अधूरामिलन भाग 4

गतांश से आगे....पृष्ठ 52 से 75 तक

‘दादी भी अजीब है। अब कहती है- खाट पर बैठी-बैठी पट्टियां कर इसे। ’ – फिर बुदबुदायी अपने आप में,और कटोरी में पानी लेकर खड़ी-खड़ी ही उसके सिर पर पट्टियां बदलने लगी।
उधर युवक के सिर की पट्टियां बदल रही थी,इधर मन्दा की खोपड़ी के भीतर विचार उससे भी तेजी से बदलते जा रहे थे। पहले की तुलना में इसबार का प्रहार ज्यादा प्रभावकारी था। बारबार युवक के शब्द कानों में गूंज उठते- नाराज हो ईरीना...समा जाओ...दिल के दर्द को...।
‘ ओह! कितने प्यार से पुकारता है...कितनी तड़पन है उसके दिल में...कितना प्यार है ईरीना के प्रति...निश्चित ही ईरीना उसकी पत्नी होगी या फिर मंगेतर तो होनी ही चाहिए ...मरद कितना प्यार करता है औरत को ...!
और इस तरह सोचते-सोचते पल भर के लिए लगा कि वह पड़प उठेगी। वदन में अजीब सी ऐंठन पैदा हुयी। जोड़-जोड़ चटकने से लगे। दोनों हाथ पीछे कर,जोरों की अंगड़ायी ली,इतनी जोर से कि शरीर के साथ-साथ कपड़ों के बन्धन भी चटकने लगे। सीने के भीतर अजीब गुदगुदी सी महसूस हुयी। बहुत कुछ महसूस होता रहा,किन्तु इसका कोई ठोस कारण या पहचान न हो पा रहा था- क्या भय से भी ऐसा हो सकता है,या कुछ और भी कारण है- ऐसा ही सोचा था उस भोली मन्दा ने।
खाना खाकर,बुढ़िया गुड़गुड़ा पीकर धुआँ उगलती इस कमरे में आयी। मन्दा अपने काम में जुटी थी। बुढ़िया कुछ कहती कि इसके पहले ही मन्दा बोल पड़ी, ‘तू जाकर आराम कर दादी अम्मा। दिन भर की थकी हो। मैं अभी थोड़ी देर और पट्टियां कर लूं इसे,फिर खाना खा लूंगी। ’
‘ मैं इधर बाहर ही खाट पर सो रहती हूँ। भीतर उमस बहुत है। ’ – गुड़गुड़ा मुंह से लगाये बुढ़िया बाहर निकल कर बोली-  ‘ तू भी इधर ही दरवाजे पर खटोला डाल लेना अपनी। गर्मी भी नहीं लगेगी,और भीतर बाबू को देख भी पायेगी,बीच में जरुरत के मुताबिक । ’ – जरा ठहर कर फिर कहा उसने- ‘ हां,याद करके सोने से पहले शीशी वाली दवा पिला देना। ’
मन्दा बहुत देर तक पट्टियां बदलती रही। फिर सिर छूकर देखी। बुखार का जोर काफी कम पड़ गया था। स्वाभाविक सांस चल रही थी- गहरी-गहरी,जिससे अनुमान हुआ कि युवक पूरी नींद में है। शीशी की दवा इस बीच ही पिला चुकी थी,अतः चादर ओढ़ा दी गर्दन तक। सिर का भाग खुला ही रहा। गौर से देखी एक बार उसके प्यारे गोरे मुखड़े को, जिसमें बड़ी-बड़ी बरौनियों के बीच भूरी-भूरी प्यार भरी आँखें पलकों में बन्द छिपी थी। ऐसा लग रहा था मानों सूरज के चले जाने के कारण प्यारा कमल एकाएक बन्द हो गया है, इस उम्मीद में कि सुबह जब सूरज फिर जगेगा, तो इन कमलों को भी फिर से खिल जाना है।
लालटेन थोड़ा धीमा करके,खाट के पास ही डोरी से लटका दी। पीला,मध्धिम प्रकाश कमरे में फैलकर हर वस्तुओं को पीला सा बतला रहा था। युवक का गोरा मुखड़ा इस पीले प्रकाश में थोड़ा और दमक उठा।
मन्दा अपना खाना निकाली। खाने बैठी जरुर, किन्तु ठीक से खाया न गया। मन उचाट सा लग रहा था ।
जैसे-तैसे थोड़ा-बहुत जल्दी-जल्दी खाकर दरवाजे के पास वरामदे में अपनी खटोली विछायी। मगर सोने से पहले जैसे कुछ याद आ गया हो,दूसरे कमरे में आकर दर्पण के सामने खड़ी हो गयी। लालटेन की पीली रौशनी में अपने चेहरे को देखी। कुछ देर यूं हीं देखती रही।  आइने में उभरा चेहरा मानों पूछने लगा था— मन्दा तुम आज बहुत बदली-बदली सी नजर आ रही हो,क्या बात है !
किन्त आइने को देने के लिए उसे कोई जवाब न सूझा। ऐसा तो उसे खुद भी महसूस हो रहा था,कहीं न कहीं कुछ बदलाव जरुर हो रहा है,अचानक से,मगर कहां और क्यों- समझ न पा रही थी।
हां,एक परिवर्तन जरुर अनुभव हुआ—चेहरे पर जहाँ-तहाँ कुछ चिपका हुआ सा नजर आया। लग रहा था कि पोस्टमास्टर ने गोल-गोल मुहरें इसके चेहरे पर ही लगा दिया है,जैसे कि पोस्टकार्ड-लिफाफों पर लगाता है। बारबार दुपट्टे से पोंछना चाही,मगर उन मुहरों की छाप जो ऊपर चमड़ी पर ही नहीं,दिल की गहराई तक चली गयी थी,जैसे कि गोदना की स्याही हो,जिसे लाख कोशिश के बावजूद मिटाना सम्भव नहीं होता । पहले तो कुछ घबराहट हुयी- कहीं दर्पण की तरह किसी और ने पहचान लिया तब क्या होगा,क्या जवाब लगायेगी ! मगर चेहरे पर एक गहरी मुस्कान विखर गयी,जिसे होठों के भीतर ही छिपा कर हिरणी की भांति भाग चली दर्पण के सामने से। दर्पण अभी कुछ और कहना चाहता था,मगर वह जानती थी कि यह मसखरा क्या कहेगा...।
दूसरे कमरे की लालटेन बुझा,दरवाजे की सांकल लगा,विस्तर पर आ कर बैठ गयी। किन्तु सोने से पहले एक बार इच्छा हुयी – देख लूँ,बाबू ठीक से सोया तो है न। कारण कि बारबार वह पैर-हांथ झटका कर चादर हटा दिया करता था। किन्तु भीतर जाकर देखने पर चादर बिलकुल ठीक-ठाक पायी,जैसा कि खुद से ओढ़ाकर आयी थी। हां, सोये युवक के होठों ने एक बार इशारा जरुर किया- देख मन्दा ! ठीक से पोंछ ले मेरे निशानों को,कोई देख लेगा तो क्या कहेगा...।
विस्तर पर आकर,पसर गयी मन्दा। बहुत देर तक पड़ी रही,किन्तु निन्दिया तो बैरन बन गयी थी। तरह-तरह की बातें दिलोदिमाग में हलचल मचाये हुए थी। दादी के नथुनों से निकलते तेज खुर्राटे कमरे और वरामदे में मंड़रा रहे थे।
जाने कब उसकी आँखें लग गयी। बाहरी संसार से नाता तो कुछ देर के लिए टूट जाता है, किन्तु मन के भीतर के संग्रहालय में एक छोटा संसार छिपा बैठा उसका काम तो कभी बन्द ही नहीं होता। सपनों ने भी बहुत छेड़छाड़ की  आज मन्दा के साथ।
 सुबह-सबेरे समय पर मन्दा नहा-धो कर तैयार हो गयी। दादी इससे पहले से ही अपना सुबह का काम निपटा,रोजमर्रा के काम में लग गयी थी। एक दिन जंगल जाकर पत्ते काट लाना,और दूसरे दिन उसका पत्तल बिनना,और फिर सप्ताह भर के मिहनत के बाद ढेर सारी पत्तलें लेकर,पास के शनिचर हाट में जाकर बेंच आना। केन्द के मौसम में केन्द के पत्तों का भी अच्छा रोजगार चलता। कभी कभीर कुछ और जंगली चीजों को इकट्ठा कर हाट पहुँचा आती,जिससे कुछ अतिरिक्त कमाई भी हो जाती।
इस प्रकार दादी-पोती का गुज़ारा बड़े मज़े में चल रहा था। इधर बुढ़िया कुछ काट-कपट कर बचाना भी शुरु कर दी थी। सोचती थी— सिर पर जवान पोतिन का बोझ है। कितना हूँ कम हो,फिर भी गंवई इज्जत-हाल के मुताबिक कुछ तो खर्च होगा ही।
मन्दा भी आकर दादी के काम में हाथ बटाने लगी। सुबह दो घंटे दादी के साथ काम करने के बाद खाना बनाने का हर रोज का नियम जैसा था। आज भी उसी तरह पत्तलें बनाती रही,इधर-उधर की बातें भी होती रही- दादी-पोती के बीच।
 ‘ जरा देख तो जाकर। ’ – बुढ़िया ने कहा- ‘बाबू वैसे ही पड़ा है अभी तक? मैं तो सुबह में देखी थी- बुखार जरा भी नहीं था। ’
‘बुखार तो रात में ही उतर गया था दादी,पूरी तरह से।  ’ – कहती मन्दा वरामदे से उठकर भीतर कमरे में आयी,जहां युवक का विस्तर था। दरवाजे पर आते ही चौंक पड़ी-युवक की आँखें खुली थी और आश्चर्य चकित वह इधर-उधर नज़रें घुमाकर देख रहा था।
मन्दा पर निगाह पड़ते ही चौंक उठा-  ‘ ईरीना ! तुम...ये जगह कौन सी है? ’ – घबराहट में उठ कर बैठना चाह,किन्तु उठ न सका।
मन्दा डरती-डरती पास आयी। जी चाहा उठाकर बैठा दे, मगर पुरानी हरकत और फिर दादी की मौज़दगी जानकर ठगी खड़ी रह गयी।
‘ नाराज हो क्या? बोलोगी भी नहीं मुझसे ? हमें छोड़कर तुम चली कहां गयी थी ईरीना ? ’ – एक ही सांस में कई सवाल कर गया। आवाज बिलकुल धीमी थी,जिसे करने में उसे बहुत बल लगाना पड़ रहा था,फिर भी सफल नहीं हो पा रहा था।
‘मैं ईरीना नहीं हूँ। मेरा नाम मन्दाकिनी है।  ’ – मुस्कुरा कर मन्दा ने कहा,जिसकी ऊंची आवाज बुढ़िया के कानों में भी पड़ी।
‘बाबू होश में आ गया क्या रे मन्दा? ’ – पूछती हुई बुढ़िया,खुशी में हड़बड़ा कर बिन लाठी के ही वहां आ पहुँची।
‘ये मेरी दादी है बाबू। ’  – बुढ़िया की ओर इशारा करती मन्दा ने कहा - ‘और तुम्हारा नाम ?
