जाम से क्या काम
जाम से क्या काम ! काम तो ज़ाम से है ।
अब कहीं आप मुझ पर ही ये इलज़ाम न
लगा दें । ये मैं नहीं कह रहा हूँ । कहने वाले कोई और हैं । कौन हैं - अब ये भी
हमसे मत पूछिये ।
शहर में रहते हैं, आँख-कान है, तो
मुझे विश्वास है कि विधाता ने दिमाग भी जरुर दिया होगा । वैसे गया शहर के लिए
पुरानी लोकोक्ति तो आपको पता होना ही चाहिए । यहां के पहाड़ बिना पेड़ वाले हैं,
नदी बिना पानी वाली और लोग बिना दिमाग वाले ...। बाईचान्स, यदि उन्हीं में से आप
भी हों तो मुझसे मांगने की तकलीफ भी मत कीजियेगा । वैसे भी अब बहुत थोड़ा ही बचा
है मेरे पास । पहले मेरे पास भी बहुत था, पर अब नाम मात्र का ही रह गया है । जो भी था सब खप गया के.पी.रोड के जाम में । मुझे
आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि शहर वासियों की भी इस दुर्दशा का मुख्य कारण रोड जाम
की समस्या ही रही होगी ।
हालाकि जाम सिर्फ के.पी.रोड में ही
नहीं होता । ये तो हर सड़क की समस्या है । हर शहर की समस्या है । नगर और महानगर की
समस्या है । यहां तक कि पर्यवेक्षकों ने अब जाम के आधार पर ही शहर की गति-प्रगति
का आंकड़ा जुटाना शुरु कर दिया है । जितना अधिक जाम उतना बड़ा शहर । वोट के चक्कर
में नेताओं ने जैसे पहले दलित शब्द पैदा किया, फिर उसके आगे महा शब्द की उपाधि
लगायी, उसी तरह से नगर, महानगर, महामहानगर आदि अनेक उपाधियां हो सकती हैं, भले वो
मूल के आगे लगे या कि पीछे । वृत्त पर आगे पीछे का कोई महत्व थोड़े जो होता है ।
ये दुनिया गोल है, ऊपर से खोल है, भीतर से देखो प्यारे बिलकुल पोलमपोल है... कुछ
ऐसे ही बोल थे न गीत के । एक समय में ये गीत मुझे पूरा का पूरा याद था, पर वो भी
भूल गया के.पी.रोड के जाम में ।
अब तो बाहर निकलने में भी डर लगता
है । पता नहीं कहां कब किस तरह के जाम में फंस जाना पड़े । पांच मिनट का भी काम हो
तो दो-तीन घंटे फालतू समय लेकर निकलना पड़ता है । और इतना ही नहीं कुछ नये-नये
अन्दाज वाले बहाने भी इज़ाद करने पड़ते हैं ।
आप जानते ही हैं कि आजकल की बीबियां
पहले वाली पत्नियां तो रह नहीं गयी हैं । ये टीवी सीरियलों ने उन्हें बहुत होशियार
बना दिया है । किसी तरह जाम से निपट कर हांफते-कांपते घर पहुँचने पर वो शरबत-पानी
पूछने से पहले ये पूछेंगी कि आपका मोबाइल स्विचऑफ या नॉट रीचेबल क्यों बता रहा था ? कहां लगा दिये इतनी देर ? कहीं पुरानी वाली पड़ोसन
तो नहीं मिल गयी मार्केट में...?
