बाजारवाद का अट्टहास

                               बाजारवाद का अट्टहास

          भोंचूशास्त्री आज अजीब ड्रेसकोड में नजर आए । आदतन धोती-कुर्ता वाले शास्त्रीजी आज पायजामा-कुर्ता और कंधे से लटकते हैंडीकैम के नये लुक में बाजार में घूमते मिल गए । उत्सुकतावश मैं लपक कर उनकी ओर बढ़ा । राम-सलाम की नयी चलन— गुडमॉर्निंग-गुडइवनिंग की फॉर्मेलिटी से चुँकि उन्हें सख़्त नफ़रत है, इस कारण सीधे सवाल कर दिया— अरे वाह ! आपने तो अपना गेटअप ही बदल डाला । एकदम कैमरामैन वाले यूनिफॉर्म में आगए। कहीं कोई... ?

            मेरी बात बीच में ही काटते हुए बोले— हाँ गुरु ! दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है, तो कभी-कभी मुझे भी थोड़ा बदलाव लाने का मन कर देता है । हालाकि लोग वदल लेते हैं खुद को और दोष मढ़ देते हैं दुनिया के माथे । अरे, किसी ने कभी कहा आपको कि बदल लो खुद को, भूल जाओ अपनी सभ्यता-संस्कृति, भुला दो अपने वजूद को ? नहीं न । फिर क्यों पागल हुए जा रहे हो- कभी कौआ बनते हो, कभी मोर, कभी बगुला, कभी तोता...अरे, हंस हो ।  हंस रहने में शरम किस बात की? किन्तु अचानक याद आ गयी किसी की कही बातें— हंसा रहा सो मरि गया, सुगना गया पहाड़ , अब हमारे मंत्री भए कौआ और सियार। यही सोचकर आज धोती छोड़, पायजामा पहन लिया । देखता हूँ- इस बाने में वही आदमी लगता हूँ या बहूरुपिया ।

            सो तो ठीक है । मुगलसल्तनत की देन, ये पोशाक अब तो बहुतों को भाने लगी है । पुराने खद्दरधारी भी धोती छोड़ इसी को अपना लिए हैं । ये लदर-फदर धोती से बाहर निकल कर, ऊपर से बंडी डालकर टीक-टीका के साथ पंडित-पुरोहित भी आजकल खूब दिख रहे हैं इसी वेष में । ठेठ लहज़े में कहूँ तो मुझे भी अच्छा ही लगता है । अंग्रेजी हैंट-पैंट से तो लाख दर्जे अपनापन है इस पोशाक में । भारतीयता की थोड़ी-बहुत सुगन्ध मिल जाती है इसमें । वशर्ते कि पायजामा छोटे भाई वाला न हो और कुर्ता बड़े भाई वाला । कम्बिनेशन सही हो तो कोई बुराई नहीं । परन्तु ये कैमरा?

            शास्त्रीजी एकबार कैमरे को बड़े प्यार से टटोले और कहने लगे— झूठ-सच वाली पत्रकारिता रिपोर्ट तो रोज पढ़ता ही हूँ, आज मन किया कि अपनी आँखों से बाजार का मूड देखूँ और कैमरे में कैद करुँ । नोटबन्दी के बाद से ही देश भर में शोर मचा है – घनघोर आर्थिक मन्दी का । विरोधीदल चीख रहे हैं कि ऐसी मन्दी तो कभी आयी ही नहीं । पुराने वाले वित्तमंत्री भी सीकचे से बाहर झांक कर विक्ट्रिम साइन के साथ पत्रकारों को पंजा दिखा रहे हैं, यानी ग्रोथरेट 5% । ऐसे में धनतेरस का क्या होगा !

        अच्छा तो अब समझा- आप धनतेरस का ग्राउण्ड रिपोर्ट लेने निकले हैं ।

         बिलकुल सही समझे । धोती इसलिए नहीं पहना क्यों कि पत्रकारिता बहुत खतरे में है आजकल। कब कौन खदेड़ने लगे, कब कौन मार बैठे- कुछ कहा नहीं जा सकता । पायजामा से भाग-दौड़ में सहूलियत होती है। सबसे बड़ी बात है कि धोती से रुतबा भी थोड़ा कमजोर पड़ जाता है और हैंट-पैंट से मैं समझौता नहीं कर सकता, इसीलिए बीच वाला रास्ता निकाला ।

            तब, कुछ हासिल हुआ बाजार-मूड?  

            क्यों नहीं हासिल होगा । लगता है कि अर्थशास्त्री भी कुछ सठिया गए हैं या डिजानर पत्रकारों की तरह ग्राउण्ड रिपोर्टिंग के बजाय बेडरुम रिपोर्टिंग में ज्यादा विश्वास रखने लगे हैं ।  सोचो जरा— अकेले गया जैसे साधारण शहर में धनतेरस के दिन 125 करोड़ से ऊपर का टर्नओवर हुआ । 50 करोड़ के वाहनों की विक्री हुयी, 20 करोड़ के जेवरात और 10 करोड़ के इलेक्ट्रोनिक प्रोडक्ट बिके । फ्रिज़, कूलर, वाशिंग मशीन की भी जबर्दस्त बिक्री नजर आयी । फाइवर और चाइनाबोन के जमाने में फूल-पीतल के बर्तन भला किसे भाता है ! फिर भी 5 करोड़ का कारोबार वहां भी दर्ज हुआ । इसी हिसाब से पूरे देश का हिसाब लगा लो कि आर्थिक मन्दी कैसी है, गरीबी और बेरोजगारी कैसी है। आगे, दीपावली अभी बाकी ही है। और कौन कहता है कि शहर में जुआरियों की कमी है। एकाध अरब का टर्नओवर वहां भी होना तय है। भले ही वो अण्डरग्राउण्ड हो । किन्तु हमारे यहां ग्राउण्ड-अण्डरग्राउण्ड में ज्यादा फर्क ही कहां है। ये सब इच्छाधारी नाग की तरह है। और  ये डाटाकलेक्टर, रिपोर्टर, अर्थशास्त्री- ये क्यों नहीं कभी बतलाते कि हमारे यहां सबसे बड़ी समस्या है- ‘ have & have not ’ का गैप । ये गैप दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। रुपये दो रुपये की दवा के बिना किसी की जान चली जा रही है, तो दूसरी ओर ऐसे बहुत से लोग हैं जो सांप की केचुली की तरह 10-20 लाख की गाड़ियाँ बदल देते हैं । उनके लिए बनियान बदलना और गाड़ी बदलना एक जैसी घटना है। ऐसे विषधरों से ही देश को असली परेशानी है। किन्तु इसकी चर्चा कोई अर्थशास्त्री ने किया है कभी ? बाजारवाद ने भारतीय संस्कृति के मौलिक अस्तित्व पर प्रहार कर दिया है। चारों ओर इस भयंकर बाजारवाद के अट्टहसों की गूंज सुनाई पड़ रही है, जिसके बीच बाकी सबकुछ दबा कराह रहा है, सुबक रहा है। मुट्ठी भर पूँजीपतियों का ताण्डल झेल रहा है समाज । धरतेरस के नाम पर लूट हो गयी । लोग हँसते-हँसते लुटते गए । देखादेखी का नशा ही ऐसा है। बाजारवादियों (पूँजीपतियों) की  जाल में फंसते गए। कौन भरा, कौन खाली हुआ - दिमाग की खिड़की खोल कर झांक लो, कानों को कुरेद कर साफ कर लो और सुनो— ताण्डव और अट्टहास कितना भारी है भूखमरी और गरीबी पर ।
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