पितरों का
वर्थ रिजर्वेशन
भास्कर
खास ने एक बड़ी रोचक खबर दी है— मोक्षभूमि गयाधाम में लाने के लिए वाकायदा पितरों
के लिए ट्रेनों में वर्थ रिजर्व कराते हैं लोग । ये परम्परा विशेष कर उड़ीसा,राजस्थान,मध्यप्रदेश
और छत्तीसगढ़ राज्यों में प्रचलित है। सात पोर(गांठ)वाले एक ताजे बांस में एक
नारियल और पितरों के दाह संस्कार वाली जगह
की मिट्टी सफेद कपड़े में बांध कर,आदरपूर्वक स्थापित कर अपने घर में सात दिनों तक
विधिवत श्रीमद्भागवत सप्ताह-यज्ञ का आयोजन करते हैं, फिर उसी स्थापित पितृदण्ड को
आदर सहित ट्रेनों में वर्थ रिजर्व कराकर बाकायदा गयाधाम ले आते हैं और यहां आकर
गयाश्राद्ध करते हैं । रास्ते भर पितृदण्ड की सुरक्षा और आराम का ध्यान भी रखते
हैं- बिलकुल जीवित व्यक्ति की तरह समय पर खाने-सोने आदि का भाव भी निवेदन करते
रहते हैं।
दूसरी
ओर, अभी हाल ही में एक खबर सुनने को मिली कि सरकार तथा प्राइवेट कम्पनियों द्वारा
ई पिण्डदान यानी ऑनलाइन पिण्डदान की व्यवस्था की गयी है।
ज़ाहिर
है कि दुनिया के किसी कोने में रहते हों, आप घर बैठे ही कम्प्यूटर या स्मार्टफोन के जरिये पितरों के मोक्ष वाला
ड्रामा शूट कर सकते हैं । अपने को पितरों के प्रति श्रद्धावान होने का सर्टिफिकेट
ले सकते हैं और उसकी वीडियोग्राफी दिखा कर अपने सर्किल के लोगों को शर्मिंदा भी कर
सकते हैं कि मेरे पास ये पितरों के मोक्षवाली डिग्री भी है और तुम्हारे पास नहीं है । तुम अपने पितरों
के लिए इतना भी नहीं कर सकते और मैं कर गुजरा । बड़ी बात ये है कि इसके लिए आपको
चन्द रुपल्ले खर्च करने पड़े और चन्द क्लिक मात्र से काम हो गया ।
अब
इन दोनों पक्षों(दोनों विचारधारा)पर गम्भीरता से विचार करें तो स्पष्ट हो जायेगा
कि हम कर क्या रहे हैं— हम प्रगति की ओर जा रहे है या पतन की ओर ! हम श्रद्धावान हैं या अन्धविश्वासी ? हम धार्मिक
सोच-विचार और कर्म वाले विवेकशील व्यक्ति हैं या अज्ञानी,मूर्ख,ज़ाहिल और आलसी ?
पहले वाले प्रसंग का सीधा सम्बन्ध हमारी संस्कृति और
परम्परा से है । श्रीमद्भागवत के जानकार भलीभांति जानते हैं कि धुन्धकारी नामक एक
प्रेत के लिए उसके भाई गोकर्ण ने कुछ इसी तरह की विधि का प्रयोग किया था । विधि हू-ब-हू
यही तो नहीं थी, किन्तु
सात पोर वाली वांस को आंगन में स्थापित कर, सप्ताह-यज्ञ जरुर सम्पन्न किया गया था । कथा है कि प्रतिदिन वांस की एक गांठ
फट जाती थी और इस प्रकार सातवें दिन अन्तिम गांठ फट गयी और प्रेत मुक्त होकर
साक्षात स्वर्गारोहण किया गोकर्ण को आशीष देते हुए ।
इसी प्रसंग का अनुकरण कर रहे हैं पितृदण्ड-परम्परा-पालक, किन्तु उनसे थोड़ी चूक हो जा रही है । श्रद्धा तो है, किन्तु थोड़ा अविवेक और
अज्ञान समावेशित हो गया है । आज उन्हें कहूँ भी तो शायद मेरी बात स्वीकार न करें ।
गोकर्ण ने धुन्धकारी की सत्गति के लिए उक्त अनुष्ठान
किया था । किन्तु आज के श्रद्धालुओं द्वारा सात गांठ वाली बांस को उठाकर गयानगरी
में ले आने का क्या तुक ? इसे अन्धश्रद्धा ही कहना चाहिए
। उन्हें इस बात की जानकारी भी नहीं है कि गयाधाम में अन्य स्थानों की तरह पितरों को
