प्राण-प्रक्रिया और मानव-साङ्कर्य






प्राण-प्रक्रिया और मानव-साङ्कर्य

        हमारे पुराणों में अभिव्यक्ति की अद्भुत परम्परा रही है प्राण-प्रक्रिया के साथ-साथ मनुष्य-चरित का सांकर्य यथेष्ठ स्थानों पर देखा जाता है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि प्रकृति का प्रचुर और विशद रुप से मानवीकरण किया गया है । हम मनुष्य मनुष्य की भाषा और क्रिया-कलापों को ही आसानी से समझ पाते हैं । इससे इतर क्रियाओं को आत्मसात करने में काफी कठिनाई होती है । पति-पत्नी-पुत्र-कलत्रादि मानुषी सम्बन्धों को समझना हमारे लिए अपेक्षाकृत आसान होता है । देवता-देवी (शक्ति-शक्तिमान) आदि को भी इसी रुप में चित्रित किया गया है ताकि गहन सृष्टि-विज्ञान को हम सहजता से समझ सकें ।  वस्तुतः पुराणों की रचना(संकलन)ज्ञानक्षेत्र के पंचमाधिकारियों के लिए ही किया गया है । यानी वेदोपनिषदादि से ब्रह्म और तत्लीलासृष्टि रहस्य पूर्ण स्पष्ट नहीं हो पाया, फलतः पुराणों का संकलन करना पड़ा ।  कथोपकथन की इस परिपाटी को ठीक से हृदयंगम न कर सकने के कारण ही हम प्रायः भ्रमित होते रहते हैं और पुराणकार पर ही आक्षेप कर बैठते हैं । यहां एक छोटे से प्रसंग में कुछ ऐसी ही बातों की चर्चा करते हुए स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है । अस्तु ।

       सृष्टि के मूलाधार सूर्य हैं- सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च...(ऋग्वेद १-११५-१), यत् सर्वे प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषु सन्नधत्ते...(प्रश्नोपनिषद १-६) इत्यादि उद्धरणों से यही स्पष्ट होता है । पुराणों में विविध कथाक्रम में सूर्य की पांच पत्नियां कही गयी हैंप्रभा,संज्ञा,राज्ञी,वडवा और छाया । वस्तुतः ये सब क्रम और काल भेद है । प्रभा से प्रभात हुए । यहां संज्ञा के समतुल्य (हर दृष्टि से समान) होने के कारण छाया को सवर्णा भी कहते हैं । सवर्णा से ही सावर्णीमनु हुये । इनके अतिरिक्त शनैश्चर (छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्...), ताप्ती और विष्टि नामक तीन सन्तानें और उत्पन्न हुयी । उधर संज्ञा से वैवश्वत्मनु, यम और यमुना हुए । वडवा (अश्विनी > घोड़ी) से अश्वस्वरुप में सम्भुक्त होने पर नासत्य और दस्र नामक दो सन्तानें हुयी, जो अश्विनीकुमारों के नाम से सुख्यात हुये । ज्ञातव्य है कि अश्वस्वरुप जनक-जननी के कारण इनका शेष शरीर तो मनुष्य का है, किन्तु मुंख-मंडल घोड़े का है । कालान्तर में आरोग्यधर्मा देववैद्य के रुप में ये प्रतिष्ठित हुए ।

       पौराणिक प्रसंग (वायुपुराण अध्याय २२, मत्स्यपुराण अध्याय ११, पद्मपुराण-सृष्टिखंड अध्याय  ८) इत्यादि में वर्णित कथासार ये है कि त्वष्टा पुत्री संज्ञा सूर्य से व्याही गयी । दीर्घकाल तक तो वो सूर्य के साथ रही, किन्तु बाद में प्रखर सूर्य रश्मियों से व्याकुल होकर स्वयं को अन्तर्हित करने के विचार से अपने ही स्वरुप (सवर्णा) छाया को स्थान देकर, स्वयं सुमेरु प्रान्त में जा छिपी । समयानुसार संज्ञा-सवर्णा छाया से भी सन्तानें उत्पन्न हुयी । छाया अपनी सन्तानों की तुलना में संज्ञा की सन्तानों के प्रति सौतेलेपन का भेद-भाव रखती थी । सूर्य-संज्ञा पुत्र वैवस्वत् द्वारा इस आशय की शिकायत करने पर सूर्य अति कुपित हुये और संज्ञा स्वरुपिणी छाया को प्रताड़ित करके रहस्य ज्ञात किये । रहस्य जान कर वे मूल पत्नी- संज्ञा की खोज में निकल पड़े । संज्ञा अश्विनी रुप में जलमग्न थी, अतः सूर्य ने भी अश्व रुप धारण किया । दीर्घकालोपरान्त प्रेमालाप से समझा-बुझा कर वापस लाया । इसी जल-प्रवासक्रम में अश्विनीकुमारों का जन्म हो चुका था । इस दुर्घटना की सूचना पिता विश्वकर्मा(त्वष्टा) को भी मिली । पुत्री-जामाता के सुदृढ़ सुखमय जीवनयापनार्थ उन्होंने सूर्य के तेज को खरादकर(सुधारकर) किंचित न्यून (सह्य) किया । ध्यातव्य है कि इन्हीं रश्मियों से विभिन्न दिव्य सर्जना के साथ-साथ दिव्य विप्रों का स्रजन भी हुआ, जिन्हें शाकद्वीप में स्थान दिया गया ।

