लागा चुनरी में दाग


लागा चुनरी में दाग

लागा चुनरी में दाग…’ पंक्तियां एक निर्गुण सन्त की हैं, जिसे समय-समय पर मुहावरे के रुप में भी खूब प्रयोग किया जाता रहा है । ऐसा ही अवसर फिर एक बार लोकतन्त्र के रोचक वर्तमान में आया है- ऐन ऐसे वक्त में जब लोकतन्त्र का महापर्व- सांसदीय चुनाव का माहौल है देश में । लोकतन्त्र के कर्णधारों और तथाकथित मषीहाओं का वारान्यारा बहुत जल्द ही होने वाला है , साथ ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुछ बड़े चेहरे और थोबड़ों को एक्सपोज़ भी होना है बहुत जल्दी ही । फैसला पक्ष में नहीं जाने की आशंका रातों की नींद और दिन का चैन हराम किये हुए है । ऐसे में लोकतन्त्र के रंगमंच पर तरह-तरह के खेल खेले जा रहे हैं । सभी प्रकार की मर्यादायें तारतार हो रहीं हैं । तथाकथित स्वतन्त्रता का पुरजोर उपयोग किया जा रहा है । जो चाहें,जितना चाहें,जब चाहें,जहाँ चाहें,जिसे चाहें अ-सम्मानित करदें, आरोपित करदें । यहां तक कि दूसरे को असम्मानित करने में अपने सम्मान को भी दांव पर लगा दें- स्वतन्त्रता का असली उपयोग तो यही है न ! और साथ ही यह भी कहने से न चूंकें कि लोग असहिष्णु हो गए हैं यानी सहिष्णुता का घनत्व भी घट गया है ।
            अभी हाल में सीबीआई का बखिया उघड़ा था । अब सीजेआई को पोस्टमॉर्टम टेबल पर घसीटा गया है ।
    खबर है कि बीस वर्षों के वेदाग कैरियर और सात महीने के बचे कार्यकाल वाले  हमारे सीजेआई महोदय पर ही कीचड़ उछाला गया है । और इस प्रकार लोकतन्त्र का सर्वाधिक विश्वासपात्र स्तम्भ ही संदेह के घेरे में आ गया है । उनकी ही एक बर्खास्त महिला कर्मचारी ने यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाया है । बर्खास्तगी का एकमात्र कारण – यौन-उत्पीड़न का विरोध...पति और देवर तक को भी बक्शा नहीं गया ।
            आसमान में थूकना और किसी पर कुछ भी आरोप लगा देना बिलकुल आसान बात है, किन्तु...?
 आरोप बेबुनियाद है...सुनियोजित साजिश के तहत ऐसा हुआ है...सीजेआई महोदय ने भी वही कहा, जो प्रायः हर आरोपी कहता है ।
            लकदक-बेदाग चुनरी पर कीचड़ पड़ जाने के बाद कोई क्या करेगा ? क्या कहेगा ?
कुछ न कहना...मौनधारण भी कम खतरनाक थोड़े जो है ।
कोई उसे धोने की कोशिश करेगा तो कोई उसे सूख कर खुद-ब-खुद झड़ जाने का इन्तज़ार...कोई बेशर्म की तरह खींसें भी निपोड़ सकता है...ऐसी परम्परा भी हमारे प्यारे लोकतन्त्र में खूब रही है । हालाकि ये सब आरोपी की निजी स्वतन्त्रता और स्वविवेक की बातें है ।

            किन्तु एक आम आदमी क्या करें- ऐसी खबरों का ?

          अखबार के उस पन्ने को चट फाड़कर बच्चे का पॉटी फेंकने में इस्तेमाल करलेमुंह बिचकाकर अखबार एक ओर सरका दे—कहे जो झूठ-सच हरदम उसे अखबार कहते हैं...के तर्ज पर या कि रीडिंग टेबल पर करीने से सहेज कर उन पंक्तियों पर मगज़पच्ची करने बैठ जाये ?
            पहले दो करतब तो बेमानी हैं...सरासर बेमानी, परन्तु तीसरा भी सबके बस की बात नहीं है ।
            क्या कलयुग—सर्वाधिक भ्रष्ट युग सज-संवर कर हमारे देश में ही डेरा डाल लिया है ?
अनीति, अनेति, झूठ और भ्रष्टाचार की हद हो गयी !
किसी भी खबर या घटना के बाद हम दो धड़ों में सहज ही बंट जाते हैं—अनचाहे भी पक्ष या विपक्ष का दामन थाम लेते हैं । खबरों को चटकारे लेकर चखने लगते हैं । मुंह बिचका कर थू-थू भी करने लगते हैं । बिन सोचे-विचारे कठपुतली की तरह तालियां भी ठोंकने लगते हैं किसी और के इशारे पर ।
हालाकि पर्दे के पीछे जाकर सच्चाई तक पहुँचना सबके बस की बात नहीं है । खबर जुटाने वाले चौथे खम्भे में भी भरपूर घुन लग चुका है । एक ओर सच्चाई को हर कीमत पर उजागर करने वाले जीरोमाइलरिपोर्टरों पर भी आए दिन तरह-तरह के जुल्म ढाये जा रहे हैं- उनकी या उनके परिवारों की निर्मम हत्यायें हो रही हैं, तो दूसरी ओर डिजाइनर पत्रकारों की भी बाढ़ आगयी है । सोशलमीडिया खुराफ़ातियों का सुरक्षित गढ़ बन गया है । यहां पत्रकार बनना सबसे आसान काम हो गया है । सस्ते वा कहें मुफ्त के इन्टरनेट से संवाद-परिवहन को अल्लादीन का चिराग मिल गया है- एक क्लिक में दुनियां समा गयी है ।
हम बहुत ही संक्रामक दौर से गुज़र रहे हैं – ऐटोमिक रेडियेशन से भी खतरनाक दौर में ।
ऐसे में बहुत सूझ-बूझ से काम लेने की जरुरत है । विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र सर्वाधिक चर्चे में है । सर्वाधिक खतरे में भी । भीतर-बाहर, आजू-बाजू गिद्ध-कौये चोंच मारने को उतारु हैं । मूंछ और पूंछ रंग-रंग कर सियार हुआँ-हुआँ कर रहे हैं –आजाओ मेरे बाड़े में...।
ऐसे में हमें जगकर पूरे होशोहवाश में पहरेदारी करनी होगी । खुद को बचाते हुए देश को बचाना होगा । देश ही न रहेगा सुरक्षित तो फिर हम रहे न रहे –क्या मतलब ?
लोकतन्त्र के दुश्मनों - नापाक नेताओं को ठीक से सबक सिखाना होगा । चुनचुन कर दागदार चुनरियों को कलफ़ कर फिर पांच साल के लिए सहेजने के बजाय एकदम फूँ...ऽ...ऽ...कर देना होगा- रहे बांस न बजे बंसुरिया ...।
चलने-बोलने का सऊर नहीं, वो भला लोकतन्त्र क्या चलायेगा—सोचनेवाली बात है । मक्कार तन्त्र भले चला ले ।
राष्ट्र की सेवा वही कर सकता है- जिसे खुद की सेवा का सपना न हो । जिसकी बन्द पलकों में भी सिर्फ और सिर्फ सु-राष्ट्र का सपना हो ।
जन्मजात वा अपेक्षाकृत बेदाग चुनरी वाला ही सही ढंग से लोकतन्त्र सम्भाल सकता है ।  
कहीं फिर पछताना न पड़े— लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊँ कैसे...घर जाऊँ कैसे ....।
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