और बी.बी.सी. के पत्रकार की तरह वो सब कुछ
दूध का दूध और पानी का पानी करा लेना चाहती है पल भर में ही । उन्हें क्या पता कि
शहर का सुहाग लुटा जा रहा है और आगे भी यही दशा रही तो बहुत जल्दी ही उनका भी
सुहाग लुट जायेगा ।
मुझे तो लगता है कि सड़क पर निकलना
हो तो एक-आध करोड़ का जीवन बीमा जरुर करा लेना चाहिए । इसके कई वजह हैं । पहली वजह
है कि सड़क यात्री को सबसे ज्यादा खतरा है लहरियाकट वाइकरों से । या तो उनके कानों
में किसी हाईफाई ब्रांड का ढक्कन लगा होगा या गर्दन टेढ़ी होती है कुछ इमरजेन्सी
वार्तालाप में । वैसे उनके लिए हर कॉल इमरजेन्सी ही हुआ करता है । ऐसे में चक्का
सड़क के वजाय आपकी टांग पर चढ़ जायें तो इसमें आश्चर्य ही क्या ! वर्तमान चलन के अनुसार पैदल चलने वाले को अधिक सतर्क रहने की जरुरत है, क्यों
कि वाहन चालकों को इस जिम्मेवारी से बिलकुल मुक्त कर दिया गया है लोकतन्त्र में । ऐसे
में दुर्घटना स्वाभाविक है । अतः वीमा जरुर कराइयें । आखिर बेरोजगारी बहुल देश में
इतने वीमा एजेन्ट जो काम कर रहे हैं, उन पर भी तो कुछ रहम कीजिये । दूसरी वजह ये है कि दो-चार लाख से तो कुछ होता-जाता
नहीं । अब भला दो पैसे में मिलने वाली काजल की डिबिया की कीमत 180 रुपये हो सकती
है और उसे खरीदने वालियों की तादात भी कम नहीं है, तो फिर हाथ-पैर टूटने-फूटने पर
इलाज़ के लिए डॉक्टर बेचारा दस-बीस लाख मांगता ही है तो क्या बुराई है ! ये भी सोचना होगा कि सबने रिजर्वकोटा से ही एडमीशन नहीं पाया है और न ‘व्यापम’
से ही । वैसी स्थिति में एक अच्छा डॉक्टर बनने के लिये कितने खर्च आते हैं आप
समझते ही होंगे और नहीं पता हो तो किसी मध्मवर्गीय बाप से पूछ लें । क्यों कि
सामान्य कोटे तो भर जाते हैं नेताओं के ईर्दगिर्द रहने वाले से हीं, जब कि नेताजी
के अपने बेटे भला देशी महाविद्यालयों में क्यों कर नामांकन लेंगे ।
खैर, मैं जरा विषयान्तर हो गया था ।
पत्रकारों की मानें तो पारा 44-48 चढ़ा हुआ है । हालाकि ये थर्मामीटर वाला पारा भी
आजकल कुछ ज्यादा ही चढ़ता है और जाड़े में उतरेगा भी उतनी ही तेजी से । खास कर
खबरिया रेकॉर्ड में, क्यों कि उन्हें तो गिनीज़बुक में जल्दी से नाम दर्ज़ कराना
होता है न । और इन खबरों को पढ़ कर ए.सी. में बैठे लोगों का पारा चढ़ना तो लाज़िमी
है ही ।
ऐसे चढ़े हुए पारे के मौसम में
के.पी.रोड या कि किसी और ही सड़क से आपका वास्ता पड़ गया यदि, तो फिर मरी हुयी
नानी भी याद आ जायेगी । और आप भी अल्लाह़ से दुआ करने लगेंगे कि जल्दी ही हमें भी
बुला ले अपनी पनाह़ में । भले ही ज़हन्नुम भेज देना, क्यों कि वहां के.पी.रोड जैसा
कोई रास्ता तो नहीं होगा न । तुम्हारी यहां वाली ज़न्नत से तो जहन्नुम भला ।
ये ज़न्नत-ज़हन्नुम वाली बात याद
आकर कोई आठ-दस साल पुरानी वाली बात याद आ गयी । शहर में एक नये-नये बड़े साहब आये