युवक की पलकें मानों झपकना भूल गयी हों। अपलक निहार रही थी सामने खड़ी लड़की को,जिसने खुद को मन्दाकिनी बतलाया था। मगर यह उसे कतयी मन्दाकिनी मानने को राजी नहीं।
‘ ऐसा कैसे हो सकता है ! ’ – युवक होठों में ही बुदबुदाते हुए ,आंखें गड़ाये रखा मन्दा पर, और खुद से बातें करता रहा - ‘ ऐसा तो हो ही नहीं सकता। मेरी आँखें इतनी धोखा कैसे खा सकती हैं ! ये तो ईरीना ही है मेरी। क्या मैं कभी भूल कर सकता हूँ पहचानने में उन गहरी नीली झील सी आँखों को जिसमें दुनिया कोजीत लेने का जादू है...पतले लाल होठ...वसन्ती कोंपलों की तरह,जिन्हें अनगिनत बार चूमा है मेरे इन होठों ने...मदिर सांस की सुगन्ध,जो पल भर में किसी पुरष को पागल करने की सामर्थ्य रखती है...सुराहीदार सजीला गर्दन,जिसमें न जाने कितनी बार लिपटी हैं मेरी ये बाहें...गुलाबी चिकने गाल,जिनपर गुलाब की पंखुड़ी से भी मार दूँ तो शायद लहु निकल आये...न जाने कितनी बार मेरे प्यार की मुहरें पड़ी हैं इन पर...पंक्तिबद्ध मोतियों की कतार सी जो आगे आते आते कुछ छोटी हो गयी हैं- सजीले दुग्ध-धवल दन्त...ठुड्डी में छोटा सा गड्ढा और उसके बगल में बड़ा सा तिल जिसे कितनी बार टोका हूँ- क्या ब्रह्भा को रिश्वत देकर यह तिल बनवा ली थी ईरीना...और इसके साथ ही धत्त! करती सर्पिणी सी बलखाती पतली कमर मटकाती,हिरणी सी कुलांचे मारती रफ़ूचक्कर हो जाती,किन्तु ज्यादा देर टिक न पाती अलग-थगल,और पल भर में ही गोल-गोल सुपुष्ट मांसल बाहों को लता सी लिपटा कर,चूम लिया करती मेरे इन होठों को,और उस समय उभरे उरोजों का जो प्यारा धक्का मेरे सीने पर लगता तो कमजोर दिल भाप के ईंजन की तरह धक-धक करने लग जाता...ओह, उस दिन कितने प्यार से लाला-लाल चूड़ियां और उनमें आगे एक-एक शंख की चूड़ी पहना दिया था इन कोमल नाजुक कलाइयों  में...वही चूड़ियां तो अभी भी इसके हाथों में हैं...सब कुछ - सब कुछ वही है,वैसी ही है रुप-छटा का जादू,फर्क है तो सिर्फ पहरावे का... उस दिन स्कर्ट-गॉन में थी,और आज लहंगा-चोली में...आह! ये बूटीदार लहंगा और वैसी ही चोली...खुले पेट के बीच गहरी नाभी...मांसल नितम्ब...सुडौल टखने...लम्बी-लम्बी पतली-पतली अंगुलिया...घुंघराले बाल...क्या ये सब जीवन भर भूल सकता है....? ’ – भावावेश में आकर तेज आवाज बाहर निकल पड़ी- ‘नहीं,ये सब झूठ है। सच वही है,जो मैं समझ रहा हूँ। ’
नजदीक आकर बुढ़िया ने सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा- ‘तुमने अपना नाम नहीं बतलाया वेटे? तबियत अब ठीक है न?
युवक की अचानक मानों तन्द्रा टूटी। हकलाहट में आवाज कांप रही थी - ‘जी...ऽ...जी आपने मेरा नाम पूछा?
‘ पूछा था मेरी बिटिया ने।’ – मुस्कुराती हुयी बुढ़िया बोली- ‘ मगर अब तो मैं भी पूछ रही हूँ।’
‘ जी...ऽ...जी मुझे मिथुन कहते हैं।- युवक ने धीरे से कहा।
‘और तबियत? ’ – अधूरे जवाब पर बुढ़िया ने फिर पूछा।
 ‘जी ऽ  तबियत तो ठीक ही मालूम पड़ती है,मगर उठने की ताकत नहीं मिल रही है।’ – युवक ने कातर दृष्टि डालते हुए कहा- ‘ क्या आप कृपाकर मुझे उठने में मदद करेंगी?
‘कृपा की कौन सी बात है वेटे,ये तो हमारा करतब है। ’ – विहँस कर बुढ़िया ने कहा ,और मन्दा की ओर देखते हुए बोली - ‘ जरा सहारा दे दे मन्दा वेटी। ’
युवक की निगाहें फिर लड़की की ओर खिंच गयी। दादी के कहने पर,सकपकायी मन्दा आगे बढ़ी। गर्दन के नीचे हाथ लगाकर धीरे-धीरे उठाकर बैठा दी।
चादर हटते ही मिथुन का ध्यान अपनी वायीं वांह पर गया,जहां एक साफ कपड़े की पट्टी  बँधी थी। गौर से उस पर देखा और निचले होठ,ऊपर के दो दांतों से दाब कर,आँखें सिकोड़ कर सोचने लगा,और पिछली बातें धीरे-धीरे दिमाग में आने लगी—कैसे शिकार के लिए निकला...डांक बंगले में आया...गाड़ी छोड़ पैदल जंगल में...हिरण मारा... दरख्त के तने पर चढ़कर नदी पार किया...हिरणों के जोड़े का पीछा करते ऊपर चोटी पर जा पहुँचा...और वहीं अचानक शेर का सामना हुआ...गोली चलायी...बन्दूक गिर गयी...और फिर शायद पिस्तौल निकाला...। आगे की बात लाख सोचने पर भी दिमाग में आ न रही थी। हां, इतना जरुर याद आया कि जांघ में गोली लगन के बाद शेर एक बार जोरों से गरजा था, और उछल पड़ा था...किन्तु वहां जंगल से यहां कैसे आ पहउचा...सोच न सका।
चिन्तित देख बुढ़िया बोली –  ‘ क्या सोच रहे हो वेटे ! चिन्ता न करो । इसे अपना ही घर समझो । ’ – बगल में खड़ी मन्दा की ओर देखते हुए बोली -  ‘ आज तीन दिनों से तुम्हारी सेवा में रात-दिन एक किये है मेरी मन्दा विटिया। ’
मिथुन की निगाहें फिर जा लगी मन्दा पर और मन ही मन भुनभुनाया -  ‘नहीं, ये सब कुछ चालबाजी  है । इतना तो सही है कि मैं शिकार खेलने में घायल हुआ,मगर यह...यह लड़की अपने को मन्दाकिनी कहने वाली...नहीं...नहीं...निश्चित ही यह ईरीना की कोई चाल है...।’
सोचते हुए मिथुन सहसा हांफने लगा। नजरें कभी मन्दा की ओर  जाती ,तो कभी बुढ़िया की ओर,और सोचने लगा-  ‘ मगर मेरी ईरीना तो वहां डोवर झील में नहाने के दिन ही मेरा साथ छोड़ दी थी। कितना ढूढ़ा था पर मिली नहीं...क्या उसने ही मेरे सच्चे प्यार को परखने के लिए यह सब नाटक खड़ा किया है...क्या तबसे अब तक मेरा पीछा करती रही है...नहीं ...नहीं...ऐसा क्योंकर हो सकता है...। ’
‘देखती क्या है रे मन्दा! जल्दी से जाकर दातुन-पानी ले आ। बाबू को मुंह-हाथ धुला। काकू वैद ने कहा था- ठीक रहने पर सुबह चाह पिला देना। जा चल्दी से चाह बना कर ले आ इसके लिए। ’ – बुढ़िया इतने सारे आदेश एक ही सांस में दे डाली,जिसे सुन बलखाती हुयी मन्दा वहां से दूसरे कमरे में चली गयी, तब मिथुन की मानों नींद खुली।
मन्दा भाग कर दातुन-पानी ले आयी। मिथुन का हाथ-मुंह धुलाया। बुढ़िया वहीं बैठी अपनी इकलौती मन्दा का गुणगान  करती रही-  ‘ इसने ही तुम्हें वहां से लाया है वेटे । बड़ी साहसी है। दिन-रात मेरे लिए बेचैन रहा करती है। बड़ा भाग्यवान होगा जिसके घर ये जायेगी रानी बनकर।  ’ – कहते-कहते बुढ़िया के हाथ ऊपर उठ गए -  ‘ भगवान जाने कब...।’
बुढ़िया अभी और कुछ कहती किन्तु मन्दा बीच में ही बोल पड़ी-  ‘ चाय बना लाती हूँ दादी। फिर वैदकाकू के पास भी तो जाना होगा। ’
‘ हां,उन्हें तो बुलाना ही पड़ेगा। तू अपना काम देख,तब तक मैं उन्हें लिवालाती हूँ। ’ – उठ खड़ी होती हुयी बुढ़िया ने कहा।
लाठी टेकती बुढ़िया चली गयी काकू को बुलाने। मन्दा चूल्हा-चौका में लग गयी। इधर मिथुन अकेला बैठा गुथ्थमगुथ्थ होते रहा। उसका मन मन्दाकिनी को मन्दाकिनी मानने को कतयी तैयार नहीं हो रहा था।
थोड़ी देर में मन्दा चाय बना ले आयी।  मिथुन को देने लगी तो उसने इशारा किया विस्तर पर रख देने को। और ज्यूँ ही चाय का प्याला रख वह पलटना चाही,झट हाथ बढ़ा खींच लिया  अपनी ओर-  ‘ये क्या नाटक रच रखी हो ईरीना?