        अब, सूर्य की इस सन्तति (संसृति) परम्परा को वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित करने का प्रयास करते हैं यहां । कथा का प्रतीकात्मक आशय ये है कि सूर्य-मंडल के चारों ओर प्रभा व्याप्त होती है , जो सदा सूर्य के साथ विराजती रहती है सहचारिणी होकर । अतः प्रभा को सूर्य की प्रथम पत्नी कहा गया ।  उस प्रभा के प्रभाव से ही प्रभात होता है, अतः प्रभात को प्रभा का पुत्र कहा गया । सूर्य के अस्ताचल गामी हो जाने पर रात्रि का प्रादुर्भाव होजाता है, हालाकि इसका सम्बन्ध भी परोक्षरुप से सूर्य से ही होता है, अतः रात्रि(राज्ञी)को सूर्य की दूसरी पत्नी कहा गया । प्राणः प्रजानामुदयत्वेष सूर्यः...समस्त प्राणियों में संज्ञा(चेष्टा)सूर्य के कारण ही है । सूर्यपिंड ही सारी सृष्टि में प्राणरुपसे उदित है- व्याप्त है । इस प्रकार संज्ञा सूर्य की सहचारिणी सिद्ध हुयी । त्वष्टा सभी प्राणिरुप देवताओं के भिन्न-भिन्न स्वरुपों के संगठन का हेतु बनता है । विशकलित यानी प्रकीर्णभाव से विखरे हुए सभी प्राण त्वष्टारुप प्राणशक्ति से ही संगठित होकर अपना रुप ग्रहण करते हैं । यही कारण है कि त्वष्टा ही प्राणियों की चेष्टा (संज्ञा) में कारण बना । संज्ञा को त्वष्टापुत्री कहने का यही अभिप्राय है । ध्यातव्य है कि पृथ्वी पर सीधे आने वाले सूर्यरश्मियों को ही प्रभा कहते हैं, जिससे प्राणिमात्र में संज्ञा (चेष्टा) का संचार होता है । यही प्रभा (रश्मि) किसी भित्ति आदि से प्रतिहत (अवरोधित) होकर किंचित तिरछी पड़ती है वही छाया वा सवर्णा नाम से अभिहित है । सीधी किरणों से जो अर्द्धेन्दु बना वो वैवश्वतमनु कहलाया और प्रतिहत(सवर्ण) किरणों से बने अर्द्धेन्दु को सावर्णिमनु कहा गया । यम को सूर्यपुत्र कहा गया है । तात्पर्य ये है कि सभी प्राणियों की आयु सूर्य-सन्निहित है । सूर्यमंडल से प्राप्त होने वाली ऊर्जा(प्राण) किंचित कारणों से विच्छिन्न होजाती है जब, तभी प्राणी की मृत्यु होती है । सूर्य और उससे उत्पन्न होने वाली आयु को परस्पर विच्छिन्न करनेवाली शक्ति का ही नाम है यम । ये यमात्मक शक्ति भी कहीं बाहर से नहीं आती, प्रत्युत सूर्य से ही उत्पन्न होती है, यही कारण है कि यम को सूर्यपुत्र कहा गया है । छाया (सवर्णा) से उत्पन्न शनैश्चर नामक पुत्र की चर्चा है । वस्तुतः सूर्यमंडल में काफी दूरी पर शनि नामक ग्रह है । सूर्य से इतनी दूर कि वहां तक सूर्यरश्मियों का सम्यक् पहुँचना कठिन है । रश्मियां किंचित वक्र होकर ही वहां पहुँच पाती हैं । यही कारण है कि सवर्णा वा छायोत्पन्न माना गया । ब्रह्माण्ड की परिधि पर सुमेरुप्रान्त की बात कही जाती है । 

        व्याकरण और निरुक्त के ज्ञाता इससे अवगत है कि वस्तुतः रश्मि, अश्व, प्राण आदि एक दूसरे के पर्याय हैं । सूर्य-संज्ञा(अश्व-अश्वी)संयोग से अश्विनीकुमारों का जन्म होने का तात्पर्य ये है कि सुदूर सुमेरुप्रान्त में सूर्य किरणें किंचित भिन्न रुप से लक्षित होती है- अश्विनीनक्षत्र की आभा से अद्भुत समागम होता है वहां । वहां का वातावरण अन्य स्थानों की तुलना में अति मनोरम होता है ।

     इन बातों की विशद चर्चा श्री गिरधर शर्मा चतुर्वेदीजी के पुराण-परिशीलन नामक ग्रन्थ में द्रष्टव्य है , जो आधुनिक मतावलम्बियों की आँखें खोलने में पूर्ण समर्थ हैं । महमना मगकुलभूषण श्रीगोपीनाथजी कविराज ने भी सूर्य के रहस्यमय विज्ञान पर काफी कुछ प्रकाश डाला है । स्वामी विशुद्धानन्दजी के सानिध्य में उन्हें इस सावित्री-विद्या का ज्ञान प्राप्त हुआ था । जिज्ञासुओं को उनकी बहुचर्चित पुस्तक भारतीय संस्कृति और साधना  का अध्ययन-मनन अवश्य करना चाहिए । अस्तु ।

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