हुए थे । एकदम ईमानदारी के असली वाले सांचे में ढले हुए । आते ही शहर की दुर्दशा
देख उन्हें रोना आ गया । आनन-फ़ानन में पूरे महकमें को बुला लिया । एक सीटीराइड वस
की व्यवस्था हुयी । खुद भी सवार हुये, साथ ही मजिस्ट्रेट, वकील, मुन्शी-मोख़तार, यहां
तक कि कैमरा-मैन और पत्रकार भी । पीछे से जेसीबी और खाली ट्रैक्टर पर कुछ मजदूर भी
। वस दौड़ने लगी - समय-असमय शहर की सड़कों पर ।
ऐसे में आमलोग तो ज्यादातर दर्शक-दीर्घा
में ही रहना पसन्द करते हैं , परन्तु दुकानदारों में हड़कंप मंच गया । क्यों कि व्यापारे
वसति लक्ष्मी वाले सिद्धान्त का पालन करते हुए, कोई न कोई व्यापार लेकर सड़क
पर बैठ जाना बिलकुल आम बात है । कुछ न मिले तो एक तोता और कुछ लिफाफे लेकर ही बैठ
जाइये, वोरा विछाकर । भाग्य बंचवाने के लिए कुछ लोग चले ही आयेंगे । क्यों कि
अकर्मण्य लोगों को भाग्य की ज्यादा चिन्ता होती है और संयोग से हमारे देश में ऐसे
लोगों की कमी नहीं है ।
नये साहब की नयी करतूत से त्राहि-त्राहि
मच गया , खासकर फुटपाथी व्यवसायियों में ।
पता नहीं कब किसके नाम कौन सा परवान चढ़ जाये । सामान्य फाइन तो फटाफट लगने
लगा । इतना ही नहीं एफ.आई.आर.से लेकर चार्जशीट तक, यहां तक कि ऑर्डरशीट भी हाथों-हाथ
मिलने लगा - बिलकुल नायक फिल्म के अनिल कपूर वाले अन्दाज़ में ।
ये सब हालात देख कर लगा कि अब असली
वाला रामराज आने ही वाला है, इतने दिनों से तो रावण या कि महिषासुर ही शासन कर रहा
था । अतिक्रमण की संक्रामक बीमारी जो लम्बे समय से शहर को लीले जा रही थी प्लेग की
तरह, वो अचानक गायब होने लगी मानों किसी ‘ ब्रॉडएस्पेक्ट्रम
एन्टीबायोटिक ’ का इज़ाद
हो गया हो । रामराज की कल्पना से ही रोमांच होने लगा था । चोर-उच्चकों, जेबकतरों, जूआबाजों
और रोमियों का क्या कहना, सब के सब सफेद पायजामा और लम्बावाला कुर्ता पहन कर घूमने
लगे थे जुल्फ़ी झाड़कर । किन्तु तोंद वाले सफेशपोशों का ब्लडप्रेशर काफी बढ़ गया
था । इधर खाकी वाले अलग परेशान हो रहे थे नये सिरफिरे साहब से ।
बेचारा नगरनिगम, जैसा कि आप जानते
ही हैं, उसकी भला क्या भूमिका हो सकती है इसमें ! वैसे भी
उसके अधीनस्थों को तो कम पड़ जाते हैं साल के तीन सौ पैंसठ दिन । विधाता ने कुछ और
दिन दिये होते पूरे साल को, तो ये बेचारे अपनी मांगें लेकर सड़कों पर और अधिक समय
दे पाते ।
और जब नगरनिगम ही उदासीनता ब्रांड
कफ़न ओढ़े हुए हो, फिर अन्य प्रशासन को क्या पड़ी है ! खैनी, वीड़ी, सिगरेट से लेकर बाकी के जेब खर्चे भी तो इसी से चलाने होते
हैं । मैडमों के प्यूटीपार्लर का भारी खर्चा अलग से । मंहगाई तो कमर तोड़े हुए है
। अब भला उपरी आमदनी न हो कुछ तो आंखिर सरकारी महकमें में आने से फ़ायदा ही क्या
हुआ ? कभी कभार मीडिया वालों को भी चाय-वाय पिलाना ही पड़ जाता
है, नहीं तो वो अष्टम स्वर आलापने लगेंगे ।
आप जानते ही हैं कि बेरोजगारी शैतान