कमजोर मिथुन के वलिष्ठ बाहों से खुद को छुड़ाने का असफल प्रयास करती मन्दा एकबारगी थरथरा उठी। उसके मुंह से घबराहट भरे बोल फूटे-  ‘ बाबू तुम धोखे में हो। सच कहती हूँ मैं तुम्हारी ईरीना नहीं हूँ।’
‘ तो फिर कौन हो तुम? क्यों ले आयी मुझे उठाकर यहां ? क्या नाता है मुझसे तुम्हारा?’ – मिथुन दिखावटी क्रोध में बोला।
‘ इसके अलावे मैं और क्या कह सकती हूँ कि मैं मन्दाकिनी हूँ। रही बात रिश्ते-नाते  और यहां तक ले आने की, तो इन्सान का इन्सान से जो रिश्ता होता है, इन्सानियत का  जो वसूल होता है, उसने ही मजबूर किया मुझे, तुम्हें यहां उठा लाने को।’
मन्दा की कलाई छोड़ दी उसने। मन्दा के इस जवाब का कोई जवाब न था मिथुन के पास, किन्तु इस जवाब ने उसके विश्वास को डगमगा कर धराशायी कर दिया। उसके मन के प्रशान्त महासागर में विचारों की उत्ताल तरंगें उठने लगी।
उठती लहरों ने कुछ विम्बों का सृजन किया। मिथुन ने देखा— सामने दूर-दूर तक फैली अपार जलराशि और पीछे आकाश से बातें करती दानवों की खड़ी अट्टालिकायें और इन दोनों के बीच जल की सहत पर डगमगाता, समुद्र की लहरों पर अठखेलियां करता यूनाइटेड किंगडम का विशाल जहाज जो अभी-अभी बम्बई बन्दरगाह छोड़ने ही वाला है, और साथ ही छोड़ने वाला है मिथुन अपना देश...।
हाँ,अपना देश, जहां अब तक उसका सब कुछ था।  वस्तुतः जीवन सही तरीके से जीने का ही नाम है,मगर सबको जीवन जीने कहां आता है, और अपना दोष दूसरे पर थोप कर जीवन काट भर लेता है प्रायः आदमी। जीवन फूलों का कोई सेज़ नहीं है,कांटों का ताज है। जीवन की गुत्थियां बड़ी जडिल हुआ करती है। बहुत कम ,कुछ भाग्यवान लोग ही इसे सही तरीके से आसानी से सुलझा पाते हैं। वरना अधिकांश तो इससे उब कर पलायनवादी या कहें भाग्यवादी बन जाते हैं, ज्यादातर पलायनवादी ही। कुछ लोग घर छोड़ते हैं। कुछ लोग समाज। कुछ प्रान्त और कुछ देश और कुछ तो इस हरी-भरी मोहक रंगीन दुनिया को ही छोड़ देने में अपनी बहादुरी समझते हैं। कुछ छोड़ने में सफल होते हैं,कुछ असफल भी।
मिथुन भी उन्हीं में से एक है। सुख-सुविधा के विपुल साधन सम्पन्न मिथुन के जीवन में अचानक भूचाल आ गया। सुलझे सुखमय जीवन में एक बहुत बड़ी गांठ पड़ गयी।  और वह गांठ दिनोंदिन उलझती ही गयी। जितना ही सुलझाने का प्रयास किया,उल्टे उलझता ही गया।
गांठ तब पड़ी जब असमय में ही जन्मदात्री माँ अचानक चल बसी। छः वर्ष की छोटी अवस्था और ऊपर से ममतामयी माँ का साया उठ जाना, कितनी कष्टकारक स्थिति होती है। माँ के प्यार का कोई और ही महत्त्व है। लाख प्यार मिल कहीं और से,किन्तु माँ का रिक्त स्थान क्या उससे पूरा हो सकता है कभी ! कभी नहीं।
मिथुन अपने स्कूल से आया था; पिता  अपने दफ्तर से। हालांकि ग्लास फैक्ट्री का काम इधर काफी बढ़ गया था। पहले की अपेक्षा पिता अब ज्यादा समय देने लगे थे फैक्ट्री और दफ्तर में। उनकी व्यस्तता बहुत बढ़ी हुयी थी। किन्तु माँ की रिक्तता संध्या चार बजे उन्हें अवश्य घर खींच लाती थी।
‘मिथुन आया होगा स्कूल से थकामादा,भूखा-प्यासा। मुझे न पाकर उदास हो जायेगा। ’ – प्रायः रोज ही यही घिसा-पिटा वाक्य होता, और सेक्रेटरी नीता लाल लिप्सटिक पुते काले होठों में मुस्कुराहट छिपाये कहती- ‘डॉन्ट वरी बॉस! आप निश्चिन्त होकर जायें। यहां का सारा काम मैं निपटा लूंगी। ’
नौकरानी गरम पानी और प्याले लाकर टेबल पर रख गयी। हॉर्लिक्स बनाते हुये पिता ने कहा- ‘ बहुत तकलीफ होती है न वेटे! सोच रहा हूँ जल्दी ही तुम्हारे लिए नयी माँ ला दूँ। ’
‘ नयी माँ? ’ – मिथुन ने आश्चर्य से पूछा।
‘हाँ वेटे ! नयी माँ,बिलकुल माँ जैसी। वैसे ही प्यार करेगी तुम्हें । ’
और खुशी में झूम उठा मिथुन । जल्दी-जल्दी हॉर्लिक्स का प्याला खाली कर मेज पर रखा,और भागा-भागा बाहर मैदान में खेलने निकल गया। हमजोलियों ने पूछा- ‘आज क्या बात है मिथुन,इतने खुश क्यों नज़र आरहे हो?
‘अरे ! जानते नहीं, मेरी नयी माँ आने वाली है। ’ – कहा मिथुन ने अपने साथियों से।
‘क्या बुद्धुओं जैसी बात करते हो,जो माँ एक बार चली गयी वो वापस कैसे आ सकती है पगले? ’ – साथियों का एक स्वर से जवाब मिला।
‘नहीं कैसे आ सकती है। मेरे पिताजी कह रहे थे कि जल्दी ही नयी माँ ला देंगे मेरे लिए, बिलकुल माँ जैसी प्यार करने वाली । ’
‘ करेगी सो तो पता ही चलेगा। पहले आने तो दो।’ – एक ने कहा - ‘ मेरी भी नयी माँ आयी है न। अपने सो जाती है पापा के कमरे में,हमें आया के पास सुला देती है। रोने पर कहती है- अच्छे बच्चे पापा-मम्मी के पास नहीं सोते। एक दिन बहुत जिद्द किया- आया के पास नहीं सोने जाऊँगा। ’
‘ फिर?
