित कर दिया स्वयं को। घूमघूम कर पूरे भारत में इस पद्धति का प्रचार-प्रसार करने लगे,वो भी निःशुल्क रुप से- जो जितना सहयोग दे दिया,उसी से अपना निर्वाह करते हुए। योग-साधक तो वे थे ही; डॉ.वोरा के निर्देशों ने उनके ज्ञान को और भी मांज दिया। स्मृति की धूल छंट गयी,और प्राचीन यौगिक पद्धति का रहस्य प्रकट हो गया उनके समक्ष।
संयोग से इसी क्रम में उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे भी मिला। अपने वेटे की तरह बड़े लाढ़ से उन्होंने मुझे सिखलाया इस रहस्य को।  योग की किंचित गूढ़ बातों को सिर्फ समझाया ही नहीं,साथ रखकर,सतत अभ्यास भी कराया। और जब सन्तुष्ट हो गये तो वचन भी ले लिया महानुभाव ने कि मैं इस विद्या को लोकार्पित करुँ।
गत सदी के नवीं दशक के पूरा होते होते,इस पद्धति का काफी प्रचार हो चुका था। इस कल्याणकारी योजना में पंजाब सरकार के भूतपूर्व सूचना पदाधिकारी सरदार अतरसिंहजी, जमशेदपुर(बिहार) के डॉ.श्यामनाथ पाण्डेजी,केन्द्रीय वनवासी परियोजना पदाधिकारी डॉ.द्वारका प्रसाद मिश्रजी आदि का नाम गर्व से लिया जा सकता है,जिन्होंने नाड्योपचारतन्त्र को एक्यूप्रेशर नाम से पुनर्ख्यात करने का बीड़ा उठाया। डॉ.मिश्र ने एक भेंटवार्ता के क्रम में बतलाया कि एक्यूप्रेशर और एक्यूपंचर एक ही पद्धति की दो शाखायें हैं, जिनका प्राचीन नाम शिरादाब और शिरावेध है। शिरावेध की क्रिया-विधि सुश्रुत-संहिता की कतिपय प्राचीन प्रतियों में छिटफुट रुप से उपलब्ध है। इसी प्रकार चरकादि अन्यान्य संहिता ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर शरीर के विभिन्न भागों में विशिष्ट विधि से दबाव डालने और बन्धन लगाने की विधि का भी वर्णन मिलता है। शिरामोक्षण(पाछ लगाना) भी आयुर्वेद सम्मत उपचार विधि है- खासखास व्याधियों में। अब आवश्यकता है इस विस्मृत,मृतप्राय पद्धति को पुनरुज्जीवित करने की,ताकि जनता जनार्दन महंगी पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति से किंचित मुक्ति पा सके,साथ ही उसके घातक प्रतिप्रभावों से बच सके।
            इन्दौर के डॉ.सुधीर खेतावत जो मूल रुप से एक मनोचिकित्सक हैं,अखिल भारतीय एक्यूप्रेशर विज्ञान संस्थान की स्थापना करके,जनकल्याण में सतत प्रयत्नशील हैं। डॉ.खेतावत मुख्य रुप से मूक-वधिर अनुसन्धान में लगे हैं,जिसमें इन्हें काफी सफलता भी मिली है।
            गुरुदेव के आदेश का पालन करते हुए,प्रारम्भ में जब मैं इस पद्धति के प्रचार-प्रसार में प्रशिक्षण और उपचार शिविर लगाकर, यहां-वहां विचरण करने लगा, तब समाज के बहुत से प्रबुद्ध लोगों की कटु आलोचना का भी शिकार होना पड़ा। चुंकि चिकित्सा निःशुल्क करता था, फिर भी प्रशिक्षण के नाम पर ठगी का धंधा करने का आरोप तो लगता ही था। कुछ लोगों ने तो सीधे सिरफिरा और पागल,ढोंगी भी करार कर दिया। कुछ बीमारियों में तत्काल चमत्कारिक लाभ देख समाज के कुछ लोगों ने जादू-करिश्मा मान कर संत-महात्मा कहा,तो कुछलोगों नें(खासकर चिकित्सकों ने) जम कर इसका विरोध भी किया,क्यों कि उनके पेशे पर वार हो रहा था।
            खैर,आज स्थिति यह है कि इस पद्धति के बारे में विशेष परिचय अब देने की जरुरत नहीं रह गयी है,क्यों कि सामान्यजन तक यह चमत्कारी नाम पहुंच चुका है,और सबसे बड़ी बात ये है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इसे मान्यता दे दी है।
विगत तीस वर्षों में सतत प्रयास,और जन-सहयोग से हजारों लोगों को मैने स्वयं विधिवत प्रशिक्षित किया,एवं चल शिविरों के माध्यम से लाखों लोगों का उपचार भी किया। किन्तु अफसोस की बात है कि आज वे प्रशिक्षित शिष्य मेरे मूल सिद्धान्त और लक्ष्य को तिलांजलि लेकर,अंग्रेजीखां डॉक्टरों की तरह भारी-भरकम शुल्क लेकर काम कर रहे हैं,जब कि मेरा सिद्धान्त था इसे स्वउपचारपद्धति के रुप में प्रचारित करना। यहां तक कि कुछ पेशवर बन चुके शिष्य तो मेरा ही जड़ खोदने लगे- कि गुरुजी सारी हुनर और रहस्य ही बतला देते हैं रोगियों को। और दूसरी ओर व्यापारी वर्ग तरह-तरह के यन्त्र परोस कर स्वउपचार पद्धति के मूल सिद्धान्त को ही विकृत कर दिये,और इस प्रकार जापान का दिया नाम शिआत्सु- अंगुली से दबाव देना- निरर्थक हो गया। अस्तु।

क्रमशः....

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