ऊँ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्त्वपोऽञ्जलिम्—
मन्त्र बोलकर आवाहित भी नहीं करना पड़ता ,क्यों कि सभी पितरगण इस पुण्यभूमि में
सदा विराजमान रहते हैं और आश लगाये रहते हैं अपने कुल-परिजनों के आगमन का । शास्त्रवचन
है कि ज्यों ही हम गयायात्रा का विचार करते हैं, हमारे पितर प्रसन्न होकर हमारी
प्रतीक्षा करने लगते हैं । वायुतत्व प्रधान पितर-शरीर से कोई बात छिपी नहीं रहती ।
गया पहुंच कर श्राद्ध करते समय हम सिर्फ कुश-तिलादि लेकर हाथ जोड़कर उनका स्वागत
कहते हैं और आसन प्रदान करते हैं । मृत या दाहित स्थान से या अपने घर से उन्हें
किसी प्रतीक के रुप में ढोकर गया लेआने का कोई प्रयोजन ही नहीं है।
खैर,यहां
त्रुटि बहुत छोटी है और क्षम्य भी । विवेकपूर्वक विचार कर लें तो बात साफ हो
जायेगी । गलत परम्परा से हम सहज ही मुक्ति पा जायेंगे । किन्तु खबर के दूसरा वाला
पक्ष तो एकदम हास्यास्पद है और क्षमा के
योग्य भी नहीं है ।
मॉर्डेन
फास्टलाइफ और तकनीकी बहुल युग में हमने क्या पाया और क्या खोया ये अब शायद कहने-बताने
की बात नहीं रह गयी है । बल्कि समझने,अनुभव करने और सिर पीटने वाली बात हो गयी है।
अपने झूठी-दम्भी व्यस्तता को जरा किनारे सरकाकर, शान्त चित्त होकर विचार करेंगे तो
स्वयं समझ आ जायेगा कि आधुनिकता ने हमें सुख का ट्रेलर दिखाकर सिर्फ दुःख ही दुःख
दिया है। अर्थ-प्रधान युग में आदमी ‘ आदमी ’ रह ही नहीं गया है । रोवोर्ट से भी बदतर स्थिति हो गयी है । पैसे के पीछे
भागते, और सुख...और सुख की कामना लिए हम शान्ति से कितना दूर होते जा रहे हैं- बहुत
ही सोचनीय विषय है । जैसे-तैसे कर्म-कुकर्म करके दौलत बटोरने में मूल्यवान जीवन
खपा देते हैं । ये भी नहीं सोचते कि क्या हमें सच में इतनी दौलत की जरुरत है सुख-चैन
से जीने के लिए?
सुख
कहते किसे हैं, परिभाषा क्या है लोगों के पास इसकी?
मृगमरीचिका
वाले सुख की तलाश में, दौलत के दीवाने बच्चों से पितरों को किसी तरह की आश लगाना ही
व्यर्थ है । और वैसे भी कॉन्वेटी बच्चे कितने काबिल और परिजन प्रेमी होते हैं किसी
से छिपा नहीं है । बच्चों को जो संस्कार दे रहे हैं, उसी का परिणाम हम भुगत रहे
हैं । जीवित माता-पिता के लिए जिसके पास
समय नहीं है, वो भला जटिल श्राद्ध-प्रक्रिया के लिए समय कहां से निकाल पायेगा ! वर्चुअल
दुनिया के अभ्यस्त ईमेल, मोबाइलफोन सोशलमीडिया के जरिये जीवन भर हाल-चाल लेकर गुजार
देते हैं, ऐसे में ऑनलाइन पिण्डदान की नयी परम्परा चल निकली तो इसमें आश्चर्य ही
क्या है ! हमारे
पास सोचने-समझने केलिए इतना समय ही कहां है कि पितृ-क्रिया होती क्या है, इसका
रहस्य क्या है, इसकी वैज्ञानिकता क्या है, इसका औचित्य और महत्व क्या है !
खबरें अपने आप में चौंकाने वाली है,
किन्तु दूसरी ओर विचारने को भी विवश करती है । सम्भवतः निस्सीम जगत
में सबकुछ निस्सीम ही है- प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, आस्था, अनास्था, आलस और कुकर्म भी । पितरों के लिए ट्रेन में वर्थ रिजर्व कराना एक
अन्धश्रद्धा है, तो ई-पिण्डदान आलस, अकर्मण्यता और मूर्खता का प्रतीक ।
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