‘फिर क्या,पहले माँ आयी और  फिर पापा। माँ ने गाल में चिकोटी काटते हुए कहा था- बच्चों को इतना शोख बनाना अच्छा नहीं होता। और फिर पापा ने तडातड़ तमाचे लगा दिए। सच कहता हूँ मिथुन इसके पहले पापा ने कभी नहीं मारा था। ’
उसकी आँखें भर आयी थी। सुनकर मिथुन भी डबडबा गया था। खेल के मैदान में जरा भी मन नहीं लगा। चुप गुमसुम एक ओर बैठा सोचता रहा। घर आया,वहां भी चुप। पिता ने लाढ़ से पूछा, ‘ क्यों, उदास क्यों हो? ’  किन्तु कोई जवाब नहीं। एक बार,दो बार, तीसरी बार, फिर चौथी बार फफक कर रो पड़ा, ‘नहीं चाहिए,नहीं चाहिए मुझे नयी माँ। ’
किन्तु इस इन्कलाब का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा पिता के मन की सत्ता पर। और एक दिन सेक्रेटरी नीता मालकिन बन कर आ ही गयी। और यहीं से शुरु हो गया एक नया परिच्छेद।
शुरु में तो काफी लाढ़-प्यार दिखलाया उसने, किन्तु उसके प्यार में माँ की ममता का मिठास और सुगन्ध कभी महसूस नहीं हुआ। व्यवहार कुशल नीता एक व्यावसायिक माँ सी लगी,जो माँ की नाटकीय भूमिका अदा करती रही।
और वह भी तभी तक जब तक कि सुदीप नहीं आया था। अगले साल सुदीप आया, और फिर उसके बाद दीपा।
नयी माँ का खुद का नया हँसता-खेलता संसार बस गया,जहाँ पिता थे,माँ थी,और दो नन्हें-मुन्हें चुनमुन।
पिता के तरफ से प्यार और संरक्षण व्यवस्था में जरा भी त्रुटि न थी; किन्तु सरकार की अनुदानित सामग्री किस मात्रा में आम जनता तक पहुँच पाती है,यह सर्व विदित है। इधर प्याली में सिर्फ चम्मच भर हॉर्लिक्स पड़ता और उधर चार-चार चम्मच। ऑभलटीन और प्रोटीनेक्स से सन्तोष न होता तो दूध के गिलास में भी चम्मच भर घी डाला जाता,ताकि सुदीप जल्दी से जल्दी सयाना हो जाय। यहां तक कि हारमोनिक इन्जेक्शन भी लगवाये जाते।
इधर टायफायड में भी बुढ़उ फैमिली डॉक्टर आते,तो उधर छींकें आने पर भी मेडिकल ऑफिसर से सलाह ली जाती। आंखिर क्यों न आयें,सेक्रेटरी नीता अब मालकिन नीता जो बन चुकी थी। प्यादा से फ़रजी भयो,टेढ़ो टेढ़ो जाय...।
बालक को बड़ा होना ही है,किन्तु वय को खींच कर छः वर्ष आगे कदापि नहीं सरकाया जा सकता ।
लाढ़-दुलार का नतीजा हुआ कि इधर बी.ए. के द्वार पर दस्तक पड़ा,और उधर मैट्रिक में ही दो वर्ष मरजाद...। एक दिन क्रोध में आकर माँ के पद पर आसीन सेक्रेट्री नीता ने कहा था- ‘ अजी सुनते हो ! अब यह सब नहीं चलेगा। सड़े-गले घटिया सरकारी स्कूल में नाम लिखवा,मेरे पेटे का लाइफ एक्सप्व्यॉयल कर रहे हैं आप।  ’
‘ सड़ा-गला स्कूल नहीं,वल्कि सड़ा-गला दिमाग क्यों नहीं कहती। दिमाग तरोताजा रहे तो गदहा भी आदमी बन जाये। यहां तो भैंस का दूध पिला-पिला कर भैंस जैसा ही बुद्धि भी बना डाली हो लल्ले का।’
‘देख ली मैंने तुम्हारी व्यवस्था,तुम्हारा समताभाव । सौत के बेटे को सिर चढ़ाये हो और मेरा बेटा लगता है कुछ है ही नहीं तुम्हारा,मानों मैं उसे कूड़ेदान से उठा लायी हूँ। इसके लिए मुझे कोई दर्द-पीड़ा लगता है हुयी ही नहीं। ’
‘ कौन कहता है कि कूड़ेदान से उठा लायी हो ! तुम्हें तो मैंने विधि-विधान से व्याह कर लाया हूँ। सेक्रेटरी से मालकिन बनाया है और तूने मेरे सूने घर को आबाद किया है।’
‘मगर तुम तो मेरे छोटे से संसार में भूचाल मचाये हो। ’
मालिक-मालकिन की नोंक-झोंक वाली गृहस्थी इसी तरह चलती रही। हर दो दिन पर कुछ-कुछ ऐसे ही मुद्दों पर तू-तू-मैं-मैं होती,और बात वहीं की वहीं रह जाती। हाँ, बहुत जल्दी ही कुछ कठोर कदम ले लिए गये- सुदीप का स्कूल तो वही रहा,पर घर पर ही हर विषय के लिए अलग-अलग ट्यूटर आने लगे,किन्तु ट्यूटरों की क्या हस्ती कि किसी स्टूडेंट को एक्सपेल्ड होने से रोक दे।
ज्वालामुखी एक बार फिर फूटा- ‘तुमने ही मेरे बेटे को एक्सपेल्ड कराया होगा, उड़नदस्तों को पैसा-वैसा देकर भेजा होगा। मैं तो पूरा इन्तज़ाम करवा दी थी,हेडमास्टर को खिला-पिला कर। ’
और पति-पत्नी के इस वाकयुद्ध के पश्चात् या कहें परीक्षा भवन से प्राप्त प्रतिष्ठा के बाद सुदीप हमेशा के लिए पढ़ाई से भी एक्पेल्ड हो कर रह गया। और तब एक दिन पिता को आदेश हुआ नयी मालकिन का - ‘ अब तुम घर बैठ कर आराम करो। वैसे भी रिटायरमेन्ट की उम्र हो गयी।’
‘ और ये लम्बा-चौड़ा कारबार कौन सम्हालेगा? मिथुन अभी पढ़ ही रहा है।’
 ‘ देखती हूँ,लगता है पढ़-लिख कर तो कलक्टर बनेगें तुम्हारे लाडले साहब। ’ – नफरत से मुंह विचकाती कहा था उसने- ‘ देख रही हूँ आजकल की दुनिया में पढ़ाई-लिखाई को कोई खास महत्त्व रह थोड़े जो गया है। एम.ए.,बी.ए. तो घास छील रहे हैं। तभी तो चपरासी बनने की भी होड़ लगी रहती है पढ़ुओं की। मैंने सोच लिया है अपने सुदीप के बारे में। इसी लिए इसकी पढ़ाई बन्द करवा दी। आँखिर ज्यादा पढ़ कर क्या करना है किसी ग्लासफैक्ट्री के मालिक को ? मैंने उसे समझा दिया है कि धीरे-धीरे फैक्ट्री का काम-धाम समझ लो। पिताजी अब बूढ़े हो चले हैं।  ’
‘और मिथुन? ’ – पिता ने दबी ज़ुबान से पूछा। बहुत खुल कर बोलने की हिम्मत कहां होती है ऐसे स्त्रैणों को।
‘क्या मैं उसकी भागीदार हूँ ? इतना ही लाढ़ है तो एक और फैक्ट्री क्यों नहीं लगवा देते उसके लिए। मगर कान खोल कर सुन लो- उसके लिए पूंजी की व्यवस्था इस फैक्ट्री के एकाउन्ट से अधेला भी नहीं होगा। ’
‘ क्यों ? क्या वह कोई नहीं ? उसका कोई भी हक नहीं है मेरी सम्पत्ति में ’ –पिता ने जरा रोस में पूछा।
‘ रहा होगा कभी,किन्तु अब जरा भी नहीं है। ’ – कुचली नागिन सी फुफकारती हुयी नीता ने कहा था।
 ‘ सो क्यों?
‘ क्या यह भी बतलाने की जरुरत पड़ेगी?
‘ हां,क्यों नहीं। इसे भी जान ही लेता तो अच्छा होता।’
‘ फैक्ट्री के मुनाफे का बहुत बड़ा हिस्सा मुझसे छिपा कर तुम उसके नाम जमा करते आ रहे हो,क्या मुझे यह भी नहीं मालूम ?’ – सेक्रेटरी से मालकिन बनी नीता के मुंह से ये सुनते ही साहब की पैरों तले की धरती एकाएक खिसकती सी मालूम पडी।
उधर रणचंडी का प्रलाप जारी रहा-  ‘हालांकि ये सब मुझे पता भी नहीं चलता। मगर उस दिन अचानक एक हिसाब की गड़बड़ी पकड़ ली मैंने और मिसेज माथुर को डांटडपट करने लगी। इसी डांट-फटकार में डरते-डरते उसने बहुत कुछ राज उगल दी। छीः-छीः तुम्हें शरम नहीं आती,आधे केश सफेद हो चले,वदन पर झुर्रियां नजर आरही हैं, और प्यार का खेल खेल रे हो नयी सेक्रेटरी माथुर से- एक शादी-शुदा औरत से,जिसके चार-चार बच्चे हैं। उसकी गृहस्थी में तो तुमने आग लगा ही दी,परन्तु यह भी तो सोचो कि उसका विषैला धुआं अपने घर तक भी आ रहा है। जानते हो उसके हैसबेंड ने छोड़ दिया है उसे। क्यों कि उसे सब पता चल गया है तुम्हारी करतूत...। ’
नीता अभी और कुछ बकती जाती कि पिता बीच में ही दुहायी देने लगे- ‘ राम राम, छीःछीः भगवान के लिए कम से कम ऐसी तोहमत न लगाओ मुझ पर। मेरे साथ बेचारी मिसेज माथुर को भी घसीट रही हो।’ – गिड़गिड़ाते हुए साहब ने कहा- ‘तुझे जो करना है करो। मैं जरा भी न रोकूंगा। कुछ भी विरोध न करुंगा। जानता हूँ कि शुरु से ही तुम अपने मन की रही हो। अपने पैरेन्ट्स के लाख मना करने पर भी तूने मुझसे कोर्ट मैरेज किया। मामूली सेक्रेटरी से मालकिन बन गयी। अब क्या हर सेक्रेटरी को अपनी ही निगाह से देखोगी?