की आँत की तरह दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है । याद आती है वो भले-चंगे
जमाने की बात जब बिना टिकट सफ़र करते पकड़े जाने की सजा होती थी नशबन्दी । ड्यूटी
से गैरहाज़िर रहने की सजा होती थी नशबन्दी...यानी हर मर्ज़ की एक दवा । किन्तु पुरानी
वाली मैडम के लाख तिगड़म के बावजूद जनसंख्या वृद्धि के रफ्तार में कोई खास कमी
थोड़े जो आयी है । और ये तो बिलकुल तय बात है कि जो बच्चे आज पैदा हुए हैं, आने
वाले समय में बड़े होकर रोजगार खोजने निकलेंगे ही । विकास का जितना शोर है, उसका
चौथाई भी हो जाता तो कल्याण होता । ऐसी स्थिति में बेकारी के मारे, पढ़े-बेपढ़े कुछ
तो झुरमुटों में या नदी किनारे बावन पत्ते खेलने में लग जायेंगे और कुछ
पहाड़ों-जंगलों की ओर रुख करेंगे - पाटी-साटी ज्वायन करके । और उन्हीं में से कुछ थोड़े
लोग सड़क किनारे छकड़ा लगायेंगे । लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शासन-प्रशासन की मदद
मिल ही जानी है । ऐसे में किसी सड़क पर दुकानों के आगे दोनों ओर से दो-चार-छः लेयर
तम्बु या कि छकड़े लग ही जाते हैं तो आश्चर्य क्या ! इतना तो तय
है कि फुटपाथी दुकानदार संघ की सदस्यता ले लेने पर किसकी श़ामत आयी है जो हटा दे
सड़क से ! वैसे भी लोकतन्त्र में चौक, चौराहा, सड़क आदि
सार्वजनिक सम्पत्ति के दायरे में आते हैं और इस पर उसका ही अधिकार होता है जिसके
वो सामने पड़ता है । वो उसे घर-आंगन की तरह इस्तेमाल करे या कि गिल्ली-डंडा खेलने
के लिए या कि छकड़ा लगाने में - प्रशासन कौन होता है टांग अड़ाने वाला ? अब भला बच्चे पैदा हुए हैं तो खेलने-खाने कहां जायेंगे ? बेचारे इन बेरोजगारों पर कुछ तो रहम करना ही होगा न ।
खैर, कुल मिलाकर परिणाम ये हुआ कि
मेरी कल्पना वाला रामराज उसी तरह आज तक नहीं आ पाया जैसे कि रामभक्तों की कल्पना
वाला राममन्दिर । सोचने वाली बात है कि राममन्दिर यदि बन ही जायेगा तो फिर अगली
चुनाव में कोई नया मुद्दा ढूढ़ना पड़ जायेगा न । इसी तरह शहर की सड़कों पर रामराज
उतर जायेगा- ये सारी सड़कें अतिक्रमण-मुक्त हो जायेंगी, तो फिर नगरनिगम के साथ-साथ
खाकी और खादी वालों का ज़ाम का खर्चा कहां से आयेगा ! अब भला अपने वेतन के पैसे से कोई ज़ाम ढ़ालता है ! केवल
वेतन के पैसे पर निर्भर रहने वाले की जिन्दगी तो रोटी-सब्जी या कि दाल-चावल की
जोड़ी सम्भालने में ही चुक जाती है । उसे भला ज़ाम से क्या काम ! ज़ाम से काम हुआ करता है बड़े लोगों का । और बड़ा बना जाता है इधर-उधर
हाथ-पांव मार कर, मुंह-गाल बजाकर , न कि पसीना बहाकर । और ये बात यदि अभी तक नहीं
समझे, तो अब कब समझेंगे ? सठियाने वाली उमर भी साठ ही साल कहा
गया है । अब तो बहुत आगे निकल गए ।
खैर, चिन्ता न करें । जाम जारी रहे
। काम जारी रहे । ज़ाम भी जारी रहे ।
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