कालसर्पयोगःःकारण और निवारणःःभाग छः

गतांश से आगे ....

(११) विषाक्त कालसर्पयोग—  जन्मकुण्डली के पंचम भाव में केतु , तदनुसार एकादश में राहु की स्थिति से बनने वाले योग को विषाक्त कालसर्पयोग कहते हैं । इस स्थिति को नीचे के चित्र से स्पष्ट किया गया है—

 ध्यातव्य है कि केतु शिक्षा और सन्तान भाव में तथा राहु आय भाव में हैं । अतः इस प्रकार के जातक को शिक्षा, सन्तान और आय सम्बन्धी किसी न किसी प्रकार की समस्या झेलनी ही पड़ती है । एक और विशेष बात ऐसे जातकों में ये देखी जाती है कि अपने जन्मस्थान के समीप आजीविका का साधन कदापि नहीं बन पाता, यानी काफी दूर जाना पड़ता है । भले ही आज के जमाने में दूरी कोई महत्त्व नहीं रखती , फिर भी परिवार से दूरी यत्किंचित कारणों से बने रहना कोई नहीं चाहता । इस प्रकार पारिवारिक सुख में बाधा तो आ ही जाती है । सहोदरों से प्रायः विवाद बना रहता है । कोर्ट-कचहरी तक की स्थिति प्रायः बनी रहती है । विशेष करके यदि कोई बड़ा भाई है तो उससे कदापि नहीं पटती । जटिल नेत्ररोग, हृदयरोग, विशेष प्रकार की अनिद्रा आदि मानसिक रोगों का शिकार भी होना पड़ता है । इस प्रकार जातक का शरीर जर्जर और रोगी हो जाता है । सबसे बड़ी बात ये है कि इस योग से पीड़ित जातक की मृत्यु बड़े रहस्यमय ढंग से होती है ।  

(१२) शेषनाग कालसर्पयोग— जन्मकुण्डली के षष्ठम भाव में केतु और द्वादश भाव में राहु की अवस्थिति से बनने वाले योग को शेषनाग कालसर्पयोग के नाम से जाना जाता है । इसे नीचे के चित्र से समझा जा सकता है—
 
ध्यातव्य है कि सिर विहीन पापग्रह केतु रोग-शत्रु भाव में बैठे होते हैं तदनुसार  राहु व्यय भाव में । दोनों की परस्पर दृष्टि संयोग भी सदा बना ही रहता है । परिणाम स्वरुप गुप्त रोग और परोक्ष शत्रु का प्राबल्य प्रायः बना रहता है । द्वादश भाव वायीं आँख का प्रतिनिधित्व करता है । जहां राहु विराजमान हैं । इसके परिणाम स्वरुप आर्थिक असंतुलन तो बना ही रहता है, साथ ही बायीं आँख की शल्यक्रिया जीवन में अवश्य होने की आशंका रहती है, क्यों कि इस पर रोगभावस्थ केतु की पूर्ण दृष्टि का योग होता है । इस योग के जातक प्रायः जीवन भर अपमान और वदनामी या कि गुमनामी की स्थिति में रह सकते हैं । किन्तु हां मृत्यु के पश्चात अचानक कुछ ऐसी स्थिति आती है कि अपयश यश में बदलने लगता है । परन्तु उससे दिवंगत प्राणी को क्या लाभ – क्या वर्षा जब कृषि सुखानी ? अस्तु ।
क्रमशः...

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