‘ कौन मालकिन और कौन लौड़ी- ये सोचना तो तुम्हारा काम है,मगर देखती हूँ कि तुम धीरे-धीरे सठियाते जा रहे हो,इसीलिए कहती हूँ कि कल से तुम्हारा फैक्ट्री जाना बन्द। कारोबार की व्यवस्था मेरा सुदीप सम्हाल लेगा। मैं उसे गाइड कर दिया करुंगीं।’
और अगले दिन से सच में साहब का फैक्ट्री जाना बन्द हो गया। सारी महत्त्वपूर्ण फाइलें नौकर से घर पर ही मंगवा ली गयी,और मालकिन के आलमीरे में जप्त कर दी गयी। यदा-कदा मां-वेटे किसी समय जाकर फैक्ट्री घूम-टहल आते।
इस अनहोने ने साहब को लगभग तोड़ कर रख दिया। दुनिया जानती है कि ग्लास फैक्ट्री का मालिक देवेश कितना सीधा-सादा इनसान है। बहुत कम उम्र में ही पत्नी ने साथ छोड़ दिया। कंचन के लोभ ने नीता को कामिनी बना दिया। वैसे कामिनी किसी कोन से वह थी नहीं। भोले-भाले देवेश पर धीरे-धीरे डोरे डालने लगी,और त्रियाचरित्र से बेखबर देवेश फंस कर रह गये उस माया जाल में। अपनी प्रतिष्ठा का भय न होता तो शायद ये भी न हो पाता।
उसकी मुराद पूरी हुयी। दो टके की सेक्रेटरी ग्लास फैक्ट्री की मालकिन बन बैठी, जो अब  यह चाहती है कि देवेश बिलकुल अधिकार-च्युत हो जाय,वो भी यूं नहीं,सरेआम नंगा नाच कर।
देवेशबाबू उस दिन से उदास रहने लगे। उनकी व्यावसायिक दुनिया अब रामायण-महाभारत की पुस्तकों तक सिमट कर रह गयी।  फिर भी घर के महाभारत में कोई खास बदलाव न आया।
लोग कहते है कि ताली दोनों हाथ से बजती है। चुटकी बजाने के लिए भी दो अंगुलियां तो चाहिए ही चाहिए। किन्तु  नहीं,कहने वाले शायद भूल जाते हैं कि यह सिद्धान्त सरासर गलत है। स्थिर मेज पर भी हाथ मारने से ताली जैसी ही आवाज निकल सकती है,जो दूर बैठे को भ्रमित नहीं विश्वस्त कर देगी।
देवेश बाबू के घर में भी यही होने लगा। हररोज कोई न कोई कारण लेकर श्रीमती जी का पारा बेबुनियाद चढ़ जाता,और इसका परिणाम शान्त मनश्वी देवेश को ही भोगना पड़ता।
जीवन के सारे लुफ्त धीरे-धीरे समाप्त होते चले गए। मुट्ठी भरे रेत की तरह सभी अधिकार छिनते चले गये। कोई हमदर्दी जतानेवाला भी न रहा।
हाँ,एक थी दीपा- नीता की बेटी,सुदीप की बहन,किन्तु कीचड़ में कमल। उसे स्नेह था पिता के प्रति। निष्ठा थी कर्तव्य के प्रति। वह इस लायक हो चुकी थी कि पहचान सके पिता के दिल के दर्द को,माँ की बेवफाई को,भाई की आवारागर्दी को, परन्तु उसके अधिकार की एक सीमा थी- बहुत संकुचित सीमा,जबकि कर्तव्य का क्षेत्र बहुत व्यापक था।
समय-समय पर माँ और भाई की आँख बचा,पिता के कमरे में आ बैठती,कभी चाय देने के बहाने,तो कभी अंग्रीजी के कोई शब्द पूछने के बहाने...।
हालाकि इसके लिए भी सख़्त हिदायत थी - ‘क्या हर समय उनके पास बैठी रहती हो दीपा! इंगलिश कमजोर है,तो कहो,तुम्हारे लिए एक अच्छा सा ट्यूटर लगवा देती हूँ। वो बुढ़उ क्या बतायेंगे आजकल की अंग्रेजी ? इतना ही आता तो क्या उनका पढ़ाया सुदीप अंग्रेजी में ही हरबार फेल होता! ’ –
मां की डांट बेचारी दीपा को पिता के कमरे से बाहर खींच लाती,मगर प्यार की बाहें इतनी मजबूत और लम्बी होती हैं कि माँ क्या भगवान में भी ताकत नहीं है उससे खींच सकने की। मौका पाते ही दीपा फिर पिता के कमरे में पहुँच जाती। उसे मालूम है कि शान्तिनिकेतन का विद्यार्थी सिर्फ रविन्द्र संगीत ही नहीं गुनगुनाता,वल्कि शेक्सपीयर और मिल्टन की काव्यधारा में भी मछलियों सी तैर सकता है।
इधर यह सब होता रहा,उधर घर की स्थिति को जान कर भी अनजान बना मिथुन कलकत्ता विश्वविद्यालय की डिग्रियां बटोरने में लगा था। पिता का आदेश था- ‘घरेलू उलझन में तुम्हें पड़ने की जरा भी जरुरत नहीं है बेटे। मन लगा कर पढ़ाई करो। जब तक माथे पर पिता का साया है,जितनी हो सके डिग्रियां बटोर लो,योग्यता हासिल कर लो। खर्च की चिन्ता जरा भी न करो। ’ –
पिता का आदेश पालन करता मिथुन अपने धुन में लगा रहा। बी.ए. समाप्त करके एम.ए. में पहुंच गया,और इससे आगे पी.एच.डी.का भी विचार रखता है। जिस विश्वविद्यालय में पढ़ा,उसी में रस-बस जाने का लक्ष्य है।
फलतः घर आने का बहुत कम ही मौका मिल पाता है। पिता कहते हैं- ‘यहां आकर क्या करोगे ? कौन कहें कि तुम्हारी माँ बैठी है घुटने तक आँसू बहाने को। सौतेली मां ने जितना लाढ़ दिया वचपन में,उसे ही सहेजने में जीवन गुज़र जायेगा। रही बात मेरी, तो जब इच्छा होती है,आकर भेट-मुलाकात कर ही जाता हूँ। ’
इस प्रकार समय-समय पर मिलने वाले पिता के पत्रों से,मुलाकातों से घर की स्थिति और पिता की अन्तर्भावना का आभास मिल ही जाया करता , फिर क्या जरुरत थी घर आकर व्यर्थ दिमाग खराब करने की !
किन्तु कई दफा दीपा के पत्रों ने रुला कर रख दिया था मिथुन को- ‘ क्या मेरे भाग्य में यही लिखा है मिथुन भैया कि मेरे बदले डाकिया ही राखी बांधे? इस बार यदि रक्षाबन्धन में नहीं आये तो समझूंगी कि तुम भी मुझसे नाराज रहते हो।
क्या  छोटी बहन के लिए जरा भी दिल में प्यार नहीं है...
? ’ – कुछ ऐसे ही भावनात्मक पत्र हुआ करते थे दीपा के और तुच्छ धागों के सख़्त जोर ने बांध भी लाया था परदेशी भाई को।
‘हुंऽह ,आ गया तुम्हारा सहोदर। बांध जी भर के राखी। ’ – मुंह बिचकाती हुयी मां ने कहा था- ‘उस डायन ने ही जना था इसके साथ तुझे भी। मैं तो तेरी सौतेली हूँ सौतेली। ’
माँ के ताने सुन दीपा तिलमिला उठी थी। अगल-बगल झांक कर देखने लगी थी- कहीं मिथुनभैया सुन तो नहीं लिया माँ की बात। फिर मीठी झिड़की के साथ कहा था दीपा ने - ‘ ये तो दुनिया जानती है कि तूने जना है मुझे। किन्तु सहोदर और सौतेला का लेबुल लगाना क्या तुम्हारी संकुचित विचारों का प्रदर्शन नहीं है ? भले ही माँयें दो हैं दोनों के , किन्तु पिता तो एक ही हैं।’
इतना सुनकर नीता आगबबूला हो उठी थी। दांत पीसती दीपा की ओर दौड़ी और उसके गुलाबी सुकुमार गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद करती हुयी गालियों से शरीर छलनी करदी थी - ‘हाँ-हाँ बाध,खूब बाँध राखी। राखी बाँधती-बाँधती एक दिन गांठ भी बाँध लेना इसी के साथ। निकल पड़ना रे छिलाल उसी को लेकर...मैं जानती होती कि तूँ ऐसी होओगी तो जनमते ही गला दबोच दी होती रे राँड़। ’
गीता का पाठ पूरा हुए वगैर ही देवेश बाबू हड़बड़ा कर उठे,और कमरे से बाहर आ नीता का हाथ झपट कर पकड़ लिया था,जो दूसरा तमाचा जड़ने को अभी-अभी उठा ही था।
‘ छीःछीः नीता ! ये क्या बक रही हो,कोई सुनेगा तो क्या कहेगा! तुम पढ़ी लिखी औरत होकर,अपनी ही औलाद को ऐसी भद्दी-भद्दी गालियां दे रही हो ! क्या यह तुम्हें शोभा देता है! ’ – पति का नसीहत सुन नीता और भी तिलमिला गयी। आवाज और भी ऊँची हो गयी- ‘पढ़ी-लिखी मैं कहां हूँ। अकल मुझे आये कहां से।पढ़ी-लिखी अकल वाली तो मिसेज माथुर है,मिस टीना है,गायत्री है...जाते क्यों नहीं,जाकर उन्हीं का तलवा सहलावो। मेरे तो करम ही फूटे हैं। मेरी अकल मारी गयी थी जो तुम्हारे बहकावे आगयी। तुमसे शादी करली। ’
देवेश का हाथ उमेठ ,अपना हाथ छुड़ा,पांव पटकती नीता अपने कमरे में जाकर पलंग पर धब्ब से गिर कर सिसकने लगी थी- ‘बेटी को सिर चढ़ा रखा है,और उल्टे हमें समझाने चले हैं...। ’
इसी तरह काफी देर तक नीता का स्वगत प्रलाप चलता रहा था। नौकरानी के जरिये सारा हाल मिथुन के कानों तक पहुंच चुका था- कुछ नमक-मिर्च के साथ,और सुबह ही थके तैराक की तरह फेन चाटता वापस लौट चला था- आखिर होनी को कैसे टाला जा सकता है- मन में विचारते हुए।

समय सरकता चला गया सर्प की तरह,कभी इधर तो कभी उदर,कभी तेजी से तो कभी मन्द गति से। माँ की छत्रछाया में सुदीप ग्लास फैक्ट्री का प्रोपराइटर बना दिया गया। फैक्ट्री का नया नामकरण भी कर दिया गया- सुदीप ग्लास वर्क्स, किन्तु वार्षिक मुनाफा देश के मुद्रा-स्फीति के विपरीत ही चला,साथ नहीं। यहाँ तक कि तीसरे वर्ष शून्य पर आ टिका। मैनेजर ने सूचना दी कि यदि यही क्रम रहा तो,अगले दो वर्षों में लालबत्ती दिखा कर,पलायन करना पड़ेगा।
हालाकि तथ्य से मैनेजर साहब भी वाकिफ़ थे। उन्हें पूरे तौर पर पता था कि फैक्ट्री का मुनाफा तो दूर,पूँजी का हिस्सा भी होटल रॉक्सी की पूँजी में बढ़ोत्तरी करने लगा है। शायद ही कोई शाम भूले भटके निकल जाती,जब मालिक और मैनेजर न पहुंचते वहां। सुदीप-ग्लास-वर्क्स के लिए दो सीटे हररोज वहां रिजर्व रहती। कभी कभी तो कमरा भी।
उधर अधिकार-च्युत मिथुन स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त किया। विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाने के उपलक्ष्य में प्राध्यापक वर्ग द्वारा पार्टी का आयोजन हुआ और उसी क्रम में कुलपति महोदय ने सुसंवाद दिया- ‘ कल का सूरज कलकत्ता विश्वविद्यालय को एक नये नौजवान व्याख्याता से साक्षात्कार करायेगा,और वह सम्मानित व्यक्ति होगा हमारा प्रतिभाशाली विद्यार्थी मिथुन। मिथुन से सिर्फ हमारे विश्वविद्यालय को ही नहीं बल्कि पूरे देश को अनेक अपेक्षायें हैं। आशा है सेवाभार ग्रहण करने के बाद मिथुनजी अपना शाधकार्य भी यथाशीघ्र प्रारम्भ कर देंगे,जिससे भारतीय संस्कृति और सभ्यता के सम्यक उत्थान की पूरी उम्मीद है...।’
कुलपति महोदय के भाषण के बाद तालियां गड़गड़ा उठी थी। कैमरे के फ्लैसगन आँखें चौंधियाने लगे थे। बधाइ-संदेशों का तांता सा लग गया था।
संवाद घर तक भी पहुंचा था। दीपा खुशी से पागल हुयी जा रही थी। देवेशबाबू गूंगे की मिठाई की तरह इस खुशी में मन ही मन आनन्दविभोर हो रहे थे। सुदीप को सोचने-समझने का वक्त कहां,वह तो थ्रीएक्स की मस्ती में झूम रहा था खुद ही,फिर किसी और खुशखबरी की गुंजायश ही कहां थी। मगर नीता- उसकी तो दुनिया में भूचाल आ गया था,बड़ा भारी भूकम्प,जो चारो ओर तबाही ही तबाही मचाये हुए था। जमीन-आसमान सब कांप से रहे थे। नीता आवेश में या कहें आवेग में हांफ रही थी। वेडरूम में पलंग पर पड़ी सिसक रही थी। जार-जार रोये जा रही थी,मानों मां-बाप किसी दुर्घटना के शिकार हो गये हों।
कैकेयी ने भरत को राज्य दिलवाने के लोभ में राम को वनवास दिलवा दिया, किन्तु उसका अभागा भरत इतना सामर्थ्यवान ही कहां  था,जो राज लगा सके। वह तो पूरी अवधि राम की खड़ाऊं ही पूजता रहा।
किन्तु आज के कलयुगी भरत को राम का खड़ाऊँ मिले भी तो कहाँ से! वाटा,फ्लेक्स,ऐमबेस्डर आदि पूजना हो तो भले हो सकता है।
मगर ऐसी क्षमता,ऐसा त्याग,ऐसी भ्रातृभक्ति हर भरत में सम्भव है क्या!
वस्तुतः देवेश परिवार के हर सदस्य की अपनी-अपनी अलग दुनिया थी। देवेश बाबू की दुनिया गीता,रामायण और महाभारत  की चन्द पुस्तकों तक ही सिमट कर रह गयी थी सिर्फ एक कमरे में कैद सी। न दोस्त,न समाज , न अर्थ, न लोभ और न काम ही,क्यों कि कामिनी ने इन्हें किसी लायक ही न रहने दिया था। हाँ,पुरुषार्थ का पहला पाया- धर्म अभी दामन से चिपका हुआ था,और संसार से जोड़े रहने के लिए मोह भी जकड़ें हुए था,किन्तु सार्वजनिक मोह नहीं,प्रत्युत एकांगी। वह मोह था - दिवंगत पत्नी की एकमात्र निशानी- मिथुन। हां,मोह के बन्धन में नव-परिणीता नीता की पुत्री दीपा ने भी औपचारिक रुप से बांध ही रखा था।
मिथुन की दुनिया थी तो बहुत बड़ी- उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक,सतह से लेकर पृथ्वी के भीतर भी बहुत दूर तक। किन्तु उसके तत्व मात्र तीन ही रह गये थे- पठन,पाठन और अन्वेषण। समय-समय पर परिवार की खोज-खबर तो ले लिया करता, खास कर पिता और बहन दीपा की।
दीपा की दुनिया रंगीन छतरी तले सजाये गये सुन्दर-सुन्दर खिलौनों की तरह थी, जिसमें सहेलियां थी,एकाध सहेले भी।
और नीता की दुनिया में न तो पति,न बेटा,न बेटी। वैसे कहने को तो सब कुछ है, मगर दौलत के बाद ही। वह सिर्फ इतना ही जानती है कि दौलत दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। इसके बदौलत सब कुछ यानी हर कुछ सम्भव है। यदि दौलत है तो पति तो इतना जल्दी-जल्दी बदला जा सकता है,जितनी जल्दी सिर की टोपियां...। पति का महत्त्व सिर्फ मांग में भरे सिन्दूर नाम के सर्टिफिकेट के अलावे और कुछ नहीं,या कहें समाज की अदालत में विपक्षी की दलील से कभी न टूटने वाला गवाह...रही सन्तान,तो ये वैसे ही है जैसे लकड़ी चीरते वक्त कुन्नी(वुरादा)मुफ्त में ही मिल जाता है चीरने वाले को। सुदीप और दीपा भी ऐसे ही हैं- लकड़ी की कुनाई से ज्यादा अहमियत नहीं है उनकी। दीपा पिता की पक्षधर है,इसलिए भी उसके लिए अधिक परवाह रखना बेवकूफी ही है। फिर भी सुदीप को जरा विशेष समझा जाता है- कुनाई भी जाड़े में जलाने-तापने के काम तो आ ही सकता है। धुंयें की चिन्ता न करे,तो भोजन भी पकाया जा सकता है। मिथुन से तो कोई मतलब ही नहीं है उसे। वह तो उसके आँख की किरकिरी है,निकल ही जाये तो अच्छा है। अन्दर पड़े-पड़े दुःख-संताप ही तो दे सकता है।
सुदीप की दुनिया का क्या कहना- दुनिया का जो भी लुफ़्त है, सब शायद उसके लिए ही बना है। वह तो सम्पूर्ण संसार का अकेला शाहंशाह है,तानाशाह भी कह सकते हैं।
एक दिन मैनेजर मिस्टर खन्ना को आदेश हुआ- ‘ सेक्रेटरी मिसेज माथुर आजकल काम पर ठीक से ध्यान नहीं दे रही हैं,अतः इन्हें कोई दूसरा टेबल दे दिया जाये।’ – जिसे सुन चापलूस मैनेजर खन्ना ने कहा- ‘ क्यों वॉस! काम तो ठीक ही करती है। हां,पहले कुछ-कुछ गड़बड़ किया करती थी,वह भी वड़े मालिक के सह पर।’
‘ यू शटअप मिस्टर खन्ना !  ’ – सुदीप गरजा- ‘ बड़े मालिक,बड़े मालिक क्या रट लगाये रहते हो। मैंने कितनी बार कहा- इस फैक्ट्री का मालिक सिर्फ एक है- सुदीप दे। फिर बड़े मालिक कौन सी चिड़िया का नाम है,जो भजते रहते हो?
‘ शौरी बॉस,गलती हो गयी।’ – खन्ना सिटपिटा गया- ‘ठीक है सर ।  कल से मिसेज माथुर को न हो तो डिस्पैच सेक्शन दिए देता हूँ। ’
‘ हां,बिलकुल ठीक।’ – सुदीप ने सिर हिलाया।
‘ मगर इस वैकेन्ट पोस्ट पर...?
‘ इसके लिए मैंने सोच रखा है...। ’ – आँखे मटकाते सुदीप ने कहा- ‘स्मिता बैनर्जी को तो जानते ही हो। ’
‘यस बॉस! वही न जो आपके मकान के पास...या कि होटल रॉक्शी वाली स्मिता वैनर्जी? ’ – खन्ना के विस्मयात्क प्रश्न का उत्तर देने के वजाय,सुदीप  मुस्कुरा कर गर्दन हिलाया-   कई बार उसके पिता ने कहा था । तुम भी जानते ही हो- आजकल अच्छी नौकरी मिलना कितना मुश्किल हो गया है।
चाटुकार खन्ना ने सिर हिलाते हुए कहा- ‘क्यों न हो बॉस!! पहले सिर्फ मर्द नौकरी ढूढ़ते थे,अब ये  औरतें भी नौकरी चाहने लगी हैं ।’
‘तब कैसी रहेगी? ’ – विचार जानना चाहा था सुदीप ने,जबकि जानता था कि विचारों का यहां कोई अर्थ नहीं है। फिर भी खन्ना ने हामी भरी- ‘सेलेक्शन तो सेन्टपर्सेन्ट सही है सर जी। स्मिता तो टाईपिंग और शार्टहैंड भी जानती है। ’
सुदीप का सेलेक्शन भी क्या कभी गलत हो सकता है,वह भी लड़कियों का। अगले ही दिन एक औपचारिक इन्टरभ्यू हुआ,और स्मिता बनर्जी की बहाली हो गयी ।
किन्तु तीसरे ही महीने फैक्ट्री के कर्मचारियों में कानाफूसी होने लगी,और इसकी भनक मालकिन नीता के कानों में भी पड़ी। सोच ही रही थी कि सयाने बेटे से कैसे निपटे, कि तभी एक दिन स्मिता के पिता आ धमके।
 ‘ खैरियत चाहती हैं नीता जी तो स्मिता को बहु बनाकर,ले आइये,वरना ईंट से ईंट बजा कर रख दूंगा।’ – मिस्टर वनर्जी ने आँखे दिखाकर कहा था- आपके परिवार का तो पुराना रिवाज है- सेक्रेटरी ही बहु बनती है।
नीता सुलग उठी भीतर ही भीतर,किन्तु जुबान न हिला सकी। वह जानती है कि बनर्जी से बैर लेना साधारण बात नहीं है। इसलिए थोड़े नर्मी से बोली- ‘जवानी के दहलीज पर पांव कभी कभी फिसल जाते है बनर्जी मौसाय। मुझे आपकी बेटी से पूरी हमदर्दी है। अमल करुंगी आपकी समस्या पर। ’
‘ समस्या मेरी नहीं है नीताजी। इसे आप अपनी समस्या समझिये। साथ ही ध्यान रहे- अमल-पहल करते,पांच महीने न बीत जायें। ’ – कड़े शब्दों में बनर्जी मोसाय बोले।
‘ तो क्या चौथा महीना बीत रहा है? ’ – नीता ने आश्चर्य से पूछा- ‘ मगर स्मिता तो हमारी फैक्ट्री में मात्र तीन महीने से काम कर रही है।’
‘ तीन हो कि तेरह- ये हिसाब करना आपका काम है। मुझे सिर्फ अन्ज़ाम से मतलब है। वरना इसका परिणाम क्या हो सकता है- आप खुद समझदार हैं।’ – कड़कड़ाते हुए बनर्जी साहब चले गये ये कहते हुए।
नीता को कुछ समझ न आया कि वह क्या करे,क्या रास्ता निकाले,कैसे निपटे इस आसन्न विपदा से। किससे राय ले। पति के कानों में पड़ गयी यदि यह बात तो मामला और भी बिगड़ जायेगा।
चिंचित नीता ने रिसीवर उठाया,और फैक्ट्री का नम्बर डायल किया।
‘ हैलो ! स्मिता बोल रही हूँ। ’ – उधर से आवाज आयी।
‘ सुदीप कहां है? ’ – नीता की कांपती आवाज स्मिता को सुनायी पड़ी।
‘ खन्ना साहब के साथ कहीं बाहर गये हुए हैं। कहिए क्या आदेश है?’ – सेक्रेटरी स्मिता ने पूछा और सांस रोके,अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगी।
‘ सुदीप जैसे ही फैक्ट्री पहुंचे,शीघ्र ही घर आने को बोल दो। ’ – आदेश जारी कर, रिसीवर चट क्रेडल के हवाले कर,नीता अपने पलंग पर आगिरी धप्प से। तरह तरह की बातें उसके दिमाग में चक्कर काट रही थी,और सिर चक्करघिन्नी खा रहा था। कभी सोचती- स्मिता कोई बुरी लड़की नहीं है। अच्छे परिवार की है। पढ़ी-लिखी है। सुन्दर भी है। जवानी के ज्वार में कदम बहक ही गये तो क्या करे...। आखिर इसमें दोषी सिर्फ वही तो नहीं , अपना सुदीप भी तो है। वह भी तो बराबर का  हिस्सेदार है,गुनाह में। सुदीप यदि चाहता ही है उसे, वह चाहती ही है सुदीप को, ऐसी स्थिति में शादी कर देने में हर्ज की क्या हो सकती है । वनर्जी साहब से बैर मोल लेने का मतलब है- अपना सब कुछ बरबाद करना- धन,दौलत,इज्जत,प्रतिष्ठा सबकुछ...।
मगर दूसरी ओर स्मिता का एक और पहलू नजर आया- कहीं स्मिता ने मेरी दौलत के लोभ में पड़कर,यह सब टंटा खड़ा तो नहीं किया है ! मूरख सुदीप उसकी जाल में जा फंसा है बेचारा...।
और यह बात ध्यान में आते ही मानों उसका खून उबाल खाने लगा रगों में। उसके अपने दिन याद आने लगे। अपनी हरकत याद आने लगी, जब पहुँची से पहुँचा पकड़ने वाली कहावत चरितार्थ करती भेले-भाले देवेश उसके एक ही तीर से घायल होकर,पैरों पर लोट पड़ा था,और आजतक उस भोंदूमल की जो हालत है,उसे वह देखती-समझती आ रही है। शादी के बाद कहीं यही स्थिति सुदीप की भी न हो जाये...।
नीता सोचती रही। सिर पर सिलवटें बनती बिगड़ती रही। एक ओर सुदीप के जीवन का सवाल है,अपनी प्रतिष्ठा का सवाल है, तो दूसरी ओर बनर्जी साहब जैसे शिकारी कुत्ते का खौफ। बनर्जी सिर्फ सामाजिक गुण्डा ही नहीं, बल्कि राजनयिकों का पालतू कुत्ता भी है। जो आदमी पल भर में सरकार का तख्ता पलटने की ताकत रखता है,उसे एक अदने से फैक्ट्री मालकिन का तख्ता पलटते कितनी देर लगेगी !
चिन्ता की गहरी खाई में किसी के पदचाप की कंकड़ी पड़ी। सिर उठाकर देखी तो सुदीप पर निगाह पड़ी।
‘ क्यों माँ तबियत तो ठीक है ना? तुमने फोन किया था फैक्ट्री में। ’ – कहते हुए सुदीप बैठ गया बगल में पलंग के एक किनारे।
‘ हां, फोन किया था हमने।’ – उठकर बैठती हुयी नीता की आँखें सुदीप की आँखों में किसी गहरे राज को ढूढ़ने की कोशिश करने लगी। जरा ठहर कर,सुदीप के चेहरे पर गौर करती हुयी फिर पूछी-  ‘ स्मिता ने क्या कहा था तुमसे,और गये कहां थे खन्ना के साथ?
‘ यूं ही चला गया था,खन्ना के कुछ पर्शनल काम से। ’ – कहते हुये सुदीप की आवाज कांप सी गयी। उसकी आवाज बता रही थी कि सफेद झूठ बोल रहा है। तभी अचानक फोन की घंटी घनघना उठी,जिसे आगे बढ़कर सुदीप रिसीवर उठाना ही चाहा कि नीता ने फोन थाम लिया। उधर से आने वाली आवाज किसी औरत की थी।
‘हैलो! ’  –  के बाद उधर से आवाज आयी -  ‘ मैं नीता जी से बात करना चाहती हूँ। ’
‘ कहिये,मैं नीता ही बोल रही हूँ।’
‘ आपके लाडले साहब किसी बड़े यज्ञ की तैयारी में हैं।’
‘ क्या मतलब? ’ – चौंक कर पूछती हुयी नीता पास बैठे सुदीप की ओर देखी।
‘ यज्ञ का नाम है- भ्रूणहत्या यज्ञ। अभी-अभी मैनेजर खन्ना के साथ डॉक्टर नाडकर्णी के यहाँ गये हैं, सलाह-मशविरा करने। ’
सुनकर नीता बौखला उठी। किन्तु स्वयं को थोड़ा सैंयत कर बोली- ‘ आप कौन साहिबा बोल रही हैं?
‘ आपकी एक शुभचिन्तिका। ’ – उधर से आवाज आयी,और इसके साथ ही कनेक्शन कट गया था। नीता को मानों कई विच्छुओं ने एक साथ डंक मारना शुरु कर दिया था। ध्ब्ब से पड़ रही पलंग पर। पायताने की तरफ बैठा सुदीप कुछ घबरा सा गया।
‘ क्या बात है मम! किसका फोन था?
‘ फोन करने वाले ने अपना नाम नहीं बतलाया।’
‘ बात क्या थी?’ – सुदीप जरा आश्चर्य और उत्सुकता पूर्वक  पूछा।
‘ विषय बहुत ही गम्भीर है। कुछ इसी विषय पर बात करने के लिए मैंने तुझे अभी यहां जल्दवाजी में बुलायी भी हूँ।’ – कहती हुयी नीता पुनः उठकर बैठ गयी।
‘ मतलब? कुछ साफ-साफ कहोगी , तब न जान पाऊँगा कि बात क्या है,और इसमें मैं कहां तक तुम्हें सहयोग दे पाऊँगा। ’ – सुदीप जरा संयत होकर बोला। उसे भी कुछ-कुछ आभास हो रहा था क्यों कि आते वक्त स्मिता ने कहा था कि फोन पर मां की आवाज कांप रही थी- घबराहट में या कि गुस्से में कहा नहीं जा सकता।
सुदीप की बात पर नीता गम्भीर होकर बोली- ‘ इधर कई तरह की आफवाहें सुन रही हूँ। मैं ये जानना चाहती हूँ कि इसमें सच्चाई कहां तक है।’
‘ अफ़वाहों को सच्चाई से कोई वास्ता नहीं हुआ करता माँ। तुम तो खुद समझदार हो। कान पर बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए। बहुत बार ये धोखा ही दे जाते हैं।’ – गम्भीर भाव से सुदीप ने कहा।
‘ धोखा तो आँखें भी दे जाती हैं कभी-कभी,किन्तु रस्सी मौजूद होने पर ही,अन्धेरे में सांप का भ्रम हो सकता है। रस्सी की मौजूदगी जरुरी है आँखों को धोखा देने के लिए। अन्यथा...। ’ – नीता अपने उफनते क्रोध को नियंत्रित करती हुयी,कारण वह जानती-समझती थी कि सयाने बेटे से प्यार से जो कुछ राज उगलवाया जा सकता है,क्रोध से कतयी नहीं।
‘ मगर कुछ भी न रहने पर भी,भूत का वहम तो हो ही जाता है न माँ। ’ – सुदीप का सीधा जवाब था।
‘ मगर बात ऐसी बिलकुल नहीं है वेटे। तुम जानते ही हो कि सिर्फ उड़ती अफवाहें और उड़ती धूल पर मैं ध्यान नहीं देती। ’ – नीता ने स्पष्ट कहा।
‘ तो फिर पूछ क्यों रही हो?
‘ इसलिए कि उसके तह में काफी हद तक झांक आयी हूँ।’
‘ जब झांक ही चुकी तो फिर सवाल ही नहीं रह जाता देखने-पूछने-जांचने का।’
‘ देखने का सवाल तो नहीं है,परन्तु पूछने की बात जरुर है।’
‘ तो साफ-साफ पूछती क्यों नहीं ? इतनी भाव-भूमिका की क्या जरुरत?’ – सुदीप अचानक अपना नियंत्रण खोने लगा था।
क्रोध तो नीता को भी आ रहा था,किन्तु उस पर काबू पाती हुयी बोली- ‘स्मिता के साथ तुम्हारा कैसा सम्बन्ध है?
‘ जो सम्बन्ध एक प्रोपराइटर और सेक्रेटरी के साथ होना चाहिए। ’ – इस बात को सुदीप ने मुस्कुराकर कुछ ऐसे अन्दाज़ में कहा कि इसमें छिपे व्यंग्य और दोहरे अर्थ पर नीता तिलमिला उठी।
‘ तुम कहना क्या चाहते हो?’ – नीता के चेहरे पर से गम्भीरी का मुखौटा एकाएक खिसक गया।
‘ स्पष्ट बात, जो सच है।’ – सुदीप का सपाट उत्तर था।
‘ न...ऽ..हीं...ऽ ।’ – नीता चीख उठी- ‘ यह सच नहीं है।’ –
‘ तो सच क्या है? ’ – सुदीप आँखे तरेर कर पूछा।
‘ सच ये है कि स्मिता से तुम मुहब्बत करते हो।’
‘ तो कौन सा गुनाह करता हूँ?
‘ इस उम्र में मुहब्बत करना या हो जाना,कोई गुनाह नहीं है, महर किसी अविवाहित लड़की के पेट में पाप का कीड़ा डाल देना गुनाह जरुर है। और वह इस स्थिति में और बड़ा गुनाहगार है,जब कि ठीक से बालिग भी नहीं हुआ है। समाज और कानून दोनों ओर से गुनाह है। ’
माँ की बात सुन पल भर के लिए सुदीप के चेहरे का रंगत बदल गया, किन्तु शीघ्र ही खुद से संयत करते हुए बोला- ‘ यह सही माँ कि मैं स्मिता से प्यार करता हूँ, किन्तु उसके गर्भ में पल रहा बच्चा मेरा नहीं है।’
‘ ये क्या बकवास है ? तुम उससे मुहब्बत करते हो। वह तुम्हारी दीवानी है,और उसके पेट में पल रहा औलाद किसी और का है- ये कैसे हो सकता है?कहती हुयी नीता सुदीप का मुंह आश्चर्य चकित होकर देखने लगी।
‘ यह सच है माँ। तुम मेरी बात पर यकीन करो।’ – सुदीप ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा।
‘ यदि तुम्हारी बात पर यकीन कर लूँ,तो क्या ये कह सकती हूँ कि स्मिता किसी और से भी प्यार करती है, और फिर ये प्यार हुआ या कि....इस जाल में तुम्हें फंसा कर बलि का बकरा बना रही है?
‘ नहीं माँ, ये बात नहीं है। स्मिता मुझे फंसा नहीं रही है,बल्कि उसे किसी ने फंसा दिया है। प्यार और शादी का झांसा देकर,स्मत-आबरु लूट कर धत्ता बता दिया। ’
‘ ये कैसे हुआ,किसने किया ऐसा?
‘ स्मिता के ख्वाब बहुत बड़े थे माँ। वह फिल्मों में काम करना चाहती थी। उसके इसी चाहत ने ही बरबाद कर दिया उसे। खुद को फिल्मी डाइरेक्टर कहने वाले एक भेड़िये ने हुस्न का नाज़ायज़ फायदा उठाकर,इसे जी भरकर नोचा-खसोटा,और फिर बैरंग वापस लौटा दिया। धक्का खाकर,बेचारी बिलकुल टूट चुकी थी। आत्महत्या करने पर उतारु थी। एक दिन सुवर्णरेखा में कूदने जा रही थी। संयोग कहो कि अचानक मैं वहां पहुंच गया,और समय पर उसकी जान बचाने में सफल हुआ। मैं इसका कारण जानने का बहुत प्रयास किया,किन्तु उसने कुछ साफ-साफ कहा नहीं। सिर्फ इतना ही कि वह जीवन ने निराश हो चुकी है। और जीना नहीं चाहती। विशेष बातें न मुझे उस समय मालूम चली और न बाद में ही,किन्तु हां,वहां से वापस आने पर उसने इतना आग्रह मुझसे जरुर किया कि उसे जीने का कुछ साधन चाहिए- कहीं कोई काम-वाम दिला दूँ मैं तो सदा आभारी रहेगी मेरी। उसके इस प्रस्ताव को मैं सहर्ष स्वीकार कर लिया। कहीं और भेजने की क्या जरुरत,मैंने तुरत उसे अपने यहां रखने का आश्वासन दे दिया...।’ – सुदीप ने स्मिता के विषय में विस्तृत जानकारी दी।
‘ और इस प्रकार जब वह तुम्हारी सेक्रेटरी बन गयी,तो फिर तुम उससे रास रचाने लगे- क्यों यही बात हुयी न ?
नीता के सवालिया निगाह से सुदीप सशंकित नहीं हुआ,बल्कि प्रसन्न होते हुए बोला- ‘ ठीक समझा तूने माँ,बिलकुल ठीक समझा। किन्तु इधर हाल में जब असलियत की जानकारी मुझे किसी तरह मिली तो मुझे बड़ा धक्का लगा।’
‘ फिर क्या सोचा तुमने?’ – नीता पुनः गम्भीर हो गयी।
‘ मैं अभी इस उलझन में हूँ कि क्या करुँ क्या न करुँ। एक ओर मैं उससे सच्ची मुहब्बत करता हूँ,तो दूसरी ओर उसकी नाज़ायज कोख को देख कर नफरत भी होने लगती है। मैं सोच नहीं पा रहा हूँ, खुद को समझा नहीं पा रहा हूँ।’
सुदीप कह ही रहा था कि बीच में ही नीता बोल पड़ी -  ‘ और इसीलिए तुम डॉ.नाडकर्णी के पास गए,ताकि उसके कोख की गन्दगी को बहा सको।’
माँ के मुंह से यह सुनते ही सुदीप मानों आसमान से गिरा। उसका चेहरा एकाएक सफेद पड़ गया।
जरा ठहर कर नीता फिर बोली - ‘ तो क्या मैं ये उम्मीद करुँ कि एवॉर्शन के बाद तुम उसे अपना लोगे?
‘ नहीं माँ,कतयी नहीं। ऐसा कभी नहीं हो सकता। एक चरित्रहीन लड़की से शादी नहीं कर सकता। दुनिया क्या कहेगी?
‘ तो फिर तुम्हारा ये प्यार-व्यार?
‘ इसे एक झूठे सपने की तरह विसार देना चाहता हूँ। मानवता के नाते स्नेह और सहानुभूति जता लिया,किसी की जान बंच गयी-इतना ही काफी है। अपने मन को किसी तरह समझा लूंगा।’ – सुदीप ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
‘ जब ये बात है,तो फिर ये एवोर्शन के चक्कर में क्यों दौड़े फिर रहे हो?’ – नीता ने अगला सवाल दागा।

‘ एवोर्शन तो सिर्फ मानवता के नाते करना चाहता हूँ। एक सुन्दर फूल बेवशी में सूख कर बरबाद न हो जाये,वरन किसी और गमले की शोभा बन सके। ’
क्रमश... 

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